पहाड़ों का मौन आमंत्रण

झारखंड के पहाड़ों, पठारों, झरनों, नदियों के पास हजारों साल की अनमोल कहानियां हैं। इन कहानियों का एक सिरा पाषाण काल तक जाता है तो दूसरा सिरा आज के वर्तमान तक फैला हुआ है। इन दोनों के बीच हजारों साल का फासला है। इन फासलों से जब होकर गुजरेंगे तो झारखंड का एक दूसरा ही चेहरा दिखेगा, जिसे आज तक पढ़ने की कोशिश मुख्यधारा के इतिहासकारों ने कतई नहीं की है। जैसे प्राचीन काल में लोगों के लिए यह प्रदेश गूढ़ रहा, वैसे ही आज के इतिहासकारों के लिए भी यह प्रदेश सिर्फ झाड़-झंखाड़ तक ही सीमित रहा है। राज्य का विकास कितना हुआ, कैसे हुआ, यह हम सब जानते हैं।

देश को यहां का लोहा चाहिए, खनिज चाहिए, अभ्रक चाहिए, पत्थर चाहिए, कोयला चाहिए बिजली पैदा करने के लिए, लेकिन यहां का विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। यहां के कोयले से देश रोशन होता है और अपना झारखंड अंधेरे में? 12 साल के झारखंड में भी यहां के शासनकर्ताओं ने विकास की कोई बड़ी लकीर नहीं खींची। फिर भी झारखंड चल रहा है, जैसे देश चल रहा है। चलना इसकी नियति है। ऐसा इसलिए कि इसकी संस्कृति और समाज बेहद गतिशील है। इनमें बड़ी भूमिका आदिवासी-सदान समाज की है। इनकी परंपराएं और पर्व इन्हें एक सूत्रा में बांधती और पिरोती हैं और निरंतर चलने की प्रेरणा देती हैं। ये परंपराएं ही सामूहिक चेतना का निर्माण करती हैं। सामूहिकता इनके जीवन का केंद्रीय राग है। यहां कुछ भी निजी नहीं। न गोपन है। न रहस्य भरा। सब कुछ खुला और मिल-बांटकर खाने-रहने, पहनने का जीवंत सामाजिक दर्शन। हालांकि आधुनिकता यहां भी धीरे-धीरे पांव पसार रही है, जिसके कारण अखरा संकुचित और सिकुड़ रहा है। संस्कृति के ध्वंस का खेल भी जारी है। संस्कृति बिखरी तो समाज बिखरने में देर नहीं लगता। ये बाहरी तबका जानता है। संस्कृति ही वह धागा है, जो सबको एक सूत्रा में पिरोती है।

यह पुस्तक इसी दिशा में एक छोटी सी पहल है। हम अपने अनमोल विरासत को जाने, समझे और बचाएं।

झारखंड में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्थलों की भरमार है। पर पुरातात्विक और ऐतिहासिक दृष्टि से झारखंड में जो काम होना चाहिए, वह 12 सालों में न के बराबर हुआ है। जो हुआ है, वह मानवविज्ञान के क्षेत्रा में। अब तो मानवविज्ञान भी कुंद पड़ गया है।

झारखंड इस माने में भी महत्वपूर्ण है कि यहां पर धर्म-धार्मिकता के प्राचीन अवशेष मिलते हैं। यहां के छोटानागपुर के पठारों पर शिवलिंगों की बहुतायत है। वहीं, बौद्ध एवं जैन धर्म से जुड़े प्राचीन स्थलों की भी कमी नहीं है। हजारों साल पुराने मेगालिथ यहां मिलते हैं। ऐसे स्मारक हजारीबाग, रांची, चतरा, लोहरदगा आदि जिलों में हैं। मेगालिथ के संबंध में दुखद बात यह रही कि 17वीं-18वीं शताब्दी से ही इनके विषय में कई तरह के भ्रम फैलाए जाते रहे हैं। कुछ लोगों ने असुर जनजाति से संबंधित स्मारक बताया तो कुछ और ही कल्पना करते रहे। अधकचरे ज्ञान के कारण झारखंड में मेगालिथ मात्रा रोमांचक पुरातात्विक सामग्री भर बन कर रह गए हैं।

मेगालिथ दो यूनानी शब्द मेगा और लियोस का मिला-जुला रूप है, जिसका अर्थ होता है बड़ा पत्थर। मेगालिथ उन प्राचीन शवागारों को कहते हैं, जिनमें विशालकाय प्रस्तर खंडों का इस्तेमाल किया जाता है। प्राचीनतम मेगालिथ लंदन के समीप स्टोनहेंज नामक स्थान पर पाए गए हैं, जिन्हें आज से लगभग 5000 वर्ष पुराना माना जाता है। भारत में प्राचीनतम मेगालिथ कश्मीर घाटी में बुर्जहोम नामक स्थान पर पाए गए हैं, जो लगभग 1800 ईपू बनाए गए थे। जहां तक झारखंड में मेगालिथ का सवाल है, यहां भी बड़ी संख्या में मेगालिथ लगभग हर जिले में खोज लिए गए हैं। यहां के संदर्भ में सबसे उत्साहवर्द्धक बात यह है कि झारखंड की कई जनजातियों में मेगालिथ की परंपरा अब भी जीवित है। विशेषकर मुुंडा एवं उरांव जनजातियों में ससनदिरी की परंपरा कुछ और नहीं, बल्कि मेगालिथिक पंरपरा का आधुनिक एवं जीवंत रूप है।

झारखंड में शैल चित्रा और गुफा चित्रा भी काफी पुराने मिलते हैं। हजारीबाग-पलामू-लोहरदगा, गुमला, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम जैसे इलाकों में इन्हें देखा जा सकता है। हजारीबाग के इस्को गांव में मिली राॅक पंेटिंग दो से पांच हजार ईसा पूर्व की बताई जाती है। अभी हाल में गुमला जिले के कोजेंगा के जंगल में हजारों साल पुरानी एक राॅक पेंटिंग खोज निकाली गई है। पुराविद्ों का मानना है कि यह पेंटिंग इस्को से भी ज्यादा उत्कृष्ट है। इन पेंटिंगों पर काम करने की जरूरत है। इसी तरह पलामू के लिखलाही पहाड़ की एक गुफा में बने शैल चित्रा को देखकर बनाने वाले की कलात्मक बोध को समझ सकते हैं, जो आज के आधुनिक कलाकारों से कतई कम नहीं थे। अभी सरकारी मशीनरियों ने विधिवत झारखंड के बारे में जानने का प्रयास नहीं किया है। यह सब खोजी और उत्साही लोगों ने कर दिखाया है।

झारखंड की प्रमुख आदिम जनजाति असुर हैं। ये प्राचीनतम जनजाति में शामिल हैं। यही यहां के सबसे पुराने बाशिंदे माने जाते हैं। ऋग्वेद में इन्हें पुर निर्माता कहा गया है। लोहा गलाने की पद्धति सबसे पहले इन्होंने ही ईजाद की थी। इनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल भी जमींदोज हो रहे हैं। राज्य सरकार की उदासीनता इन ऐतिहासिक स्थलों के लिए भारी पड़ रही है। रांची, खूंटी, लोहरदगा, हजारीबाग, चाइबासा आदि में अनेक असुर साइट हैं। खूंटी जिले में ही कुथारटोली, कुंजला, सारीदकेल, कठारटोली एवं हांसा को संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है। सारीदकेल करीब पचास एकड़ में फैला है। सारीदकेल खूंटी-तमाड़ रोड पर स्थित है। तजना नदी के तट पर एक विशाल टीला आज भी मौजूद है। वहां से कई प्रकार के अवशेष मिलते रहते हैं। इसकी खोज सबसे पहले एससी राय ने 1915 में खूंटी के बेलवादाग में की थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा खुदाई में यहां से मनके, चूडियां, चाकू, भाला, मकानों के अवशेष, मृदभांड आदि मिले हैं। विशाल टीले को देखकर उस बस्ती का अंदाजा लगा सकते हैं। कुंजल खूंटी से पश्चिम में है। तीन एकड़ में फैले इस साइट की खोज भी शरतचंद्र राय ने ही की। कठारटोली रांची से दक्षिण चाइबासा रोड पर है। चैबीस एकड़ में फैले इस साइट से भी खुदाई में तांबे की चूडियां मिली हैं, जो पटना संग्रहालय में रखी हैं। खंूटी टोला भी तीन एकड़ में है। कोटरी नदी के किनारे। यहां भी मिट्टी के दीये, चूडि़यां, घंटी, अंगूठी आदि मिले हैं। हांसा रांची से दक्षिण दिशा में है। 1944 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक ने खोज की। इनके मकान ईंटों से बनाए गए हैं। ईंटों का आकार काफी बड़ा है, पर दुर्भाग्य से इतिहास में नया मोड़ ले आने वाली यह असुर जाति आज धीरे-धीरे इतिहास के पृष्ठों में सिमटती जा रही है।

इसी तरह पलामू के हुसैनाबाद प्रखंड के पंसा व सहराविरा गांव में दो स्तूप मिले हैं। झारखंड में अब तक बौद्धकालीन मूर्तियां व उनके अवशेष तो मिलते रहे हैं, स्तूप पहली बार मिले हैं। स्तूप मिट्टी के बने हैं। इसकी परिधि 15 मीटर हैं और ऊंचाई आठ मीटर। स्तूप के ऊपर ईंटों का भी इस्तेमाल हुआ है जिनका साइज है 10 गुणा 7 गुणा तीन। सात गुणा पांच गुणा तीन। दस गुणा सात गुणा तीन सेंटी मीटर। यहां लाल रंग के मृदभांड भी पाए गए हैं। गांव वाले इस स्तूप पर धान निकालते या ओसावन करते हैं। उन्हें इसकी ऐतिहासिकता की जानकारी नहीं है। उनके लिए यह एक मिट्टी का टीला है। दूसरा स्तूप सहारविरा गांव में मिला है। यह पंसा गांव से 5 किमी दूर है। इस स्तूप की ऊंचाई तीन मीटर है और परिधि आठ मीटर। इसमें पके ईंटों का भी इस्तेमाल हुआ है। स्तूप के बीच में पत्थर का स्तंभ है। स्तंभ के ऊपरी हिस्से पर बौद्ध की आकृति है। स्तंभ स्तूप में धंसा हुआ है। यह 6वीं-7वीं शताब्दी का माना जा रहा है। स्तूप के ऊपर व आस-पास झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। स्तूप से झांकती बुद्ध की प्रतिमा अपनी कहानी खुद की बयां करती है।

लोहरदगा जिले के खखपरता गांव में भी अभी हाल में यहां से मां दुर्गा और भगवान विष्णु की दो प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। दोनों मूर्तियां 7वीं से 8वीं सदी की हैं। दोनों मूर्तियां स्थानीय बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। खखपरता में नागर शैली के भवन निर्माण कला का उत्कृष्ट उदाहरण मिला है। वहां मिले शिव मंदिर की यह विशेषता है कि यह मंदिर एक चट्टान के ऊपर बनाया गया है। मंदिर की खास विशेषता यह है कि इसका प्रवेश द्वार पूरब दिशा में है, जबकि ऐसा बहुत कम ही होता है। वहीं मंदिर के उत्तरी दिशा में आठ मंदिरों का एक समूह भी मिला है। इसमें से सात मंदिरों की पहचान शिव मंदिर के रूप में हुई है और वहां से शिवलिंग भी प्राप्त हुए हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राचीन काल से ही स्थानीय लोग शैव धर्म का पालन करते आ रहे हैं।

पश्चिमी सिंहभूम के मझगांव ब्लाॅक में बेनी सागर या बेणु सागर नाम का ऐतिहासिक, धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल मौजूद है। आज यहां ‘हो’ नामक जनजातियों का बाहुल्य है। बेनी सागर जहां स्थित है, यहां से उड़ीसा का क्योंझर 12 किमी दूर है। यहां पर दस हजार साल पुराने अवशेष मिले हैं। प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है कि बेनीसागर के आस-पास आदि मानव का निवास लगभग दस हजार पूर्व से था। अभी तक के उत्खनन में शिव मंदिर, पंचायतन मंदिर, 35 से अधिक शिवलिंग, सूर्य, भैरव, लकुलिस, अग्नि, कुबेर, गणेश, महिषासुरमर्दिनी एवं द्वारपाल की मूर्तियां प्रमुख हैं। इसके अलावा लोहे की चूडि़यां, अंगूठी, तीर, भाला, चाकू, मिट्टी के मनके आदि भी प्राप्त हुए हैं। पुराविदों का अनुमान है कि यह स्थान पांचवीं सदी ईसा से लेकर सोलहवीं-सत्राहवीं शताब्दी तक लगातार बसा रहा।

झारखंड के कुछ ऐसे प्राचीन मंदिर हैं जो अपनी कहानी खुद बयां करते हैं। झारखंड में मंदिरों के व्यवस्थित निर्माण का सिलसिला गुप्तवंश से हुआ माना जा सकता है, जो आगे निरंतर समृद्ध होता रहा। यही वह दौर था जब मंदिरांे के स्थापत्य पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। सुदूर जंगलांे के भीतर या दुर्गम पहाड़ों पर मंदिर या मूर्ति को देखकर मन आह्लादित हो जाता है। इनमें देवघर के बाबा बैजनाथ, रांची एवं सरायकेला जगन्नाथ मंदिर, गढ़वा का वंशीधर, गुमला का टांगीनाथ, रांची जिले की सोलहभुजी मां दुर्गा का देउड़ी मंदिर, महामाया, चतरा की मां भद्रकाली, पारसनाथ का जैन तीर्थ, पहाड़ी मंदिर, रामगढ़ का रजरप्पा व कैथा, दुमका का बासुकीनाथ व मालूटी आदि मंदिरों के नाम बहुचर्चित हैं। यहां हर साल हजारों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। कुछ ऐसे भी मंदिर हैं, जो प्राचीन हैं, लेकिन हम उनके बारे में बहुत नहीं जानते।

रांची शहर के अंदर बोड़ेया ग्राम मोरहाबादी स्थित टैगोर हिल से लगभग तीन किलोमीटर उत्तर मदन मोहन मंदिर है, जिसका निर्माण नागवंशी शासक रघुनाथ शाह द्वारा 1665 में कराया गया था। इस पूरबमुखी मंदिर का सिंह द्वार उत्तर दिशा मंे है। उपलब्ध अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण अनिरुद्ध शिल्पकार की देख-रेख मंे हुआ था। राधा-कृष्ण को समर्पित इस मंदिर में जो सबसे महत्वूर्ण बिंदु है, वह है इसके स्थापत्य में΄इस्लामिक स्थापत्य का प्रभाव। गर्भ-गृह एवं भोग मंडप के बीच के अंदरूनी ऊपरी हिस्से को देखने से मस्जिद स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी प्रकार रांची-कांके मार्ग पर रांची से 16 किलोमीटर उत्तर की ओर पिठोरिया का प्रस्तर मंदिर लगभग 150 साल पुराना कहा जाता है, किंतु स्थापत्य का यह आकर्षक नमूना है। लगभग 40 फीट ऊंचाई का यह प्रस्तर मंदिर एशलर मेसोनरी तकनीक से बना है। अर्थात् इसमें सूर्खी, चूना आदि निर्माण सामग्री का उपयोग नहीं΄ किया गया है। तैयार किए गए प्रस्तर खंडों को एक दूसरे पर सजाते-अड़ाते हुए इसका निर्माण किया गया है। इसका शिखर षष्टाकार है। इसके गर्भ गृह में शिव-पार्वती, राम-सीता-लक्ष्मण और हनुमान की मूर्तियां स्थापित हैं। शिवरात्रि के दिन यहां काफी चहल-पहल होती है।

पूर्वी सिंहभूम जिले में घाटशिला प्रखंड के अंतर्गत महुलिया ग्राम मे रंकिनी देवी का मंदिर भी महत्वपूर्ण है। पूर्व मंे΄ विशेषज्ञों ने इस देवी के संदर्भ में चर्चा करते हुए बताया कि चूंकि इस देवी का नाम प्राचीन धर्मग्रंथों में नहीं आया है, अतः संभवतः यह तत्कालीन स्थानीय शासकांे΄की कुल देवी रही होंगी। मंदिर मंे स्थापित देवी अष्टभुजी हंै, जिनके ऊपर के दो हाथों मंे΄हाथी, एक दाएं हाथ में डाकिनी एवं बाएं हाथ मंे΄जोगिनी तथा अन्य चार हाथों मंे΄ ढाल-तलवार आदि अस्त्रा-शस्त्रा है। रेखा देवल शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण काल स्थापत्य शैली के आधार पर 14वीं-15वीं शताब्दी बताया जाता है।

हजारीबाग जिले में भी आकर्षक मंदिर समूह पाए गए हैं। कैथा मंदिर के भग्नावशेष रामगढ़-बोकारो मार्ग पर रामगढ़ से ठीक तीन किमी की दूरी पर मुख्य सड़क की बाईं ओर स्थित है, जिसके विषय में काफी कुछ लिखा जा चुका है, किंतु इस बात की जानकारी कम लोागों को होगी कि इसी शैली के 12-14 मंदिर रामगढ़ के आस-पास के क्षेत्रा मंे निर्मित थे, जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। टाटी झरिया गांव में भी इसी शैली का मंदिर स्थित है। कहा जाता है कि इसे रामगढ़ के तत्कालीन मंत्राी, जो रीवा मध्यप्रदेश के निवासी थे, द्वारा बनवाया गया था। पं. सिंहभूम के चाइबासा के समीप ईचाक स्थित सप्तचूड़ा का राम मंदिर भी उच्च स्तरीय अलंकरणों से युक्त है। इसका शिखर रेखा देवल तथा अन्य भागांे के शीर्ष पीढ़ देवल शैली में निर्मित है। इस पंचायतन मंदिर का प्रस्तर अलंकरण देखकर इसके शिल्पकारों की सिद्धहस्तता का अनुमान लगाया जा सकता है। इसका निर्माण 1803 में स्थानीय शासक दामोदर सिंह देव ने कराया था।

