तेलंगना,
नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम
की मिट्टी
सोनभद्र और पुनपुन की तराई में जमकर
एक नया सपना उगाने में लगी हैं-
तुम किस खोह में खोये हो?
-कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
सपने आज भी जिंदा हैं। जिंदा न होते तो महाराष्ट्र से पं बंगाल तक आंध्रप्रदेश से लेकर उड़ीसा और झारखंड तक की जंगलों में दिनों दिन आग की लपटें बड़ी नहीं होती। आज भी इन इलाकों में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई जारी है-आजादी के 63 साल बाद भी। यह देश के लिए गर्व का विषय है या शर्म का-इसका जवाब तो देश के प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं। क्या यह अजीब नहीं लगता कि देश की करीब दस करोड़ आबादी, जिसे आदिवासी कहा जाता है, वह आज भी विकास की कीमत चुका रही है? उसकी भाषा, उसकी संस्कृति सबकुछ नष्ट करने के लिए तथाकथित सभ्य समाज और उसके नुमाइंदे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे? क्या ऐसा नहीं लगता कि इस देश में लोकतंत्र का अर्थ सबके लिए एक ही नहीं है? आजादी, अभिव्यक्ति, और अस्मिता जैसे शब्द भी एक ही माने नहीं रखते। क्या वर्ग बदलते ही इनकी अवधारणा नहीं बदल जाती हैं। आजादी के बाद का इतिहास तो यही दर्शाता है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री अपने विशेष विमान से देश को संबोधित करते हुए कहते हैं दुनिया भारत को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है। मनमोहन सिंह से पूछना चाहिए कि इसमें रुकावट कौन है? उनका इशारा आदिवासियों की ओर तो नहीं है? आखिर, विकास में सबसे बड़े बाधक तो उनकी नजर में यही हैं। उनके इस संदेश के पीछे छिपे निहितार्थ तो यही लगते हैं? जैसे कारपोरेट गृहमंत्री को आदिवासी और माओवादी में अंतर नहीं समझ में आता है और इन्हें समाप्त करने के लिए उन्होंने आपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। महाश्वेता देवी पूछती हैं आपरेशन ग्रीन का क्या मतलब है? ग्रीन यानी जंगल का शिकार? क्यों भाई? इसलिए कि जंगल को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है। वे कंपनी लगाएंगे, इससे देश की तरक्की होगी। देश आगे बढ़ेगा? अब ये आदिवासी इसमें बाधक हैं। वे जंगलों में रहते हैं। माओवादी भी जंगलों में रहते हैं। तो, दोनों को खत्म करने के लिए इससे आसान रास्ता क्या हो सकता है कि सभी को माओवादी घोषित कर दो। न भी करो तो आपरेशन के बाद खुद आदिवासी जंगल छोड़ देंगे। फिर पी चिदंबरम का मार्ग निष्कंटक हो जाएगा। पं सिंहभूम आदि क्षेत्रों से ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि जवान गांवों में घुसकर महिलाओं और ग्रामीणों के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं, मारपीट कर रहे हैं। उनके उत्पात से लोग गांव छोड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ की हालत किसी से छिपी नहीं है। लेकिन जो रास्ता अख्तियार केंद्र सरकार की है, उसकी जो अदूरदर्शी सोच है, उससे लगता नहीं कि वह इस समस्या से पार पाएगी। क्योंकि जो लोग आदिवासियों के इतिहास की थोड़ी बहुत भी समझ रखते हैं वह जानते हैं कि जल, जंगल, जमीन के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। बहुत दिनों तक इनकी भलमनसाहत का फायदा नहीं उठाया जा सकता। औपनिवेशिककाल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
अंग्रेजों ने झारखंड में प्रवेश करने के बाद यहां के जंगल और जमीन पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए कई कानून बनाए। 1793 में स्थायी बंदोबस्त कानून बनाया और आदिवासियों को अलग-थलग कर दिया। जमीन के बाद जंगल पर एकाधिकार के लिए 1865 में कानून बनाया। विकास के लिए 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया। यानी शोषण को कानूनी जामा पहनाया। लेकिन आदिवासी उसके कानून के झांसों में नहीं आए। इसी का परिणाम रहा आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह। 1855 से लेकर आजादी मिलने तक कई विद्रोह हुए..