काम की मजबूरी और पलायन का दर्द


झारखंड को बने अब 11 साल हो गए। कहते हैं कि 12 साल में घूरे का दिन भी बदल जाता है पर इन बारह सालों में आदिवासी महिलाओं
की तकदीर नहीं बदली। महिलाएं यहां दोहरे मोर्चे पर संघर्ष करती हैं। आजीविका के संकट के कारण एक तो पलायन करती हैं। दूसरे मानव व्यापार का शिकार होती हैं। दोनों ही स्तरों पर उन्हें कई तरह के शोषण से गुजरना पड़ता है। राज्य की कई योजनाएं इनके पलायन को रोक नहीं पा रही हैं। मनरेगा जैसी महत्वाकांक्षी योजना भी महिलाओं को पर्याप्त रोजगार के साधन मुहैया नहीं करा पा रही है। लड़कियों के सामने भी रोजगार का कोई विकल्प नहीं है। सो, ये भी काम की तलाश में बाहर जाने को विवश हैं। यह उस राज्य की हकीकत है, जहां अपार खनिज है, खदानें हैं।
महिलाओं के लिए गांवों में रोजगार के पर्याप्त संसाधन नहीं होने या ध्यान नहीं दिए जाने के कारण इसका सीधा असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि गांव की महिलाएं जंगलों पर निर्भर रहती हैं। जंगलों में कई तरह की चीजें मिलती हैं, जिस पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो उनकी आजीविका बहुत आसानी से चल सकती है। पर अड़चनें कई हैं। इनमें वन विभाग भी है। 2006 में लागू वनाधिकार कानून आदिवासियों को आज तक जमीनी स्तर पर अधिकार नहीं दे पाया। अलबत्ता, वन विभाग लोगों को जंगली लकड़ी की चोरी के आरोप में फंसाता रहता है। इसलिए, महिलाएं जंगलों की ओर मुखातिब होने के बजाय दिल्ली का रास्ता पकड़ती हैं। उनके सामने आजीविका के लिए पलायन करना ही एक सुविधाजनक रास्ता है। भले ही इस रास्ते में कई जोखिम हों। 
    पिछले दिनों छह जिलों के सर्वे पर एक रिपोर्ट आई थी। रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि राज्य में  41 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं, जिनकी स्थिति मनरेगा मजदूरों से भी बदतर है। इनकी रोजाना आमदनी पचास रुपये से भी कम है। सरकार की भाषा में तो ये अमीर हैं। क्योंकि केंद्र की सरकार तो उन्हें गरीब नहीं मानती, जिनकी आमदनी 32 रुपये रोज हो। भले ही 32 रुपये में एक व्यक्ति का भी पेट न भरे। सरकार तो सरकार है। जो कहे वही कानून। उसके पास तो भूख की भी परिभाषा है। अर्थशास्त्री डा. रमेश शरण मानते हैं कि भूख क्या, भूख की परिभाषा क्या है और भूख को खत्म कैसे करें, इस पर मंथन होते आया है। पर वह यह भी कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी भूख मौजूद है और भूख से लोग मर रहे हैं। अमेरिका का जिक्र करते हुए कहते हैं कि वहां 12 प्रतिशत लोग भूखे सोते हैं। विकसित और दुनिया के सिरमौर देश का यह हाल है। तब झारखंड कहां होगा?
  झारखंड के सवाल पर कहते हैं कि राज्य में खाद्य सुरक्षा की स्थिति ठीक नहीं। 2004 की घटना का जिक्र करते कहते हैं कि एक सर्वे के दौरान कुसुमाटाड़ में एक 70 वर्षीय वृद्ध से मुलाकात हुई। वे भूखे थे। चर्चा चली तो कहने लगे कि इससे अच्छा तो जमींदार थे। जो गाली भले देते रहे, पर अनाज तो देते थे। क्या भूख का रिश्ता देह से नहीं है? 
