उठीं भक्ति की अगम तरंगे

संजय कृष्ण
माघी पूर्णिमा पर किले से झांकता चौदहवीं का चांद अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है और इधर, सूर्य की लालिमा से संगम तट सिंदूरी हो रहा है। सात घोड़ों पर सवार भुवन भास्कर को प्रणाम करते हुए लााों हाथ ऊपर उठे हुए हैं...बासंती बयार में गूंज रहा है ऊं आदित्य नम: ऊं सूर्याय नम: ऊं ाास्कराय नम:...मंत्र के साथ हे सूरुजदेव, हे गंगा मैया का तार सप्तक स्वर...। कहीं गायत्री मंत्र की गूंज तो कहीं पं जगन्नाथ की गंगा लहरी के पुण्य श्लोक...। भक्ति के गाढ़े होते रस में मेरा सिर भी श्रद्धा से झुक जाता है। संगम की ओर निहारता हूं। पूरा तट श्रद्धालुओं से भरा हुआ। तील रखने की जगह नहीं। जिधर देखिए, उधर केवल सिर...। संगम पर भक्ति की अगम तरंगे उठ रही हैं।
गंगा के मटमैले जल में लोग उतरते हैं, आस-पास जल में तैर रहे पुष्पों, नारियल, दीपों को अपने दोनों हाथों से चारों ओर ठेलते हैं और इसके बाद डुबकी लगा लेते हैं। उन्हें इसकी कतई परवाह नहीं कि गंगा मैली है कि गंगा के किनारे कचरों का अंबार है...श्रद्धा की अविरल धारा उनके भीतर बह रही है। गूंज रही है सनातन परंपरा की आदिम लय। इस लय में में समाया है सृष्टि चक्र... 
 इस बीच लाउडस्पीकर की वाचालता और मुखर होने लगती है... बिछड़े लोगों की सूचनाएं प्रसारित हो रही हैं...कोई सीधे माइक पर पुकारता है, हम इहां हैं, चली आव....कोई ओडि़सा का रहने वाला अपने बिछड़े साथी को पुकार रहा है....। तट पर पुलिस वाले भी सुरक्षा में मुस्तैद हैं। घोड़े पर सवार पुलिस भी अपार जनसमूह के बीच से रास्ता बनाते हुए आती-जाती है। इस बेफ्रिकी के साथ कि उसके आने-जाने से स्नानार्थियों की लय में विघ्न पड़ता है।
  रेती पर भीड़ एकदम शांत। अनुशासित। इन्हें देखकर मार्क ट्वेन की पंक्तियां याद आने लगती हैं। मार्क 1895 के कुंभ में प्रयाग आए थे। उस समय यहां की अनुशासित भीड़ को देखकर आश्चर्य में पड़ गए थे। वैसे ही जैसे स्वीटजरलैंड से आए फोटोग्राफर एंड्रीप ब्लो इस महाकुंभ को देख हतप्रभ रह जाते हैं। पिछले तीन दिनों से वे कुंभ की तस्वीरें उतार रहे हैंं। भारत उन्हें इतना रास आया है कि वे चौथी बार यहां आए हैं। कुंभ की जानकारी मिली तो भागे-भागे आए। कुंभ में आई भीड़ को देख कहते हैं कि यहां इतने लोग धर्म पर विश्वास करते हैं। तंबुओं के इस शहर को देख कहते हैं कि 'मेरे लिए यह आश्चर्य है कि यहां एक शहर सिर्फ दो महीने के लिए बसता है।Ó
 अंजलि के जल में सूर्य की रश्मियां दिख रही हैं। दिख रहा है जन प्रवाह...पटना, बेगूसराय, पलामू, लातेहार, गोरखपुर, रींवा, सतना...हैदराबाद, ओड़ीसा, धार...न जाने कहां-कहां से, किस-किस कोने से यहां माघी पूर्णिमा पर गंगा मैया का आशीष लेने आए हैं। संगम की ओर बढ़ते लोगों के बीच एक लोकगीत उठने लगता है। उसकी भाषा समझ में नहीं आती है। धीरे-धीरे शब्दों को पकडऩे की कोशिश करता हूं, लेकिन नाकाम....ये यात्री धोती-कुर्ता पहने थे। माथे पर प्लास्टिक का छोटा सा बोरा...पहनावे से अनुमान लगाया कि ये अपने ही आस-पास के होंगे। पर लोकगीत ने रास्ता बदल दिया...पूछने पर बताया, सतना जिले से आए हैं। भाषा अलग, बोली अलग, पहनावा अलग....थोड़ा ठहरकर सोचता हूं...आखिर वह कौन सी कड़ी है, जो पूरे देश से यहां लोगों को खींच लाई है...तर्क मत करिए...हजार-हजार किमी की कठिन यात्राएं, खुले आकाश में रैन बिताने के पीछे क्या कोरी श्रद्धा है या कुछ और...। संगम पर पूरा भारत दिखाई देता है। चिरंतन भारत, अप्रतिम भारत, शाश्वत भारत...। यहां से ध्यान हटता है कि 'महाकुभ्ंाÓ से अमृत की बूंदें छलकने लगती हैं। तैरती आस्थाओं में विश्वास डूबकी लगाने लगता है। प्रश्न-प्रतिप्रश्न सब कुछ लहरों में तिरोहित होने लगता है। अमृत मुहूर्त में मैं तीन डुबकी लगा लेता हूं। आस्था, विश्वास, करुणा और श्रद्धा के अनगिनत दिए गंगा में तैरने लगते हैं। धीरे-धीरे भीड़ को चीरते हुए मैं अपने गंतव्य की ओर बढ़ता हूं, उधर, भक्तों का रेला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा...लाखों कदम संगम की ओर बढ़ते जा रहे हैं...सूर्य धीरे-धीरे तीाा होता जा रहा है...।