मानभूम विद्रोह, चेरो विद्रोह, तमाड़ विद्रोह, कोल विद्रोह, गंगनारायण विद्रोह, संथाल विद्रोह, भुइयां टिकैत विद्रोह आदि-आदि। उल्लेखनीय है कि 1857 के महान राष्ट्रव्यापी संघर्ष से पहले ही झारखंड की धरती ने 1855 में ही संघर्ष का सिंहनाद कर दिया था। चार भाइयों सिदू-कान्हों-चांद-भैरव की अगुवाई वाले इस संघर्ष को संताल हूल के नाम से जाना जाता है, जिसमें दस हजार लोग बलिदान हुए थे। संताल गजेटियर में लिखा है, संताल विद्रोह के पीछे जमीन पर एकछत्र अधिकार की स्थापना की लालसा थी। इस विद्रोह का क्षेत्र व्यापक था और इसने लंबे समय तक झारखंड के मानस को हिलोड़ते रहा और क्रांति के लिए उकसाता रहा। इस महान हूल को मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उपेक्षित ही छोड़ दिया। यह अकारण नहीं कि सखुए की टहनी को गांव-गांव घुमाकर 30 जून, 1855 को भगनाडीह गांव में संतालों को एकत्रित होने के लिए आमंत्रित किया गया था। कहते हैं इस दिन करीब चार सौ गांवों से दस हजार लोग अपने पारंपरिक हथियारों के साथ जुटे थे। अब क्या था, क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। नारा दिया, खेत हमने बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं। इसके लिए किसी को कर देने की जरूरत नहीं है। इस वाक्य ने जो हुंकार भरी, वह अप्रत्याशित था। सालों का दबा आक्रोश अचानक फूंट पड़ा। यह अलग बात है इस संघर्ष में दस हजार लोग मारे गए। लेकिन इसने संघर्ष की पीठिका तैयार कर दी। इसके दो साल बाद 1857 में धरती फिर धधक उठी। इस बार पूरे देश में आग लग गई। झारखंड का पलामू, मानभूम, सिंहभूम, रांची और उसके आस-पास के क्षेत्रों में आग की लपटें तेज होने लगीं। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, नीलांबर-पीतांबर आदि ने जगह-जगह नेृतत्व संभाला। विद्रोह ने नया मुकाम हासिल किया। रांची, चाइबासा, चक्रधरपुर, कोल्हान, हजारीबाग आदि क्षेत्र भी रह-रह कर सुलगते-सुलगते धधक उठते। संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों के अत्याचार व शोषण में कमी नहीं आ रही था। अलबत्ता कानून बनाकर थोड़ी-थोड़ी रियायत जरूर दे रहे थे। आगे चलकर झारखंड को एक और नायक मिला, जिसने बहुत दूर तक इस राज्य को प्रभावित किया। नाम था बिरसा मुंडा। संताल हूल बीस साल बाद बिरसा का जन्म हुआ। बहुत कम आयु पाई थी। 9 जून, 1900 को रांची कारा में देहावसान हो गया। कुल पच्चीस की उम्र में पूरे झारखंड को बेचैन करने वाले इस युवा ने अंग्रेजी की चपलनीति, उनकी मानसिकता, लूट, धर्मातरण आदि पर जमकर प्रहार किया, लोगों को एकजुट किया। संघर्ष को आगे बढ़ाया। लोगों को संगठित कर साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ने का ऐलान किया.. कहा, अब सरकार की बात कानने की जरूरत नहीं है। उनका संघर्ष धीरे-धीरे पठारों से होते हुए गांवों में फैलने लगा। लोग संगठित होकर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। मुक्ति की कामना लिए हुए सैकड़ों नौजवान बिरसा के साथ हो लिए। चक्रधरपुर, खूंटी, चाईबासा, कर्रा, तोरपा, बसिया आदि में आजादी की चाह की आग सुलगने लगी। बिरसा ने डोम्बारी बुरू और सइल रकाब के सुरक्षित जंगलों से, जो खूंटी में पड़ता है, आंदोलन की धार को तेज कर दिया। 24 दिसंबर 1899 को पूर्व योजना के अनुसार मिशनों और सरकारी दफ्तरों तथा सैनिकों पर हमले होने लगे। सात जनवरी को खूंटी पर आक्रमण किया गया। बिरसा का आंदोलन बढ़ता जा रहा था। अंग्रज प्रशासन इसे किसी भी स्तर पर कुचलने के लिए तैयार थी। लिहाजा, सइन रकाब और डोम्बारी बुरू को बुरी तरह घेर लिया गया। अंग्रेजों से मुखबिरी कर दी कि बिरसा डोम्बारीबुरू पर डेरा डाले हुए है। अब अंग्रेजों का काम आसान हो गया था। उस पहाड़ को चारों तरफ से घेर लिया गया था। युद्ध शुरू हो गया। इसमें काफी लोग मारे गए। कुछ दिनों के बाद संतरा के जंगल से बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद बिरसा और उनके अनुयायियों पर मुकदमा चला। लेकिन सुनवाई के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा को लेकर खूंटी और आस-पास के क्षेत्रों में मुंडारी भाषा में गीत प्रचलित हैं। इसे कुमार सुरेश सिेह ने संकलित कर एक पुस्तक ही लिख डाली है, जिसमें बिरसा की पूरी कहानी और आंदोलन को समेटा है। खैर, भगवान बिरसा के बाद भी आंदोलन का सिलसिला थमा नहीं। बाद के दिनों में कांगे्रस का फैलाव जैसे-जैसे होता गया, गांधी का प्रभाव भी बढ़ता गया और आंदोलन का रुख भी बदलता गया। गांधी से प्रभावित झारखंड में टाना भगतों का अहिंसक आंदोलन चला। आज ये उपेक्षित हैं। क्यों, क्या ये आजादी की कीमत चुका रहे हैं?