भूख का गणित और पलायन का दर्द
भूख के इस गणित के कारण ही अधिकांश लड़कियां पलायन करती हैं। घर की स्थिति ठीक नहीं होने के कारण एक अनिश्चितता भरी दुनिया में प्रवेश करती हैं। देखें तो पलामू से कोल्हान तक भुखमरी और बेरोजगारी का ऊसर पसरा है, जिस पर कुछ भी नहीं उग सकता या हम उगाना नहीं चाहते। एक सर्वे में बताया गया कि  90 प्रतिशत लोगों की आजीविका अनिश्चित। 84 फीसदी ग्रामीणों की रोटी खेती से जुड़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों के महज 37 फीसदी लोगों को ही रोजगार मिल पाता है। शहरों में भी यह दर महज 42.24 प्रतिशत है। औद्योगिक राज्य के तमगे के बावजूद आज भी 82 फीसदी से अधिक ग्रामीणों की राजीरोटी खेती पर ही टिकी है। फिर भी राज्य की मॉनसून भरोसे खेती के आगे किसानों के पास अधिक विकल्प नहीं। हैरत की बात है कि केवल 8.4 प्रतिशत किसान ही साल के आधे समय कृषि कार्य में पूरी तरह व्यस्त रहते हैं। मतलब यह कि आजीविका के लिए राज्यवासियों को एक नहीं कई रोजगार करने पड़ते हैं। आजीविका के लिए पिछड़ी जाति और मुसलिम समुदाय के लोगों की खेती पर निर्भरता 64 प्रतिशत है। केवल 20 प्रतिशत आदिम जनजाति आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है। आजीविका के साधनों में बेहद ही अनिश्चिताएं हैं। 90 प्रतिश्त से अधिक परिवारों की आजीविका के साधन अनिश्चित हैं। खेती, पशुपालन और मजदूरी से राज्य के अधिकांश लोगों का गुजारा चलता है। अनुसूचित जनजातियों और आदिम जनजातियों की आजीविका संबंधी प्रवृत्तियों में व्यापक बदलाव आए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग की सीमा तय किए जाने के बाद वनोपजों पर उनकी निर्भरता कम हुई है। आजीविका के लिए महज दो फीसदी जनजाति ही लघु वन उत्पादों पर निर्भर हैं। जंगलों के नष्ट होने से आदिवासियों की जंगलों पर निर्भरता कम हो रही है। यही झारखंड का सच है। अब पलायन न हो तो क्या हो? इसकी मार महिलाओं पर सबसे ज्यादा पड़ती है। 
एक लाख से ऊपर दिल्ली में हैं कामगार
 आंकड़ों पर गौर करें तो करीब एक लाख से ऊपर आदिवासी महिलाएं दिल्ली में घरेलू कामगार के रूप में खट रही हैं। इनमें से कई किसी न किसी संगठन या प्लेसमेंट एजेंसियों से जुड़ी हैं। पर वे पूरी तरह असुरक्षित हैं। कई की जिंदगियां तो घरों में कैद होकर रह जाती है। इनकी सुध भी प्लेसमेंट एजेंसियां नहीं लेती। वे किस हाल में हैं, कैसी हैं, इसकी चिंता वे नहीं करती। उनकी चिंता केवल कमीशन है। इन एजेंसियों पर किसी का नियंत्रण भी नहीं है।   बेरोजगारी व अन्य समस्याओं के अलावा शहरी जीवन का आकर्षण भी पलायन का एक मुख्य कारक है। इधर, शहरी आबोहवा ने आदिवासी बालाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। अपनी ईमानदारी, परिश्रमी स्वभाव, विश्वसनीयता, विनयशीलता और भरोसेमंद आचरण के कारण इनकी मांग भी निरंतर बढ़ती जा रही है। वैसे इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते हैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन का सिलसिला शुरू हो गया था। असम के चाय बगानों में 19 वीं सदी में ही यहां से लोगों को जबरन ले जा गया था। तब से पलायन का यह सिलसिला रुका नहीं। देश आजाद हुआ, झारखंड अलग बना, इसके बावजूद झारखंड की स्थिति में कोई व्यापक परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। कम से कम आदिवासियों के जीवन की सत्यता यही कहती है।
