बड़े उर्दू अदब नवाज थे समीउल्लाह शफक

हुसैन कच्‍छी

हुसैन कच्छी :  शहर के अतीत इसकी तहजीब की बात हो रही है तो इस वक्त मुझे एक बेहद दिलचस्प शख्सियत समीउल्लाह शफक की याद आ रही है। कुछ साल पहले तक वो हमारे दरम्यान थे। उनको जानने वाले मानेंगे कि उनके चले जाने से एक तहजीब रुखसत हो गई। रांची के मेन रोड पर अंजुमन प्लाजा के बाहरी हिस्से में 'सबरंग बुक्सÓ नाम की एक गुमटी होती थी। अभी भी है, लेकिन अब वहां अला-बला चीजें मिलती हैं। समी साहब के जमाने में यह गुमटी उर्दू नवाजों में ऐसी मशहूरो मकबूल थी जैसे बड़े-बड़े मॉल्स होते हैं। समी साहब इसके मालिक थे जिनकी जिंदगी उर्दू अदब की खिदमत के लिए वक्फ थी, वो किसी खजाने के मालिक नहीं थे, इसके बावजूद सबरंग में उर्दू के आशिकों के लिए बड़ा जखीरा रखते थे। उन दिनों मुल्क भर के जाने माने अखबार, पत्रिकाएं बच्चों के लिए कहानी की किताबें, औरतों के मैगजीन, शेरो-शायरी के संग्रह, नॉवेल, पॉकेट बुक्स के अलावा पढऩे के शौकीनों की फरमाइश पर कोई उम्दा किताब वगैरह वो मंगवाते रहते। उनके दम से सबरंग बुक्स शहर के उर्दू वालों के मिलने-मिलाने की जगह थी। अदीब, शायर, प्रोफेसर, सहाफी और उर्दू के स्टूडेंट्स इस गुमटी को एक दूसरे तक पैगाम रसानी के लिए इस्तेमाल करते और समी साहब उनके पैगाम रसां बनते। ये खिदमत उन्होंने तीस-चालीस साल निभाई, निहायत मासूमियत से। वो जब तक जिंदा रहे न खुद बदले न उनकी गुमटी बदली न उनकी तर्जे जिंदगी में तब्दीली आई। बस इस चाहत के साथ जीते रहे कि उर्दू पढ़ी जाए, उर्दू लिखी जाए, उर्दू बोली जाए। उनके रोजाना के विजिटर्स में ऐसे लोग भी होते थे जो कुछ खरीदते नहीं थे, घंटों सबरंग पर खड़े-खड़े दो तीन अखबार चाट जाते, रिसालों को पढ़ डालते। इस दरम्यान समी साहब कुल्हड़ वाली चाय पिला देते, किसी-किसी को सिगरेट का कश लगवा देते। कुछ तो ऐसे भी होते जो उनसे किताब और रिसाले लेकर घर ले जाते और फिर मुफ्त में पढ़कर उन्हें वापस लौटा देते। ऐसे में समी साहब का न चेहरा बदलता न कोई उनसे यह जानने की जहमत उठाता के समी साहब ये सबआप कैसे कर लेते हैं। वो किसी से शिकायत भी तो नहीं करते थे ना। यह सब दिल की बात है। समी साहब शायर थे, हुलिया ऐसा था कि कोई भी उन्हें देखकर बता सकता था कि वो शायर हैं। उनकी शायराना अजमत पर बेहतर राय कोई बड़ा नक्काद दे सकता है। लेकिन मेरे नजदीक उर्दू के खिदमतगारों में वो एक बुलंद दर्जे के मालिक थे। सिर्फ मुशायरे की भनक मिलते ही उनकी बॉडी लैंग्वेज में जो तब्दीली आ जाती थी वो देखने और महसूस करने लायक होती। मुशायरे वाले दिन का तो खैर कहना ही क्या, शहर का कोई भी शायर इतने शानदार और रिवायती अंदाज से स्टेज पर जलवा अफरोज नहीं होता था। जितनी खुशी समी साहब के रुख पर होती थी साफ-सुथरा कुर्ता पाजामा ऊपर से शेरवानी, साथ में छोटी सी पान की डिबिया और उंगलियों के दरम्यान सिगरेट, गाव तकिए से लगे बैठे हैं और सामने एक चमड़े के थैले में अपनी शायरी का दीवान। इधर उनके नाम का एलान हुआ उधर, मुशायरा सुनने आए लोगों के चेहरे खिल उठे, एक हलचल सी मची और महफिल गुलजार हो गई। समी साहब इसके बाद माइक के सामने खड़े हो जाते, अपना कलाम सुनाने लगते। ज्यादातर मेहमान शायरों की तरफ मुखातिब होकर कलाम सुनाते, ऐसे में यूं महसूस होता कि वो एक दूसरी दुनिया में पहुंंच चुके हैं और समझ रहे हैं कि मजमा उनके कलाम में डूब चुका है। इतना लहक-लहक कर शेर पढ़ते कि उनपर प्यार आ जाता था। बाद में उनसे मुलाकात होती तो पूछिए मत, वो उसी कैफियत में शराबोर नजर आते। इतने सादा दिल अदब नवाज की याद में कोई शाम आयोजित की जानी चाहिए। अंजुमन इसलामिया के साये में इतने साल गुजारने के बाद उनका हक बनता है कि खुद अंजुमन इसका एहतेमाम करे।