इन आंदोलनों के पीछे क्या था? जल, जंगल, जमीन ही न? फिर आजाद देश की सरकार कैसे सोच रही है कि वह जवानों की बदौलत उनकी जमीन हड़प लेगी? वह बार-बार विकास की दुहाई देती है-दे रही है। विकास माने विनाश तो नहीं होता। आजादी के बाद और कुछ उसके पूर्व झारखंड में बडे़-बड़े उद्योग स्थापित हुए। इससे आदिवासियों का विस्थापन हुआ। उन्हें शर्त के अनुसार न मुआवजा दिया न नौकरी। बोकारो, एचईसी, कोयलकारो आदि उद्योगों-परियोजनाओं की कीमत आदिवासियों ने चुकाई और वे आज भी चुका रहे हैं। आज स्थिति और भी भयावह है। पहले सरकार के पास कुछ नैतिकता भी और समाज कल्याण की भावना भी थी। पर, 1991 के बाद सबकुछ बदल गया। मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक क्रांति का फलसफा तैयार किया, उसे उदारीकरण का नाम दिया। यह उदारता किसके लिए, गरीबों के लिए या अमीरों के लिए! समय और अनुभव तो यही बताते हैं कि पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए उदार नियम बनाए गए। इस नियम ने आम जनता को हाशिए पर ढकेला और पूंजीपति लगातार समृद्ध होते गए। करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या बढ़ती गई। इनका मुनाफा भी तेजी से बढ़ता गया। लेकिन गरीबी भी तेजी से बढ़ती गई। आज देश के सौ अमीरों के पास 276 बिलियन डालर की पूंजी है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 25 प्रतिशत है। 2008 में भारतीय अरबपतियों की संख्या 27 थी, जो एक वर्ष में बढ़कर 52 हो गई। एक वर्ष में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति पांच लाख करोड़ बढ़ी है। 2009-10 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 1100 बिलियन डालर रहने की उम्मीद है, यानी सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश का एक चौथाई पैसा सौ लोगों के पास है। यह मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण की भयावह तस्वीर का एक छोटा रूप है। दूसरी तरफ इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति (मार्च 2010) पर देश का वित्तीय घाटा 4 लाख करोड़ का होने का अनुमान है। यह सब देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उदारवादी सिद्धांत का कमाल है। जब से यह व्यवस्था लागू हुई है, एक और अरबपतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर गरीबों की संख्या। अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट बताती है कि 84 करोड़ भारतीय रोजाना बीस रुपए से कम पर गुजर-बसर करते हैं। 30 प्रतिशत ग्रामीण जनता रोज 19 रुपए और 10 प्रतिशत शहरी जनता 13 रुपए प्रतिदिन पर गुजर-बसर कर रही है। बीस करोड़ की आबादी मात्र 12 रुपए से भी कम पर अपने जीवन की गाड़ी चला रही है। कहने की जरूरत नहीं कि आम आदमी की कीमत पर ही आर्थिक विकास की इमारत खड़ी की जा रही है।
विषमता की ऐसी खाई समस्याओं को ही जन्म दे सकती है। नागार्जुन ने बहुत पहले पूछा था, भुक्खड़ के हाथों में यह बंदूक कहां से आई? इसका जवाब तो मनमोहन सिंह ही दे सकते हैं।
नई आर्थिक नीति में किसानी की चिंता नहीं, बड़े कारपोरेट घरानों की चिंता है। सरकार का ध्यान गरीबों पर नहीं अमीरों पर है। अब संसद में भी गरीबों के हक की आवाज नहीं सुनाई देगी क्योंकि संसद में भी अमीर सांसद बहुमत में हैं। कमल नयन काबरा कहते हैं कि 'आज का भारतीय राज्य एक पक्षपाती राज्य है जो पूंजीपतियों की सेवा करता है, और जनता के हितों की बेशर्मी से उपेक्षा करता है।'
अब सरकार के सरोकारों पर और कुछ कहा जा सकता है? हम जो विकास करना चाहते हैं या विकास का जो माडल हमने बनाया है, ज्यादा सही होगा कि हमने विकसित देशों से उधार लिया, उसने विनाश ही ज्यादा किया। जगह-जगह सेज बनाने की सरकार ने घोषणा कर रखी है। राज्य की सरकारें एमओयू के जरिए राज्य की संपदा को औने-पौने दामों में कंपनियों को मुहैया करा रही हैं। दुर्भाग्य यह है कि जहां-जहां मिनरल्स हैं, कोयला है, सोना है, यूरेनियम है, उन क्षेत्रों में आदिवासियों का रहवास है। और, इन्हीं क्षेत्रों में लाल आतंक फैला हुआ है। केंद्र की सरकार इनके खात्मे के लिए आपरेशन ग्रीनहंट चला रही है। कई मानवाधिकार संगठन और महाश्वेता देवी तक यही मानती हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन नक्सलियों के सफाए के लिए नहीं जंगल से आदिवासियों को बेदखल करने के लिए चलाए जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि एक ओर आपेरशन ग्रीन चलाया जा रहा है तो दूसरी ओर खनिज संपदा का हवाई सर्वेक्षण हो रहा है। आखिर, इसका क्या मतलब है? एक और प्रश्न उठता है कि आखिर, 63 साल बाद सरकार को आदिवासी इलाकों में विकास की सुध क्यों जगी? झारखंड, छत्तीसगढ़, पं बंगाल का लालगढ़ इलाका, मध्यप्रदेश के कुछ हिस्से, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश आदि में रहने वाले आदिवासियों की सुधि पहले क्यों नहीं ली गई?
