आए थे इलाज कराने, मोहित हो गए रांची पर

21 साल की उम्र दुनिया से विदा लेने की नहीं, दुनिया को देखने-समझने की होती है। पर, सुकांत इतने खुशनसीब नहीं थे। सुकांत यानी सुकांत भट्टाचार्य। सरदार भगत सिंह भी मात्र 23 साल ही जिए, लेकिन दुनिया को एक संदेश दे गए। उ
उस समय डोरंडा अलग था। ओवरब्रिज नहीं बना था। सो, डोरंडा रांची से अलग-थलग था। घने जंगल हुआ करते थे। पुराने लोग आज भी कहते हैं, रांची जाना है।
सुकांत रांची ही नहीं, जोन्हा फाल भी जाते हैं ट्रेन से...18 मील दूर जोन्हा जल प्रपात देखने गए। ट्रेन चलने के साथ ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। इस तरह की बारिश का आनंद पहली बार लिया। दोनों ओर पहाड़ और वन धुंधले नजर आने लगे। यह रोमांच पैदा कर रहा था। लेकिन आनंद अभी बाकी था, जो जोन्हा पहाड़ के अंदर इंतजार कर रहा था। ..इस भयंकर जंगल में बाघ का डर भी था। इसलिए हमलोग बौद्ध मंदिर में ही आश्रय लिए। इसके बाद हमलोग निकटवर्ती जलप्रपात देखने गए। यह सब देख  कविता लिखे बगैर नहीं रह सका। ...जिंदगी में बहुत कम चीज आती है, लेकिन लगभग सबकुछ चला जाता है। जोन्हा इसका बड़ा प्रमाण है।Ó
सुकांत रांची पहाड़ी और बड़ा तालाब का जिक्र करते हैं। कहते हैं कि इस पहाड़ के ऊपर से रांची शहर बहुत सुंदर नजर आता है, लगता है कि लिलिपुट साम्राज्य का गठन कर रहा है। शहर के बीचोबीच एक लेक है, सृजन के साथ उसका दृश्य भी लगातार बदलते रहता है। रांची पहाड़ के ऊपर एक छोटा सा शिव मंदिर है। उस मंदिर में खड़ा होकर लगता है कि रांची चारों ओर पहाड़ से घिरी है। रांची की अखंड सत्ता सिर्फ रांची पहाड़ से ही नजर आती है।Ó
सुकांत डोरंडा में एक तालाब का जिक्र करते हैं...डोरंडा में डोरंडा बांध है, जिसमें एक दिन हम नहाएं। एक शाम उसका हृदय से अनुभव किया। इसको एक तालाब कह सकते हैं। इसके सिवा डोरंडा का रास्ता, मैदान और जंगल बहुत अच्छा लगा। एक तरह से यहां का सबकुछ अच्छा है।Ó पर सुकांत एक खराब चीज का भी वर्णन करते हैं, सिर्फ एक चीज खराब है। यहां के पड़ोसी, बाजार की दूरी और मिलिट्री का आधिपत्य। फिर भी रांची का बहुत कुछ नहीं देखे हैं। पर जो कुछ देखा है, उससे परितृप्त हो गए-यानी कि रांची मुझे अच्छा लगा।Ó
पत्र बहुत लंबा है। अपने इस पत्र में सुकांत बहुत कुछ कहते हैं। रांची की एक झलक उनके पत्रों में मिलती है। यह पत्र, किसी दुर्लभ दस्तावेज से कम नहीं। 
नकी लेखनी में जिस तरह विचारों की प्रौढ़ता झलकती है, वैसा ही सुकंात की कविताओं या लेखों-पत्रों में दिखाई पड़ती है। सुकांत असमय काल कवलित हो गए। उन्हें तब राजरोग था यानी टीबी। उस दौर में यह लाइलाज बीमारी थी। कैंसर की तरह। इलाज के क्रम में ही सुकांत रांची आए थे और निवारणपुर के अनंतपुर में वे रहते थे। गुलामी के दौर में 15 अगस्त, 1926 को वे पैदा हुए, लेकिन आजादी से ठीक पहले 13 मई, 1947 को वे चल बसे। सुकांत ने अपनी छोटी से उम्र में खूब लिखा। वे काजी और गुरुदेव से खासे प्रभावित रहे, लेकिन उनकी कविता का स्वर काजी के साथ संगत करता है। विद्रोह की लालिमा उनकी कविताओं में मिलती है। इसलिए इस युवा कवि को 'युवा नजरूलÓ भी कहा गया। निधन से तीन साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया से जुड़ गए थे। पं बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य सुकांत के भतीजे थे।    खैर, उनके साहित्य-रचना की चर्चा फिर कभी करेंगे। आज उनके पत्र में समाए रांची या कहें, छोटानागपुर के सौंदर्य को देखते हैं। उन्होंने रांची के अपने ठिकाने,  2 अनंतपुर, हिनू, रांची से एक पत्र अरुण को लिखा था। पं बंगाल से आने का हवाला दिया है और बराकर नदी के अप्रतिम सौंदर्य का। गोमो में ट्रेन बदलने का इंतजार और उस पूर्णिमा की स्तब्ध रात का सौंदर्य उनकों आंखों में उतर गया। वहां दूसरी टे्रन पकड़ रांची रोड उतरे और बस पकड़ रांची आए। पहले रांची आने का यही मार्ग था। सीधे ट्रेन नहीं थी। सो, उन्होंने वैसा ही किया और बस से रांची आए। रांची रोड से रांची के बीच में पहाड़ों की बेपनाह मुहब्बत उन्हें आकर्षित कर रही थी। उनके शब्दों में ही देखें 'रांची रोड से बस से आगे बढऩे लगी। बस की क्या भयंकर आवाज थी। बहुत तेजी से पहाड़ी सड़क से गुजर रही थी। हजारों फीट की ऊंचाई पर बस चल रही थी। जिंदगी में बहुत से प्राकृतिक दृश्य देखे, लेकिन ऐसा अभिभूत करने वाला नहीं। तब तक रांची आ गया। हमलोग जहां रहते हैं, वह रांची नहीं है। रांची से दूर, डोरंडा में रहते हैं। हम लोगों के घर के सामने से स्वर्णरेखा नदी बहती है। उसी के बगल में एक क्रबिस्तान है। इसको देख कर हम खो जाते हैं। उस क्रबिस्तान में बहुत बड़ा वटवृक्ष है जो सिर्फ मेरा ही नहीं, सबका प्रिय है। उस वटवृक्ष के ऊपर एवं नीचे मेरी कई दोपहर बीती है।Ó