झारखंड की राजधानी रांची से करीब 18 किलोमीटर दूर पिठौरिया गांव में दो शताब्दी पुराना यह किला राजा जगतपाल सिंह का है, जो आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। इस किले पर दशकों से हर साल आसमानी बिजली गिरती है, जिससे हर साल इसका कुछ हिस्सा टूटकर गिर जाता है।
पिठौरिया गांववासियों का मानना है कि इस किले पर हर साल बरसात के मौसम में बिजली गिरती है और किले का कोई भाग ध्वस्त हो जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि ऐसा एक क्रांतिकारी द्वारा राजा जगतपाल सिंह को दिए गए श्राप के कारण होता है।
रांची के पिठौरिया स्थित वह ऐतिहासिक किला, जिसकी दीवारें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में कुर्बानी देने वाले शहीदों और गद्दारों की कहानी आज भी सुनाती है। यह किला परगनैत(राजा) जगतपाल सिंह का है। इसी किले के निकट बना एक फांसी घर है, जिसमें आजादी की लड़ाई लडऩे वाले दर्जनों शहीदों को अंग्रेजों के इशारे पर फांसी पर लटकाया गया था।
दरअसल, सन 1831 ई. हुए कोल विद्रोह के नायक थे सिंदराय और बिंदराय, जिन्होंने आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस विद्रोह के पीछे भी वही कारण थे। अंग्रेजों ने झारखंड के प्रवेश करने के साथ ही यहां अधिकार जमाना शुरू कर दिया। स्थानीय राजाओं को लोभ-लालच देकर अपने साथ मिलाया और नए लगान वसूली के लिए नए जमींदारों का एक वर्ग खड़ा किया। आदिवासी व्यवस्था से अनभिज्ञ अंग्रेज शासकों ने तरह-तरह के कर लगाने शुरू कर दिए। कर नहीं देने पर जुल्म की इंतहा बढ़ती गई। अंग्रेजों की क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस जंगल पर उनकी निर्भरता थी, जंगल आजीविका के साधन थे, उसी जंगल में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी गई। वे न लकड़ी काट सकते थे न जंगल के अंदर अपने पशुओं को ले जा सकते थे। वनोपज का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते थे। दूसरे, अंग्रेजों ने जमीनों की मनमानी बंदोबस्ती करने लगे। जिस जमीन को कोल-मुंडा या दूसरे आदिवासियों ने जंगल काटकर खेती लायक जमीन बनाई थी, वह नए कानून के तहत उनके हाथ से निकलने लगी थी। यह नया कानून आदिवासियों की समझ में नहीं आ रहा था। जबरदस्ती किसानों से कर वसूला जाने लगा। उनके परंपरागत पेय पदार्थ पर टैक्स वसूला जाने लगा। इनकी अपनी व्यवस्था पड़हा पंचायत को छिन्न-भिन्न किया जाने लगा। इस तरह धीरे-धीरे आदिवासियों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ आग सुलगने लगी थी।
इस आग को और सुलगा दिया एक घटना ने। छोटानागपुर के राजा के भाई हरनाथ शाही ने अपनी जमींदारी के कुछ गांवों की खेती की जमीन पुश्त दर पुश्त खेती करने वाले आदिवासियों से छीनकर अपने प्रिय पात्रा कुछ मुसलमानों और सिखों को दे दी। सिंहभूम की सीमा के पास 12 गांव सिंदराय नाम मानकी के थे। बिंदराय मानकी और सिंदराय मानकी दोनों भाई थे। इनकी जमीन छीनकर सिखों को दे दिया गया। यही नहीं, मानकी के सिर्फ गांव ही नहीं छीने गए, उनकी दो बहने भी छीन ली गईं। सिखों ने उनके साथ बलात्कार किया। यही शिकायत मुसलमान फारमरों के खिलाफ भी थी। जफर नामक एक फारमर ने सिंहभूम के बंदगांव के मुंडा सुर्गा पर बड़ा अत्याचार किया था और उसकी पत्नी को भी उठा ले गया था। दिकुओं के इन कुकृत्यों ने आदिवासियों को जवाब देने को मजबूर कर दिया।