अचानक, जब सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू किए और उन्हें आदिवासियों ने अपनी देने से इनकार कर दिया तो सरकार ने बहुत सुनियोजित तरीके से दुष्प्रचार करना शुरू किया। विकास का नारा उछाला। जंगलों से माओवादियों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया। इस अभियान में माओवादी भले बच निकले, आदिवासियों दोहरी मार झेलने का मजबूर हो गए हैं। एक ओर माओवादी तो दूसरी ओर आरपीएफ के जवान। अब ये पलायन न करें तो क्या करें? वैसे, सरकार के इस आपरेशन पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना ने सरकार की रणनीति और उसकी इच्छा शक्ति दोनों की पोल खोल दी है। इसने साबित कर दिया है कि उसके पास कोई ठोस योजना नहीं है। या फिर वह जवानों को शहीद करवाकर नक्सलियों की भयावहता रेखांकित करना चाहती है ताकि वह सेना को उतार सके। सेना ने चूंंकि पहले ही कह दिया है, अपनों के खिलाफ हथियार नहीं उठाएंगे। सो, कारपोरेट गृहमंत्री चाहते हैं कि इस तरह की घटना हो। गृहमंत्री जी विकास का रट लगाए हुए हैं। सवाल उठता है कि सरकार यदि आदिवासी क्षेत्रों में विकास ही करना चाहती है तो पहले उसे उन आदिवासी क्षेत्रों में विकास करके दिखाना चाहिए जो लाल आतंक से मुक्त हैं। छत्तीसगढ़ के 18 जिलों में छह जिले ही हैं जहां नक्सलियों की धमक हैं। चार जिलों में उनकी उपस्थित शून्य है। सरकार को बाकी के जिलों में विकास करके तो दिखाना चाहिए। इसी तरह झारखंड की बात कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि झारखंड के 24 जिले पूरी तरह लाल आंतक से ग्रस्त हैं। इनमें कुछ ही जिले हैं, जहां उनकी चलती है। लेकिन सरकार मौन साधे हैं। यहां तो वृद्धापेंशन के लिए भी सरकारी हाकीमों को घूस देना पड़ता है। इंदिरा आवास, बिरसा मुंडा आवास, मनरेगा आदि की हालत किसी गांव में जाकर देख सकते हैं। पर, सरकार अपने बेईमान अधिकारियों पर कोई अंकुश लगाना मुनासिब नहीं समझती।
राज्यसभा सांसद डा. रामदयाल मुंडा तो स्पष्ट कहते हैं कि विकास हो लेकिन जनता की शर्त पर, पूंजीपतियों की शर्त नहीं। उन्होंने कई बार दुहराया है कि सरकार जो भी विकास करना चाहती है, उसमें जनता कहीं भी नहीं है। इस विकास के माडल में उसे विस्थापित ही होना पड़ता है। वहीं, झारखंड के बौद्धिक अगुवा
डा. बीपी केशरी कहते हैं कि विकास से हमारा विरोध नहीं है, लेकिन सरकार उपनिवेशवादी विकास कर रही है। इस विकास से पूंजीपतियों का विकास तो हो रहा है लेकिन बड़ी आबादी भिखारी बनती जा रही है। वह कहते हैं कि सरकार आदिवासियों को खत्म करना चाहती है। आस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका में वहां के मूल निवासियों को खत्म कर दिया गया। पूरी दुनिया में कई जातियों विकास की भेंट चढ़ गई। उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया। यही काम अब अपने देश की सरकार कर रही है। वह कहते हैं कि विकास का यह जहरीला तरीका है। हमें वैकल्पिक विकास की योजना बनानी चाहिए। जनता के विकास का प्रोग्राम बनना चाहिए। विकास कैसा हो, किस तरह का हो, यह गांव की जनता सोचे। लेकिन सरकार सोच नहीं पा रही है। वन अधिकार कानून को भी ठीक से लागू नहीं कर पा रही है। जो कानून आदिवासी हितों के लिए बने भी उन पर वर्चस्वशाली जातियों ने अपने हितों की ओर मोड़ दिया। आदिवासी समाज जहां 63 साल पहले खड़ा था, वहीं आज भी खड़ा है। क्या उनके जज्बात, उनके आक्रोश, उनकी जायज मांगों, उनके हकों को लेकर हम या हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडया कभी संजीदा हुआ है?