इसी प्रकार गुमला जिला मुख्यालय से उत्तर-पश्चिम दिशा में डुमरी प्रखंड के मझगांव गांव में टांगीनाथ मंदिर के अवशेष स्थित हैं। यह स्थल पुरातात्विक दृष्टिकोण से राज्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थलों मंे΄से एक है। एक छोटी सी पहाड़ी पर ईंट निर्मित मूल मंदिर का अवशेष यहां आज भी देखा जा सकता है, जिसके इर्द-गिर्द सैकड़ों प्राचीन प्रस्तर मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं, जिनमें विभिन्न प्रकार के शिवलिंग, उमा-महेश्वर, महिष-मर्दिनी, सूर्य, गणेश एवं विष्णु आदि की प्रमुखता है।

शिव को समर्पित इस मंदिर स्थल पर प्राचीन प्रस्तर स्तंभ आदि एकत्रित कर सजा कर रखे गए हैं, जहां एक विशाल लौह त्रिशूल भी भग्न अवस्था में है। इसकी तुलना कुतुब मीनार के लौह स्तंभ से की जाती है, जिस पर गुप्तकालीन अभिलेख अंकित हैं। यह मंदिर भी लगभग 8 से 10 सौ वर्ष पुराना कहा जाता है, किंतु इस स्थल की तिथि और पुरानी हो सकती है।

राज्य में किले भी कम नहीं। लेकिन देख-रेख के अभाव में वे दम तोड़ रहे हैं। तेलियागढ़ का किला हो या पलामू का या कंुदा का, सबकी स्थिति एक जैसी है। नवरतनगढ़ के किले को तो झारखंड का हंपी कहा जाता है, जो सौ एकड़ में फैला हुआ है। पलामू के कई प्रखंडों मंे छोटे-छोटे राजे-रजवाड़ों-जमींदारों ने किले बनवा रखे थे, जिनके भग्नावशेष मरम्मती की मांग कर रहे हैं। झारखंड में किला निर्माण का सिलसिला 15वीं शताब्दी से शुरू हुआ। मुगलकाल में यह परवान चढ़ा। इस दौर में कई मस्जिदें भी बनीं।

भगवान बुद्ध का झारखंड से सीधा संपर्क था या नहीं, कहना कठिन है। लेकिन अपने 45 वर्षों के परिभ्रमण काल में वह संभवतः झारखंड भी आए थे, जिस कारण इस क्षेत्रा में भी बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ। झारखंड में अनेक स्थानों पर बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेष बिखरे पड़े हैं। पलामू में मूर्तियां एवं स्तूप हाल में मिले हैं। लातेहार जिले का बालूमाथ बौद्ध मठ का विकृत नाम ही लगता है। धनबाद क्षेत्रा मंे दालमी तथा बारहमसिया गांवों के बीच लाथोनटोंगरी पहाड़ी पर 20 वीं शती के कुछ बौद्ध अवशेश्ष थे। पुरुलिया के निकट कर्रा व घोलमारा में कुछ बौद्ध खंडहर हैं। रांची-मूरी मार्ग पर गौतमधारा है। यहां पर एक बुद्ध की प्रतिमा भी स्थापित है। चतरा जिले का ईटखोरी अब बौद्ध साइट बनने जा रहा है। वहां पर लंबे समय से खुदाई चल रही है। यहां तीन स्तूप मिले हैं। कई अवशेष भी। आने वाले समय में यह गया के बाद सबसे बड़ा बौद्ध कंेद्र बनने जा रहा है। राज्य सरकार भी इसके लिए प्रयास कर रही है। इसी तरह चतरा के कौलेश्वरी पहाड़ पर भी बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ी प्रतिमाएं हैं। यह पहाड़ तीन धर्मों का संगम है। हिंदू, बौद्ध और जैन। पहाड़ पर ही दो हजार फीट की प्राकृतिक झील पर्यटकों को आकर्षित करती है। इस स्थल को दसवंे जैन तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्मस्थल भी माना जाता है। इसका उल्लेख डिस्टिक गजेटियर आफ हजारीबाग 1957 में भी है। यहीं पर जिनसेन ने भी तपस्या की थी। जैन धर्मावलंबी कौलेश्वरी देवी के प्राचीन मंदिर को भी पूर्व मंे जैन मंदिर होने की बात करते हैं। लोक मानस में यह सुरक्षित है कि राम अपने वनवास काल में यहां पर अपने भ्राता एवं धर्मपत्नी सीता के साथ रहे। हालांकि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। लेकिन यहां की प्राचीनता और बिखरे पत्थर यहां के पौराणिक इतिहास की गवाही तो देते ही हैं।

पारसनाथ हिल तो जैन धर्म का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है। श्री सम्मेद शिखरजी के रूप में चर्चित इस पुण्य क्षेत्रा में जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थकरों ने मोक्ष प्राप्त किया। यहीं 23 वें तीर्थकर भगवान पाश्र्वनाथ ने भी निर्वाण प्राप्त किया था। सम्मेद शिखर की उत्तरी तलहटी पर प्रकृति की गोद पर मंदिरों की नगरी मधुवन बसा हुआ है। यहां अनेक दर्शनीय स्थल हैं। यहां के घुमावदार रास्ते, पहाड़ों की सुंदरता आंखों को सुकून देती है। शिखर पर पहंुचकर सारी थकानें मिट जाती है। इनके अलावा भी मानभूम जैनियों का गढ़ रहा है। पाकबीरा, पवनपुर, पलमा, चर्रा तथा गोलमारा में उनके समृद्ध मंदिर थे, जिनमें अनेक मूर्तियां स्थापित थीं। बलरामपुर, करा, कतरास में जैनियों के खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। तेलकुप्पी में जैन संस्कृति का विशिष्ट केंद्र था। सिंहभूम के सरक जैन श्रावक ही थे। हो लोगों ने बाद में निकाल बाहर किया। पलामू पर इस धर्म का प्रभाव सबसे कम पड़ा।

राज्य की दूसरी राजधानी दुमका से पूरब 55 किमी दूर शिकारीपाड़ा प्रखंड में मंदिरों का गांव मालूटी है। इस गांव की जानकारी देश-दुनिया को 22-23 साल पहले हुई। गांव से बाहर इस मंदिर के बारे में लोग नहीं जानते थे। यहां पहले 108 शिव मंदिर थे, लेकिन अब 75 से 80 मंदिर ही शेा हैं। बंगाल की सीमा पर स्थित होने के कारण मंदिरों की शैली पर इसका प्रभाव स्पट देखा जा सकता है। यह तंत्रा साधना का बड़ा केंद्र था। 1979 में भागलपुर के तत्कालीन आयुक्त अरुण पाठक ने पहली बार इसे देखा था। तब इसके बाद यह गांव पुरातत्व के नक्शे पर आया। इस गांव को अमेरिकी संस्था के सहयोग से संवारा जा रहा है।

भारत के लोक देवता हनुमान की जन्मस्थली के बारे में देश नहीं जानता। जबकि हनुमान पूरे देश में पूजे जाते हैं। देश को यह पता चल जाए कि हनुमान झारखंड के गुमला जिले में जन्मे थे तो यहां श्रद्धालुओं का तांता लग जाए। हनुमान का जहां जन्म हुआ वह गुमला जिले से 18 कि.मी. दूर आंजन गांव में है। इस गांव का नाम हनुमान की मां अंजनी के नाम पड़ा है। यहां से चार किमी की दूरी पर अंजनी गुफा है जो बहुत आकर्षक है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में इस गुफा में हनुमान की मां रहती थीं और यहीं पर उन्होंने हनुमान को जन्म दिया था। अंजनी गुफा के पास एक प्रतिमा भी है जिसमें अंजनी हनुमान को गोद में लिए हुए हैं।

प्राकृतिक सुंदरता के झारखंड में कदम-कदम पर दर्शन होते हैं। हर जिले में ऐसे जलप्रपात हैं, जो सैलानियों को आकर्षित करते हैं। यहां के पहाड़ों का सौंदर्य, गिरते झरनों का संगीत और जंगलों से आती पक्षियों की सुमधुर आवाजें एक नए और स्वर्गिक आलोक की रचना करती हैं। मसानजोर डैम की अथाह जलराशि एक छोटे समुद्र का एहसास कराती है। इसी तरह पंचैत डैम, कांके डैम, हटिया डैम, गेतलसूद डैम और रांची शहर के बीच विशाल तालाब का सौंदर्य तो चकित ही करता है।

बाघों के संरक्षण का काम देश में सबसे पहले झारखंड के पलामू में शुरू हुआ। पहली गणना भी यहीं हुई। आज वह बेतला टाइगर रिजर्व के नाम से जाना है। इसके अलावा भी एक दर्जन पशु-पक्षियों के अभयारण्य राज्य में हैं, जहां हम इन्हें नजदीक से निहार सकते हैं।

यह तो सिर्फ झारखंड का एक झरोखा भर है। यहां संस्कृति की इतनी विविधता और नृत्यों की इतनी शैलियां हैं कि यहां बार-बार आने का मन करता है। झारखंड का हर गांव अपनी एक विरासत के साथ खड़ा है। यहां कुछ भी फालतू नहीं। हो सकता है, आप जिस पहाड़ पर चल रहे हों वह हिमालय से भी पुराना है। यही तो है यहां की गाथा। फिर भी पहाड़, ये झरने आपको आमंत्रित करते हैं। आइए और देखिए। यह ऐसा प्रदेश है, जहां हर बार आने और फिर जाने के बाद लगेगा कि कुछ छूट रहा है। बाजार द्वारा बना दी गई छवि से एकदम उलट और विशिष्ट। क्या ऐसे रमणीय प्रदेश में आना नहीं चाहेंगे?

मनरेसा हाउस में फादर कामिल बुल्‍के

रांची की हृदय स्थली अल्बर्ट एक्का चौक से दस कदम की दूरी पर सर्जना चौक है। इस चौक से, जाहिर है, नाम के अनुरूप कई राहें फूटती हैं और एक राह पुरुलिया की ओर निकल पड़ता है। पुरुलिया पं बंगाल में पड़ता है। सर्जना चौक के पास से कभी पुरुलिया के लिए बसें खुलती थीं। इसलिए, यह रोड पुरुलिया रोड के नाम से मशहूर हो गया। इसी रोड पर मनरेसा हाउस है, जहां तीन कमरों में फादर कामिल बुल्के की दुनिया आबाद थी। पहले छप्पर के थे बाद में पक्के का बन गया। सर्जना चौक से जो राह पुरुलिया की ओर फूटती है, ठीक उसी नाके पर प्राचीन श्रीराम का मंदिर है और दस कदम की   दूरी पर रामकथा के अनन्य गायक फादर रहा करते थे। बीच में जेवियर्स कालेज। यहीं पर वे हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। पता नहीं, रामकथा पर लिखते हुए वे इस प्राचीन श्रीराम मंदिर में कभी गए थे या नहीं, पर सर्जना चौक से जो राह फूटी वह सिर्फ पुरुलिया तक नहीं गई, देश-देशांतर तक गई। अब यह राह फादर के नाम से जानी जाती है।

मनरेसा हाउस में प्रवेश करते ही अब सबसे पहले फादर की झक-झक सफेद आदमकद संगमरमर की मूर्ति से सामना होता है। थोड़ा आगे बढ़ें तो उनके नाम का पुस्तकालय, शोध संस्थान जिसमें उनकी किताबें, पत्रिकाएं, शोध ग्रंथ आदि हैं, जिनका लाभ छात्र, अध्यापक और शोधार्थी उठाते हैं। जो किताबें रांची विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में नहीं, वह यहां मिल जाती है। इतना संपन्न है फादर का पुस्तकालय। फादर का पुस्तकालय इतना संपन्न कैसे हुआ, इसका खुलासा वरिष्ठ साहित्यकार डा. श्रवणकुमार गोस्वामी करते हंै...संत जेवियर्स कालेज में पढ़ाने का काम छोड़ दिया था और पढऩे-लिखने में अपना समय लगा दिए। विद्यार्थी-शोधार्थी उनसे मिलने आते। कहते, फादर यह किताब नहीं मिल रही है? फादर, उस किताब को नोट करते, फिर मंगवाते और दे देते। देने के बाद उसे नोट कर लेते? इसका कोई हिसाब नहीं रखते। काम होने पर कुछ वापस कर देते, कुछ नहीं। इस तरह फादर के निजी पुस्तकालय में पुस्तकें बढ़ती गईं। संस्कृत और हिंदी के ग्रंथों का तो पूछना ही नहीं। कहते हैं, वह हर आने वाले की सहायता करते।

फादर को सुनने में दिक्कत होती थी। इसलिए वह एडी लगाते थे। कभी-कभी कोई बकवास करता तो एडी बंद कर देते। कहते, भगवान ने मुझे बहरा बनाकर बड़ी कृपा की है। बेकार की बातों को सुनने से बच जाता हूं। फादर को एक और दिक्कत थी। वह दमे के मरीज थे। इसलिए वे इनहेलर का इस्तेमाल करते। मशहूर कथाकार राधाकृष्ण भी दमे के मरीज थे। फादर बाहर से कई इनहेलर मंगाते। विदेश से आने वाले भी ले आते और उसमें से वे एक राधाकृष्ण को भी दे देते। दरअसल, दोनों रांची की पहचान थे। बाहर से कोई साहित्यकार आता तो बस ये दो नाम ही याद आते। बिना मिले कोई जाता नहीं।

हिंदी के प्रति लगाव, समर्पण और श्रद्धा के बारे में तो कहना ही नहीं। एक बार एक युवक अपने चाचा के साथ उनसे मिलने आया। सुबह का वक्त। दोनों ने कहा, गुड मार्निंग फादर। कुछ देर तक देखते रहे। युवक ने अपने चाचा की ओर इशारा करते हुए कहा, मेरे अंकल हैं। फादर की भवें खींच गईं-अंकल मतलब? पूछा : अंकल मतलब क्या होता है? अंकल मतलब अंकल? चाचा, ताऊ, मामा...क्या? अंगरेजी में तो इनके लिए बस एक ही शब्द है। पर हिंदी में अनगिनत और इससे रिश्ते भी पहचाने जा सकते हैं। जब हिंदी इतनी समृद्ध-संपन्न है तो फिर अंगरेजी बोलते शर्म नहीं आती? यह फादर की घुड़की होती।

फादर के पुस्तकालय को व्यवस्थित करने वाले और अब संस्थान के निदेशक डा. फादर इम्मानुएल बखला कहते हैं कि जब फादर का निधन हुआ तो यहां किताबों के ढेर लगे थे। जगह-जगह। उनको तरतीब करने में छह महीने लग गए। पहले तो यह हुआ इतनी किताबों का क्या जाए? यहां के किसी पुस्तकालय ने लेने से इनकार कर दिया तो फिर तय हुआ कि जिन कमरों में वह रहते थे, उन्हें ही शोध संस्थान का रूप दे दिया जाए। इस काम में आस्ट्रेलिया के फादर विलियम ड्वायर, जिन्होंने हिंदी में भी पीएच डी की थी, बहुत मदद की। फादर अगस्त, 1982 में चल बसे और 1983 में यह शोध संस्थान अस्तित्व में आया। बखला कहते हैं, जब संत जेवियर्स कालेज से 1967-70 के दौरान बीए कर रहा था, तब फादर यहां विभागाध्यक्ष थे, लेकिन वह पढ़ाते नहीं थे। वह अपने घर पर ही रहकर अनुवाद-कोश आदि का काम रहे थे। बाइबिल का अनुवाद और कोश का काम कर रहे थे। कोश के निर्माण में ऐसे लगे थे कि एक शब्द पर कभी-कभी दिन भर लगा देते। दर्जी के बारे में जानकारी लेनी है तो वह उनके घर चले जाते और तत्संबंधी शब्दों की जानकारी लेते। उसके सही उच्चारण और शब्द की तलाश करते। फादर बखला उनके समय की पाबंदी पर भी जोर देते हैं। कहते हैं, उनका समय निर्धारित था। कितने बजे सुबह का नाश्ता, कितने बजे दोपहर का भोजन करना है और संध्या का नाश्ता सब तय। समय की पाबंदी के साथ वे घनघोर आस्थावान भी थे। फादर लोगों को दिन में छह बार प्रार्थनाएं करनी होती। यह काम भी वे नियमित करते। एक उनकी हॉवी थी क्रास वल्र्ड पजल्ड सुलझाने की। चाय पीने के समय वह यह काम किया करते। खुद को ताजा और दिमाग को फ्रेश रखने के लिए वह यह नियमित करते।
डा. दिनेश्वर प्रसाद अब नहीं हैं। प्रसाद भी उनके अनन्य सहयोगी रहे। उनके निधन के बाद फादर की कई अधूरे कामों को पूरा किया। कोश में कई शब्द जोड़े। उनके लेखों को प्रकाशित कराया। एक किताब अंगरेजी में संपादित की। उनके पास मेरी बैठकी अक्सर होती। यादों का अनमोल पिटारा था उनके पास। एक बार फादर के बारे में दिनेश्वर बाबू बताने लगे...दोपहर के कुछ देर बाद दो-ढाई बजे के आस-पास उनके परिचित-अपरिचित उनसे मिलने आते थे और फादर बड़ी-बड़ी प्लेटों में मक्खन और पाव रोटी फिर काफी के प्याले उनके जलपान के लिए लाते थे। फादर अक्सर काफी खुद बनाते थे। काफी की मात्रा एक व्यक्ति की काफी पूरे बॉल में उसे दी जाती थी और वह बहुत रुचिपूर्वक उनके साथ बातचीत करते हुए उसका आनंद उठाता था। फादर से बातचीत करने के अनेक विषय होते थे। समान्यत: पारिवारिक, वैदुषिक और सामाजिक। लेकिन किसी-किसी दिन जब अतिथि शीघ्र चले जाते और सांझ होने लगती तो फादर संस्मरणशील हो जाते। उन्हें अपना अतीत याद होने लगता और वे कभी बचपन के दिनों की घटनाएं, माता की परोपकारिता, पिता का चारित्रिक दृढ़ता, मित्र बंधुओं के साथ उल्लासपूर्ण बातचीत आदि के प्रसंग सुनाते। एक-दो अवसर ऐसे भी आए जब वह मां के स्नेह के प्रसंग सुनाते-सुनाते रोने लगते थे।Ó