कानून के बावजूद वनोपज पर नहीं मिला अधिकार
कानून के बावजूद इन्हें वनोपज पर अधिकार नहीं दिया गया। राज्य महिला आयोग की सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं कि आधी आबादी का सवाल जंगल से जुड़ा है। जैसे झारखंड का मतलब जंगलों का प्रदेश होना है, उसी प्रकार औरतों का जीवन यानी जंगलों का जीवन होना है। ग्रामीण महिलाएं आदिवासी व मूलवासी जंगल से ही जीती हैं। जंगल में मिलने वाले कंद, मूल, फल, चिरौंजी, महुआ, लाह, क्योंद, शहतूत, साल बीज, मधु सहित खाद्य सागों जैसे कटई, चकोड, सरला व बहुतायत में पाए जाने वाले औषधीय पौधों से उनकी जीविका चलती है। वासवी कहती हैं कि 2006 में औरतों को जंगल के वनोपज पर पूरे अधिकार दे दिए गए हैं। लघुवनोपज के नियंत्रण एवं प्रबंधन की व्यवस्था की तो औरतों का बाजार पर नियंत्रण होगा और उन्हें उचित मूल्य मिल पाएगा। लेकिन उन्हें संग्रह करने नहीं दिया जाता। इस कानून के आलोक में ग्रामीणों ने दावा पट्टा भी जमा किया, लेकिन उन्हें पट्टा नहीं दिया जा रहा। इस कानून में पति के साथ औरतों के नाम दर्ज करने का प्रावधान है, लेकिन उनका नाम दर्ज नहीं किया जाता। इससे औरतों के खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गई है। अगर महिला आर्थिक रूप से मजबूत होती तो बेटियों को पलायित क्यों होना पड़ता?
   पलायन होने के बाद काम की तलाश, काम मिलने के बाद घरेलू हिंसा व प्रताडऩा उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है। संयुक्त राष्ट्र ने घरेलू काम को एक प्रकार की दासता अथवा जबरदस्ती के श्रम की संज्ञा इसीलिए दी है। केस स्टडी भी इस बात की ताकीद करते हैं।  
केस स्टडी एक
रिश्तों के कारीडोर से मानव व्यापार
रिश्तों के कारीडोर से मानव व्यापार का आसान सफर झारखंड में आम है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि दूर के किसी रिश्तेदार ने रिश्ते को ताक पर रखकर बेटियों को दिल्ली में बेच देते हैं। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि एक रिश्तेदार ने बंदूक की नोक पर एक छात्रा को दिल्ली में 25 हजार रुपये में बेच दिया। घटना दो महीने पहले की है, लेकिन छात्रा को दिल्ली से 13 अक्टूबर को सिमडेगा लाया गया। शीला सोरेन (बदला हुआ नाम) नामक छात्रा को सिमडेगा से दिल्ली कैसे पहुंचाया गया, कहानी जितना कारुणिक है, उतना ही दिलचस्प भी। बताते हैं दो महीने पहले छात्रा सिमडेगा से बस से रांची के लिए चली। वह नर्स का कोर्स कर चुकी थी और रांची के गोस्सनर कालेज में आइए की छात्रा थी। हास्टल में रहकर पढ़ाई करती थी। बस में चढऩे के बाद वहीं से दो दलाल लग लए। ये कोई और नहीं, गांव के जीजा ही थे। नाम है तरबेज। उसके