सोनभद्र और पुनपुन की तराई में जमकर
एक नया सपना उगाने में लगी हैं-
तुम किस खोह में खोये हो?
-कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
सपने आज भी जिंदा हैं। जिंदा न होते तो महाराष्ट्र से पं बंगाल तक आंध्रप्रदेश से लेकर उड़ीसा और झारखंड तक की जंगलों में दिनों दिन आग की लपटें बड़ी नहीं होती। आज भी इन इलाकों में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई जारी है-आजादी के 63 साल बाद भी। यह देश के लिए गर्व का विषय है या शर्म का-इसका जवाब तो देश के प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं। क्या यह अजीब नहीं लगता कि देश की करीब दस करोड़ आबादी, जिसे आदिवासी कहा जाता है, वह आज भी विकास की कीमत चुका रही है? उसकी भाषा, उसकी संस्कृति सबकुछ नष्ट करने के लिए तथाकथित सभ्य समाज और उसके नुमाइंदे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे? क्या ऐसा नहीं लगता कि इस देश में लोकतंत्र का अर्थ सबके लिए एक ही नहीं है? आजादी, अभिव्यक्ति, और अस्मिता जैसे शब्द भी एक ही माने नहीं रखते। क्या वर्ग बदलते ही इनकी अवधारणा नहीं बदल जाती हैं। आजादी के बाद का इतिहास तो यही दर्शाता है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री अपने विशेष विमान से देश को संबोधित करते हुए कहते हैं दुनिया भारत को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है। मनमोहन सिंह से पूछना चाहिए कि इसमें रुकावट कौन है? उनका इशारा आदिवासियों की ओर तो नहीं है? आखिर, विकास में सबसे बड़े बाधक तो उनकी नजर में यही हैं। उनके इस संदेश के पीछे छिपे निहितार्थ तो यही लगते हैं? जैसे कारपोरेट गृहमंत्री को आदिवासी और माओवादी में अंतर नहीं समझ में आता है और इन्हें समाप्त करने के लिए उन्होंने आपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। महाश्वेता देवी पूछती हैं आपरेशन ग्रीन का क्या मतलब है? ग्रीन यानी जंगल का शिकार? क्यों भाई? इसलिए कि जंगल को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है। वे कंपनी लगाएंगे, इससे देश की तरक्की होगी। देश आगे बढ़ेगा? अब ये आदिवासी इसमें बाधक हैं। वे जंगलों में रहते हैं। माओवादी भी जंगलों में रहते हैं। तो, दोनों को खत्म करने के लिए इससे आसान रास्ता क्या हो सकता है कि सभी को माओवादी घोषित कर दो। न भी करो तो आपरेशन के बाद खुद आदिवासी जंगल छोड़ देंगे। फिर पी चिदंबरम का मार्ग निष्कंटक हो जाएगा। पं सिंहभूम आदि क्षेत्रों से ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि जवान गांवों में घुसकर महिलाओं और ग्रामीणों के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं, मारपीट कर रहे हैं। उनके उत्पात से लोग गांव छोड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ की हालत किसी से छिपी नहीं है। लेकिन जो रास्ता अख्तियार केंद्र सरकार की है, उसकी जो अदूरदर्शी सोच है, उससे लगता नहीं कि वह इस समस्या से पार पाएगी। क्योंकि जो लोग आदिवासियों के इतिहास की थोड़ी बहुत भी समझ रखते हैं वह जानते हैं कि जल, जंगल, जमीन के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। बहुत दिनों तक इनकी भलमनसाहत का फायदा नहीं उठाया जा सकता। औपनिवेशिककाल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
अंग्रेजों ने झारखंड में प्रवेश करने के बाद यहां के जंगल और जमीन पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए कई कानून बनाए। 1793 में स्थायी बंदोबस्त कानून बनाया और आदिवासियों को अलग-थलग कर दिया। जमीन के बाद जंगल पर एकाधिकार के लिए 1865 में कानून बनाया। विकास के लिए 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया। यानी शोषण को कानूनी जामा पहनाया। लेकिन आदिवासी उसके कानून के झांसों में नहीं आए। इसी का परिणाम रहा आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह। 1855 से लेकर आजादी मिलने तक कई विद्रोह हुए..