संजीब चट्टोपाध्याय
अरसा पहले मैं एक बार पलामू गया था। उद्देश्य था लौटकर उस क्षेत्र के बारे में लिख्ंाूगा। एक दो दोस्त मुझे बार-बार इस बारे में कहते, पर तब मैं उनका मजाक उड़ाता। आजकल कोई नहीं कहता पर मैं अपना भ्रमण वृत्तांत लिखने बैठा हूँ। मतलब इस उम्र में कहानियां सुनाना वाकई इस उम्र की बीमारी होती है। कोई सुने या ना सुने, बूढ़ा आदमी अपनी कहानी कहे जाता है।
कहानी आज की नहीं, बहुत पहले की है। वही कहानी सुना रहा हूं। इस उम्र में सब कुछ याद भी नहीं। ऐसा भी नहीं कि पहले लिखने से लिखा जाता। आज भी नहीं लिखा जा रहा है। तब, बात यह है कि जिन आँँखों से वीरान पहाड़ और खिले वन को देखा था, आज वे नहीं हैं। आज के पहाड़ मात्र पत्थरों के ढेर और जंगल केवल काँँँटे भरे लगते हैं और वहाँँँ के रहने वाले लोग प्रवंचक। इसलिए, उस लिहाज से जो लोग केवल शोभा और सौंदर्य ही देखना पसंद करते हैं, इस वृद्ध के लेख में उन्हें तृप्ति नहीं मिलेगी।
जब मेरा पलामू जाना तय हुआ, तब पता नहीं था, वह स्थान कहां है? कितनी दूरी पर है और किस दिशा में है? लिहाजा, नक्शे के सहारे पथ-निर्देश प्राप्त किया। हजारीबाग के रास्ते जाना था, इसलिए इनलैंड ट्रªªांजिट कंपनी की डाकगाड़ी किराये पर लेकर रात के दूसरे पहर में रानीगंज से प्रस्थान किया। सबेरे जाकर बराकर नदी के पूर्वी तट पर गाड़ी रुकी। छोटी सी नदी। उन दिनों पानी बहुत कम था। लोगबाग पैदल ही पार हो रहे थे। गाड़ी को ठेलकर पार ले जाना था, इसलिए गाड़ीवान मजदूर बुलाने गया।
पूर्वी तट से मैंने देखा कि उस घाट पर ही साहब अपने बंगले में बैठा वाइन पी रहा है। सामने चपरासी-जैसा एक आदमी हाथ में गेरुवा रंग की मिट्टी लिए खड़ा है। जो व्यक्ति पार होने के लिए घाट पर आ रहा है, चपरासी उसी मिट्टी से उसकी देह में एक अंक लिख देता है। पार जाने वालों में जंगली किस्म के लोग ही अधिक हैं, उनकी युवतियां मिट्टी से रंगे अपने-अपने हाथों की ओर तिरछी नजर डाल रही हैं और खिलखिला रही हैं। फिर दूसरों के हाथों में कैसे दिख रहा है, उसे भी कभी-कभार देख ले रही हैं। अंत में युवतियां दौड़ती हुई नदी पार कर जा रही हैं। उनकी खिलखिलाहट से नदी के पानी में उछाल आ जाता है।
मैं अनमना-सा इस तमाशे को देखे जा रहा था कि कहीं से कुछ बच्चों ने आकर मेरी गाड़ी को घेर लिया। कहने लगे-साहब, एक पैसा दो, एक पैसा दो न! धोती चादर वाले मूक निरीह बंगाली को देखकर साहब कहकर क्यों पुकार रहे हैं, यह जानने के लिए मैंने कहा- मैं साहब नहीं हूं। इस पर नाक में उंगली जैसा गहना पहने एक बच्ची ने गहने पर नख चुभोकर कहा- तब तुम कौन हो! मैंने कहा- मैं तो एक बंगाली हूं। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- नहीं, तुम साहब हो। लगता है, उन्हें बस इतना ही मालूम है कि जो गाड़ी पर चढ़ता है, वह साहब जरूर होगा।