साथ एक और आदमी था। बस चली तो कोलेबिरा में छह और दलाल चढ़ गए। इस तरह दलालों की संख्या हो गई आठ। वे वहां से कांटाटोली बस स्टैंड पर उतरे। इस बीच छात्रा के सारे स्कूली प्रमाण पत्र का बैग अपने कब्जे में कर लिया और धमकी देने लगे। छात्रा के पास कोई चारा नहीं था, सिवाय उनकी बात मानने के। वे बस स्टैंड से उसे सीधे रांची रेलवे स्टेशन ले गए और रात्रि में संपर्क क्रांति से दिल्ली। वहां पर उस छात्रा को 25 हजार में बेच दिया। जिस मकान मालिक को बेचा, उसका मकान नंबर था गांधी विहार, डी 361। वहां वह किसी तरह काम करने लगी। इसी बीच एक दिन उसे अपने परिजनों से बात करने का मौका मिल गया और उसने अपने घर वालों को खबर कर दी। परिवार वाले सोच रहे थे कि बेटी रांची में है। अचानक इस खबर से उनके होश उड़ गए। इसके बाद शुरू हुई खोज खबर। 21 सितंबर को यह सूचना परिजनों को मिली। जिला परिषद अध्यक्ष व एसपी तक बात पहुंचाई गई। सात-आठ अक्टूबर को आपरेशन शुरू हुआ और लड़की को आजाद करा लिया गया। वहां से दिल्ली पुलिस रांची लेकर आई और यहां से सिमडेगा पहुंचा दिया। दलाल पुलिस के हत्थे चढ़ गया है। पता चला कि वह दिल्ली में प्लेसमेंट एजेंसी चलाता है। एटसेक के संजय मिश्र बताते हैं कि जितनी लड़कियां ट्रैफिकिंग की शिकार होती हैं, उनमें 51 प्रतिशत मामले ऐसे होते हैं, जिनके दूर के जीजा ही पैसे के लोभ में दिल्ली पहुंचा देते हैं। इनमें 77 प्रतिशत एसटी होती हैं, 12 प्रतिशत एससी। सामान्य 3 और पिछड़े समाज से 8 प्रतिशत। संजय मिश्र बताते हैं गांव में रोजगार नहीं होने के कारण भी लड़कियां दिल्ली पहुंचा दी जाती हैं। लेकिन यह मामला एकदम अलग है और ऐसा मामला पहली बार सामने आया है।
केस नंबर दो
टोले की ही महिला ले गई दिल्ली

नामकुम प्रखंड की पतरा टोली की सरिता 2007 से 2010 तक दिल्ली के हरिनगर में रही। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहने के कारण वह कमाने के लिए दिल्ली चली गई। टोले की ही महिला उसे दिल्ली ले गई। एजेंट के माध्यम से उसे काम मिल गया। नौवीं तक पढ़ी सरिता बताती है कि जिस घर में वह काम करती थी, वहां कोई परेशानी तो नहीं थी, लेकिन कुछ लड़कियां जब मिलती थीं तो वह अपना दुखड़ा सुनाती थीं। वह यह जरूर बताती है कि एजेंट काफी पैसा खा जाता है। आधा दिल्ली ही झारखंडी लगता है। अभी इसी साल के मई में उसकी शादी हुई है। ससुराल उसका सिमडेगा में है और पति राजमिस्त्री का काम करता है। सरिता बताती है कि उसकी छोटी बहन भी दिल्ली गई थी लेकिन छह माह के बाद ही वापस आ गई। सरिता कहती है कुछ अपना शौक पूरा करने के लिए दिल्ली जाती हैं, कुछ अपनी मजबूरियों के चलते तो कुछ अपने परिवार का सहयोग करने के लिए।
केस नंबर तीन
दिल्ली गई पर नहीं लौटी सुगिया