अत्याचार, उत्पीडऩ और अपमान के कारण आक्रोश बढ़ता गया। इसके बाद सिंगराय, बिंदराय और सुर्गा ने बंदगांव तथा रांची अंचल के सभी मुंडा लोगों की सभा बुलाई। सभा में दिकुओं और उनके संरक्षकों को तबाह करने का निर्णय लिया गया। इसके बाद इनके नेृतत्व में 11 दिसंबर, 1831 को यह विद्रोह फूट पड़ा। इनके नेतृत्व में सात सौ लोगों ने उन गांवों पर हमला बोल दिया, जो सिंदराय से छीन लिए गए थे। इन्होंने गांव को लूट लिए और गांव में आग लगा दी। दूसरे महीने जफर अली के गांव को पर हमला किया गया। जफर ही सुर्गा की पत्नी को उठा ले गया था। सारा गांव जला दिया गया। जफर अली, उसके दस आदमी और औरतों को भी मार दिया गया। इस विद्रोह 19 मार्च 1832 को कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में सेना की टुकडिय़ों ने इस विद्रोह को दबा दिया। संयुक्त कमिश्नर विल्किंसन और डेंट ने, जिनकी नियुक्ति उस विद्रोह को दबाने के लिए हुई थी, विद्रोह की वजहों को रेखांकित करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा- 'पिछले कुछ वर्षों के भीतर पूरे नागपुर भर के कोलों पर वहां के इलाकादारों, जमींदारों और ठेकेदारों ने 35 प्रतिशत लगान बढ़ा दिये हैं। परगने भर की सड़कें उन्हें (कोलों को) बिना किसी मजदूरी के बेगारी द्वारा बनानी पड़ी थीं। महाजन लोग, जो उन्हें रुपये या अनाज उधार दिया करते थे, 12 महीने के भीतर ही उनसे 70 प्रतिशत और कभी-कभी उससे भी ज्यादा वसूल कर लेते थे। उन्हें शराब पर लगाये गये कर, जिसकी दर तो चार आना प्रति घर के हिसाब से निश्चित थी, लेकिन जिसकी वसूली आम तौर पर इससे कहीं अधिक की जाती थी और उसके अलावे सलामी के रूप में प्रति गांव एक रुपया और एक बकरी भी ली जाती थी, से सख्त नफरत थी।....कोलों को अफीम की खेती नापसंद थी। ...हाल में वहां एक ऐसी डाक प्रणाली चलायी गयी थी, जिसका पूरा खर्च गांव के कोलों को वहन करना पड़ता था।....कोलों के बीच यह भी शिकायत का विषय था कि जो लोग बाहर से आकर नागपुर में बसे हैं, उनमें से बहुतों ने, जिनका कोलों पर बेतरह कर्ज लद गया है, अपने कर्ज की वसूली के लिए बहुत सख्ती की है। बहुत से कोलों को उनके नाम 'सेवक-पट्टाÓ लिख देना पड़ा है। यानी उनके हाथ अपनी सेवा तब तक के लिए बेच देनी पड़ी है, जब तक कर्ज अदा नहीं हो जाय। इसका मतलब है अपने आप को ऐसे बंधन में डाल देना कि उनकी पूरी कमाई का पूरा हकदार महाजन बन जाय और वे जीवन भर के लिए महाजन के दास बन जाएं।Ó
1831 में कोल विद्रोह के फूटने की शुरुआती वजहों के बारे लिखते हुए विल्किंसन ने 12 फरवरी, 1832 की अपनी रिपोर्ट में कहा-रांची जिला में ईचागुटू परगने के सिंहराय मानकी के 12 गांवों को कुछ बाहरी लोगों के हाथ ठीका दे दिया गया था। उन लोगों ने मानकी को न केवल बेदखल किया, वरन उसकी दो जवान बहनों को बहकाकर उनके साथ बलात्कार भी किया था। इसी तरह एक बाहरी ठेकेदार ने सिंहभूमि जिले के बंद गांव में एक मुंडा के साथ अत्याचार किया और उसकी पत्नी को भगा कर उसकी इज्जत बिगाड़ दी थी। अत्याचार से पीडि़त लोगों को जब इन्साफ करने वालों के यहां से इन्साफ नहीं मिला, तो उन्होंने सोनपुर, तमाड़ और बंदगांव परगनों के सभी कोलों को तमाड़ में लंका नामक स्थान पर एकत्रित होने का आह्नान किया। वहां उन्होंने फैसला किया कि वे अब उन पर हो रहे अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे विरोध में आग लगाने, लूटने और खून करने की कार्रवाई शुरू करेंगे।Ó
रांची और सिंहभूम के कोल सब एक साथ लड़ाई के मैदान में कूद पड़े। सिंहभूम के हो भी इनके साथ आ मिले और लड़ाई और तेज हो गई और यह विद्रोह रांची ही नहीं, हजारीबाग, पलामू के टोरी परगने, मानभूम के पश्चिम हिस्से तक फैल गया। विद्रोही गांव-गांव जाते और जो भी गैर आदिवासी मिलते, उन्हें मौत के घाट उतार देते। उनके घरों को लूट कर जला देते। अनुमान लगाया जाता है कि इस तरह 800 से 1000 आदमी या तो मारे गए या वे अपने घर में जलकर मर गए। इसके साथ ही इन्होंने अत्याचारी जमींदारों को भी नहीं छोड़ा। तेजी से बढ़ते कोल विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। कलकत्ता, बनारस, संभलपुर और नागपुर सभी दिशाओं से अंग्रेजी पलटनें मंगानी