मानभूम विद्रोह, चेरो विद्रोह, तमाड़ विद्रोह, कोल विद्रोह, गंगनारायण विद्रोह, संथाल विद्रोह, भुइयां टिकैत विद्रोह आदि-आदि। उल्लेखनीय है कि 1857 के महान राष्ट्रव्यापी संघर्ष से पहले ही झारखंड की धरती ने 1855 में ही संघर्ष का सिंहनाद कर दिया था। चार भाइयों सिदू-कान्हों-चांद-भैरव की अगुवाई वाले इस संघर्ष को संताल हूल के नाम से जाना जाता है, जिसमें दस हजार लोग बलिदान हुए थे। संताल गजेटियर में लिखा है, संताल विद्रोह के पीछे जमीन पर एकछत्र अधिकार की स्थापना की लालसा थी। इस विद्रोह का क्षेत्र व्यापक था और इसने लंबे समय तक झारखंड के मानस को हिलोड़ते रहा और क्रांति के लिए उकसाता रहा। इस महान हूल को मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उपेक्षित ही छोड़ दिया। यह अकारण नहीं कि सखुए की टहनी को गांव-गांव घुमाकर 30 जून, 1855 को भगनाडीह गांव में संतालों को एकत्रित होने के लिए आमंत्रित किया गया था। कहते हैं इस दिन करीब चार सौ गांवों से दस हजार लोग अपने पारंपरिक हथियारों के साथ जुटे थे। अब क्या था, क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। नारा दिया, खेत हमने बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं। इसके लिए किसी को कर देने की जरूरत नहीं है। इस वाक्य ने जो हुंकार भरी, वह अप्रत्याशित था। सालों का दबा आक्रोश अचानक फूंट पड़ा। यह अलग बात है इस संघर्ष में दस हजार लोग मारे गए। लेकिन इसने संघर्ष की पीठिका तैयार कर दी। इसके दो साल बाद 1857 में धरती फिर धधक उठी। इस बार पूरे देश में आग लग गई। झारखंड का पलामू, मानभूम, सिंहभूम, रांची और उसके आस-पास के क्षेत्रों में आग की लपटें तेज होने लगीं। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, नीलांबर-पीतांबर आदि ने जगह-जगह नेृतत्व संभाला। विद्रोह ने नया मुकाम हासिल किया। रांची, चाइबासा, चक्रधरपुर, कोल्हान, हजारीबाग आदि क्षेत्र भी रह-रह कर सुलगते-सुलगते धधक उठते। संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों के अत्याचार व शोषण में कमी नहीं आ रही था। अलबत्ता कानून बनाकर थोड़ी-थोड़ी रियायत जरूर दे रहे थे। आगे चलकर झारखंड को एक और नायक मिला, जिसने बहुत दूर तक इस राज्य को प्रभावित किया। नाम था बिरसा मुंडा। संताल हूल बीस साल बाद बिरसा का जन्म हुआ। बहुत कम आयु पाई थी। 9 जून, 1900 को रांची कारा में देहावसान हो गया। कुल पच्चीस की उम्र में पूरे झारखंड को बेचैन करने वाले इस युवा ने अंग्रेजी की चपलनीति, उनकी मानसिकता, लूट, धर्मातरण आदि पर जमकर प्रहार किया, लोगों को एकजुट किया। संघर्ष को आगे बढ़ाया। लोगों को संगठित कर साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ने का ऐलान किया.. कहा, अब सरकार की बात कानने की जरूरत नहीं है। उनका संघर्ष धीरे-धीरे पठारों से होते हुए गांवों में फैलने लगा। लोग संगठित होकर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। मुक्ति की कामना लिए हुए सैकड़ों नौजवान बिरसा के साथ हो लिए। चक्रधरपुर, खूंटी, चाईबासा, कर्रा, तोरपा, बसिया आदि में आजादी की चाह की आग सुलगने लगी। बिरसा ने डोम्बारी बुरू और सइल रकाब के सुरक्षित जंगलों से, जो खूंटी में पड़ता है, आंदोलन की धार को तेज कर दिया। 24 दिसंबर 1899 को पूर्व योजना के अनुसार मिशनों और सरकारी दफ्तरों तथा सैनिकों पर हमले होने लगे। सात जनवरी को खूंटी पर आक्रमण किया गया। बिरसा का आंदोलन बढ़ता जा रहा था। अंग्रज प्रशासन इसे किसी भी स्तर पर कुचलने के लिए तैयार थी। लिहाजा, सइन रकाब और डोम्बारी बुरू को बुरी तरह घेर लिया गया। अंग्रेजों से मुखबिरी कर दी कि बिरसा डोम्बारीबुरू पर डेरा डाले हुए है। अब अंग्रेजों का काम आसान हो गया था। उस पहाड़ को चारों तरफ से घेर लिया गया था। युद्ध शुरू हो गया। इसमें काफी लोग मारे गए। कुछ दिनों के बाद संतरा के जंगल से बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद बिरसा और उनके अनुयायियों पर मुकदमा चला। लेकिन सुनवाई के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा को लेकर खूंटी और आस-पास के क्षेत्रों में मुंडारी भाषा में गीत प्रचलित हैं। इसे कुमार सुरेश सिेह ने संकलित कर एक पुस्तक ही लिख डाली है, जिसमें बिरसा की पूरी कहानी और आंदोलन को समेटा है। खैर, भगवान बिरसा के बाद भी आंदोलन का सिलसिला थमा नहीं। बाद के दिनों में कांगे्रस का फैलाव जैसे-जैसे होता गया, गांधी का प्रभाव भी बढ़ता गया और आंदोलन का रुख भी बदलता गया। गांधी से प्रभावित झारखंड में टाना भगतों का अहिंसक आंदोलन चला। आज ये उपेक्षित हैं। क्यों, क्या ये आजादी की कीमत चुका रहे हैं?