फादर की एक आदत थी कि वे संझा साइकिल से निकल पड़ते। शुक्रवार को उन्होंने अपने लिए अवकाश घोषित कर रखा था। पर, साइकिल की सवारी वह नियमित करते। कभी दोस्तों के यहां तो कभी सुदूर जंगलों में निकल पड़ते। तीस-चालीस किमी की यात्रा कर अंधेरा होते-होते मनरेसा हाउस लौट जाते।
फादर ने लुवेन विश्वविद्यालय से 1930 ई में अभियांत्रिकी स्नातक विज्ञान की उपाधि प्राप्त की थी। संयोग ऐसा कि वे भारत चले गए और फिर भारत को वे अपना दूसरा घर कहने लगे। उन्होंने मुक्तकंठ स्वीकार किया कि ऋषि-मुनियों संतों की पावन भूमि भारत में खींच लाने का संपूर्ण श्रेय गोस्वामी तुलसीदास जी को है। रामचरितमानस के रचयिता का गुणगान वे आजीवन करते रहे। उन्होंने कभी कहा था कि मरणोपरांत यदि कहीं यह अवसर आए कि मिलना राम अथवा तुलसी से तो मैं राम से नहीं तुलसी से मिलना चाहूंगा। उनके हृदय में बाबा तुलसी ने जगह बना ली थी। जीवन की संध्या में तुलसी संबंधी चिंतन को पूरे विस्तार से शब्दबद्ध करना चाहते थे, लेकिन काल को कुछ और ही मंजूर था। उन्हें गैंग्रीन हो गया था। उनका इलाज पहले रांची के मांडर, फिर पटना किया गया, परंतु हालत में कोई सुधार नहीं देख पटना से फिर दिल्ली ले जाया गया, लेकिन वहां भी कोई सुधार नहीं हुआ और 17 अगस्त, 1982 को एम्स में अंतिम सांसें ली। दिल्ली में ही उन्हें दफना दिया। उनके अधूरे कामों को डा. दिनेश्वर प्रसाद ने कुछ पूरा किया। अब दिनेश्वर बाबू भी चले गए। मनरेसा हाउस में शोध संस्थान के जरिए फादर कामिल बुल्के जीवित हैं। हां, उनकी कुर्सी निस्पंद पड़ी है। शायद, अपनी साइकिल से कहीं निकले हों...।

रांची में मजाज के चंद महीने

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के तीन साल बाद 18 वर्षीय एक नौजवान ने अपना तआरुफ कुछ इस तरह कराया- खूब पहचान लो असरार हूं मैं, जिन्स-ए-उल्फत का तलबगार हूं मैं।
फित्न-ए-अक्ल से बेजार यह असरार जब मजाज बना तो उसकी राह स्पष्ट हो चुकी थी। दुर्भाग्य यह कि हमारे देश के नक्काद (आलोचक) उन्हें कभी इंकलाब के सांचे में फिट करते तो कभी उर्दू का कीट्स करार दे अपनी ऊर्जा जाया करते रहे। मजाज को मजाज की नजर से देखने की कोशिश नहीं की गई। देखा जाए तो मजाज की जिंदगी में सुर्ख रंग ही छाया रहा। इश्क, इंकलाब या शराब, सभी रूपों में। एक नजरिए से देखें तो इसी सुर्ख रंग ने उनकी जिंदगी गर्क कर दी जबकि दूसरे से इसी ने मजाज को मजाज बनाया। शायद, बड़ा व्यक्तित्व विरोधाभासों से ही बनता है।

मजाज की जिंदगी ने बड़े-बड़े उतार -चढ़ाव देखे। उनका समय भी कुछ ऐसा ही था। उनकी नज्में इस बात की तसदीक करती हैं। जुनूने इश्क और शराबनोशी ने उन्हें पागलखाने तक का सफर कराया। मजाज जब रांची के पागलखाने (अब उसका नाम केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है) में भरती थे तो सलाम मछलीशहर ने एक पुरदर्द नज्म कही थी, जिसके कुछ मिसरे यूं हैं- ...जैसे रांची की पहाड़ी से ये आती हो सदा... अब भी कुछ हेाश है बा$की तेरे दीवाने में, तेरा दीवाना गमे दह्र पे छा जाएगा...।

कहने की जरूरत नहीं कि आज मजाज दह्र पे छा गए हैं। लेकिन, हिंदी हो या उर्दू अदब, मजाज का मूल्यांकन आज भी बाकी है। एक तरक्कीपसंद शायर, जिसने कभी नरगिस को देखकर कहा था- तेरे माथे पे यह आंचल बहुत ही ख़ूब है... लेकिन, तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था...।
महान शायरों की रचनाओं की तो चर्चा खूब होती है, लेकिन वह किन- किन हालात से गुजरा, इस पर कितने लोगों का ध्यान जा पाता है। कम ही लोग जानते हैं कि इस महान शायर को तीन-तीन बार नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार होना पड़ा। मजाज पर बीमारी के बार-बार हमले से परिवार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता। बेटे के हाल पर मां को रोना आता। वह खुदा से कहने लगतीं- या इलाही, या तो मुझे उठा ले या मेरे बेटे को। मां के सीने में उभरता दर्द, पिता की बेबसी और बहनों की लाचारी... बहुत कुछ कह जाती है। इसकी जानकारी उनसे संबंधित पत्रों और संस्मरणों से होती है। मजाज की बहन सफिया अख्तर के पत्रों से ऐसी जानकारी हासिल होती है। उनकी बीमारी को लेकर परिवार कितना परेशान था और उर्दू वाले इसे भी भुनाना चाहते थे।
सफिया की कैफियत यह है कि वह आज के मशहूर गीतकार जावेद अख्तर की मां थीं। उनके पति का नाम जांनिसार अख्तर था, जो खुद भी एक बड़े शायर थे और मजाज के दोस्तों में शुमार थे। सफिया के पत्रों का संग्रह पाकिस्तान से प्रकाशित है। नाम है 'सफिया के खुतूत जांनिसार अख्तर के नामÓ। प्रकाशक है तरतीब पब्लिशर्स, मियां मार्केट, गजनी स्ट्रीट, उर्दू बाजार, लाहौर। मंसूर अहमद भट्ट और ताहिर एस मलिक ने इसका संपादन किया है। पत्र तो काफी हैं, लेकिन दो पत्र मजाज से संबंधित और खास हैं। ये पत्र मजाज की दिमागी हालत, उर्दू अदब की बेगैरत दुनिया से बावस्ता कराते हैं।
पहले पत्र 12 मई, 1952 को जां निसार अख्तर को लिखा गया पत्र है। मजमून देखें-
अच्छे अख्तर,
बहुत सा प्यार
खत मिला। चलो, एक खत तो मेरा तुम तक मेरा पहुंच गया। गनीमत है। इस डाक के इंतजाम को अल्लाह समझे।
यहां इस तरफ तकरीबन हर रोज शाहिद परवेजी, यूसुफ इमाम, सुहैल अजीमाबादी की तहरीरें आती रहीं। इसरार भाई (मजाज) की दिमागी हालत का ये आलम हो गया था कि कलकत्ता (अब कोलकाता) की सड़कों पर भीख मांगने की नौबत थी। अंसार भाई यूसुफ इमाम को हमराह लेकर कल रांची पहुंचे हैं और कल रात ही दाखिला की इत्तिला का तार आया है। उनकी दिमागी हालत को देखते हुए हवाई जहाज से ये सफर मुकम्मल करना पड़ा। पूरा एक हजार इस सई व काविश की नजर उबाला हो चुका है। इस जईफी के आलम में जिस इस्तकलाल से वो इन तमाम परेशानियों को बर्दाश्त कर रहे हैं। इससे मेरे जेहन पर उनकी अज्मत का नक्श बहुत गहरा होता जा रहा है। तुम लिखना कि सुहैल से तुम्हारी कैसी वाकफियत है और ये किस तरह के आदमी हैं। अब इसरार भाई की देखभाल का जरिया उन्हीं को बनाया जा सकता है।
आज ही जोश साहेब (जोश मलीहाबादी)का खत फिर मिला अम्मा के नाम, इसी सिलसिले में आया है। उन्हें भी जवाब लिखना है।
पत्र में अब घरेलू बातों की चर्चा है और अंत में लिखा है-
अच्छा अख्तर मुझे और अपनी अजीज अमानतों को अपने प्यार से जिंदा कर जाओ।
तुम्हारी
सफ्फो

अब दूसरा पत्र भी देखें-
तारीख है 3 नवंबर 1952
...प्रकाश (प्रकाश पंडित)का खत आया है। उसने लिखा है कि 'मजाज फंडÓ की अपील शाया करने की इजाजत उसने तुमसे कलकत्ता में ले ली थी। दिलचस्प बात है मैंने खत लिखवा दिया है कि मुझे अख्तर की गय्यूर तबीयत पर इस दर्जा एतमाद है कि यकीन नहीं आता कि उन्होंने मजाज के जुनून और बेजरी का ढिंढोरा रिसाले के जरिए पीटकर पढऩे वालों से दो-दो चार-चार रुपयों का चंदा वसूल करने का मशविरा दिया हो।
अख्तर, तुम जानते हो इसरार भाई अस्पताल से डिस्चार्ज होने वाले हैं। अब इस एक महीने के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने से क्या हासिल?
शाहरार (पत्रिका)वाले अपने सर सेहरा बांधना चाहते हैं, लेकिन मजाज फंड का हश्र तो सुनो कि मजाज के नाम पर यहां पिछले महीने सिर्फ 17.25 पैसे जमा हो सके। इससे उर्दू वालों की अदब दोस्ती का भी अंदाजा कर लो।
बहुत सा प्यार
तुम्हारी सफिया

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पत्र से उर्दू वालों की दरियादिली की भी जानकारी मिलती है कि कितने दरियादिल थे मजाज को लेकर। पत्र में कई शायरों का जिक्र है। सुहैल अजीमाबादी, प्रकाश पंडित, जोश मलीहाबादी आदि। प्रकाश पंडित और जोश किसी परिचय के मोहताज नहीं है। दोनों उनके मित्र थे। सुहैल भी नहीं। सुहैल तब रांची में रहते थे और उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए काफी सक्रिय थे। रांची में मजाज की देखभाल सुहैल और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण करते थे। राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल बताते हैं कि दोनों रिक्शे से पागलखाना जाते और उनका हालचाल लेते रहते।

रांची में भर्ती के वाकये का जिक्र उनकी छोटी बहन हलीमा भी करती हैं। लिखती हैं, 'दिल्ली से 'जोशÓ साहब का खत आया कि मजाज को आगरा भेज दिया जाए। मजाज और आगरा का पागलखाना? दिल पर कैसी चोट लगी। लेकिन मजाज पागल था। इस हकीकत से क्योंकर इनकार हो सकता था। पागल को आखिर कहां तक और कैसे भुगता जाता। जोश साहब को मैंने पत्र लिखा कि अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रांची में जगह दिलवा दें। जोश साहब को खत मिला या नहीं, मैं जवाब के इंतजार ही में रही। डाक्टर दिवेश, रांची हस्पताल के इंचार्ज से सीधे पत्रों से संबंध साधा और जगन भय्या (मजाज को वे जग्गन ही बुलातीं) की लाइफ हिस्ट्री लिखकर भेजी। शायद उनके जीवन की घटनाओं से असर लेकर उसने बी क्लास वार्ड में एक बेड दे ही दिया।...मजाज को मुश्किल से रांची भेजा गया। पिता ने अपनी पूंजी की आखिरी कौड़ी उन्हें बचाने में लगा दी। और छह महीने बाद वह बचकर आ गए।Ó
हालांकि मजाज की वापसी के एक महीने बाद ही सफिया अख्तर का निधन हो गया। इस सदमे का असर उन पर बिजली गिरने जैसा हुआ।

रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन का हमला हुआ था। पहला, 1940 में हुआ। दिल्ली के कयाम के दौरान उनके दिल पर जो चोट लगी उसी का नतीजा था। मुहब्बत में नाकामी आदमी को आदमी नहीं रहने देती। इलाज ह़ुआ। चार-छह महीने के लिए बड़ी बहन के साथ नैनीताल चले गए और वहां से तंदुरुस्त होकर आ गए। जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर आने लगी। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। मजाज के पैरों में शादी की बेडिय़ा डालने की कोशिशें शुरू हुईं। शायद, जीवन के पतझड़ में बसंत के फूल खिल सके। बात आगे बढ़ी। पर, लड़की के प्रिंसिपल पिता को यह गवारा न हुआ कि मजाज डेढ़ सौ रुपये महीना कमाते हैं। रिश्ता बनने से पहले टूट गया। इसका असर यह हुआ कि मजाज को दूसरी बार 1945 में दीवानगी का हमला हुआ। डाक्टरों की कोशिश और जीतोड़ तीमारदारी और दिलजोई से किसी तरह काबू में आ गए। लेकिन जिंदगी का ढर्रा बदल न सका। तीसरी बार हमला 1952 में हुआ। इस बार उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। यहां से भी ठीक-ठाक होकर वापस चले गए। पैरों में बेड़ी डालने की कोशिशें फिर की गईं, लेकिन नाकाम रहीं। इश्क की नाकामी, तन्हाई शराबनोशी की ओर ले गई। दोस्तों ने भी आग में घी डालने का काम किया। और एक दिन, उन्हें जाड़े की ठिठुरती रात में पीने-पिलाने के बाद उनके दोस्तों ने सड़क पर छोड़ दिया। दिमाग की नसें फट गईं। किसी राहगीर की नजर पड़ी। उन्हें सीधे बलरामपुर अस्पताल पहुंचाया गया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 5 दिसंबर, 1955 का वह मनहूस दिन इस महान शायर की जिंदगी का आखिरी दिन साबित हुआ, जिसने कभी लिखा था- खूब पहचान लो असरार हूं मैं/ हुस्ने उलफत का तलबगार हूं मैं।
....न तूफान रोक सकते हैं, न आंधी रोक सकती है/ वह मुझको चाहती है और मुझ तक वह आ नहीं सकती/ मैं उसको पूजता हूं और उसको पा नहीं सकता...। तड़प, चाहत, बेचैनी, तन्हाई, आवारगी से बेजार आखिरकार 44 की उम्र में मजाज बज्मे-नाज से चला ही गया।