इतने में डेढ़-दो साल का बच्चा आकर आसमान की ओर मुँँह किए मेरे आगे हाथ पसारकर खड़ा हो गया। उसे नहीं पता, उसने क्यों हाथ पसारा। मैंने उसकी हंथेली में एक पैसे का सिक्का दिया, उसने उसे गिरा दिया। और फिर से हाथ पसारा। एक दूसरे बच्चे ने उसे उठा लिया तो उसकी बहन उससे लड़ गई। इन सबके बीच मेरी गाड़ी उस पार जा लगी।
बराकर से एक ऊंची छोटी-मोटी पहाड़ी दिखती है। बंगाली लोग केवल मिट्टी देखने के आदी होते हैं, मिट्टी के ढेर देखने से ही उसका मन नाचने लगता है। अतः इन छोटी-छोटी पहाड़ियों को देखकर मेरे मन में खुशियों की लहरें उठने लगीं, इसमें आश्चर्य क्या? बचपन में पहाड़ों के बारे में काफी कुछ सुना था। एक बार एक बैरागी के अखाड़े में चूना-पुते एक गिरि गोवर्धन को देखकर उसे ही पहाड़ समझ लिया था। किसानों की लड़कियां सूखे गोबर का जो ढेर लगाती हैं, गोवर्धन उससे बस थोड़ा सा बड़ा था। उसी के आस-पास चार-पांच ईंटें जोड़कर एक-एक बुर्ज तैयार कर लिया गया था। फिर सबसे ऊंचे बुर्ज के पास सांप का एक फन बनाकर उसे हरे-पीले रंगों से रंग दिया गया था। फन कहीं लोगों की आंखों के सामने उजागर न हो, इसलिए उसका आकार कुछ बड़ा कर दिया था। फलस्वरूप पहाड़ी की चोटी से ज्यादा बड़ा वह फन ही हो गया था। उसमें कारीगर की कोई बहादुरी नहीं है। बैरागी का भी कोई दोष नहीं। सांप है। कृष्ण कन्हैया का कालियादमन का सांप है। अतः उसका फन पहाड़ी की चोटी से थोड़ा बड़ा होता, उसमें आश्चर्य की कौन सी बात है! बैरागी के इस गिरि गोवर्धन को देखकर ही मुझे बचपन में पहाड़ का अहसास हुआ था। बराकर के समीप उन पहाड़ियों को देखकर मेरे बचपन में बने संस्कार में कुछ परिवर्तन होना शुरू हुआ। चलते-चलते अपराह्न बेला में देखा, गाड़ी एक सुदृश्य पर्वत के पास से गुजर रही है। इतने करीब कि पहाड़ के छोटे-छोटे पत्थरों के साये भी दिख रहे हैं। मैंने गाड़ीवान से कहा- गाड़ी रोको। मैं उतर गया। उसने पूछा- साहब कहां जाएंगे? मैंने कहा, उस पहाड़ी के पास जाउंगा। उसने हंसकर कहा- हुजूर पहाड़ी यहां से काफी दूर है। शाम से पहले वहां पहुंच नहीं पायेंगे। मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मैं तो देख रहा था कि वह मात्र पांच मिनट से ज्यादा का रास्ता नहीं है। उसकी बातों को अनसुना करके मैं पहाड़ की ओर चल पड़ा। लंबी डेगें भरते हुए मैं पांच की जगह पंद्रह मिनट तक चलता रहा। पहाड़ तब भी उसी पांच मिनट के रास्ते के फासले पर खड़ा था। मेरा भ्रम टूट गया। मैं वापस गाड़ी के पास आ गया। पहाड़ों की दूरियों को ठीक से नापना बंगालियों के बस की बात नहीं है, इसे मैंने पलामू जाकर बार-बार अनुभव किया।
दूसरे दिन दोपहर के आस-पास मैं हजारीबाग पहुंचा। वहां जाकर सुना कि वहां के किसी संभ्रांत व्यक्ति के घर में मेरे खाने का बंदोबस्त था। करीब दो दिनों से कुछ खाया भी नहीं था। अतः भोजन के नाम पर भूख ने जोर मारना शुरू कर दिया। जिन सज्जन ने मेरे खाने का बीड़ा उठाया था, उन्हें मेरे आने की सूचना कैसे मिली, इसे जानने का मौका ही नहीं मिला। गाड़ी लेकर तुरंत उनके यहां पहुंचाने का फरमान जारी कर दिया। मैं जिनके घर जा रहा हूं, उन्हें