सुगिया की किस्मत दूसरी लड़कियों की तरह नहीं है। वह पिछले तीन साल से दिल्ली में गुम हैं। उसका कोई अता-पता नहीं है। वह भी गांव की तीन लड़कियों के साथ दिल्ली गई थी। तीनों लड़कियां तो वापस आ गईं, लेकिन सुगिया नहीं आ सकी। सुगिया के पिता बितना उरांव उसे खोजने दिल्ली भी गए, लेकिन दिल्ली के जनसमुद्र में सुगिया को कहां से ढूंढे? थानों की चौखटों पर गुहार लगाई। दिल्ली हो, मांडर हो या रांची...पुलिस की कार्यपद्धति एक। संस्कृति एक। फिर, गरीब की कौन सुने? थक हारकर अब बैठ गये हैं। बितना बताते हैं कि सुगिया तीन साल पहले गई थी। उसके साथ तीन अन्य लड़कियां भी गई थीं। जूली, रूपनी व गंगा। सुगिया बहुत सीधी-साधी थी। जो होशियार थीं, वे तो वापस आ गईं, लेकिन सुगिया का नसीब फूटा था। एक दो लड़कियां अभी भी वहीं हैं। वे अपने घर पैसा भी भेजती हैं। कौन ले गया था? इस सवाल पर बितना बताते हैं कि गांव की विनीता नामक दलाल ले गई थी। ले जाने के एक साल बाद ही पता नहीं उसकी किसी ने हत्या कर दी। गांव के एक कुएं में उसकी लाश मिली। यह वाकया 2009 का है। सुगिया जब गई तो उसकी उम्र महज 13 साल थी। अब तो सोलह की हो गई होगी। कहां होगी, किस हाल में होगी, पता नहीं।
केस नंबर चार
घर की माली हालत ने भेजा दिल्ली

मांडर के डुहू टोली के रमणी की कहानी कुछ दूसरी है। वह भी गई थी दिल्ली कमाने। दो साल एक घर में काम किया। किस्मत उसकी अच्छी थी। अच्छा घर मिला। सो, वह घर का काम करते हुए कुछ पढ़ती भी। घर की माली हालत होने के कारण ही उसे दिल्ली जाना पड़ा। जब घर की स्थिति थोड़ी सुधरी तो वह लौट आई। अब वह मांडर में ही दसवीं कक्षा में पढ़ रही है। रमणी बताती है दिल्ली में परिवार के ऊपर निर्भर करता है। परिवार ठीक रहा तो यहां की लड़कियों को कोई दिक्कत नहीं होती। दूसरे, एजेंसियों पर भी निर्भर करता है कि वह किस तरह के परिवार के पास भेज रहा है काम करने के लिए। बहुत सी ऐसी लड़कियां ऐसी होती हैं कि वे अपने सगे-संबंधियों से बातचीत भी नहीं कर पातीं। कुछ को तो पता ही नहीं रहता कि वे दिल्ली में कहां, किस मुहल्ले में रह रही हैं। दिल्ली कोई गांव तो है नहीं। लाखों की आबादी में कहां किसी को खोजें। 
केस नंबर पांच
दस साल से लापता है मेरी बेटी

हटिया के हरिजन बस्ती की रहने वाली 45 वर्षीया चंपा देवी कहती हैं कि दस साल से मेरी बेटी रितू समद लापता है। जब गई चौदह की थी, अब चौबीस की हो गई होगी। उनकी दो बेटियां हैं। एक के हाथ वह पीले कर चुकी है। दूसरी लापता...। एक बेटा बीए करते-करते रह गया। जगन्नाथपुर के बर झोपड़ी की रहने वाली किरन अपनी बहन का पता नहीं लगा सकी। बहन भी दस साल से गायब है। किरन कहती है, दीदी सोनी लोहार के साथ दस साल पहले दिल्ली गई थी। दीदी उसके पहले भी वहां रह चुकी थी। सो, उसके साथ गई। कुछ दिन बाद वह कहां गायब हुई, पता नहीं चल सका। मौसीबाड़ी की रूपा की कहानी भी जुदा नहीं है। उसकी बहन सोनी ठाकुर भी आठ साल से लापता है। 12 वर्ष की थी कि दिल्ली गई, लेकिन आज तक नहीं लौट पाई। बस्ती की ही सरस्वती यहां की लड़कियों को काम दिलाने के नाम पर दिल्ली ले जाती है, लेकिन लड़कियां दिल्ली में कहां गुम हो जाती हैं पता नहीं चलता। सिलदा खूंटी की जगनी पहाइन की बेटी सीमा 2002 से गायब है। वह अब खोजते-खोजते थक गई है।
चार लौटीं, तीन लापता