काम की मजबूरी और पलायन का दर्द


झारखंड को बने अब 11 साल हो गए। कहते हैं कि 12 साल में घूरे का दिन भी बदल जाता है पर इन बारह सालों में आदिवासी महिलाओं
की तकदीर नहीं बदली। महिलाएं यहां दोहरे मोर्चे पर संघर्ष करती हैं। आजीविका के संकट के कारण एक तो पलायन करती हैं। दूसरे मानव व्यापार का शिकार होती हैं। दोनों ही स्तरों पर उन्हें कई तरह के शोषण से गुजरना पड़ता है। राज्य की कई योजनाएं इनके पलायन को रोक नहीं पा रही हैं। मनरेगा जैसी महत्वाकांक्षी योजना भी महिलाओं को पर्याप्त रोजगार के साधन मुहैया नहीं करा पा रही है। लड़कियों के सामने भी रोजगार का कोई विकल्प नहीं है। सो, ये भी काम की तलाश में बाहर जाने को विवश हैं। यह उस राज्य की हकीकत है, जहां अपार खनिज है, खदानें हैं।
महिलाओं के लिए गांवों में रोजगार के पर्याप्त संसाधन नहीं होने या ध्यान नहीं दिए जाने के कारण इसका सीधा असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि गांव की महिलाएं जंगलों पर निर्भर रहती हैं। जंगलों में कई तरह की चीजें मिलती हैं, जिस पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो उनकी आजीविका बहुत आसानी से चल सकती है। पर अड़चनें कई हैं। इनमें वन विभाग भी है। 2006 में लागू वनाधिकार कानून आदिवासियों को आज तक जमीनी स्तर पर अधिकार नहीं दे पाया। अलबत्ता, वन विभाग लोगों को जंगली लकड़ी की चोरी के आरोप में फंसाता रहता है। इसलिए, महिलाएं जंगलों की ओर मुखातिब होने के बजाय दिल्ली का रास्ता पकड़ती हैं। उनके सामने आजीविका के लिए पलायन करना ही एक सुविधाजनक रास्ता है। भले ही इस रास्ते में कई जोखिम हों। 
    पिछले दिनों छह जिलों के सर्वे पर एक रिपोर्ट आई थी। रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि राज्य में  41 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं, जिनकी स्थिति मनरेगा मजदूरों से भी बदतर है। इनकी रोजाना आमदनी पचास रुपये से भी कम है। सरकार की भाषा में तो ये अमीर हैं। क्योंकि केंद्र की सरकार तो उन्हें गरीब नहीं मानती, जिनकी आमदनी 32 रुपये रोज हो। भले ही 32 रुपये में एक व्यक्ति का भी पेट न भरे। सरकार तो सरकार है। जो कहे वही कानून। उसके पास तो भूख की भी परिभाषा है। अर्थशास्त्री डा. रमेश शरण मानते हैं कि भूख क्या, भूख की परिभाषा क्या है और भूख को खत्म कैसे करें, इस पर मंथन होते आया है। पर वह यह भी कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी भूख मौजूद है और भूख से लोग मर रहे हैं। अमेरिका का जिक्र करते हुए कहते हैं कि वहां 12 प्रतिशत लोग भूखे सोते हैं। विकसित और दुनिया के सिरमौर देश का यह हाल है। तब झारखंड कहां होगा?
  झारखंड के सवाल पर कहते हैं कि राज्य में खाद्य सुरक्षा की स्थिति ठीक नहीं। 2004 की घटना का जिक्र करते कहते हैं कि एक सर्वे के दौरान कुसुमाटाड़ में एक 70 वर्षीय वृद्ध से मुलाकात हुई। वे भूखे थे। चर्चा चली तो कहने लगे कि इससे अच्छा तो जमींदार थे। जो गाली भले देते रहे, पर अनाज तो देते थे। क्या भूख का रिश्ता देह से नहीं है? 
भूख का गणित और पलायन का दर्द
भूख के इस गणित के कारण ही अधिकांश लड़कियां पलायन करती हैं। घर की स्थिति ठीक नहीं होने के कारण एक अनिश्चितता भरी दुनिया में प्रवेश करती हैं। देखें तो पलामू से कोल्हान तक भुखमरी और बेरोजगारी का ऊसर पसरा है, जिस पर कुछ भी नहीं उग सकता या हम उगाना नहीं चाहते। एक सर्वे में बताया गया कि  90 प्रतिशत लोगों की आजीविका अनिश्चित। 84 फीसदी ग्रामीणों की रोटी खेती से जुड़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों के महज 37 फीसदी लोगों को ही रोजगार मिल पाता है। शहरों में भी यह दर महज 42.24 प्रतिशत है। औद्योगिक राज्य के तमगे के बावजूद आज भी 82 फीसदी से अधिक ग्रामीणों की राजीरोटी खेती पर ही टिकी है। फिर भी राज्य की मॉनसून भरोसे खेती के आगे किसानों के पास अधिक विकल्प नहीं। हैरत की बात है कि केवल 8.4 प्रतिशत किसान ही साल के आधे समय कृषि कार्य में पूरी तरह व्यस्त रहते हैं। मतलब यह कि आजीविका के लिए राज्यवासियों को एक नहीं कई रोजगार करने पड़ते हैं। आजीविका के लिए पिछड़ी जाति और मुसलिम समुदाय के लोगों की खेती पर निर्भरता 64 प्रतिशत है। केवल 20 प्रतिशत आदिम जनजाति आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है। आजीविका के साधनों में बेहद ही अनिश्चिताएं हैं। 90 प्रतिश्त से अधिक परिवारों की आजीविका के साधन अनिश्चित हैं। खेती, पशुपालन और मजदूरी से राज्य के अधिकांश लोगों का गुजारा चलता है। अनुसूचित जनजातियों और आदिम जनजातियों की आजीविका संबंधी प्रवृत्तियों में व्यापक बदलाव आए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग की सीमा तय किए जाने के बाद वनोपजों पर उनकी निर्भरता कम हुई है। आजीविका के लिए महज दो फीसदी जनजाति ही लघु वन उत्पादों पर निर्भर हैं। जंगलों के नष्ट होने से आदिवासियों की जंगलों पर निर्भरता कम हो रही है। यही झारखंड का सच है। अब पलायन न हो तो क्या हो? इसकी मार महिलाओं पर सबसे ज्यादा पड़ती है। 
एक लाख से ऊपर दिल्ली में हैं कामगार
 आंकड़ों पर गौर करें तो करीब एक लाख से ऊपर आदिवासी महिलाएं दिल्ली में घरेलू कामगार के रूप में खट रही हैं। इनमें से कई किसी न किसी संगठन या प्लेसमेंट एजेंसियों से जुड़ी हैं। पर वे पूरी तरह असुरक्षित हैं। कई की जिंदगियां तो घरों में कैद होकर रह जाती है। इनकी सुध भी प्लेसमेंट एजेंसियां नहीं लेती। वे किस हाल में हैं, कैसी हैं, इसकी चिंता वे नहीं करती। उनकी चिंता केवल कमीशन है। इन एजेंसियों पर किसी का नियंत्रण भी नहीं है।   बेरोजगारी व अन्य समस्याओं के अलावा शहरी जीवन का आकर्षण भी पलायन का एक मुख्य कारक है। इधर, शहरी आबोहवा ने आदिवासी बालाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। अपनी ईमानदारी, परिश्रमी स्वभाव, विश्वसनीयता, विनयशीलता और भरोसेमंद आचरण के कारण इनकी मांग भी निरंतर बढ़ती जा रही है। वैसे इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते हैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन का सिलसिला शुरू हो गया था। असम के चाय बगानों में 19 वीं सदी में ही यहां से लोगों को जबरन ले जा गया था। तब से पलायन का यह सिलसिला रुका नहीं। देश आजाद हुआ, झारखंड अलग बना, इसके बावजूद झारखंड की स्थिति में कोई व्यापक परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। कम से कम आदिवासियों के जीवन की सत्यता यही कहती है।
कानून के बावजूद वनोपज पर नहीं मिला अधिकार
कानून के बावजूद इन्हें वनोपज पर अधिकार नहीं दिया गया। राज्य महिला आयोग की सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं कि आधी आबादी का सवाल जंगल से जुड़ा है। जैसे झारखंड का मतलब जंगलों का प्रदेश होना है, उसी प्रकार औरतों का जीवन यानी जंगलों का जीवन होना है। ग्रामीण महिलाएं आदिवासी व मूलवासी जंगल से ही जीती हैं। जंगल में मिलने वाले कंद, मूल, फल, चिरौंजी, महुआ, लाह, क्योंद, शहतूत, साल बीज, मधु सहित खाद्य सागों जैसे कटई, चकोड, सरला व बहुतायत में पाए जाने वाले औषधीय पौधों से उनकी जीविका चलती है। वासवी कहती हैं कि 2006 में औरतों को जंगल के वनोपज पर पूरे अधिकार दे दिए गए हैं। लघुवनोपज के नियंत्रण एवं प्रबंधन की व्यवस्था की तो औरतों का बाजार पर नियंत्रण होगा और उन्हें उचित मूल्य मिल पाएगा। लेकिन उन्हें संग्रह करने नहीं दिया जाता। इस कानून के आलोक में ग्रामीणों ने दावा पट्टा भी जमा किया, लेकिन उन्हें पट्टा नहीं दिया जा रहा। इस कानून में पति के साथ औरतों के नाम दर्ज करने का प्रावधान है, लेकिन उनका नाम दर्ज नहीं किया जाता। इससे औरतों के खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गई है। अगर महिला आर्थिक रूप से मजबूत होती तो बेटियों को पलायित क्यों होना पड़ता?
   पलायन होने के बाद काम की तलाश, काम मिलने के बाद घरेलू हिंसा व प्रताडऩा उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है। संयुक्त राष्ट्र ने घरेलू काम को एक प्रकार की दासता अथवा जबरदस्ती के श्रम की संज्ञा इसीलिए दी है। केस स्टडी भी इस बात की ताकीद करते हैं।  
केस स्टडी एक
रिश्तों के कारीडोर से मानव व्यापार
रिश्तों के कारीडोर से मानव व्यापार का आसान सफर झारखंड में आम है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि दूर के किसी रिश्तेदार ने रिश्ते को ताक पर रखकर बेटियों को दिल्ली में बेच देते हैं। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि एक रिश्तेदार ने बंदूक की नोक पर एक छात्रा को दिल्ली में 25 हजार रुपये में बेच दिया। घटना दो महीने पहले की है, लेकिन छात्रा को दिल्ली से 13 अक्टूबर को सिमडेगा लाया गया। शीला सोरेन (बदला हुआ नाम) नामक छात्रा को सिमडेगा से दिल्ली कैसे पहुंचाया गया, कहानी जितना कारुणिक है, उतना ही दिलचस्प भी। बताते हैं दो महीने पहले छात्रा सिमडेगा से बस से रांची के लिए चली। वह नर्स का कोर्स कर चुकी थी और रांची के गोस्सनर कालेज में आइए की छात्रा थी। हास्टल में रहकर पढ़ाई करती थी। बस में चढऩे के बाद वहीं से दो दलाल लग लए। ये कोई और नहीं, गांव के जीजा ही थे। नाम है तरबेज। उसके साथ एक और आदमी था। बस चली तो कोलेबिरा में छह और दलाल चढ़ गए। इस तरह दलालों की संख्या हो गई आठ। वे वहां से कांटाटोली बस स्टैंड पर उतरे। इस बीच छात्रा के सारे स्कूली प्रमाण पत्र का बैग अपने कब्जे में कर लिया और धमकी देने लगे। छात्रा के पास कोई चारा नहीं था, सिवाय उनकी बात मानने के। वे बस स्टैंड से उसे सीधे रांची रेलवे स्टेशन ले गए और रात्रि में संपर्क क्रांति से दिल्ली। वहां पर उस छात्रा को 25 हजार में बेच दिया। जिस मकान मालिक को बेचा, उसका मकान नंबर था गांधी विहार, डी 361। वहां वह किसी तरह काम करने लगी। इसी बीच एक दिन उसे अपने परिजनों से बात करने का मौका मिल गया और उसने अपने घर वालों को खबर कर दी। परिवार वाले सोच रहे थे कि बेटी रांची में है। अचानक इस खबर से उनके होश उड़ गए। इसके बाद शुरू हुई खोज खबर। 21 सितंबर को यह सूचना परिजनों को मिली। जिला परिषद अध्यक्ष व एसपी तक बात पहुंचाई गई। सात-आठ अक्टूबर को आपरेशन शुरू हुआ और लड़की को आजाद करा लिया गया। वहां से दिल्ली पुलिस रांची लेकर आई और यहां से सिमडेगा पहुंचा दिया। दलाल पुलिस के हत्थे चढ़ गया है। पता चला कि वह दिल्ली में प्लेसमेंट एजेंसी चलाता है। एटसेक के संजय मिश्र बताते हैं कि जितनी लड़कियां ट्रैफिकिंग की शिकार होती हैं, उनमें 51 प्रतिशत मामले ऐसे होते हैं, जिनके दूर के जीजा ही पैसे के लोभ में दिल्ली पहुंचा देते हैं। इनमें 77 प्रतिशत एसटी होती हैं, 12 प्रतिशत एससी। सामान्य 3 और पिछड़े समाज से 8 प्रतिशत। संजय मिश्र बताते हैं गांव में रोजगार नहीं होने के कारण भी लड़कियां दिल्ली पहुंचा दी जाती हैं। लेकिन यह मामला एकदम अलग है और ऐसा मामला पहली बार सामने आया है।
केस नंबर दो
टोले की ही महिला ले गई दिल्ली

नामकुम प्रखंड की पतरा टोली की सरिता 2007 से 2010 तक दिल्ली के हरिनगर में रही। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहने के कारण वह कमाने के लिए दिल्ली चली गई। टोले की ही महिला उसे दिल्ली ले गई। एजेंट के माध्यम से उसे काम मिल गया। नौवीं तक पढ़ी सरिता बताती है कि जिस घर में वह काम करती थी, वहां कोई परेशानी तो नहीं थी, लेकिन कुछ लड़कियां जब मिलती थीं तो वह अपना दुखड़ा सुनाती थीं। वह यह जरूर बताती है कि एजेंट काफी पैसा खा जाता है। आधा दिल्ली ही झारखंडी लगता है। अभी इसी साल के मई में उसकी शादी हुई है। ससुराल उसका सिमडेगा में है और पति राजमिस्त्री का काम करता है। सरिता बताती है कि उसकी छोटी बहन भी दिल्ली गई थी लेकिन छह माह के बाद ही वापस आ गई। सरिता कहती है कुछ अपना शौक पूरा करने के लिए दिल्ली जाती हैं, कुछ अपनी मजबूरियों के चलते तो कुछ अपने परिवार का सहयोग करने के लिए।
केस नंबर तीन
दिल्ली गई पर नहीं लौटी सुगिया

सुगिया की किस्मत दूसरी लड़कियों की तरह नहीं है। वह पिछले तीन साल से दिल्ली में गुम हैं। उसका कोई अता-पता नहीं है। वह भी गांव की तीन लड़कियों के साथ दिल्ली गई थी। तीनों लड़कियां तो वापस आ गईं, लेकिन सुगिया नहीं आ सकी। सुगिया के पिता बितना उरांव उसे खोजने दिल्ली भी गए, लेकिन दिल्ली के जनसमुद्र में सुगिया को कहां से ढूंढे? थानों की चौखटों पर गुहार लगाई। दिल्ली हो, मांडर हो या रांची...पुलिस की कार्यपद्धति एक। संस्कृति एक। फिर, गरीब की कौन सुने? थक हारकर अब बैठ गये हैं। बितना बताते हैं कि सुगिया तीन साल पहले गई थी। उसके साथ तीन अन्य लड़कियां भी गई थीं। जूली, रूपनी व गंगा। सुगिया बहुत सीधी-साधी थी। जो होशियार थीं, वे तो वापस आ गईं, लेकिन सुगिया का नसीब फूटा था। एक दो लड़कियां अभी भी वहीं हैं। वे अपने घर पैसा भी भेजती हैं। कौन ले गया था? इस सवाल पर बितना बताते हैं कि गांव की विनीता नामक दलाल ले गई थी। ले जाने के एक साल बाद ही पता नहीं उसकी किसी ने हत्या कर दी। गांव के एक कुएं में उसकी लाश मिली। यह वाकया 2009 का है। सुगिया जब गई तो उसकी उम्र महज 13 साल थी। अब तो सोलह की हो गई होगी। कहां होगी, किस हाल में होगी, पता नहीं।
केस नंबर चार
घर की माली हालत ने भेजा दिल्ली

मांडर के डुहू टोली के रमणी की कहानी कुछ दूसरी है। वह भी गई थी दिल्ली कमाने। दो साल एक घर में काम किया। किस्मत उसकी अच्छी थी। अच्छा घर मिला। सो, वह घर का काम करते हुए कुछ पढ़ती भी। घर की माली हालत होने के कारण ही उसे दिल्ली जाना पड़ा। जब घर की स्थिति थोड़ी सुधरी तो वह लौट आई। अब वह मांडर में ही दसवीं कक्षा में पढ़ रही है। रमणी बताती है दिल्ली में परिवार के ऊपर निर्भर करता है। परिवार ठीक रहा तो यहां की लड़कियों को कोई दिक्कत नहीं होती। दूसरे, एजेंसियों पर भी निर्भर करता है कि वह किस तरह के परिवार के पास भेज रहा है काम करने के लिए। बहुत सी ऐसी लड़कियां ऐसी होती हैं कि वे अपने सगे-संबंधियों से बातचीत भी नहीं कर पातीं। कुछ को तो पता ही नहीं रहता कि वे दिल्ली में कहां, किस मुहल्ले में रह रही हैं। दिल्ली कोई गांव तो है नहीं। लाखों की आबादी में कहां किसी को खोजें। 
केस नंबर पांच
दस साल से लापता है मेरी बेटी

हटिया के हरिजन बस्ती की रहने वाली 45 वर्षीया चंपा देवी कहती हैं कि दस साल से मेरी बेटी रितू समद लापता है। जब गई चौदह की थी, अब चौबीस की हो गई होगी। उनकी दो बेटियां हैं। एक के हाथ वह पीले कर चुकी है। दूसरी लापता...। एक बेटा बीए करते-करते रह गया। जगन्नाथपुर के बर झोपड़ी की रहने वाली किरन अपनी बहन का पता नहीं लगा सकी। बहन भी दस साल से गायब है। किरन कहती है, दीदी सोनी लोहार के साथ दस साल पहले दिल्ली गई थी। दीदी उसके पहले भी वहां रह चुकी थी। सो, उसके साथ गई। कुछ दिन बाद वह कहां गायब हुई, पता नहीं चल सका। मौसीबाड़ी की रूपा की कहानी भी जुदा नहीं है। उसकी बहन सोनी ठाकुर भी आठ साल से लापता है। 12 वर्ष की थी कि दिल्ली गई, लेकिन आज तक नहीं लौट पाई। बस्ती की ही सरस्वती यहां की लड़कियों को काम दिलाने के नाम पर दिल्ली ले जाती है, लेकिन लड़कियां दिल्ली में कहां गुम हो जाती हैं पता नहीं चलता। सिलदा खूंटी की जगनी पहाइन की बेटी सीमा 2002 से गायब है। वह अब खोजते-खोजते थक गई है।
चार लौटीं, तीन लापता
गढ़वा जिले का एक साल पहले दिल्ली में बेची गई सात आदिवासी लड़कियों में से चार लड़कियों को मुक्त कराकर 27 नवंबर को पुलिस और परिवार वाले लौटे। इनमें से तीन लड़कियों का पता अभी तक नहीं चल सका है। इन लड़कियों को 2010 के अगस्त व अक्टूबर में बहियार खुर्द से पढ़ाने, सिलाई कढ़ाई सिखाने के नाम पर गढ़वा जिले के रमकंडा थाने के करुणा तिर्की व विजय कच्छप की पत्नी इन्हें दिल्ली ले गईं और बेच दी। इनमे से एक दलाल जो जेल में बंद थी, उसके साथ पूछताछ किया गया तो मामला सामने आया। दिल्ली से मुक्त कराकर लाई गई लड़कियों ने बताया कि वहां सिर्फ खाना मिलता था, पैसे नहीं। अभी भी बहियार खुर्द की सोनांचल कुमारी पिता लालमनी उरांव, बबीता कुमारी पिता रामलाल उरांव व गीता कुमारी पिता रामाधार उरांव दिल्ली में ही है। उन्हें अभी नहीं खोजा जा सका है। 
     इन छह केस स्टडी से कई बातें साफ हैं। महिलाओं के पलायन के पीछे आर्थिक मजबूरी तो है ही, शहरी आकर्षण भी एक मुद्दा है। हम इन्हें अपने राज्य में रोजगार नहीं दे पा रहे। कुछ लड़कियों को सब्जबाग दिखाकर ले जाया जाता है और उन्हें बेच दिया जाता है। इसमें गांव के लोग ही शरीक होते हैं। गढ़वा की सात लड़कियों को एक साल पहले दिल्ली ले जाया गया और बेच दिया गया। चार तो वापस आ गईं, लेकिन तीन का अता-पता नहीं हैं। इस तरह न जाने कितनी लड़कियां हैं, जिन्हें दिल्ली में बेच दिया गया है। मानव व्यापार का यह धंधा महिला नीति के अभाव में भी फल-फूल रहा है।
    सेंटर फार वल्र्ड सालिडेरिटी को प्रोग्राम आफिसर जानकी दुबे कुछ नए तथ्यों का खुलासा करती हैं। कहती हैं कि पूर्वी सिंहभूम से भी पलायन शुरू हो गया है। अब तक यह क्षेत्र अछूता था। पोटका प्रखंड के पांच गांवों से 25 लड़कियां तीन-चार साल से लापता हैं। जानकी दुबे बताती हैं कि आंगनबाड़ी बंद है। मध्याह्न भोजन बच्चों को नहीं मिलता है। बिचौलिए हावी हैं। नाम पता जानने के बाद भी पुलिस बिचौलियों को नहीं पकड़ती। जिससे उनका मनोबल बना रहता है और एक पर एक घटना को अंजाम देते हैं।  
 समाज कल्याण, महिला एवं बाल विकास मंत्री विमला प्रधान कहती हैं कि वन स्तर को ऊंचा उठाने, नारी उत्पीडऩ की घटनाओं पर कारगर रोक लगाने तथा पलायन की घटनाओं पर रोक लगाने में प्रभावशाली भूमिका निभा सकती है। राज्य सरकार द्वारा महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संरक्षण देने के लिए अनेक लोकप्रिय कार्यक्रम एवं योजनाएं तैयार की गई हैं। अगर सही रूप में उसे सर-जमीन पर उतार दिया जाए तथा लाभुकों तक योजनाओं को पहुंचाने के लिए पहल की जाए तो राज्य की महिलाओं को हर स्तर उचित भागीदारी एवं सम्मान मिल जाएगा। इस मामले में सरकार को गंभीर होना होगा। मनरेगा भी महिलाओं को काम नहीं दे पा रहा है। विगत एक साल में झारखंड से दूसरे प्रदेश में पलायन करने वालों में ग्रामीण महिलाओं की संख्या 80 हजार के लगभग हैं। इससे साफ होता हैं कि मनरेगा से झारखंड की महिलाओं का पलायन रोका नही जा सका हैं। आज तक महिलाओं को सरकारी योजना से नहीं जोड़ा गया है। इसकी वजह से पलायन जारी है। रांची के आस पास के गांव से महिलाएं बाहर जा रही हैं। आखिर पलायन क्यों जारी है ? गांव में कानून बन कर आता है और ब्लॉक में अटक जाता हैं। ब्लॉक में दलालों और ठेकेदारों के बीच योजनाएं घूमती रहती हैं। जबकि इस क्षेत्र में महिलाएं गरीबी और भूखमरी का जीवन जी रही है। गरीबी और भूखमरी ने दूसरे राज्यों में जाने को मजबूर कर दिया है। महिला आजीविका के सवाल पर अपने राज्य में कोई कानून नहीं बना। वनाधिकार के तहत पट्टा देने में भी लापरवाही बरती जाती है। 2006 में पारित हुए इस कानून के प्रभावी किन्यान्वयन में फारेस्ट विभाग की सबसे बड़ा रोड़ा है। वह नहीं चाहता कि महिलाओं को उनका वाजिब अधिकार मिले।
 