मैंने कभी देखा तक नहीं। मैंने उनका नाम सुना था, ख्याति भी सुनी थी। वे सज्जन हैं, इसलिए सब लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। पर मैंने उन प्रशंसाओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं जानता हूं कि बंगाली मात्र ही सज्जन होते हैं। बंगाल में केवल पड़ोसी ही दुर्जन होते हंै। जो भी शिकायतें सुनने को मिलती हैं, वे उनके बारे में ही। पड़ोसी दूसरों की भलाई सहन नहीं कर पाते, वे झगड़ालू, अहंकारी, लालची, कंजूस और दूसरांे की चीजें हड़पने की फिराक में रहने वाले होते हैं। वे अपने बच्चों को अच्छे-अच्छे कपड़े इसलिए पहनाते हैं ताकि हमारे बच्चे उन्हें देखकर रोएं, अपनी बहुओें को वस्त्र अलंकार आदि से सुसज्जित इसलिए करते हैं, ताकि हमारी बहुएं मुंह लटकाएं फिरें। पड़ोसी पापी होते हैं। जिनके पड़ोसी नहीं होते, उन्हंे क्रोध भी नहीं होता। वे ही ऋषि कहलाते हैं। ऋषि केवल वही गृहस्थ होते हैं, जिन्होंने पड़ोसियों को त्याग दिया है। आप किसी भी ऋषि के आश्रम में जाएं और बगल में किसी पड़ोसी को बसायें, तीन दिन में ही ऋषि का ऋषित्व खत्म हो जाएगा। पहले दिन पड़ोसी की बकरी ऋषि के फूलों को कुड़ देगी, दूसरे दिन उसकी गाय आकर ऋषि का कमंडल तोड़ डालेगी। तीसरे दिन पड़ोसी की पत्नी आकर ऋषि-पत्नी को अपने जेवरात दिखाएगी। इसके बाद ऋषि को या तो वकालत की परीक्षा में शामिल होना पड़ेगा या डिप्टी मजिस्टेªट बनने के लिए दरख्वास्त देनी होगी।
अरसा पहले मैं एक बार पलामू गया था। उद्देश्य था लौटकर उस क्षेत्र के बारे में लिख्ंाूगा। एक दो दोस्त मुझे बार-बार इस बारे में कहते, पर तब मैं उनका मजाक उड़ाता। आजकल कोई नहीं कहता पर मैं अपना भ्रमण वृत्तांत लिखने बैठा हूँ। मतलब इस उम्र में कहानियां सुनाना वाकई इस उम्र की बीमारी होती है। कोई सुने या ना सुने, बूढ़ा आदमी अपनी कहानी कहे जाता है।
कहानी आज की नहीं, बहुत पहले की है। वही कहानी सुना रहा हूं। इस उम्र में सब कुछ याद भी नहीं। ऐसा भी नहीं कि पहले लिखने से लिखा जाता। आज भी नहीं लिखा जा रहा है। तब, बात यह है कि जिन आँँखों से वीरान पहाड़ और खिले वन को देखा था, आज वे नहीं हैं। आज के पहाड़ मात्र पत्थरों के ढेर और जंगल केवल काँँँटे भरे लगते हैं और वहाँँँ के रहने वाले लोग प्रवंचक। इसलिए, उस लिहाज से जो लोग केवल शोभा और सौंदर्य ही देखना पसंद करते हैं, इस वृद्ध के लेख में उन्हें तृप्ति नहीं मिलेगी।
जब मेरा पलामू जाना तय हुआ, तब पता नहीं था, वह स्थान कहां है? कितनी दूरी पर है और किस दिशा में है? लिहाजा, नक्शे के सहारे पथ-निर्देश प्राप्त किया। हजारीबाग के रास्ते जाना था, इसलिए इनलैंड ट्रªªांजिट कंपनी की डाकगाड़ी किराये पर लेकर रात के दूसरे पहर में रानीगंज से प्रस्थान किया। सबेरे जाकर बराकर नदी के पूर्वी तट पर गाड़ी रुकी। छोटी सी नदी। उन दिनों पानी बहुत कम था। लोगबाग पैदल ही पार हो रहे थे। गाड़ी को ठेलकर पार ले जाना था, इसलिए गाड़ीवान मजदूर बुलाने गया।
