रांची से बंगाल का नाता है पुराना

रांची या कहें, झारखंड से बंगाल का पुराना रिश्ता रहा है। यायावर संत चैतन्य महाप्रभु झारखंड से गुजरे और बड़े आत्मीय ढंग से यहां की विशेषता का उल्लेख अपने पद में किया। सचमुच, यह रिश्ता बड़ा आत्मिक रहा है। बांग्ला के कई मशहूर लेखकों ने अपने-अपने ढंग से इस हरे-भरे प्रदेश, यहां की संस्कृति, पठार, झरने को याद किया। कई बांग्ला लेखकों की ख्याति में झारखंड की अरण्यक संस्कृति की बड़ी भूमिक रही है। रवींद्र नाथ टैगोर के दादा से लेकर उनके बड़े भाई ज्योतिरींद्र नाथ टैगोर, महान लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के बड़े भाई संजीब चट्टोपाध्याय, विभूति शंकर वंद्योपाध्याय, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, फिल्मकार सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक से लेकर काजी नजरूल इस्लाम, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सुकांत भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी तक...। फेहरिश्त बड़ी है। किन-किनकों याद करें। इनकी स्मृतियों में झारखंड रहा है और कुछ तो अलग-अलग कारणों से यहां रहे।

तीन पीढिय़ों से रहा है टैगोर परिवार का वास्ता
झारखंड से रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार का तीन पीढिय़ों से संबंध रहा है। टैगोर के दादा द्वारिका नाथ टैगोर ने पलामू के राजहरा में एक अंग्रेज व्यापारी से मिलकर कोलियरी चलाई थी। फर्म का नाम था मेसर्स कार्र-टैगोर एंड कंपनी। 1834 में इस फर्म के जरिए कोयले का व्यापार शुरू किया गया। विलियम कार्र एवं विलियम प्रिंसेप का इंग्लैंड के साथ सिल्क व नील का व्यापार था। इन्होंने ही कोयले का व्यापार भी शुरू किया। 1936 में रानीगंज कोलियरी खरीदा गया। इसे मूलत: विलियम जान्स ने खोला था। इस कोलियरी को खरीदने के बाद कार्र-टैगोर फर्म ने अपनी कंपनी का विस्तार किया। एक लंबे अंतराल के बाद हजारीबाग में रवींद्रनाथ टैगोर के कदम पड़े। गुरुदेव के परिवार के अनेक सदस्य भी गर्मी की छुट्टियों में रांची में आकर रहते थे। 1920 के आस-पास गुरुदेव के भाई अबनींद्रनाथ ठाकुर कोकर में दो बेहद खूबसूरत मकान बनवाए थे, जिसका नाम रखा था सन्नी नूक। टैगोर हिल को रवींद्रनाथ के बड़े भाई ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर ने खरीदा था। इसके बाद अपने ढंग से वहां निर्माण करवाया। वे बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर के साथ पहली बार वे 1905 में रांची आए। फिर तीन साल बाद एक अक्टूबर, 1908 को रांची रहने के लिए ही आ गए। ज्योतिरींद्र यहां आए तो फिर यहीं के होकर रह गए। यहीं पर उनका निधन हुआ और टैगोर हिल पर ही उनकी समाधि बनी हुई है। हरमू के मुक्तिधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया था। रांची में हाथ गाड़ी रिक्शा का प्रचलन भी इन्होंने की किया था।