जीजा ही पहुंचा देते हैं दिल्ली
दिल्ली जाने वालों में अशिक्षित लड़कियों की संख्या सबसे अधिक होती है। यानी 67 प्रतिशत। इनमें 51 प्रतिशत लड़कियों की संख्या ऐसी होती है, जिनके जीजा ही दिल्ली पहुंचा देते हैं। इसके बाद पडïोसियों का नंबर आता है।
कहां-कहां जाती हैं
जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उससे पता चलता है कि झारखंडी की लड़कियां दिल्ली में सर्वाधिक हैं। इनमें हरियाणा-पंजाब भी शामिल है। दूसरा प्रदेश है बिहार, तीसरा है उत्तर प्रदेश, चौथा है पं बंगाल, पांचवां है नार्थ इस्ट, छठवां है कोलकाता, सातवां मुंबई, आठवां उड़ीसा। राज्य सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि वह बता सके कि झारखंड की लड़कियां कहां और कितनी संख्या में काम कर रही हैं। कितनी लापता हैं? यह सब गैरसरकारी संगठनों की बदौलत चल रहा है।  
हर साल 33 हजार लड़कियों का पलायन
झारखंड से एक वर्ष में करीब 33 हजार लड़कियों का पलायन होता है। सबसे चौंकाने वाली बात यह कि लड़कियों के लिए सर्वाधिक असुरक्षित जगहों में राजधानी रांची का भी नाम शुमार है। इसके अलावा पाकुड़, साहेबगंज, सिमडेगा, गुमला, गिरिडीह, चाईबासा जिलों का भी वही हाल है। ये बातें राच्य महिला आयोग की ओर से मानव व्यापार रोकने के लिए आयोजित उच्चस्तरीय बैठक में उभर कर सामने आई थी।
कहां-कहां से होता है पलायन
सर्वाधिक पलायन कहां सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा, रांची, पाकुड़, साहेबगंज, दुमका, गोड्डा तथा गिरिडीह जैसे आदिवासी बहुल इलाकों से सर्वाधिक है। खासकर गिरिडीह के इसरी बाजार में चोरी-छीपे ही सही महिलाओं की खुली बोली भी लगती है। कई मौके पर ही शादी कर और कई शादी का प्रलोभन देकर उन्हें महानगरों में बेच रहे हैं।
दिल्ली रिटर्न कहलाती हैं लड़कियां
दिल्ली से वापस आने वाली लड़कियों को दिल्ली रिटर्न कहा जाता है। अपने गांव वापस आने पर इनकी शादी में बड़ी कठिनाई होती है। लोग ऐसी लड़कियों से रिश्ता जोडऩे में परहेज करते हैं। एटसेक के राज्य सचिव संजय कुमार मिश्र कहते हैं, दिल्ली रिटर्न कहकर इन लड़कियों को जहां समाज स्वीकार नहीं करता, वहीं सरकार भी इन्हें मुख्यधारा से जोडऩे की दिशा में उदासीन है। नतीजतन पलायन का सिलसिला जारी है। 
अवैध एजेंसियों की भरमार
दिल्ली में वैध 123 रजिस्टर्ड एजेंसिया हैं, जो प्लेसमेंट दिलाने का कार्य करती है, जबकि अवैध एजेंसियों की संख्या तकरीबन 1100 से भी अधिक है। जहां तक झारखंड की बात है, यहां एक भी ऐसी पंजीकृत एजेंसी नहीं है। बावजूद बिचौलिये कमीशन की चाह में प्रलोभन देकर किशोर-किशोरियों को फांसते हैं और महानगरों में कार्यरत एजेंसियों के हवाले कर देते हैं।
नौ महीने में 94 को बेच डाला
समाज, कल्याण, महिला एवं बाल विकास मंत्री विमला प्रधान कहती हैं कि ऐसा खुशहाल जिंदगी का सपना दिखाकर दलाल बच्चियों को बेच डालते हैं। प्रधान स्वीकार करती हैं कि ऐसा आर्थिक तंगी के कारण ही होता है। जिसके वजह से माता-पिता उन्हें स्वयं दलदल में धकेल देते हैं। प्रधान कहती हैं अप्रैल से लेकर अब तक 13 बच्चों सहित 81 बच्चियों को दलालों से मुक्त कराया गया है। अब सरकार एफएम और टीवी केे जरिए जागरूकता फैलाने पर विचार कर रही है। प्रधान कहती हैं कि जो परिजन इन किशोरियों केे भरण-पोषण में सक्षम नहीं होंगे, उन्हें विशेष व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर स्वावलंबी बनाया जाएगा। देर से ही सही, यदि विमला प्रधान ऐसा कुछ कर देती हैं तो झारखंड केे माथे पर लग रहा कलंक मिट सकता है। और, किशोरियों अपने घर पर ही रहकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं।
क्या है उपाय
आखिर पलायन रुके कैसे? इसका सीधा सा जवाब है। एटसेक के संजय मिश्र कहते हैं कि महिलाओं से जुड़ी जो भी योजनाएं हैं, उसे ईमानदारी से लागू किया जाए। बिचौलियों पर कड़ी कार्रवाई हो। रोजगार के साधन अपने प्रदेश में ही मुहैया कराई जाए। बीकेसी ने 30 लड़कियों को टे्रनिंग देकर उन्हें कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय में सुरक्षा गार्ड में लगवा दिया। ये लड़कियां उग्रवाद प्रभावित जिलों से थीं, जहां उन्हें कई नक्सली समूह अपने गुट में शामिल करने का दबाव बना रहे थे। जानकी दुबे एक और सुझाव देती हैं। मुख्यमंत्री लक्ष्मी लाडली योजना यदि ईमानदारी से लागू हो गई तो पलायन पर अंकुश लग जाएगा। क्योंकि इस योजना के तहत उन्हें इतनी राशि मिलेगी कि वे अपने परिवार पर बोझ नहीं रहेंगी। हालांकि इसका असर बाद में दिखेगा। वासवी किड़ो सुझाव देती हैं कि वनोपज पर महिलाओं को अधिकार देना चाहिए। इन्हें अधिकार देकर हम उन्हें स्वावलंबी बना सकते हैं। इनको पूरा हक और नियंत्रण मिलना चाहिए। झारखंड में बहुतायत महुआ, साल बीज और इमली के व्यापार पर औरतों का नियंत्रण कायम कर उनका सशक्तिकरण किया जा सकता है। इससे वे आर्थिक रूप से भी मजबूत होंगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी सुधार होगा। पंचायत में महिलाओं को अधिकार देकर हमने उस दिशा में एक कदम बढ़ा दिया है। एक्टिविस्ट आलोका कहती हैं कि झारखंड में आदिवासी महिलाओं को जमीन पर अधिकार नहीं है। अभी जमीन के हक पर बहस चल रही है। ग्रामीण स्तर पर निर्णय की प्रक्रिया में भी भागीदारी नहीं है। ऐसी स्थिति में पलायन उनके जीवन की नियति है। समाज अपने निर्णय में उन्हें शामिल नहीं करता।
   झारखंड मीडिया फेलोशिप के तहत अध्ययन रिपोर्ट

गुप्तकथा

 गोपालराम गहमरी की यह रचना 1913 में बंबई से प्रकाशित हुई थी। वेंकटेश प्रेस से यह आई थी। यहां पर गहमरी जी काम भी करते थे। बाद में जासूस निकालने लगे। इसकी एक प्रति बची थी तो उन्‍होंने बंबई से भेज दिया। अभी लमही के अप्रैल जून अंक में इसे पुन: प्रकाशित कराया है। अब नेट पर भी यह रचना घूम रही है। आप भी इसे देखें पढे और अपनी प्रतिक्रया दें। जल्‍द ही उनके संस्‍मरणों की एक किताब आप सब के हाथों में होगी। -संजय

 