गढ़वा जिले का एक साल पहले दिल्ली में बेची गई सात आदिवासी लड़कियों में से चार लड़कियों को मुक्त कराकर 27 नवंबर को पुलिस और परिवार वाले लौटे। इनमें से तीन लड़कियों का पता अभी तक नहीं चल सका है। इन लड़कियों को 2010 के अगस्त व अक्टूबर में बहियार खुर्द से पढ़ाने, सिलाई कढ़ाई सिखाने के नाम पर गढ़वा जिले के रमकंडा थाने के करुणा तिर्की व विजय कच्छप की पत्नी इन्हें दिल्ली ले गईं और बेच दी। इनमे से एक दलाल जो जेल में बंद थी, उसके साथ पूछताछ किया गया तो मामला सामने आया। दिल्ली से मुक्त कराकर लाई गई लड़कियों ने बताया कि वहां सिर्फ खाना मिलता था, पैसे नहीं। अभी भी बहियार खुर्द की सोनांचल कुमारी पिता लालमनी उरांव, बबीता कुमारी पिता रामलाल उरांव व गीता कुमारी पिता रामाधार उरांव दिल्ली में ही है। उन्हें अभी नहीं खोजा जा सका है। 
     इन छह केस स्टडी से कई बातें साफ हैं। महिलाओं के पलायन के पीछे आर्थिक मजबूरी तो है ही, शहरी आकर्षण भी एक मुद्दा है। हम इन्हें अपने राज्य में रोजगार नहीं दे पा रहे। कुछ लड़कियों को सब्जबाग दिखाकर ले जाया जाता है और उन्हें बेच दिया जाता है। इसमें गांव के लोग ही शरीक होते हैं। गढ़वा की सात लड़कियों को एक साल पहले दिल्ली ले जाया गया और बेच दिया गया। चार तो वापस आ गईं, लेकिन तीन का अता-पता नहीं हैं। इस तरह न जाने कितनी लड़कियां हैं, जिन्हें दिल्ली में बेच दिया गया है। मानव व्यापार का यह धंधा महिला नीति के अभाव में भी फल-फूल रहा है।
    सेंटर फार वल्र्ड सालिडेरिटी को प्रोग्राम आफिसर जानकी दुबे कुछ नए तथ्यों का खुलासा करती हैं। कहती हैं कि पूर्वी सिंहभूम से भी पलायन शुरू हो गया है। अब तक यह क्षेत्र अछूता था। पोटका प्रखंड के पांच गांवों से 25 लड़कियां तीन-चार साल से लापता हैं। जानकी दुबे बताती हैं कि आंगनबाड़ी बंद है। मध्याह्न भोजन बच्चों को नहीं मिलता है। बिचौलिए हावी हैं। नाम पता जानने के बाद भी पुलिस बिचौलियों को नहीं पकड़ती। जिससे उनका मनोबल बना रहता है और एक पर एक घटना को अंजाम देते हैं।  
 समाज कल्याण, महिला एवं बाल विकास मंत्री विमला प्रधान कहती हैं कि वन स्तर को ऊंचा उठाने, नारी उत्पीडऩ की घटनाओं पर कारगर रोक लगाने तथा पलायन की घटनाओं पर रोक लगाने में प्रभावशाली भूमिका निभा सकती है। राज्य सरकार द्वारा महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संरक्षण देने के लिए अनेक लोकप्रिय कार्यक्रम एवं योजनाएं तैयार की गई हैं। अगर सही रूप में उसे सर-जमीन पर उतार दिया जाए तथा लाभुकों तक योजनाओं को पहुंचाने के लिए पहल की जाए तो राज्य की महिलाओं को हर स्तर उचित भागीदारी एवं सम्मान मिल जाएगा। इस मामले में सरकार को गंभीर होना होगा। मनरेगा भी महिलाओं को काम नहीं दे पा रहा है। विगत एक साल में झारखंड से दूसरे प्रदेश में पलायन करने वालों में ग्रामीण महिलाओं की संख्या 80 हजार के लगभग हैं। इससे साफ होता हैं कि मनरेगा से झारखंड की महिलाओं का पलायन रोका नही जा सका हैं। आज तक महिलाओं को सरकारी योजना से नहीं जोड़ा गया है। इसकी वजह से पलायन