पूर्वी तट से मैंने देखा कि उस घाट पर ही साहब अपने बंगले में बैठा वाइन पी रहा है। सामने चपरासी-जैसा एक आदमी हाथ में गेरुवा रंग की मिट्टी लिए खड़ा है। जो व्यक्ति पार होने के लिए घाट पर आ रहा है, चपरासी उसी मिट्टी से उसकी देह में एक अंक लिख देता है। पार जाने वालों में जंगली किस्म के लोग ही अधिक हैं, उनकी युवतियां मिट्टी से रंगे अपने-अपने हाथों की ओर तिरछी नजर डाल रही हैं और खिलखिला रही हैं। फिर दूसरों के हाथों में कैसे दिख रहा है, उसे भी कभी-कभार देख ले रही हैं। अंत में युवतियां दौड़ती हुई नदी पार कर जा रही हैं। उनकी खिलखिलाहट से नदी के पानी में उछाल आ जाता है।
मैं अनमना-सा इस तमाशे को देखे जा रहा था कि कहीं से कुछ बच्चों ने आकर मेरी गाड़ी को घेर लिया। कहने लगे-साहब, एक पैसा दो, एक पैसा दो न! धोती चादर वाले मूक निरीह बंगाली को देखकर साहब कहकर क्यों पुकार रहे हैं, यह जानने के लिए मैंने कहा- मैं साहब नहीं हूं। इस पर नाक में उंगली जैसा गहना पहने एक बच्ची ने गहने पर नख चुभोकर कहा- तब तुम कौन हो! मैंने कहा- मैं तो एक बंगाली हूं। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- नहीं, तुम साहब हो। लगता है, उन्हें बस इतना ही मालूम है कि जो गाड़ी पर चढ़ता है, वह साहब जरूर होगा।
इतने में डेढ़-दो साल का बच्चा आकर आसमान की ओर मुँँह किए मेरे आगे हाथ पसारकर खड़ा हो गया। उसे नहीं पता, उसने क्यों हाथ पसारा। मैंने उसकी हंथेली में एक पैसे का सिक्का दिया, उसने उसे गिरा दिया। और फिर से हाथ पसारा। एक दूसरे बच्चे ने उसे उठा लिया तो उसकी बहन उससे लड़ गई। इन सबके बीच मेरी गाड़ी उस पार जा लगी।
बराकर से एक ऊंची छोटी-मोटी पहाड़ी दिखती है। बंगाली लोग केवल मिट्टी देखने के आदी होते हैं, मिट्टी के ढेर देखने से ही उसका मन नाचने लगता है। अतः इन छोटी-छोटी पहाड़ियों को देखकर मेरे मन में खुशियों की लहरें उठने लगीं, इसमें आश्चर्य क्या? बचपन में पहाड़ों के बारे में काफी कुछ सुना था। एक बार एक बैरागी के अखाड़े में चूना-पुते एक गिरि गोवर्धन को देखकर उसे ही पहाड़ समझ लिया था। किसानों की लड़कियां सूखे गोबर का जो ढेर लगाती हैं, गोवर्धन उससे बस थोड़ा सा बड़ा था। उसी के आस-पास चार-पांच ईंटें जोड़कर एक-एक बुर्ज तैयार कर लिया गया था। फिर सबसे ऊंचे बुर्ज के पास सांप का एक फन बनाकर उसे हरे-पीले रंगों से रंग दिया गया था। फन कहीं लोगों की आंखों के सामने उजागर न हो, इसलिए उसका आकार कुछ बड़ा कर दिया था। फलस्वरूप पहाड़ी की चोटी से ज्यादा बड़ा वह फन ही हो गया था। उसमें कारीगर की कोई बहादुरी नहीं है। बैरागी का भी कोई दोष नहीं। सांप है। कृष्ण कन्हैया का कालियादमन का सांप है। अतः उसका फन पहाड़ी की चोटी से थोड़ा बड़ा होता, उसमें आश्चर्य की कौन सी बात है! बैरागी के इस गिरि गोवर्धन को देखकर ही मुझे बचपन में पहाड़ का अहसास हुआ था। बराकर के समीप उन पहाड़ियों को देखकर मेरे बचपन में बने संस्कार में कुछ परिवर्तन होना शुरू