गुप्तकथा  

पहली झाँकी
जासूसी जान पहचान भी एक निराले ही ढंग की होती है। हैदर चिराग अली नाम के एक धनी मुसलमान सौदागर का बेटा था। उससे जासूस की गहरी मिताई थी। उमर में जासूस से हैदर चार पाँच बरस कम ही होगा, लेकिन शरीर से दोनों एक ही उमर के दीखते थे। मुसलमान होने पर भी हैदर जैसे और मुसलमान हिंदुओं से छिटके फिरते हैं, वैसे नहीं रहता था। काम पड़ने पर हैदर जासूस के साथ अठवाड़ों दिन रात रह जाता और जासूस भी कभी-कभी हैदर के घर जाकर उसके बाप चिराग से मिलता, उसके पास बैठकर बात करता था। चिराग अली भी इस ढंग से रहता था कि उसको जासूस अपने बड़ों की तरह मानता जानता था।
उन दिनों चिराग अली सत्तर से टप गया था। उज्ज्वल गौर बदन पर सफेद दाढ़ी मूँछ, सब शरीर भरा हुआ कांतरूप देखकर चिराग अली में सबकी भक्ति हो सकती है। इस बूढ़ेपन में भी देखने से जान पड़ता है कि चिराग अली चढ़ती जवानी में एक सुंदर रूपवान रहा होगा।
चिराग अली को कभी किसी ने किसी से टूट कर बोलते भी नहीं देखा। कोई उसका कुछ अपमान भी करे तो चिराग उसको सह लेता और उससे हँसकर बोलता था। कोई भीख माँगने वाला चिराग के द्वार से खाली हाथ नहीं गया।
सुनते हैं चिराग अली ने पहले बोट का काम शुरू किया और उसी काम से वह होते-होते एक मशहूर धनी हो गया। अपने बाहुबल से चिराग ने धन कमाकर राजमहल सा निवास भवन बनवाया और बहुत सा रुपया खजाने में जमा किया।
चिराग अली के महल में सदा आदमियों की भीड़ रहती थी। अपने परिवार में तो चिराग को अपनी बीवी, बेटे, बेटे की बीवी और कुछ छोटे-छोटे बच्चों के सिवाय और कोई नहीं थे किंतु धन होने पर जगत में मीत भी खूब बढ़ जाते हैं, इसी कारण चिराग के घर में खचाखच आदमी भर गए थे। उनमें बाप बेटे के नौकर चाकर स्त्रियों की दासी और बहुत से ऐसे नर नारी का समागम था जो धनहीन होने के कारण चिराग अली के साये में आ गए थे। चिराग अली अपने घर ही आए हुए गरीबों को नहीं पालते थे बल्कि बाहर भी बनेक दुखी दरिद्र लोगों का पेट भरते थे। इन सब बातों को कहने के बदले इतना ही ठीक होगा कि चिराग अली जैसे गंभीर मिलनसार और सबसे मीठे बोलने वाले थे वैसे ही दानी भी खूब थे। दया से उनका हृदय भरा पूरा था।
हैदर बाप के समान मीठा बोलने वाला और दानी नहीं था तो भी बुरे स्वभाव का आदमी नहीं था। हैदर का चाल चलन और दीन दुखियों पर उसकी समता देखने वाले मन में कहते थे कि वह भी बाप की तरह एक दयालु और दीनबंधु हो जाएगा।
बाप बेटे के चाल चलन के बारे में जो कुछ यहाँ हमने कहा है, उससे अब और कहने का काम नहीं है। हम इतना ही कहकर उनके गुणवर्णन का अध्याय पूरा करते हैं कि चिराग अली मानों अपने नगर का चिराग ही था। और सब लोगों में उसकी जैसी मान महिमा थी अपनी बिरादरी में भी वैसी ही बड़ाई थी। जहाँ कहीं जातीय सभा समाज भरती, वहीं चिराग अली को सभापति संपादक होना पड़ता। जहाँ कहीं किसी तरह का पंचायती मामला आता वहाँ चिराग अली के राय बिना उसका निबटारा नहीं होता था। मतलब यह कि हर तरह के काम में चिराग अली ही अगुआ था।
दूसरी झाँकी
दो तीन महीने बाद जब जासूस बाहर का काम करके कलकत्ते पहुँचा, उसके दूसरे दिन सवेरे पौ फटते ही हैदर उसके पास आया। पहले जैसे वह जासूस मिलता था आज उसका मिलना वैसा नहीं था। हैदर का चेहरा ही देखकर जासूस ने ताड़ लिया कि, हो न हो आज कुछ दाल में काला है। हैदर मुँह से बात करता है लेकिन भीतर धुकधुकी लगी है। आँखों से देखता है लेकिन उनमें पहले सी ज्योति नहीं हैं।
उसको देखकर जासूस ने पूछा – ‘क्यों हैदर! आज तुम्हारा चेहरा ऐसा क्यों है? घर में सब कुशल तो है? पिताजी तो अच्छे हैं न?’
हैदर ने कहा – ‘आपका समझना ठीक है। मैं सचमुच बहुत दुखी हूँ। और उस दुख को कहने ही के लिए आपके आया हूँ मेरे बाप मरने की दशा को पहुँचे हैं। अब जान निकले कि तब, बस यही बात हो रही है डाक्टर वैद्य दवा करते हैं सेवा के लिए भी नौकर चाकर उनको हाथों हाथ लिए हुए हैं, लेकिन किसी तरह उनकी बीमारी में बीच नहीं पड़ता। उनसे कोई हाल पूछे तो कुछ बतलाते नहीं। इतना ही कहते हैं कि, अबकी बचना नहीं है चाहे कितनी ही दवा दारू करो। अब मेरा मरने का ही दिन आ गया है। अब कहिए क्या किया जाए? मेरी तो अकल काम नहीं करती। अभी मैंने सुना कि, आप कल बाहर से आए हैं। इसी से दौड़ा आया हूँ कि उनका हाल सुनकर आप कुछ तदबीर बतलावेंगे।’
जासूस ने पूछा – ‘अच्छा! उनको क्या हुआ है सो कहो तो मैं अपनी राय पीछे कहूँगा।’
‘अच्छा आप सुनिए मैं उनका सब हाल कहता हूँ।’ कहकर हैदर कहने लगा -
‘तीन महीने हुए। एक दिन मैं संध्या को पिता के पास बरामदे में बैठा था। इतने में एक बूढ़े मुसलमान मेरे पिता से मिलने आए, ज्योंही आकर हम लोगों के पास की पड़ी कई कुरसियों में से एक पर बैठे त्योंही उन्होंने पिताजी से कहा – ‘क्यों? आप मुझे पहचानते नहीं हैं?’
पिता ने कहा – ‘आपका चेहरा हमें याद तो आता है लेकिन यह नहीं याद आता कि आपसे कहाँ मिले थे।’
जवाब में बूढ़े ने कहा – ‘मै एक बात बतला देता हूँ उसी से आपको याद आ जावेगा। मैं आपसे बंबई प्रदेश के एक गाँव में मिला था। आपको वहाँ के अली भाई का नाम याद होगा, मैं भी वहीं रहता हूँ मेरा नाम इब्राहिम भाई है।’
इतना सुनते ही पिता जी का चेहरा बदल गया। उन्होंने मुझे कहा – ‘बेटा! तुम थोड़ी देर को यहाँ से हट जाव मैं इनसे बात करूँगा।’
पिता की बात सुनकर मैं वहाँ से चला गया। फिर उन लोगों में क्या-क्या बात हुई सो मैं नहीं जानता। उनकी उमर पिता से ऊँची थी। सदा वह पिता जी के पास रहते थे इसी से मैं उनका कुछ पता भी नहीं जान सका वह तभी से मेरे घर रहने लगे। उनको रहने को पिता जी ने एक कोठरी ठीक कर दी उनके आराम को दो नौकर भी दे दिए गए।
पिता को कोई और आकर उसका पता पूछता तो वह इतना ही कहते थे कि, वह लड़कपन के साथी हैं।
पहले ही दिन की बात सुनकर मैंने इतना समझा था कि उनका नाम इब्राहिम भाई है और बंबई की ओर किसी एक गाँव के रहने वाले हैं। इसके सिवाय उनका और कुछ भी हाल मैं आज तक नहीं जानता।
पहले पहल तो वह बहुत सीधे सादे से मालूम हुए लेकिन जब वह पुराने हो चले तब उन्होंने अपना बड़ा रोब जमाया। हम लोगों को दबाने लगे। नौकर चाकरों पर बेकाम का हुक्म जारी करने लगे। जो उनका हुक्म नहीं माने व मानने में देर करे उसको पिता के सामने ऊँच नीच कहने के सिवाय मारपीट भी करने लगे। पिताजी उनका वह व्यवहार देखकर कुछ भी नहीं बोलते थे। इस कारण नौकर लोग सब सहने लगे। जिनसे नहीं सहा गया वह नौकरी छोड़कर चले जाने लगे। यहाँ तक कि, बहुत से पुराने नौकर नौकरी छोड़कर चले गए। हम लोगों को उनके चले जाने से बड़ा दुख हुआ। पिताजी उस बूढ़े पर क्यों इस तरह दया करते थे इसका कारण कुछ भी हम लोगों को मालूम नहीं हुआ।
व्यापार का सब काम जिस नौकर के हाथ में था उसको भी एक दिन बूढ़े ने बहुत ऊँच नीच कहा और बिना कसूर उसको इतना सताया कि, उससे सहा नहीं गया। उसने अपना सब दुख पिताजी से कह सुनाया। उस समय बूढ़ा भी पिताजी के पास बैठा था। पिताजी के सामने भी बूढ़े ने उसको बहुत सी बातों का बाण मारा। जब वहाँ भी पिता ने कुछ नहीं कहा तब वह पुराना विश्वासी नौकरी छोड़कर उसी दम यह कहता चला गया कि, अब इस दरबार में नौकरी करने का दिन नहीं रहा। भले आदमियों की इज्जत अब यहाँ नहीं बचती।
उसके चले जाने के बाद उसका सब काम मेरे सिर पड़ा। मुझसे जैसे बना मैं सब करता ही था। एक दिन उस बूढ़े ने मेरे पास आकर कि, ‘हैदर! एक चिलम तंबाकू तो भर ला।’
उसकी बात सुनकर मैंने एक नौकर से कहा कि, उनको एक चिलम तंबाकू भरकर ला दे।
इतना सुनते ही बूढ़ा आग हो गया। उसने कड़क कर कहा – ‘क्यों हैदर! तेरा इतना कलेजा! मेरा हुक्म नहीं मानता? मैंने जो काम करने का हुक्म दिया उसे न करके दूसरे नौकर को करने का हुक्म दिया? तेरे बाप ने जो काम काम आज तक नहीं किया वह काम तूने मेरे सामने कर दिखाया?’
उस इब्राहिम भाई पर हम लोगों को पहले ही से बहुत रंज था, लेकिन, पिताजी के सबब से हम लोग उससे कुछ नहीं कह सकते थे। लेकिन, उस दिन तो मुझसे उसकी बात नहीं सही गई और मैं एक जूता लेकर यह कहता हुआ उठा कि, अच्छा मैं अपने हाथ से ही तेरा कहना किए देता हूँ। और पास जाकर उसके सिर पर कई जमा दिए।
बूढ़ा जलते तेल का बैगन होकर उठा और मुझे बहुत अंडबंड बकता हुआ चला गया। मैंने उसकी ओर फिर आँख उठाकर भी नहीं देखा।
इस तरह उसको मेरे हाथ से पीटे जाते देखकर और सब लोग मन में कितने खुश हुए सो मैं नहीं कह सकता।
इस घटना के कुछ समय पीछे पिताजी ने मुझे बुला भेजा। मैं जब उनके सामने गया तब देखा वह बूढ़ा भी वहीं उनके पास बैठा था। उसको दिखाकर पिता ने कहा -
‘क्यों बेटा! तुमने इनको जूते से मारा है?’
मैंने कहा – ‘हाँ पिताजी! अपमान से जब क्रोध के मारे नहीं रहा गया तब मुझे ऐसा करना पड़ा।’ इतना कहकर उसने मुझे जो तंबाकू भर लाने को कहा था वह सब बात कह डाली और उसने और नौकरों के साथ जो व्यवहार किया था वह भी जहाँ तक याद आया पिताजी से कह सुनाया। मेरी बात सुनकर पिताजी थोड़ी देर तक चुप रहे फिर कहने लगे -
‘ओफ! तुमने बहुत खराब काम किया है। देखो तुम्हारे एक चिलम तंबाकू भर देने से ही यह खुश थे तो उसको कर देने से ही सब बखेड़ा मिट जाता। तुमने वैसा न करके बड़ा खराब काम किया है।’
पिता की बात सुनकर क्रोध के मारे मेरा शरीर काँपने लगा। मैंने बाप के सामने जैसी बात कभी नहीं कही थी वैसी बात कह डाली। मैंने उनकी बात से बिगड़कर कहा -
‘पिताजी! आपने कभी मुझे तंबाकू भरना तो सिखलाया नहीं, न तंबाकू भरने का हुक्म दिया कि मैं उस काम को सीखता। फिर जो काम ऐसा नीच है जिसको मैंने कभी नहीं किया, वैसा काम करने के लिए मुझे वह आदमी कहे जो पराया अन्न खाकर पेट पालता है। आप चाहें खुश हों या न हों मैं उसके कहने से ऐसा काम नहीं कर सकता।’ इतना सुनकर पिताजी ने कहा -
‘अरे बेसहूर तूने ऐसा खराब काम किया है जैसा कोई नहीं करेगा। जिनको मैं इतना आदर करता हूँ उनको तुमने जूते से मारा उस पर अपने खराब काम और कसूर की माफी तो क्या माँगेगा उलटे लंबा-लंबा जवाब दे रहा है। तुमको समझना चाहिए कि तुमने जो जूते मारे वह उनके सिर नहीं पड़े मेरे सिर पर पड़े हैं। तुमने उनको नहीं मारा मुझको मारा है। अब तुमको चाहिए कि किसी तरह हाथ पाँव पड़कर इनसे माफी माँगो नहीं तो तुम्हारे हक में अच्छा नहीं है।’ मैंने उनकी बात सुन कर कहा -
‘मेरे हक में अच्छा हो या न हो लेकिन इस बात में मैं आपका कहना नहीं कर सकता। आप हमें बिलकुल अनुचित हुक्म दे रहे हैं। इसकी मार से आप क्यों दुखी हुए हैं, वह मेरी समझ में नहीं आता। यह बड़ा नीच आदमी है, साधारण पाहुने की तरह घर में आकर अब यह अपने को घर मालिक समझता है और हम सब लोगों को नौकर चाकर गिनता है। इसको अपनी पहली हालत याद नहीं है। अभी इसको मैंने इसकी करनी का पूरा फल नहीं दिया है। मैं आपके सामने कह देता हूँ, अगर यह फिर हमारे साथ इस तरह करेगा तो मैं आपके आगे ही इसे मारे जूतों के रँग दूँगा। और उसी दम कान पकड़कर बाहर करूँगा।’ मेरी बात सुनकर पिताजी बोले -
‘देखो हैदर! मैंने समझा था कि तुम हमारी लायक औलाद हो। दया माया सब बातों में लोग तुमको मेरी ही तरह आदर से देखेंगे। लेकिन अब मैं देखता हूँ तो तुमको बिलकुल उलटा पाता हूँ। जो बेटा बाप की बात टाल दे उसका मुँह देखना भी पाप है। तू अभी मेरे सामने से दूर हो जा। बड़े लोग कहते आए हैं कि पिता की बात न मानने वाला बेटा बेटा नहीं है।’ अब मैंने पिता की बात सुनकर कहा -
‘पिताजी आप मुझ पर नाहक क्रोध करते हैं। दंड दीजिए तो दोनों को दीजिए। और नहीं तो आप हमारे जन्मदाता पिता हैं आपका हुक्म मुझे सरासर आँखों से मानना है। इसी से आपकी बात मानकर मैं यहाँ से जाता हूँ लेकिन जाती बार इस बूढ़े को सिखलाए जाता हूँ।’
इतना कहकर मैंने अपने पाँव से जूता निकालकर उस इब्राहिम भाई को खूब बाजार भाव दिया। पिताजी ने बहुतेरा उनको बचाना चाहा लेकिन बूढ़ेपन से शरीर कमजोर के सबब ‘अरेरे, हैं! अरे पाजी! दूर हो दूर!’ इतना कहने के सिवाय और कुछ नहीं कह सके। पिता ने चिल्लाकर नौकरों को बुलाया लेकिन वहाँ कोई नहीं आया, तब मैं मनमाना उनकी जूतन दास से पूजा करके इतना कहता हुआ चला गया कि अब फिर भी तुम यहाँ रहे तो जानिए कि हमारे ही हाथ तुम्हारा काल है।’
मुझ पर पिताजी इतना गुस्सा हुए थे कि उनके मुँह से फिर बात नहीं निकली वह वहीं बैठे काँपते रह गए।
वहाँ से तो हट गया लेकिन घर छोड़कर कहीं नहीं गया। पास के एक कमरे में छिपकर सुनने लगा कि अब वहाँ क्या होता है। मैंने एक दरार से देखा कि बूढ़ा वहाँ से उठा और पिताजी से बोला -
‘देखो अली साहब! मैं जाता हूँ लेकिन इसका बदला ले लूँ तब मेरा नाम इब्राहिम भाई नहीं तो नहीं।’ वह बूढ़ा वहाँ से चला गया। पिता ने उसको बहुत रोका लेकिन उसने कुछ न माना। वह घमंड के मारे उनकी बात न मानकर वहाँ से चला गया।
तीसरी झाँकी
जिस दिन वह बूढ़ा मेरे घर से चला गया उसी दिन से पिताजी का रंग बदला। उनके चेहरे पर कालिमासी पड़ गई। सदा वह किसी चिंता में चुपचाप रहने लगे। चिंता के साथ ही साथ उनका आहार भी घट गया, पहले जो उनका आहार था उसका अब दसवाँ भाग भी वह भोजन नहीं कर सकते थे।
जिस दिन पिता के सामने उस बूढ़े को जूते लगाकर वहाँ से चला आया उसी दिन से फिर मैं पिता के सामने नहीं गया, लेकिन छिपकर सदा देखता रहा कि पिताजी क्या करते हैं, कैसे रहते हैं, उनका दिन कैसे बीतता है उसका सब हाल मैं नौकरों से लिया करता था। पिताजी की यह दशा देखकर मैं भी डर गया कि क्या होगा? इब्राहिम भाई के अपमान से पिताजी ने भी सचमुच अपना अपमान समझा है या क्या? मुझे इस बात की बड़ी चिंता हुई कि पिताजी किस कारण इतना दुखी हुए हैं और क्यों उनकी ऐसी दशा हो रही है। मैं दिनोंदिन इस बात की खोज करने लगा परंतु कुछ भी पता नहीं लगा कि क्या बात है? एक दिन सवेरे पिताजी अपनी बैठक में बैठे थे, देखने से मालूम पड़ता था कि वह किसी गहरी चिंता में चित्त दिए हुए कुछ मन ही मन विचार कर रहे हैं। इतने में डाकपियन ने आकर उनके हाथ में एक चिट्ठी दी। उसको बैठक में आकर अपने हाथ पिता को चिट्ठी देते हुए मैं बहुत अकचकाया, क्योंकि अब तक वह सदा द्वारपाल या और नौकरों को चिट्ठी दे जाता था। कभी भीतर बैठक में आकर अपने हाथ से पिताजी को चिट्ठी देते हुए मैंने उसके पहले किसी डाकपियन को नहीं देखा था।
लेकिन जब पीछे वह चिट्ठी मेरे हाथ आई तब देखा कि उस पर लिखा था, जिसके नाम चिट्ठी है उसके सिवाय किसी और के हाथ में नहीं देना।
डाकपियन के चले जाने पर पिताजी ने उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ा। एक बार नहीं दो बार नहीं बीसों बार उसको बड़े उत्साह से पढ़ने के बाद चिट्ठी को अपनी जेब में रख लिया।
चिट्ठी पढ़ने के पीछे पिताजी का चेहरा बदल गया। उनके कालिमामय बदन पर हँसी की उज्जवल रेखा दीख पड़ी। बहुत दिनों की प्रसन्नता जो उनके बदन से एक तरह से दूर हो गई थी, उस दिन फिर मेरे देखने में आई।
चिट्ठी के पढ़ने के पीछे पिताजी को खुश होते देख मुझे भी बडा आनंद हुआ। मैंने समझा कि पिताजी ने चिट्ठी में कुछ ऐसा शुभ समाचार पाया है जिससे उनकी चिंता दूर हो गई है। किंतु पीछे जब देखा कि उनका खुश होना बहुत थोड़ी देर के लिए था तब मन में बहुत डरा। मुझे मालूम हुआ कि बुझता हुआ चिराग जैसे अंत में एक बार चमक उठता है। मरते समय मनुष्य जैसे एक बार थोड़ी देर को सब रोगों से छुटकारा पा जाता है, पिताजी का खुश होना भी ठीक वैसा ही था।
पिताजी उस चिट्ठी को पढ़ते ही प्रसन्न होकर उठे और एक नौकर को बुलाकर हुक्म दिया कि देखो बीमारी से कई अठवाड़े बीते मेरा नहाना खाना ठीक नहीं होता, आज स्नान भोजन का ठीक-ठीक प्रबंध करना। मेरा शरीर आज भला चंगा है। हुक्म पाकर नौकर ने ऐसा ही किया। उस दिन खुशी मन से पिताजी ने आहार भी अच्छी तरह किया। आहार करने के पीछे कुछ समय लेट जाने का उनको अभ्यास था लेकिन उस दिन उसका उल्टा देखकर मुझे बड़ी चिंता हुई।
पिताजी ने आहार के पीछे ही बैठक में आकर चिट्ठी लिखना शुरू किया। इस बात से मुझे और चिंता हुई। पिताजी सदा चिट्ठी लिखने का काम नौकरों को देते थे। उस दिन पिताजी को अपने हाथ से चिट्ठी लिखते मैंने पहले पहल देखा। चिट्ठी लिखना पिताजी ने भोजन करने के बाद ही शुरू किया था किंतु अंत कब किया सो मुझे मालूम नहीं। रात के दो बजे तक जब मैंने देखा कि उनका चिट्ठी लिखना खतम नहीं हुआ तब मैं सो गया फिर कब उनकी चिट्ठी पूरी हुई सो मुझे मालूम नहीं हुआ।
दूसरे दिन जब मैं पलंग से उठा तो देखा कि पिताजी सो रहे हैं। सदा सवेरे जब वह पलंग से उठते थे उससे दो तीन घंटे बाद भी नहीं उठे तब एक नौकर ने उनको जगाना चाहा। पिताजी ने उसको कहा कि -
‘मेरा शरीर अच्छा नहीं है। न मुझ सेज से उठने की ताकत है।’
‘नौकर के मुँह से ऐसी बात सुनकर मुझसे अब रहा नहीं गया। जिस दिन इब्राहिम भाई को मैंने जूते लगाए थे उसी दिन से मैं पिताजी के सामने नहीं जाता था, लेकिन जब पिताजी की वैसी बीमारी सुनी तो नहीं रहा गया। उसी दम उनके कमरे में जाकर सेज पर एक कोने में बैठा। उनके बदन पर हाथ फेरकर देखा तो सारा शरीर आग हो रहा था। मैंने पिताजी से पूछा कि आपको क्या हुआ है? शरीर कैसा है?
‘मेरी बात सुनकर पिताजी बोले – ‘बेटा! मुझे क्या हुआ है सो मैं खुद नहीं जान सकता तुम्हें क्या बतलाऊँगा। लेकिन इतना मालूम पड़ता है कि मुझे बड़े जोर का ज्वर हुआ है और इस ज्वर से मैं अब बच नहीं सकूँगा। इसी के हाथ मेरा काल है।’ उनकी बात सुनकर मैंने कहा -
‘पिताजी! ज्वर तो बहुत लोगों को हुआ करता है। आप इससे इतना क्यों डरते हैं? फिर कलकत्ते में डाक्टर वैद्यों की भी कमी नहीं है। उनकी दवा से आप ठीक हो जाएँगे।’ मेरी बात सुनकर पिताजी बोले -
‘जब मैं खूब जानता हूँ कि इस बार मेरा आराम होना नहीं लिखा है तब बेकाम रुपया फेंकने से क्या लाभ होगा?’ मैंने उनके जवाब में कहा – ‘रुपया है किसके वास्ते। यह सब अपार धन किसका है। जिंदगी भर कमाई करके आपने यह धन जमा किया फिर आप ही के लिए यह धन नहीं खर्च किया जाए तो इस धन से क्या होगा? किस काम में लगाया जाएगा। आप चाहे मानें या न मानें मैं इसमें अब देर नहीं करूँगा। आपका शरीर सुधारने और आपको भला करने के लिए जितना रुपया लगेगा लगाऊँगा। इसमें आपके मना करने से मैं नहीं मानूँगा। मैं अभी जाकर उसका उपाय करता हूँ।’ इतना कहकर वहाँ से चला गया। और उनकी सेवा सहाय के लिए जितने दास दासी थे उनसे और अधिक नौकर नौकरानी लगा दिए। अपने पुराने और विश्वासी कर्मचारीगणों से सलाह लेकर कलकत्ते के चतुर अनुभवी नामी डाक्टर वैद्यों को बुलाकर पिताजी के इलाज में लगाए। लेकिन सब कुछ होने पर भी दिनोंदिन पिताजी की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य और डाक्टरों ने जितना ही सावधानी से दवा की उतना ही रोग बढ़ता गया। किसी दवा से लाभ नहीं हुआ। सबने उल्टा फल दिखलाया। इस शहर में अब ऐसे कोई नामी डाक्टर नहीं रहे जिन्होंने पिताजी को एक बार नहीं देखा हो। इस समय उनकी दशा बहुत खराब है। अब उनके जीने का कुछ भी भरोसा नहीं है। उनको आप भी मरती बार चलकर देख लें तो अच्छा हो। आप अभी मेरे साथ चलें तो बेहतर है।
चौथी झाँकी
हैदर की सब कथा कान देकर जासूस ने सुन ली। जासूस चिराग अली को बहुत मानता था, हैदर की बात सुनते ही उसी दम वहाँ से उठा और हैदर की गाड़ी में बैठकर उसके बाप से मिलने को चला। लेकिन रास्ते में जासूस को तरह-तरह की चिंता होने लगी। चिराग अली के घर में इब्राहिम भाई का पाहुना होकर आना, चिराग अली का उसको देवता की तरह मानना, हैदर का उसको जूते लगाना, क्रोध में आकर इब्राहिम का वहाँ से चला जाना, इन सब बातों के साथ चिराग अली की बीमारी का कुछ संबंध है या नहीं, यही विचार जासूस के चित्त में आया। चिराग अली ने वह चिट्ठी कहाँ पाई, उसमें क्या लिखा था? उस चिट्ठी को पढ़ने के पीछे उसका रंग क्यों बदला था? फिर चिराग अली ने दो बजे रात से भी अधिक समय तक बैठकर अपने हाथ से लिखा था, वह क्या था? उन्होंने जो चिट्ठी पाई थी, उसी का उत्तर था या क्या? अगर उसी का उत्तर था तो उसे उन्होंने कैसे उसके पास भेजा? मन ही मन जासूस ने विचार कर हैदर से पूछा – ‘तुम्हारे पिता को जो चिट्ठी मिली थी; वह किसने भेजी थी, उसमें क्या लिखा था, इसका तुमको कुछ हाल मिला है?’
हैदर – ‘उस पत्र में क्या लिखा था, कहाँ से आया था, किसने उसको भेजा था इस बात को जानने के लिए मेरी भी इच्छा हुई थी। यहाँ तक कि वह चिट्ठी मेरे पास आ गई। अब भी वह हमारे पास है, लेकिन उसमें क्या लिखा है सो अब तक मेरी समझ में नहीं आया। उसपर लिखने वाले की सही भी नहीं है। आप देखिए शायद समझ सकें।’
इतना कहकर हैदर ने एक चिट्ठी जासूस को दी। जासूस ने उस चिट्ठी को कई बार पढ़ा, लेकिन कुछ भी उसका मतलब नहीं मालूम हुआ। चिट्ठी में जो लिखा था।