इन आंदोलनों के पीछे क्या था? जल, जंगल, जमीन ही न? फिर आजाद देश की सरकार कैसे सोच रही है कि वह जवानों की बदौलत उनकी जमीन हड़प लेगी? वह बार-बार विकास की दुहाई देती है-दे रही है। विकास माने विनाश तो नहीं होता। आजादी के बाद और कुछ उसके पूर्व झारखंड में बडे़-बड़े उद्योग स्थापित हुए। इससे आदिवासियों का विस्थापन हुआ। उन्हें शर्त के अनुसार न मुआवजा दिया न नौकरी। बोकारो, एचईसी, कोयलकारो आदि उद्योगों-परियोजनाओं की कीमत आदिवासियों ने चुकाई और वे आज भी चुका रहे हैं। आज स्थिति और भी भयावह है। पहले सरकार के पास कुछ नैतिकता भी और समाज कल्याण की भावना भी थी। पर, 1991 के बाद सबकुछ बदल गया। मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक क्रांति का फलसफा तैयार किया, उसे उदारीकरण का नाम दिया। यह उदारता किसके लिए, गरीबों के लिए या अमीरों के लिए! समय और अनुभव तो यही बताते हैं कि पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए उदार नियम बनाए गए। इस नियम ने आम जनता को हाशिए पर ढकेला और पूंजीपति लगातार समृद्ध होते गए। करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या बढ़ती गई। इनका मुनाफा भी तेजी से बढ़ता गया। लेकिन गरीबी भी तेजी से बढ़ती गई। आज देश के सौ अमीरों के पास 276 बिलियन डालर की पूंजी है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 25 प्रतिशत है। 2008 में भारतीय अरबपतियों की संख्या 27 थी, जो एक वर्ष में बढ़कर 52 हो गई। एक वर्ष में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति पांच लाख करोड़ बढ़ी है। 2009-10 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 1100 बिलियन डालर रहने की उम्मीद है, यानी सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश का एक चौथाई पैसा सौ लोगों के पास है। यह मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण की भयावह तस्वीर का एक छोटा रूप है। दूसरी तरफ इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति (मार्च 2010) पर देश का वित्तीय घाटा 4 लाख करोड़ का होने का अनुमान है। यह सब देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उदारवादी सिद्धांत का कमाल है। जब से यह व्यवस्था लागू हुई है, एक और अरबपतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर गरीबों की संख्या। अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट बताती है कि 84 करोड़ भारतीय रोजाना बीस रुपए से कम पर गुजर-बसर करते हैं। 30 प्रतिशत ग्रामीण जनता रोज 19 रुपए और 10 प्रतिशत शहरी जनता 13 रुपए प्रतिदिन पर गुजर-बसर कर रही है। बीस करोड़ की आबादी मात्र 12 रुपए से भी कम पर अपने जीवन की गाड़ी चला रही है। कहने की जरूरत नहीं कि आम आदमी की कीमत पर ही आर्थिक विकास की इमारत खड़ी की जा रही है।
विषमता की ऐसी खाई समस्याओं को ही जन्म दे सकती है। नागार्जुन ने बहुत पहले पूछा था, भुक्खड़ के हाथों में यह बंदूक कहां से आई? इसका जवाब तो मनमोहन सिंह ही दे सकते हैं।
नई आर्थिक नीति में किसानी की चिंता नहीं, बड़े कारपोरेट घरानों की चिंता है। सरकार का ध्यान गरीबों पर नहीं अमीरों पर है। अब संसद में भी गरीबों के हक की आवाज नहीं सुनाई देगी क्योंकि संसद में भी अमीर सांसद बहुमत में हैं। कमल नयन काबरा कहते हैं कि 'आज का भारतीय राज्य एक पक्षपाती राज्य है जो पूंजीपतियों की सेवा करता है, और जनता के हितों की बेशर्मी से उपेक्षा करता है।'
अब सरकार के सरोकारों पर और कुछ कहा जा सकता है? हम जो विकास करना चाहते हैं या विकास का जो माडल हमने बनाया है, ज्यादा सही होगा कि हमने विकसित देशों से उधार लिया, उसने विनाश ही ज्यादा किया। जगह-जगह सेज बनाने की सरकार ने घोषणा कर रखी है। राज्य की सरकारें एमओयू के जरिए राज्य की संपदा को औने-पौने दामों में कंपनियों को मुहैया करा रही हैं। दुर्भाग्य यह है कि जहां-जहां मिनरल्स हैं, कोयला है, सोना है, यूरेनियम है, उन क्षेत्रों में आदिवासियों का रहवास है। और, इन्हीं क्षेत्रों में लाल आतंक फैला हुआ है। केंद्र की सरकार इनके खात्मे के लिए आपरेशन ग्रीनहंट चला रही है। कई मानवाधिकार संगठन और महाश्वेता देवी तक यही मानती हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन नक्सलियों के सफाए के लिए नहीं जंगल से आदिवासियों को बेदखल करने के लिए चलाए जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि एक ओर आपेरशन ग्रीन चलाया जा रहा है तो दूसरी ओर खनिज संपदा का हवाई सर्वेक्षण हो रहा है। आखिर, इसका क्या मतलब है? एक और प्रश्न उठता है कि आखिर, 63 साल बाद सरकार को आदिवासी इलाकों में विकास की सुध क्यों जगी? झारखंड, छत्तीसगढ़, पं बंगाल का लालगढ़ इलाका, मध्यप्रदेश के कुछ हिस्से, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश आदि में रहने वाले आदिवासियों की सुधि पहले क्यों नहीं ली गई?