जारी है। रांची के आस पास के गांव से महिलाएं बाहर जा रही हैं। आखिर पलायन क्यों जारी है ? गांव में कानून बन कर आता है और ब्लॉक में अटक जाता हैं। ब्लॉक में दलालों और ठेकेदारों के बीच योजनाएं घूमती रहती हैं। जबकि इस क्षेत्र में महिलाएं गरीबी और भूखमरी का जीवन जी रही है। गरीबी और भूखमरी ने दूसरे राज्यों में जाने को मजबूर कर दिया है। महिला आजीविका के सवाल पर अपने राज्य में कोई कानून नहीं बना। वनाधिकार के तहत पट्टा देने में भी लापरवाही बरती जाती है। 2006 में पारित हुए इस कानून के प्रभावी किन्यान्वयन में फारेस्ट विभाग की सबसे बड़ा रोड़ा है। वह नहीं चाहता कि महिलाओं को उनका वाजिब अधिकार मिले।
 
जीजा ही पहुंचा देते हैं दिल्ली
दिल्ली जाने वालों में अशिक्षित लड़कियों की संख्या सबसे अधिक होती है। यानी 67 प्रतिशत। इनमें 51 प्रतिशत लड़कियों की संख्या ऐसी होती है, जिनके जीजा ही दिल्ली पहुंचा देते हैं। इसके बाद पडïोसियों का नंबर आता है।
कहां-कहां जाती हैं
जो आंकड़े उपलब्ध हैं, उससे पता चलता है कि झारखंडी की लड़कियां दिल्ली में सर्वाधिक हैं। इनमें हरियाणा-पंजाब भी शामिल है। दूसरा प्रदेश है बिहार, तीसरा है उत्तर प्रदेश, चौथा है पं बंगाल, पांचवां है नार्थ इस्ट, छठवां है कोलकाता, सातवां मुंबई, आठवां उड़ीसा। राज्य सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि वह बता सके कि झारखंड की लड़कियां कहां और कितनी संख्या में काम कर रही हैं। कितनी लापता हैं? यह सब गैरसरकारी संगठनों की बदौलत चल रहा है।  
हर साल 33 हजार लड़कियों का पलायन
झारखंड से एक वर्ष में करीब 33 हजार लड़कियों का पलायन होता है। सबसे चौंकाने वाली बात यह कि लड़कियों के लिए सर्वाधिक असुरक्षित जगहों में राजधानी रांची का भी नाम शुमार है। इसके अलावा पाकुड़, साहेबगंज, सिमडेगा, गुमला, गिरिडीह, चाईबासा जिलों का भी वही हाल है। ये बातें राच्य महिला आयोग की ओर से मानव व्यापार रोकने के लिए आयोजित उच्चस्तरीय बैठक में उभर कर सामने आई थी।
कहां-कहां से होता है पलायन
सर्वाधिक पलायन कहां सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा, रांची, पाकुड़, साहेबगंज, दुमका, गोड्डा तथा गिरिडीह जैसे आदिवासी बहुल इलाकों से सर्वाधिक है। खासकर गिरिडीह के इसरी बाजार में चोरी-छीपे ही सही महिलाओं की खुली बोली भी लगती है। कई मौके पर ही शादी कर और कई शादी का प्रलोभन देकर उन्हें महानगरों में बेच रहे हैं।
दिल्ली रिटर्न कहलाती हैं लड़कियां
दिल्ली से वापस आने वाली लड़कियों को दिल्ली रिटर्न कहा जाता है। अपने गांव वापस आने पर इनकी शादी में बड़ी कठिनाई होती है। लोग ऐसी लड़कियों से रिश्ता जोडऩे में परहेज करते हैं। एटसेक के राज्य सचिव संजय कुमार मिश्र कहते हैं, दिल्ली रिटर्न कहकर इन लड़कियों को जहां समाज स्वीकार नहीं करता, वहीं सरकार भी इन्हें मुख्यधारा से जोडऩे की दिशा में उदासीन है। नतीजतन पलायन का सिलसिला जारी है। 
अवैध एजेंसियों की भरमार