‘अली! सब ठीक हो चुका है। अब कुछ देर नहीं है। तैयार हो जाव।
शहर बंबई।’
जासूस ने उसे पढ़कर हैदर के हवाले किया और कहा – ‘लो रखो। इस चिट्ठी से तो कुछ भी इसका मतलब नहीं मालूम हो सकता। इतना जाना जाता है कि इस चिट्ठी के लिखनेवाले ने तुम्हारे पिता से कोई काम करने के लिए कहा था। उसने उस काम को पूरा करके तुम्हारे पिता को लिखा है, लेकिन तुम्हारे पिता ने किसको किस काम के लिए कहा था, इसको वह जब तक आप नहीं बतलावेंगे तब तक जानने का कुछ उपाय नहीं है। इस चिट्ठी को पाकर जो तुम्हारे पिता खुश हुए थे, इसका कारण यही है कि उन्होंने अपने काम में सफलता सुनकर ही प्रसन्नता दिखाई थी। इस चिट्ठी की लिखी बात से उनकी बीमारी का कुछ भी लगाव नहीं मालूम पड़ता। उन्होंने जो लंबी चिट्ठी लिखी थी उसके विषय में कुछ जानते हो?’
हैदर – ‘जानने का उपाय तो बहुत किया, लेकिन कुछ भी जान नहीं सका।’
जासूस – ‘अच्छा आपने यह भी कुछ मालूम किया कि जिसके लिए वह चिट्ठी लिखी गई उसको वह भेजी गई या नहीं?’
हैदर – ‘मैं जहाँ तक जानता हूँ जिस रात को वह पूरी हुई, उस रात को तो रवाना नहीं हुई, क्योंकि दो बजे रात तक मैं खुद जागता रहा और बाद का हाल नौकरों से पूछा तो उन्होंने भी ऐसी कोई बात नहीं कही, जिससे उसका रवाना होना मालूम होता।’
जासूस – ‘तो मैं समझता हूँ उन्होंने जो कुछ लिखा था वह चिट्ठी नहीं थी। उन्होंने अपनी बीमारी से मरने का अनुमान करके अपने मरे पीछे अपनी संपत्ति का प्रबंध करने के लिए वसीयत लिखी होगी और उसे कहीं बाहर भेजा भी नहीं, उनके घर में ही कहीं पड़ी होगी।
हैदर – ‘मैंने खूब ढूँढ़ा लेकिन घर में उसका कहीं पता नहीं चला।’ दोनों में ऐसी ही बातें हो रही थीं कि हैदर के मकान के सामने आ पहुँची।
पाँचवी झाँकी
हैदर और जासूस दोनों ही गाड़ी से उतर कर भीतर जाते हैं कि जनानखाने से रुलाई सुनाई दी। जाना गया कि हम लोगों के वहाँ पहुँचने से पहले ही चिराग अली का शरीर छूट गया।
चिराग अली को मरा जानकर जासूस लौट जाना चाहता था, लेकिन इस दशा में हैदर को छोड़कर जासूस से लौटते नहीं बना। आँसू सँभालता हुआ जासूस हैदर के साथ कुहरामपुरी में गया लेकिन वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि चिराग अली के कमरे में जाने का कोई ढंग नहीं है। भीतर के महल से जिन स्त्रियों ने बाहर कभी पाँव नहीं रखा था, उन्होंने भी चिराग अली की बैठक में आकर चिल्ला चिल्लाकर आकाश फाड़ना शुरू किया है। नौकर चाकर सब अलग खड़े अपने आँसू पोंछ रहे हैं। महल में रहने वालों में कोई ऐसा नहीं जिसकी आँखों से आँसू न बहता हो।
जासूस के साथ हैदर भीतर गया, लेकिन वहाँ की दशा देखने पर उससे अब रहा नहीं गया, अधीर होकर लड़के की तरह रोने लगा। अब हैदर को चुप कराना कोई सहज काम नहीं है, ऐसा समझकर जासूस ने दो चार पुराने विश्वासी नौकरों को अलग बुलाकर समझाया और कहा कि स्त्रियों को कह दो जनाने में चली जाएँ। चिराग अली के मरने की खबर सुनकर थोड़ी देर में यहाँ शहर के इतने आदमी आ जावेंगे कि तिल रखने को भी जगह नहीं बचेगी। बेहतर हो कि वह अब तुरंत भीतर चली जावें और उनका सब काम जैसा आपके यहाँ होता है किया जाए।
उन नौकरों ने वैसा ही किया। सब स्त्रियों को भीतर भिजवा दिया। जब बैठक स्त्रियों से खाली हो गयी, चिराग अली का शरीर बाहर लाया गया। उसको मुसलमानी धर्म के अनुसार पलंग पर रखकर अनेक लोग दफन करने को ले गए। साथ में हैदर भी गया।
बैठक में अब अकेला जासूस ही रह गया। मृत शरीर बिदा होने पीछे चिराग अली के अनेक हितमित्र वहाँ आए लेकिन सब चले गए। दो ही तीन आदमी उनमें से जासूस के साथ वहाँ बैठे रहे।
अब घर सूना पाकर जासूस अपना काम करने लगा। पहले धीरे से उसी घर में पहुँचा जिसमें चिराग अली बीमार होकर पड़े थे। देखा तो वहाँ जिस पलंग पर हैदर के पिता पड़े थे वहाँ दो चार टेबल, कुर्सी, तिपाई के सिवाय उस घर में कुछ नहीं था। उस घर में जासूस को जाते देखकर चिराग अली का एक नौकर वहाँ पहुँचा। उसको जासूस ने कई बार चिराग अली के पास देखा था। उन्होंने उसे चिराग अली का पुराना और विश्वासी नौकर समझा था। उसको देखते ही जासूस ने उससे पूछा – ‘क्यों जी! यही चिराग अली के सोने का कमरा है?’
नौकर – ‘हाँ साहब कुछ दिन तो इसी में सोते थे। उनके सिवाय और किसी को यहाँ सोने का हुक्म नहीं था।’
जासूस – ‘कितने दिनों से वह इस घर में सोते थे?’
नौकर – ‘हम तो पाँच सात बरस से उनको इसी घर में सोते देखते थे?’
जासूस – ‘उनका संदूक वगैर किस घर में रहता है?’
नौकर – ‘उनको मैंने किसी चीज को कभी अपने हाथ से कहीं रखते नहीं देखा। जब उनको जो चीज की दरकार होती उसको वह हैदर अली साहब से माँग लेते थे या किसी नौकर से माँगते थे।’
जासूस – ‘वह अपने जरूरी कागज पत्र कहाँ रखते थे?’
नौकर – ‘हमने तो उनको कोई भी कागज पत्र अपने हाथ से रखते नहीं देखा।’
जासूस – ‘और रुपए पैसे?’
नौकर – ‘रुपए पैसे भी हमने कभी उनको अपने हाथ से छूते नहीं देखा। जब जरूरत होती नौकरों को हुक्म देकर पूरा करते थे।’
जासूस – ‘चिराग अली ने मरने से पहले अपने हाथ एक बड़ा कागज लिखा था तुमने देखा था?’
नौकर – ‘हाँ देखा था। एक दिन दिन-रात बैठकर उन्होंने बहुत सा लिखा था।’
जासूस – ‘तुमको मालूम है, उन्होंने उसको कहाँ रखा था?’
नौकर – ‘मैं नहीं जानता कि उन्होंने उसको क्या किया?’
जासूस – ‘उसे वह किसी को दे तो नहीं गए?’
नौकर – ‘किसी को देते भी नहीं देखा। जान पड़ता है उन्होंने किसी को दिया भी नहीं। दिया होता तो हम लोग जरूर जान जाते।’
जासूस – ‘तो फिर उसको किया क्या?’
नौकर – ‘मैं तो समझता हूँ कहीं रख गए हैं।’
जासूस – ‘रख गए हों तो कहाँ रख सकते हैं तुम जान सकते हो?’
नौकर – ‘रखने की तो कोई जगह मुझे नहीं मालूम होती। अगर रखा होगा तो जरूर इसी घर में कहीं न कहीं होगा। इससे बाहर तो नहीं रख सकते थे।’
जासूस – ‘अच्छा आओ हम तुम मिलकर खोजें देखें इस घर में से कागज को बाहर कर सकते हैं या नहीं?’
अब दोनों उस घर में वही चिराग अली का लिखा लंबा कागज ढूँढ़ने लगे। उस घर में कुछ बहुत सामान भरा तो नहीं था। पलंग के सिवाय घर में ढूँढ़ डालने में पूरे पाँच मिनट भी नहीं लगे।
इसके पीछे पलंग ढूँढ़ने लगे। ऊपर जो पाँच छह तकिए रखे थे उनको खूब देखने पर भी दोनों को कहीं कागज का पता नहीं लगा। फिर दो चादर बिछी थी, उनको भी उठा कर फेंक दिया। नीचे दो तोसक थे। वह भी उठाया गया, लेकिन कहीं कागज का पता नहीं लगा। तोसक के नीचे तीन गद्दियाँ बिछी थीं। ऊपर की गद्दी निकाल डाली तो भी कुछ हाथ नहीं आया।
जब जासूस ने झटकारकर दूसरी गद्दी फेंकी तब देखता क्या है कि दूसरी और तीसरी गद्दी के बीच में एक बड़ा लिफाफा पड़ा है। उसको जासूस ने उठाकर देखा तो उसपर लिखा था – ‘मेरे जीते जी कोई इस लिफाफे को पावे तो बिना खोले हुए मेरे पास लौटा दे।’ बस इसके नीचे चिराग अली की सही। उसको पढ़ते ही जासूस ने समझ लिया कि चिराग अली ने मरने से पहले दिन-रात जागरण करके जो कागज लिखा था वह इसी लिफाफे के भीतर है, जासूस के मन में उस लिफाफे को खोलकर पढ़ने की उत्कंठा हुई लेकिन फिर मन में कुछ सोचकर यही ठीक किया कि, जब तक हैदर अली कब्रिस्तान से न लौट आवे तब तक खोलना या पढ़ना उचित नहीं है।
छठी झाँकी
हैदर अपने बाप को दफन करके सब लोगों के साथ जब घर लौट आया तब जासूस ने उसके हाथ में वही गद्दी के नीचे पाया हुआ बड़ा लिफाफा दिया और जैसे उसको पाया था सो सब कह सुनाया।
हैदर उसको लेकर पहले ऊपर का लिखा पढ़ा, फिर तुरंत लिफाफे को फाड़कर भीतर से लंबी चिट्ठी निकाली वह चिट्ठी के ही ढंग पर लिखी थी लेकिन लंबी बहुत थी। उसकी लिखावट देखते ही हैदर ने कहा – ‘यह कागज हमारे बाबा के हाथ ही का लिखा हुआ है।’
इतना कहकर हैदर ने वह लंबी चिट्ठी जासूस के हाथ मे दिया और कहा – ‘मैं बहुत थका हुआ हूँ आप ही पढ़ डालिए देखे क्या लिखा हैं?’
जासूस हैदर से चिट्ठी लेकर पढ़ने लगा। उसमें यह लिखा था :
‘बेटा हैदर! तुम्हीं एक मेरे लड़के हो। तुमको भी मालिक ने लड़का दिया है। इससे तुम खूब समझ सकते हो कि तुम हमारे कैसे प्यार हो। जिस दिन तुम्हारे ऊपर नाखुश होकर मैंने तुमको सामने से दूर कर दिया था उस दिन की बात मुझे याद है? एक साधारण बेजान पहचान के आदमी को मारा था। मैंने उसके लिए तुम्हारा अपमान किया लेकिन वह इब्राहिम भाई कौन था सो मैंने तुमको नहीं बतलाया। उसको मैं इतना क्यों मानता था, उसके अनेक बड़े बड़े कसूर मैं क्यों माफ कर डालता था, उसके समान आदमी का इतना आदर मैंने क्यों किया था, इसके बतलाने का उस दिन अवसर नहीं था, आज उन सब बातों के बतलाने का मौका आया है।
‘मैं जानता हूँ कि वह तुम्हारे ऊपर बहुत जुल्म करते थे, हमारे बहुत पुराने और विश्वासी नौकरों को भी सताते थे, कई बार मैंने उनको दास दासियों पर बेकसूर मारपीट करते देखा है, बहुत से लायक आदमी उन्हीं के जुल्म से हमारा घर छोड़कर चले गए। उन नौकरों के चले जाने से तुम लोगों को बहुत दुख हुआ तो भी मैं उन दिनों उनका हाल तुमसे नहीं कह सका वह सब कहने का मौका अब आया है।
‘वह कौन थे और मैं उनके इतने अपराध क्यों सहता हूँ यह सब तुम उन दिनों जान सकते तो उनके अपराधों की ओर तुम भी कुछ ध्यान नहीं देते, वह जो कुछ करते सब तुम भी चुपचाप देखते रहते। लेकिन ऐसा न करने से तुम इसमें कुछ भी कसूरवार नहीं हो। तुम्हारा इसमें रत्ती भर भी दोष नहीं है। मैं अब उनका सब हाल कहने के पहले अपनी ही कथा कहता हूँ उसी से तुम सब समझ जावोगे।
‘देखो बेटा! मेरा असल नाम चिराग अली नहीं है न मैं इस कलकत्ते में पैदा हुआ हूँ। मेरा असल नाम अली भाई है। बंबई हाते का मदनपुर गाँव मेरा जन्मस्थान है। इब्राहिम भाई जहाँ रहते हैं वहीं का मैं भी पैदा हुआ हूँ। मेरे बाबा कुछ बहुत मशहूर नहीं तो कोई साधारण आदमी भी नहीं थे। मैं किसी बहुत बड़े धनी के घर में पैदा न होने पर भी जैसे धनी और कुमार्गी लोगों लड़कपन में संग होने से चाल चलन बिगड़ जाता है वैसे ही मेरी भी गति हुई। बेटा! मैं अपना यह सब हाल तुमसे कहते हुए शरमाता हूँ और मैं समझता हूँ तुम इस बात को समझते होगे। लेकिन क्या करूँ मैं इन सब गुप्त बातों को तुमसे न कह जाऊँ तो तुम जिंदगी भर संदेह में पड़े रहोगे। इसी से पिता को जो बात पुत्र से कहना लोकाचार से बाहर है, उसी को मैं आज कहता हूँ।
‘जिस गाँव में मैं रहता था वहाँ एक धनी जमीदार था। वह मेरे ही बराबर का एक लड़का छोड़कर मर गया। उन दिनों मैं सोलह या सत्तरह बरस का होऊँगा। मुझसे उस धनी पुत्र की मिताई थी। बहुधा धनी के लड़कों चाल चलन जैसा होता है, उसका भी ठीक वैसा ही था। फिर उसके सदा साथ रहने से मेरा चाल चलन वैसा ही बिगड़ जाएगा, इसमें क्या संदेह था। अपने बाप के मरने पर बहुत बड़े धन का मालिक होकर उसने अपना चाल चलन और बिगाड़ दिया। उसके साथ मेरे सिवाय और भी जो दो चार कुमार्गी थे, सबने मिलकर उसके धन से बड़ी मौज मारी और इतना कुकर्म करने लगे कि उस गाँव में भले आदमियों को स्त्री पुत्र के साथ रहना कठिन हो गया। हम लोगों की आँख जिस गृहस्थ की बेटी बहन पर पड़ती थी उसको छल से हो चाहे बल से हो चाहे धन से हो किसी तरह बिना बिगाड़े नहीं रहते थे। हम लोगों के दूत ऐसे लट्ठ थे कि जिस कसम को कहो उसको तुरंत का तुरंत पूरा कर देते थे, इसी तरह कुकर्म करते हम लोगों को कुछ दिन बीत गए किसी तरह हम लोगों का पापाचार नहीं घटा।
‘जिस गाँव में मैं रहता था, उसके पास ही एक दूसरे गाँव में हमारी ही जाति का एक बहुत बड़ा धनी आदमी था। उसके एक सुंदरी जवान लड़की थी। उस सुंदरी पर हमारे उसी धनी मित्र की आँख पड़ी। उसको हाथ में लाने के लिए हम लोगों ने बहुत सी तदबीर की, जब किसी तरह मतलब नहीं निकला तो तब हम लोगों ने डाकूपना करना शुरू किया। एक दिन उस सुंदरी का बाप कहीं किसी काम को बाहर गया, उसके साथ उसके घर के और कई नौकर गए थे। हम लोगों ने जासूस लगा रखे थे। जिस दिन यह खबर मिली उसी रात को हम लोगों नें अपना मतलब पूरा करने की तैयारी की। और ठीक आधी रात को हम लोग अपने साथियों सहित उसके घर में घुस गए और उस सुंदरी लड़की को लेकर आ गए। इस काम के कर डालने के बाद बड़ा गोलमाल हुआ। उसका बाप खबर पाकर बाहर से लौट आया। घर आते ही उसने थाने में इत्तिला की। पुलिस वाले कमर कसकर उस लड़की को खोज में निकले। उन्होंने खूब ढूँढ़ खोज करने पीछे थककर रिपोर्ट की कि डकैती की इत्तिला जो गई है वह झूठी बात है उस धनी के घर पर डकैती नहीं हुई क्योंकि एक तिनका भी उसके घर का नहीं गया। जान पड़ता है कि उस धनी की विधवा सुंदरी बाहर निकल गई है। उसको उस तरह में इत्तिला करने में अपनी बेइज्जती उसने डकैती का बहाना करके इत्तिला की है। उसका मतलब यह है कि पुलिस डाकुओं की खोज करेगी और उसी में उस लड़की का पता लग जाएगा तो उसका काम निकल जाएगा।
इधर हमारे धनी मीत ने कुछ दिन तो उस जवान विधवा के साथ काटे। इतने में उनको एक और सुंदरी लड़की की बात किसी ने आ कही, तब उन्होंने अपना मन उस ओर दिया। और बहुत धन खर्च करके तो उस सुंदरी को हाथ में किया। जब यह दूसरी सुंदरी आई तब उस पहली विधवा सुंदरी पर से उनकी चाह हट गई। किंतु मैं उनको वहाँ से अलग ले जाकर अपनी स्त्री की तरह पालने लगा। मेरा उन दिनों ब्याह नहीं हुआ था इस कारण उसी पर मेरा प्रेम दिनोंदिन बढ़ता गया। होते होते मैं उसको अपनी ब्याही घरनी के समान ही जानने लगा और उसके कामों से भी ऐसा ही जान पड़ता था कि वह मुझे अपने स्वामी के समान मानती है। इसी तरह हम दोनों का एक बरस बीत गया तो भी उसके बाप ने अपनी लड़की का कुछ पता नहीं पाया। वह लड़की भी बाप को अपना पता नहीं देना चाहती थी।
‘इसी तरह कुछ दिन और बीतने पर मुझे उसके चाल चलन में कुछ खटका हुआ। धीरे-धीरे ऐसे काम देखने में आए जिनसे मैंने समझ लिया कि मेरा संदेह बेजड़ पैर का नहीं है। जहाँ मैंने उसको रखा था वहाँ इसी इब्राहिम भाई का छोटा भाई यासीन रहता था। मुझे मालूम हो गया कि वह यासीन उस पापिन से मिला है। अब मैं मन ही मन उस अभागिनी पर बहुत बिगड़ा और दोनों को कब पाऊँगा, इसी से चिंता में दिन बिताने लगा। एक दिन मैं उस पापिनी से यह कहकर बाहर गया कि अपने मित्र के साथ दूसरे गाँव को जाता हूँ तीन चार दिन पीछे आऊँगा। बस घर से चलकर मैं उसी अपने मित्र के घर रात भर रहा। दूसरे दिन भी वहीं ठहरा। जब रात हुई खाना खाकर जब मेरा मित्र सो गया था, मैं एक बड़ी भुजाली लेकर वहाँ से चला। जहाँ उस पापिनी को रखा गया था, लेकिन भीतर न जाकर दरवाजे पर चोरी की तरह छिपा खड़ा रहा।
‘जब रात बहुत गई, गाँव के लोग सो गए, सर्वत्र सन्नाटा छा गया तब वह सुंदरी साँपिन घर से बाहर निकली और दरवाजे पर आकर खड़ी हुई। उसके थोड़ी ही देर बाद यासीन भी अपने घर से आया। तब दोनों एक साथ घर में घुस गए। दरवाजा बंद कर लिया। मैं पीछे की दीवार टपकर भीतर गया। आँगन से दालान में पहुँचता हूँ कि सामने ही यासीन मिला। अपने हाथ की भुजाली से मैंने उसको इतने जोर से मारा कि वह वहीं गिर गया। यासीन को गिरते देखकर पापिन चिल्ला उठी। मैंने उसी दम उसको भी काटकर उसका काम तमाम किया। और दोनों की लाश पास ही पास रखकर बाहर आया तो देखता हूँ कि मुहल्ले के बहुत से आदमी दरवाजे पर खड़े है। जब मैं बाहर निकला तब वह सब लोग मुझे पकड़ने दौड़े लेकिन हाथ में छुरी देखकर कोई पास नहीं आया। मैं अपनी जान बचाकर जल्दी से भागा लेकिन पीछे से किसी ने आकर मेरे हाथ पर ऐसी लाठी मारी कि भुजाली धरती पर गिर गई। तब मुझे खाली हाथ पाकर कई और दौड़ने वालों ने पकड़ लिया। होते होते पुलिस को खबर मिली। और मुझे हथकड़ी डालकर उसने हवालात में बंद किया।
‘मैंने तो अपनी समझ में उन दोनों को जान से मारकर छोड़ा था लेकिन जब मैं हवालात में गया तब सुनने लगा कि यासीन और वह पापिनी दोनों जीते हैं। थोड़ी देर बाद किसी ने आकर कहा कि अब दोनों ही मर गए।
‘दो खून करने के कारण मेरे ऊपर मुकदमा हुआ। इन्हीं दिनों उस कुकर्मिनी के बाप को भी खबर मिली उसने भी सरकार में नालिश की। अब मेरे ऊपर यह अपराध लगा कि मैंने ही उसके घर में डाका डालकर उस लड़की को चुराया था और अब मैंने ही उसका खून किया है। बस उसका बाप कचहरी में खड़ा होकर मेरे ऊपर मुकदमा साबित करने की तन मन धन से तदबीर करने लगा। उधर यासीन का खून करने के कारण उसका भाई यही इब्राहिम अपने भाई का बदला लेने के लिए पैरवी करने लगा। मैं हवालत में पड़ा सड़ने लगा।
‘पेशी पर पेशी बढ़ते बढ़ाते बहुत दिनों पीछे मुकदमा चला। मेरे बाप ने खूब धन खर्च करके मुझे बचाने के लिए बड़े नामी वकील बैरिस्टर खड़े किए मेरे उस धनी मीत ने भी खर्च के लिए हाथ नहीं खींचा। उसने भी मुझे बचाने के लिए बड़ी मदद की लेकिन किसी का किया कुछ नहीं हुआ। कसूर साबित होने से जज ने मुझे फाँसी पर लटकाने का हुक्म दिया। मेरा विचार जिले में नहीं हुआ जज साहब दौरे में थे। मेरा विचार भी एक गाँव में ही हुआ। जब विचार हो जाने पर मैं जिले में लाया जाने लगा तब रास्ते में रात हो जाने के कारण एक थाने में मैं रखा गया। थाने के गारद पर दो सिपाहियों को पहरा था। जब रात बहुत गई। ठंडी हवा चली नसीब की बात कौन जानता था दोनों पहरेदार वहीं सो गए। जब मैंने गारद के भीतर से ही उनको नींद में देखा घट जोर से हथकड़ी अलग कर ली। इसमें मेरे हाथ का चमड़ा बहुत कट गया था। हथकड़ी उसी गारद में छोड़कर बाहर आने की चिंता करने लगा, लेकिन खूब अच्छी तरह देखने पर मालूम हुआ कि गारद से बाहर होने का कहीं रास्ता नहीं है जो है वह बंद है। उसमें फाटक नहीं लोहे के छड़ लगे है और उसी के बाहर दोनों पहरेदार नींद में पड़े है।
‘मैंने उन छड़ों में से एक को पकड़कर हिलाया तो हिलने लगा। मालूम हुआ कि जिस चौखट में वह जड़े हैं वह सड़ गया है मैंने जोर से एक छड़ को खींचा तो वह सटाक से काठ से अलग हो गया। एक ही छड़ के निकल जाने पर मेरे निकल भागने की जगह हो गई। मैं गारद से बाहर होकर भागा।
‘बाहर तो भागा लेकिन पहरे वाले सिपाहियों में से एक की नींद खुल गई। ‘असामी भागा’ चिल्लाते हुए दोनों मेरे पीछे दौड़े। मैं भी जितना जोर से बना जी छोड़कर भागा। काँटे कुश कैसे क्या पाँव के नीचे पड़ते हैं कुछ भी मुझे ध्यान नहीं रहा। जिसको फाँसी पर चढ़ने की तैयारी हो चुकी है उसको जान का क्या लोभ? मैं उस अँधेरी रात में ऐसा भागा कि पीछा करने वालों को मेरा पता नहीं मिला। मैं भागता हुआ एक जंगल में घुसा फिर थोड़ी देर दौड़ने पर वह जंगल भी समाप्त हो गया। मैं फिर मैदान पाकर उसी तरह दौड़ता गया और बराबर रात भर दौड़ता रहा।
‘दौड़ते दौड़ते जब सवेरा हुआ तब मुझे एक सघन जंगल मिला मैं उसी में घुस गया। मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि रात भर में कितना चला हूँ। जब दिन निकल आया उसी जंगल में दिन भर पड़ा रहा। जब सूरज डूब गया फिर मैं बाहर हुआ। और पहली रात के समान बराबर रात भर चला गया। दो रात बराबर चलने पर जी में अब भरोसा हुआ कि मैं बहुत दूर चला आया हूँ, जब सवेरा हुआ तब फिर मैं जंगल में नहीं गया। दिन निकलने पर मुझे एक बस्ती मिली। मैं एक गृहस्थ के द्वार पर गया उसने मुझे पाहुन की भाँति आदर दिया। कई दिनों बाद उस गृहस्थ का अन्न खाकर मैंने विश्राम किया। पूछने पर मालूम हुआ कि मैं अपने यहाँ से चालीस कोस दूर आ गया हूँ। दिन भर विश्राम करके फिर वहाँ से चला और जब सवेरा हुआ, ठहर गया।
‘अब मैंने अपना फकीरी वेष कर लिया। हाथ में दरयाई नारियल लेकर भीख माँगता राह काटने लगा। जहाँ कहीं सदावर्त्त या धर्मशाला मिलता वहीं पेट भर कर खाता और रात काटकर सवेरे चल देता। इस तरह छ्ह महीने चलने के बाद मैं कलकत्ते आ पहुँचा। जब मैं कलकत्ते में आया जब भीख से मेरे पास पच्चीस रुपए बच रहे थे।
‘कलकत्ता उन दिनों मेरे लिए बिलकुल बेजान पहचान का शहर था। मैं दिन भर घूमता रह गया रात भर घूमा लेकिन कहीं ठहरने को जगह नहीं मिली, कोई जान पहचान का आदमी नहीं था। बंबई की ओर के बहुतेरे मुसलमान यहाँ देखने में आए, लेकिन मैं पकड़े जाने के डर से उनके पास नहीं गया।
‘फकीरी वेश में घूमकर मैंने समझ लिया कि धनी बस्ती से बाहर छप्पर के मकानों में भाड़े पर कोई जगह लूँ तो दो तीन रुपए महीने खर्च करके बैठने को ठौर पा सकता हूँ।
‘चौथे दिन मैंने एक मुसलमान घर पर जाकर बाहर के दरवाजे के पास ही एक कोठरी सवा रुपए महीने भाड़े पर पाई। जब मैं घर में रहने लगा तब मैं अपना फकीरी रूप छोड़कर साधारण मुसलमान बन गया, लेकिन अपना पहले का पहनाव नहीं पहना।
‘कलकत्ते के साधारण मुसलमानों के वेश में मैं वहाँ रहने लगा। अब मन में यह चिंता हुई कि किस तरह दिन कटेंगे। कौन काम करूँ जिससे पेट भरे। इसकी फिकर करते-करते दस-पंद्रह दिन बीत गए। बिछौने बरतन और साधारण कपड़े तथा चावल दाल के खर्च में वह पच्चीस रुपए भी खतम हो चले, लेकिन सुख से दिन बिताने के लिए कोई ढंग नहीं किया।