बंकिम के बड़े भाई संजीब ने लिखी 'पलामूÓ
वंदे मातरम के लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी के बड़े भाई संजीब को अंग्रेज सरकार ने डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाकर पलामू भेज दिया। उनकी यह पहली पोस्टिंग थी। यहां के पेड़, पौधे, झरने उन्हें खूब पंसद आए। दो साल वे यहां की मनोरम प्रकृति और संस्कृति का खूब आनंद लिया। इसके बाद 'पलामूÓ लिखा। पलामू पर लिखा यह पहला यात्रा वृत्तात हैं। पं बंगाल में यह काफी लोकप्रिय रचना है। 1880 में यह छपी थी। पहले बंग दर्शन में यह धारावाहिक रूप में छपी। इसकी प्रशंसा गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भी की। इसे पढ़कर ही सत्यजीत रे ने पलामू में अपनी फिल्म 'अरण्येदिनेरात्रिÓ की शूटिंग की थी। 
जोन्हा झरने पर फिदा हो गए थे सुकांत
सुंकात भट्टाचार्य महज 21 साल की उम्र दुनिया से विदा ली। उन्हें राजरोग था यानी टीबी। उस दौर में यह लाइलाज बीमारी थी। कैंसर की तरह। इलाज के क्रम में ही सुकांत रांची आए थे और निवारणपुर के अनंतपुर में वे रहते थे। गुलामी के दौर में 15 अगस्त, 1926 को वे पैदा हुए, लेकिन आजादी से ठीक पहले 13 मई, 1947 को वे चल बसे। सुकांत ने अपनी छोटी से उम्र में खूब लिखा। वे काजी और गुरुदेव से खासे प्रभावित रहे, लेकिन उनकी कविता का स्वर काजी के साथ संगत करता है। विद्रोह की लालिमा उनकी कविताओं में मिलती है। उन्होंने रांची के अपने ठिकाने, 2 अनंतपुर, हिनू, रांची से एक पत्र अरुण को लिखा था। इस पत्र में रांची से जोन्हा का सजीव वर्णन है। जोन्हा फाल की रात में आती आवाज का भी मनमोहक वर्णन किया। रांची पर एक कविता भी लिखी।
हिनू था काजी का ठिकाना
बांग्ला के महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कवि काजी नजरुल इस्लाम (25 मई 1899-29 अगस्त 1976) गर्मी की छुट्टी रांची में ही बिताते थे। उनका ठिकाना हिनू हाउस था। इसी आवास में राय साहब प्रफुल्ल चंद्र दास गुप्ता रहते थे, जिनकी बहन की बेटी प्रमिला देवी से नजरूल का विवाह हुआ था। राय साहब प्रफुल्ल चंद्र को नजरूल मामा कहते थे। काजी अपनी बीमारी में यहां सीआइपी में भी इलाज करवाए। पर ठीक नहीं हो सके। सीआइपी में छह महीने उनका इलाज हुआ। इसके अलावा वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मधुपुर वाले घर पर भी रहे। देवघर भी रहे। यह महान कवि लंबी अवधि तक अवाक रहा। इसके बाद बांग्लादेश में इनकी मृत्यु हो गई।

आदिवासी जीवन के पहले फिल्मकार थे ऋत्विक घटक
आदिवासी जीवन पर पहली बार ऋत्विक घटक ने डाक्यूमेंट्री बनाई। बिहार सरकार का यह प्रयास था। ऋत्विक की तब उम्र यही कोई 25 के आस-पास थी। इप्टा से जुड़ चुके थे और नाटक लिखना भी शुरू कर दिया था। झारखंड से उनका परिचय हो चुका था। उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत 'बेदिनीÓ फिल्म से की थी। 1952 में फिल्म यूनिट को लेकर घाटशिला आए और स्वर्णरेखा नदी के किनारे 20 दिनों तक रहे और शूटिंग की। हालांकि यह फिल्म रिलीज नहीं हो सकी। ऋत्विक आदिवासी समाज को सत्यजीत रॉय की तरह नहीं देखते थे। उन्होंने 'आदिवासी जीवन के स्रोतÓ एवं 'उरांवÓ बनाई तो आदिवासी समाज को, उनकी संस्कृति को निकट से देखने की कोशिश की। झारखंड से उनका परिचय मशहूर कथाकार राधाकृष्ण ने कराई थी। राधाकृष्ण के स्क्रिप्ट पर ही झारखंड पर कई डाक्यूमेंट्री उन्होंने बनाई।