दिल्ली में वैध 123 रजिस्टर्ड एजेंसिया हैं, जो प्लेसमेंट दिलाने का कार्य करती है, जबकि अवैध एजेंसियों की संख्या तकरीबन 1100 से भी अधिक है। जहां तक झारखंड की बात है, यहां एक भी ऐसी पंजीकृत एजेंसी नहीं है। बावजूद बिचौलिये कमीशन की चाह में प्रलोभन देकर किशोर-किशोरियों को फांसते हैं और महानगरों में कार्यरत एजेंसियों के हवाले कर देते हैं।
नौ महीने में 94 को बेच डाला
समाज, कल्याण, महिला एवं बाल विकास मंत्री विमला प्रधान कहती हैं कि ऐसा खुशहाल जिंदगी का सपना दिखाकर दलाल बच्चियों को बेच डालते हैं। प्रधान स्वीकार करती हैं कि ऐसा आर्थिक तंगी के कारण ही होता है। जिसके वजह से माता-पिता उन्हें स्वयं दलदल में धकेल देते हैं। प्रधान कहती हैं अप्रैल से लेकर अब तक 13 बच्चों सहित 81 बच्चियों को दलालों से मुक्त कराया गया है। अब सरकार एफएम और टीवी केे जरिए जागरूकता फैलाने पर विचार कर रही है। प्रधान कहती हैं कि जो परिजन इन किशोरियों केे भरण-पोषण में सक्षम नहीं होंगे, उन्हें विशेष व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर स्वावलंबी बनाया जाएगा। देर से ही सही, यदि विमला प्रधान ऐसा कुछ कर देती हैं तो झारखंड केे माथे पर लग रहा कलंक मिट सकता है। और, किशोरियों अपने घर पर ही रहकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं।
क्या है उपाय
आखिर पलायन रुके कैसे? इसका सीधा सा जवाब है। एटसेक के संजय मिश्र कहते हैं कि महिलाओं से जुड़ी जो भी योजनाएं हैं, उसे ईमानदारी से लागू किया जाए। बिचौलियों पर कड़ी कार्रवाई हो। रोजगार के साधन अपने प्रदेश में ही मुहैया कराई जाए। बीकेसी ने 30 लड़कियों को टे्रनिंग देकर उन्हें कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय में सुरक्षा गार्ड में लगवा दिया। ये लड़कियां उग्रवाद प्रभावित जिलों से थीं, जहां उन्हें कई नक्सली समूह अपने गुट में शामिल करने का दबाव बना रहे थे। जानकी दुबे एक और सुझाव देती हैं। मुख्यमंत्री लक्ष्मी लाडली योजना यदि ईमानदारी से लागू हो गई तो पलायन पर अंकुश लग जाएगा। क्योंकि इस योजना के तहत उन्हें इतनी राशि मिलेगी कि वे अपने परिवार पर बोझ नहीं रहेंगी। हालांकि इसका असर बाद में दिखेगा। वासवी किड़ो सुझाव देती हैं कि वनोपज पर महिलाओं को अधिकार देना चाहिए। इन्हें अधिकार देकर हम उन्हें स्वावलंबी बना सकते हैं। इनको पूरा हक और नियंत्रण मिलना चाहिए। झारखंड में बहुतायत महुआ, साल बीज और इमली के व्यापार पर औरतों का नियंत्रण कायम कर उनका सशक्तिकरण किया जा सकता है। इससे वे आर्थिक रूप से भी मजबूत होंगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी सुधार होगा। पंचायत में महिलाओं को अधिकार देकर हमने उस दिशा में एक कदम बढ़ा दिया है। एक्टिविस्ट आलोका कहती हैं कि झारखंड में आदिवासी महिलाओं को जमीन पर अधिकार नहीं है। अभी जमीन के हक पर बहस चल रही है। ग्रामीण स्तर पर निर्णय की प्रक्रिया में भी भागीदारी नहीं है। ऐसी स्थिति में पलायन उनके जीवन की नियति है। समाज अपने निर्णय में उन्हें शामिल नहीं करता।
   झारखंड मीडिया फेलोशिप के तहत अध्ययन रिपोर्ट