हुसैन कच्‍छी हरफन मौला इंसान हैं।  कुछ दिनों तक राजनीति में भी सक्रिय रहे। चुनाव भी लड़े। अब संस्कृतिकर्मी। लिखना-पढऩा और अड्डेबाजी शगल।  रांची में निवास पर परिवार पाकिस्‍तान में।

14 साल में लिखा छउ नृत्य पर ग्रंथ


संजय कृष्ण :  बदरी प्रसाद हिंदी के प्राध्यापक रहे। रांची विवि से 2004 में अवकाश लिया, लेकिन काम 1991 से ही शुरू कर दिया था। छउ के प्रति रुचि के सवाल पर बदरी प्रसाद कहते हैं कि रांची विवि ने परीक्षा के दौरान 1990 में सुपरिटेंडेंट बनाकर सरायकेला भेज दिया था। परीक्षा वगैरह खत्म हो गई लोगों ने इस नृत्य के बारे में बताया। पहले तो कहा, क्या ये सब होता है? फिर चपरासी से पूछा तो उसने बताया और नृत्य गुरु केदारनाथ साहु से मिलवा भी दिया। कागज-कलम लेकर उनके पास गए। एक शरतचंद्र रथ थे, जो कोर्ट में डीड लिखने का काम करते थे। उनके साथ गया और कुछ जानकारी मिली। इसके बाद रांची आ गया। फिर 1991 में जाने का मौका मिला। इसके बाद तो आना-जाना लगा रहा और नृत्य के प्रति रुचि बढ़ती ही गई। रुचि ने भूख को बढ़ा दिया। अब तो उसके बारे में मन बना लिया जानने का। छउ नृत्य के कलाकार वैसे तो किसान या अन्य काम करते थे। कभी कटनी तो कभी गाय-भैंस चराते। बताने वाला परेशान हो जाता। एक बार एक कलाकार से मिला तो कहा, अभी तो गाय चराने जा रहा हूं। आने पर बात करेंगे? हमने कहा, हम भी चलते हैं। इस तरह ऐसे जमीनी कलाकारों के साथ जाता, नृत्य की बारीकियों को समझता। इसके बाद फिर तीन-चार लोगों से क्रास करता। पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद फिर शास्त्रों को खंगालता। फुटनोट से जानकारी लेता। भरत नाट्यम, ओडिसी आदि नृत्य को भी समझता और तुलनात्मक अध्ययन करता। भरत का नाट्य शास्त्र, नंदीकेश्वर का नृत्य देखा। भरत ने अपने ग्रंथ में 104 नृत्य कर्म की चर्चा की है। 
छउ मूक नृत्य है। इसमें कोई संवाद नहीं। पर भावनाएं झलकती हैं। प्रेम, विरह, करुणा सब कुछ। हर छोटी-बड़ी जानकारी गांव-गांव जाकर लिया। रात-रातभर जागकर नृत्य देखा। पद संचालन से लेकर हस्ताभिनय आदि को देखा-परखा-समझा। छउ की तीन शैलियां है। पुरुलिया, पं बंगाल, मयूरभंज ओडि़सा और सरायकेला झारखंड। सरायकेला ही इसका जन्म स्थान है। यहीं से यह फैला। पुरुलिया ने अपने प्रयोग किए। इसलिए तीनों अलग-अलग नाम से जाने गए। तीनों प्रदेशों की खाक छानी। पुरुलिया में चड़ीदा जगह है, वहां ही इसका केंद्र है। यहां 84 घर उन लोगों के हैं, जो नृत्य में उपयोग होने वाले मुखौटे बनाते हैं। इनकी पूरी आजीविका इसी से चलती है। इसी तरह सरायकेला में भी।
छउ आज भी लोकनृत्य ही है। इसे गांधी ने देखा। टैगोर ने देखा। इन सबकी दुर्लभ तस्वीर ग्रंथ में है। वे कहते हैं, लोक महासागर है, जो चीजें यहां हैं, जो रत्न यहां हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि उनका परिश्रम सफल रहा। पर, इस बात से थोड़ा परेशान भी दिखे कि पुस्तक की पांडुलिपि 20 फरवरी, 2003 को ही अकादमी को भेज दिया था लेकिन छपत-छपते दस साल लग गए। कुछ महीने पहले यह छपकर आई है। इस बात का जरूर कोफ्त है कि डा. सिद्धनाथ कुमार जी व डा. दिनेश्वर प्रसाद जी इस कृति को नहीं देख सके। बहरहाल, वे इसका अंग्रेजी में भी खुद ही अनुवाद कर चुके हैं। पांडुलिपि तैयार हो गई है। उसे भी संगीत नाटक अकादमी को भेजने की तैयारी कर चुके हैं। वैसे, नागपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा के तुलनात्मक अध्ययन की पांडुलिपि भी तैयार है। 

चौदह साल के अथक परिश्रम, अनवरत शोध और सैकड़ों लोगों से बातचीत के बाद बदरी प्रसाद की दो खंडों में 'भारतीय छउ नृत्य : इतिहास, संस्कृति और कलाÓ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ने किया है। अब तक किसी लोक नृत्य पर यह अद्भुत काम है। लोक ही नहीं, संभवत: शास्त्रीय नृत्य पर ऐसा काम किसी का नहीं देखने को मिला है। सैकड़ों दुर्लभ चित्रों से सजी यह पुस्तक उनके जुनून और कुछ बेहतर करने का प्रतिफल है। खुद इसके लेखन में वे एक लाख रुपये अपना खर्च कर चुके हैं।