कला और कलाकार एक दूसरे के पूरक हैं। कलाकार है तो कला है। कला है तो कलाकार हैं। रांची में कला का एक माहौल विकसित हो रहा है। तमाम युवा कलाकार सक्रिय हैं। राज्य की सरकार भी 14 सालों के बाद सक्रिय हुई है। हालांकि अभी तक यहां कोई आर्ट कालेज नहीं खुल सका है, जिसकी मांग यहां के कलाकार सालों से करते आ रहे हैं। फिर भी अपने स्तर से कलाकार एक माहौल तो बना ही रहे हैं। समय-समय पर मेकॉन जैसी संस्थाएं भी आगे बढ़कर कलाकारों की मदद करती हैं। इन्हीं कलाकारों में एक नाम कृष्णा प्रसाद का है।
1975 में जन्मे कृष्णा प्रसाद कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वैसे, वे डीएवी गांधी नगर, सीसीएल में वरिष्ठ कला शिक्षक हैं। पर यह किसी कलाकार की कोई बड़ी खासियत नहीं होती है। खासियत उनकी अपनी कला है। रंग वही, ब्रश वही, लेकिन काम करने का तरीका उनका अपना अलग है। वे अपने कैनवस पर रंगों की बारिश करते हैं। बारिश के बाद जैसे रंग ऊपर से नीचे एक लय में गिरते हैं और फिर जैसे बूंद सागर मे मिल जाती है, अंत भी कुछ ऐसा ही होता है। लाल, हरा, गुलाबी, पीला...ये चटख रंग हैं, लेकिन जल मिलाकर उसे हल्का कर लेते हैं। पूरा कैनवस एक अलग रंग में रंग जाता है। वह अपनी पृष्ठभूमि ऐसे ही बनाते हैं। इसके बाद आकृतियां आकार लेने लगती हैं। चेहरे से बाहर होती खुली एकटक निहारती आंखें। गोल, अंडाकार चेहरे। चटख रंग के कपड़े। कुछ तस्वीरों में वह आदिवासी संस्कृति को जीवंत करते हैं। मकानों पर पारंपरिक चित्रकारी, गांव का वातावरण, आस-पास झूलते पेड़। पहनावे में आदिवासी संस्कृति के साथ बांग्ला संस्कृति की छाप। इस तरह वह अपने समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं। रंग भी अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं। कृष्णा के काम का देखकर यह कह सकते हैं।
कृष्णा की दूसरी पहचान भी है। वे थोड़ा समय चुराकर झारखंड के ग्रामीण अंचलों में घूमकर कला के प्रति बच्चों में जाग्रति भी पैदा कर रहे हैं। खुद के साथ बच्चों को भी कला के बारे में प्रशिक्षण देकर उन्हें आगे बढ़ाते हुए कला की समझ बढ़ा रहे हैं। वे फिलहाल, समकालीन कला पर काम कर रहे हैं। अपने गुरु जयपाल प्रसाद से प्रेरणा लेकर। पटना विश्वविद्यालय से कला में स्नातक कृष्णा ने खादी मेले में राज्य सरकार द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में अहम भूमिका निभाई। इस तरह वे अपने सामाजिक सरोकारों को भी निभाते हैं।
1975 में जन्मे कृष्णा प्रसाद कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वैसे, वे डीएवी गांधी नगर, सीसीएल में वरिष्ठ कला शिक्षक हैं। पर यह किसी कलाकार की कोई बड़ी खासियत नहीं होती है। खासियत उनकी अपनी कला है। रंग वही, ब्रश वही, लेकिन काम करने का तरीका उनका अपना अलग है। वे अपने कैनवस पर रंगों की बारिश करते हैं। बारिश के बाद जैसे रंग ऊपर से नीचे एक लय में गिरते हैं और फिर जैसे बूंद सागर मे मिल जाती है, अंत भी कुछ ऐसा ही होता है। लाल, हरा, गुलाबी, पीला...ये चटख रंग हैं, लेकिन जल मिलाकर उसे हल्का कर लेते हैं। पूरा कैनवस एक अलग रंग में रंग जाता है। वह अपनी पृष्ठभूमि ऐसे ही बनाते हैं। इसके बाद आकृतियां आकार लेने लगती हैं। चेहरे से बाहर होती खुली एकटक निहारती आंखें। गोल, अंडाकार चेहरे। चटख रंग के कपड़े। कुछ तस्वीरों में वह आदिवासी संस्कृति को जीवंत करते हैं। मकानों पर पारंपरिक चित्रकारी, गांव का वातावरण, आस-पास झूलते पेड़। पहनावे में आदिवासी संस्कृति के साथ बांग्ला संस्कृति की छाप। इस तरह वह अपने समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं। रंग भी अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं। कृष्णा के काम का देखकर यह कह सकते हैं।
कृष्णा की दूसरी पहचान भी है। वे थोड़ा समय चुराकर झारखंड के ग्रामीण अंचलों में घूमकर कला के प्रति बच्चों में जाग्रति भी पैदा कर रहे हैं। खुद के साथ बच्चों को भी कला के बारे में प्रशिक्षण देकर उन्हें आगे बढ़ाते हुए कला की समझ बढ़ा रहे हैं। वे फिलहाल, समकालीन कला पर काम कर रहे हैं। अपने गुरु जयपाल प्रसाद से प्रेरणा लेकर। पटना विश्वविद्यालय से कला में स्नातक कृष्णा ने खादी मेले में राज्य सरकार द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में अहम भूमिका निभाई। इस तरह वे अपने सामाजिक सरोकारों को भी निभाते हैं।
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