आजादी की मुनादी और वो रात

संजय कृष्ण, रांची
अगस्त का महीना था। 1947 का साल। राजनीतिक वातावरण काफी विषाक्त हो गया था। तरह-तरह की अफवाहें हवा में तैर रही थीं। मेरी उम्र उस समय 18 साल थी। एक रात घर में हम लोग आराम से सोए थे कि पटाखे छूटने लगे। गलियों-सड़कों से होती हुई खबर घर में भी दाखिल हुई, 'पाकिस्तान बन गया।Ó
मुल्तान के पास बहावलपुर स्टेट था। उस स्टेट में एक गांव था कायमपुर। उस गांव के हम वाशिंदे थे। गांव में 85 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की थी और 15 प्रतिशत हम लोगों की।
रातू रोड, कृष्णापुरी गुरुद्वारे में प्लास्टिक की कुर्सी पर अपनी छड़ी के साथ बैठे आपबीती सुनाते ऋषिकेश गिरधर की आंखें रह-रहकर सजल हो उठती हैं। कहते हैं, पाकिस्तान बनने की खबर जैसे ही आई, दंगे शुरू हो गए। इन दंगों में अफवाहों ने बड़ी भूमिका निभाई। 14 अगस्त की रात तो इतनी स्याह थी कि कभी वैसी रात देखी ही नहीं। दंगों की खबरें आती तो पूरा शरीर कांप जाता। लगता, मौत अब सामने खड़ी है। 
किसी तरह गांव के सभी लोग गुरुद्वारे में जमा हो गए। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी। गुरुद्वारे की खिड़कियां और दरवाजों को मजबूती से बंद कर दिया गया। मेरे बहनोई बालकृष्ण दो बजे रात को लालटेन लेकर ऊपर चढ़े देखने के लिए। तभी एक गोली की आवाज सुनाई दी। दंगाइयों ने उन्हें गोली मार दी। वे छत पर ही ढेर हो गए। हम लोग कुल पंद्रह सौ के करीब थे। घरों को लूटने की खबर आई। खेतों को आग के हवाले कर दिया गया। अब सवाल बहू-बेटियों का था। बुजुर्गों ने बड़ा कठोर फैसला लिया...गुरुद्वारे में ही उन्हें आग के हवाले कर दिया जाए ताकि अपने सामने इन्हें बेआबरू होते न देख सकें। इस प्रस्ताव की खबर गुरुद्वारे से बाहर जा पहुंची। भीड़ में मुसलमानों के एक पीर थे अब्दुल्ला शाह। उन्हें इसका पता चला तो खबर भिजवाई, ऐसा मत करिए।
गिरधर की आंखों में आंसू आ गए। आंसू पोछने के बाद फिर बताते हैं, पीर ने खबर भिजवाई अपने डेरे चलने के लिए। अब माहौल ऐसा था कि उनकी बात पर विश्वास किया जाए या नहीं? खैर, अंतत: चांस लिया गया। जितने लोग थे, अपने गहने मुसलमानों को हवाले करते जाते और फिर उनके साथ चल दिए। दस दिन उनके डेरे पर रहा गया। फिर एक दिन पांच सौ के करीब मुसलमान गांवों से पहुंच गए और कहने लगे कि ये मुसलमान बन जाएंगे तो इन्हें छोड़ देंगे। कुछ तैयार भी हो गए, पर ऐसी नौबत ही नहीं आई। वाहे गुरु ने सुन ली। उसी रास्ते से एक अंग्रेज आफिसर जा रहे थे फोर्स के साथ। आगे एक गांव में भारी तबाही मची थी। जब हम लोगों को पता चला तो रास्ते में हम लोगों ने उन्हें रोक लिया। कहानी सुन उनका दिल पसीजा। उन्होंने ऊपर के अधिकारियों से बात की। हमारी गिनती हुई और हमें मिलिट्री वालों को सुपुर्द कर दिया गया। इसके बाद दोनों देश के बीच बातचीत हुई। तय हुआ कि एक ट्रेन पाकिस्तान से जाएगी और एक हिंदुस्तान से। इस तरह 26 सितंबर को वहां से हम लोग ट्रेन से चले और 28 को राजस्थान के बार्डर पर जो अंतिम स्टेशन था, हिंदू मलकोट वहां उतरे। हिंदू मलकोट से पांच मील पहले ही एक दरिया के पुल पर हमें फिर दंगाइयों ने घेर लिया। पर, मिलिट्री के कारण हम सुरक्षित भारत की सीमा में दाखिल हो गए। स्टेशन पर रांची से आए फिरायालाल, जीव लाल, गोपालदास मुंजाल, शिवदयाल छाबड़ा आदि स्वागत के लिए खड़े थे। ये लोग भी हमारे गांव के ही थे, पर व्यापार के सिलसिले में सत्तर-अस्सी साल पहले इनका परिवार यहीं का हो गया था। हिंदू मलकोट से लोग बिखर गए। सौ-डेढ़ सौ लोग रांची आए। मैं, माता-पिता और भाई सभी यहीं आए। चार लोग आए थे और आज चौवन लोग हैं। केंद्र और बिहार की सरकार ने इनलोगों की खूब मदद की। गिरधर बताते हैं कि पीर का पत्र आते रहा कि आप अपना सामान ले जाइए। उनके पास आते समय काफी सोना रख आए थे। पर, फिर वहां जा नहीं सके। कहते हैं, आजादी की वह काली रात आज भी सिहरन पैदा कर जाती है।       

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