‘एक दिन मैं सवेरे गंगाजी के किनारे बैठा था। जहाज पर कोई काम मिल जाता तो अच्छा होता यहीं मन में विचारता था कि इतने में एक बूढ़े मुसलमान ने आकर मुझसे पूछा – ‘यहाँ क्यों बैठा है? मैंने जवाब में कहा – ‘कोई पेट भरने के रोजगार की चिंता में बैठा हूँ।’
मेरी बात सुनकर उसने कहा – ‘अच्छा एक दिन के वास्ते तो मैं तुमको काम देता हूँ। एक जहाज पर कुछ काम करते हैं उनकी देखरेख करने को जो मेरा आदमी था वह आज काम पर नहीं आया है। तुम उस काम को कर सको तो मेरे साथ आओ मैं उस काम पर तुमको आज के वास्ते रखता हूँ।’
‘बूढ़े की बात मानकर मैं उसके साथ गया। एक जहाज पर उसके सौ कुली या सौ से ऊपर रहे होंगे, काम कर रहे थे। मुझे उनकी देखरेख के वास्ते वहाँ रखकर बूढ़ा आप वहाँ से चलता हुआ। बूढ़े ने चलती बेर कहा कि छुट्टी के समय से पहले ही मैं आ जाऊँगा।
‘ठीक समय पर बूढ़ा लौट आया। मेरा काम देखकर बहुत खुश हुआ। उस दिन और दिनों से उस बूढ़े का ड्यौढ़ा काम हुआ। सब कुलियों को मजदूरी देकर बूढ़े ने विदा किया और मुझे एक रुपए देकर उसी काम पर बीस रुपए महीने पर नौकर रखा। मेरे काम से वह दिनोंदिन खुश होता गया। यहाँ तक कि मैं पाँच बरस तक बराबर काम करता गया। पाँचवें वर्ष उसने मेरा पचास रुपए वेतन कर दिया था। उसी साल वह मर गया। उसका काम भी उसके मरने से बंद हो गया। मेरे पास जो रुपए जमा हो गए थे उससे मैंने एक बोट खरीदा और उसको भाड़े पर चलाने लगा। उससे मुझे खूब लाभ हुआ। यहाँ तक कि एक के बाद मैंने दस बोट खरीदे और उनसे मुझे इतनी आमदनी हुई कि मैं धनी हो गया। मेरी गिनती नामी महाजनों में होने लगी। मैंने छप्पर का घर छोड़कर पक्का छहमंजिला मकान लेकर उसमें आफिस खोला, उन्हीं दिनों मैंने अपना ब्याह किया। मेरा दिन ऐसा फिरा कि धन लाभ के साथ ही तुम्हारा भी जन्म हुआ। अब मेरा कारोबार खूब बढ़ गया। मैंने कलकत्ते में आते ही अपना नाम बदल लिया था। वही नाम यहाँ के सब लोग जानते हैं। मैं फाँसी का असामी हूँ। गारद से हथकड़ी तोड़कर भाग आया हूँ सो यहाँ कोई नहीं जानता।
मैंने यहाँ से अपने बाप माँ को लिख भेजा कि मैं मरा नहीं भाग आया हूँ। यहाँ अच्छी तरह हूँ। वहाँ आऊँगा नहीं न तुम लोगों से भेट करूँगा, लेकिन तुम लोगों को रुपए भेजता जाऊँगा चिट्ठी भी नहीं लिखूँगा। मैंने उसके बाद फिर उनको चिट्ठी नहीं लिखी न उनसे भेंट की। हर साल इतना रुपए भेज देता था कि उनको किसी तरह की तकलीफ नहीं होती थी। रुपए मैं कलकत्ते से नहीं भेजता था कभी मद्रास, कभी रंगून, कभी और कहीं किसी दूर शहर में जाकर वहीं से डाक में रुपए भेजता फिर यहाँ चला आता था।
‘इतने दिन मेरे इसी तरह यहाँ सुख से कटे किसी को कुछ पता नहीं लगा लेकिन न जाने से मेरी खबर पाकर इब्राहिम भाई कैसे यहाँ चला आया। तुम अब समझ गए होगे कि मैं क्यों उसको इतना मानता और उसका सब सहता था। अब वह यहाँ से बिगड़कर बंबई गया है और वहाँ की पुलिस से सब हाल बताकर उसने मुझे चिट्ठी लिखी है।
‘पुलिस अब तुरंत यहाँ आवेगी और मुझे पकड़कर बंबई ले जाएगी। यहाँ मुझे फाँसी तैयार है। बेटा हैदर! यही हमारा गुप्तभेद है।
‘पुलिस जब यहाँ आवेगी तब चुपचाप व्यर्थ मनोरथ होकर लौट जाएगी। क्योंकि मैं यहाँ नहीं रहूँगा। इस कारण कि यहाँ कुछ गोलमाल होना तुम्हारी मान मर्यादा में बट्टा लगावेगा। मैं यहाँ नहीं रहूँगा। अब मेरा मरने का समय आया है। मैं खुशी से संसार छोड़ता हूँ। बेटा! मुझे विदा दो। तुम्हारे वास्ते जो कुछ चाहिए मैंने सब कर दिया है। तुम मेरी तरह किसी कुकर्म में न फँसो मैं यही चाहता हूँ।
पूरी चिट्ठी पढ़कर सब लोग चकित हुए। जासूस ने मन में कहा। ओफ! क्या भयानक लीला है। यह बूढ़ा भी गजब का आदमी था।
इसके पंद्रह दिन बाद बंबई से पुलिस के आदमी आ पहुँचे। जब उन्होंने सुना कि अली भाई उर्फ चिराग अली अब जगत में नहीं हैं, तब दुखी होकर सब लौट गए।

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