हुआ। चलते-चलते अपराह्न बेला में देखा, गाड़ी एक सुदृश्य पर्वत के पास से गुजर रही है। इतने करीब कि पहाड़ के छोटे-छोटे पत्थरों के साये भी दिख रहे हैं। मैंने गाड़ीवान से कहा- गाड़ी रोको। मैं उतर गया। उसने पूछा- साहब कहां जाएंगे? मैंने कहा, उस पहाड़ी के पास जाउंगा। उसने हंसकर कहा- हुजूर पहाड़ी यहां से काफी दूर है। शाम से पहले वहां पहुंच नहीं पायेंगे। मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मैं तो देख रहा था कि वह मात्र पांच मिनट से ज्यादा का रास्ता नहीं है। उसकी बातों को अनसुना करके मैं पहाड़ की ओर चल पड़ा। लंबी डेगें भरते हुए मैं पांच की जगह पंद्रह मिनट तक चलता रहा। पहाड़ तब भी उसी पांच मिनट के रास्ते के फासले पर खड़ा था। मेरा भ्रम टूट गया। मैं वापस गाड़ी के पास आ गया। पहाड़ों की दूरियों को ठीक से नापना बंगालियों के बस की बात नहीं है, इसे मैंने पलामू जाकर बार-बार अनुभव किया।
दूसरे दिन दोपहर के आस-पास मैं हजारीबाग पहुंचा। वहां जाकर सुना कि वहां के किसी संभ्रांत व्यक्ति के घर में मेरे खाने का बंदोबस्त था। करीब दो दिनों से कुछ खाया भी नहीं था। अतः भोजन के नाम पर भूख ने जोर मारना शुरू कर दिया। जिन सज्जन ने मेरे खाने का बीड़ा उठाया था, उन्हें मेरे आने की सूचना कैसे मिली, इसे जानने का मौका ही नहीं मिला। गाड़ी लेकर तुरंत उनके यहां पहुंचाने का फरमान जारी कर दिया। मैं जिनके घर जा रहा हूं, उन्हें मैंने कभी देखा तक नहीं। मैंने उनका नाम सुना था, ख्याति भी सुनी थी। वे सज्जन हैं, इसलिए सब लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। पर मैंने उन प्रशंसाओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं जानता हूं कि बंगाली मात्र ही सज्जन होते हैं। बंगाल में केवल पड़ोसी ही दुर्जन होते हंै। जो भी शिकायतें सुनने को मिलती हैं, वे उनके बारे में ही। पड़ोसी दूसरों की भलाई सहन नहीं कर पाते, वे झगड़ालू, अहंकारी, लालची, कंजूस और दूसरांे की चीजें हड़पने की फिराक में रहने वाले होते हैं। वे अपने बच्चों को अच्छे-अच्छे कपड़े इसलिए पहनाते हैं ताकि हमारे बच्चे उन्हें देखकर रोएं, अपनी बहुओें को वस्त्र अलंकार आदि से सुसज्जित इसलिए करते हैं, ताकि हमारी बहुएं मुंह लटकाएं फिरें। पड़ोसी पापी होते हैं। जिनके पड़ोसी नहीं होते, उन्हंे क्रोध भी नहीं होता। वे ही ऋषि कहलाते हैं। ऋषि केवल वही गृहस्थ होते हैं, जिन्होंने पड़ोसियों को त्याग दिया है। आप किसी भी ऋषि के आश्रम में जाएं और बगल में किसी पड़ोसी को बसायें, तीन दिन में ही ऋषि का ऋषित्व खत्म हो जाएगा। पहले दिन पड़ोसी की बकरी ऋषि के फूलों को कुड़ देगी, दूसरे दिन उसकी गाय आकर ऋषि का कमंडल तोड़ डालेगी। तीसरे दिन पड़ोसी की पत्नी आकर ऋषि-पत्नी को अपने जेवरात दिखाएगी। इसके बाद ऋषि को या तो वकालत की परीक्षा में शामिल होना पड़ेगा या डिप्टी मजिस्टेªट बनने के लिए दरख्वास्त देनी होगी।
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