अचानक, जब सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू किए और उन्हें आदिवासियों ने अपनी देने से इनकार कर दिया तो सरकार ने बहुत सुनियोजित तरीके से दुष्प्रचार करना शुरू किया। विकास का नारा उछाला। जंगलों से माओवादियों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया। इस अभियान में माओवादी भले बच निकले, आदिवासियों दोहरी मार झेलने का मजबूर हो गए हैं। एक ओर माओवादी तो दूसरी ओर आरपीएफ के जवान। अब ये पलायन न करें तो क्या करें? वैसे, सरकार के इस आपरेशन पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना ने सरकार की रणनीति और उसकी इच्छा शक्ति दोनों की पोल खोल दी है। इसने साबित कर दिया है कि उसके पास कोई ठोस योजना नहीं है। या फिर वह जवानों को शहीद करवाकर नक्सलियों की भयावहता रेखांकित करना चाहती है ताकि वह सेना को उतार सके। सेना ने चूंंकि पहले ही कह दिया है, अपनों के खिलाफ हथियार नहीं उठाएंगे। सो, कारपोरेट गृहमंत्री चाहते हैं कि इस तरह की घटना हो। गृहमंत्री जी विकास का रट लगाए हुए हैं। सवाल उठता है कि सरकार यदि आदिवासी क्षेत्रों में विकास ही करना चाहती है तो पहले उसे उन आदिवासी क्षेत्रों में विकास करके दिखाना चाहिए जो लाल आतंक से मुक्त हैं। छत्तीसगढ़ के 18 जिलों में छह जिले ही हैं जहां नक्सलियों की धमक हैं। चार जिलों में उनकी उपस्थित शून्य है। सरकार को बाकी के जिलों में विकास करके तो दिखाना चाहिए। इसी तरह झारखंड की बात कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि झारखंड के 24 जिले पूरी तरह लाल आंतक से ग्रस्त हैं। इनमें कुछ ही जिले हैं, जहां उनकी चलती है। लेकिन सरकार मौन साधे हैं। यहां तो वृद्धापेंशन के लिए भी सरकारी हाकीमों को घूस देना पड़ता है। इंदिरा आवास, बिरसा मुंडा आवास, मनरेगा आदि की हालत किसी गांव में जाकर देख सकते हैं। पर, सरकार अपने बेईमान अधिकारियों पर कोई अंकुश लगाना मुनासिब नहीं समझती।
राज्यसभा सांसद डा. रामदयाल मुंडा तो स्पष्ट कहते हैं कि विकास हो लेकिन जनता की शर्त पर, पूंजीपतियों की शर्त नहीं। उन्होंने कई बार दुहराया है कि सरकार जो भी विकास करना चाहती है, उसमें जनता कहीं भी नहीं है। इस विकास के माडल में उसे विस्थापित ही होना पड़ता है। वहीं, झारखंड के बौद्धिक अगुवा
डा. बीपी केशरी कहते हैं कि विकास से हमारा विरोध नहीं है, लेकिन सरकार उपनिवेशवादी विकास कर रही है। इस विकास से पूंजीपतियों का विकास तो हो रहा है लेकिन बड़ी आबादी भिखारी बनती जा रही है। वह कहते हैं कि सरकार आदिवासियों को खत्म करना चाहती है। आस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका में वहां के मूल निवासियों को खत्म कर दिया गया। पूरी दुनिया में कई जातियों विकास की भेंट चढ़ गई। उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया। यही काम अब अपने देश की सरकार कर रही है। वह कहते हैं कि विकास का यह जहरीला तरीका है। हमें वैकल्पिक विकास की योजना बनानी चाहिए। जनता के विकास का प्रोग्राम बनना चाहिए। विकास कैसा हो, किस तरह का हो, यह गांव की जनता सोचे। लेकिन सरकार सोच नहीं पा रही है। वन अधिकार कानून को भी ठीक से लागू नहीं कर पा रही है। जो कानून आदिवासी हितों के लिए बने भी उन पर वर्चस्वशाली जातियों ने अपने हितों की ओर मोड़ दिया। आदिवासी समाज जहां 63 साल पहले खड़ा था, वहीं आज भी खड़ा है। क्या उनके जज्बात, उनके आक्रोश, उनकी जायज मांगों, उनके हकों को लेकर हम या हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडया कभी संजीदा हुआ है?
नोट * दो साल पहले लिखी रचना है।
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