पड़ीं। कप्तान विल्किंसन छोटानागपुर पठार के उत्तरी छोर, पिठौरिया नामक स्थान पर 1832 में जनवरी के मध्य में पहुंचा। लेकिन उसका हमला फरवरी के मध्य में शुरू हुआ। पूरी सेना को तीन दलों में बांट कर पूरे प्रांत पर उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए हमला करने को कहा गया। भीषण संघर्ष हुआ। अंग्रेज सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। पिठाौरिया और रांची के बीच नगड़ी के विद्रोहियों ने तो आखिरी दम तक लडऩे की कसम खायी थी। वहां अंग्रेजों ने खास सेना भेजी। उसे स्पष्ट आदेश था कि वह हमला, कत्ल और बर्बादी करे। अंग्रेजों की उस सेना का तीन-तीन हजार विद्रोही कोल सैनिकों ने मुकाबला किया लेकिन अंग्रेज सेना की बर्बरता के सामने वे टिक नहीं सके। नगड़ी के बहादुर कोल विद्रोही एक-एक कर मारे गये। विद्रोहियों के नेता सुर्गा, सिंदराय और बिंदराय अंत तक लड़ते रहे। उन्होंने 19 मार्च, 1832 को आत्मसमर्पण कर दिया। हालांकि कोल विद्रोह के शांत होते ही मानभूम जिले में भूमिज जनजातियों का विद्रोह शुरू हो गया।
पिठौरिया गांववासियों का मानना है कि इस किले पर हर साल बरसात के मौसम में बिजली गिरती है और किले का कोई भाग ध्वस्त हो जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि ऐसा एक क्रांतिकारी द्वारा राजा जगतपाल सिंह को दिए गए श्राप के कारण होता है।
रांची के पिठौरिया स्थित वह ऐतिहासिक किला, जिसकी दीवारें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में कुर्बानी देने वाले शहीदों और गद्दारों की कहानी आज भी सुनाती है। यह किला परगनैत(राजा) जगतपाल सिंह का है। इसी किले के निकट बना एक फांसी घर है, जिसमें आजादी की लड़ाई लडऩे वाले दर्जनों शहीदों को अंग्रेजों के इशारे पर फांसी पर लटकाया गया था।
दरअसल, सन 1831 ई. हुए कोल विद्रोह के नायक थे सिंदराय और बिंदराय, जिन्होंने आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस विद्रोह के पीछे भी वही कारण थे। अंग्रेजों ने झारखंड के प्रवेश करने के साथ ही यहां अधिकार जमाना शुरू कर दिया। स्थानीय राजाओं को लोभ-लालच देकर अपने साथ मिलाया और नए लगान वसूली के लिए नए जमींदारों का एक वर्ग खड़ा किया। आदिवासी व्यवस्था से अनभिज्ञ अंग्रेज शासकों ने तरह-तरह के कर लगाने शुरू कर दिए। कर नहीं देने पर जुल्म की इंतहा बढ़ती गई। अंग्रेजों की क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस जंगल पर उनकी निर्भरता थी, जंगल आजीविका के साधन थे, उसी जंगल में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी गई। वे न लकड़ी काट सकते थे न जंगल के अंदर अपने पशुओं को ले जा सकते थे। वनोपज का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते थे। दूसरे, अंग्रेजों ने जमीनों की मनमानी बंदोबस्ती करने लगे। जिस जमीन को कोल-मुंडा या दूसरे आदिवासियों ने जंगल काटकर खेती लायक जमीन बनाई थी, वह नए कानून के तहत उनके हाथ से निकलने लगी थी। यह नया कानून आदिवासियों की समझ में नहीं आ रहा था। जबरदस्ती किसानों से कर वसूला जाने लगा। उनके परंपरागत पेय पदार्थ पर टैक्स वसूला जाने लगा। इनकी अपनी व्यवस्था पड़हा पंचायत को छिन्न-भिन्न किया जाने लगा। इस तरह धीरे-धीरे आदिवासियों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ आग सुलगने लगी थी।
इस आग को और सुलगा दिया एक घटना ने। छोटानागपुर के राजा के भाई हरनाथ शाही ने अपनी जमींदारी के कुछ गांवों की खेती की जमीन पुश्त दर पुश्त खेती करने वाले आदिवासियों से छीनकर अपने प्रिय पात्रा कुछ मुसलमानों और सिखों को दे दी। सिंहभूम की सीमा के पास 12 गांव सिंदराय नाम मानकी के थे। बिंदराय मानकी और सिंदराय मानकी दोनों भाई थे। इनकी जमीन छीनकर सिखों को दे दिया गया। यही नहीं, मानकी के सिर्फ गांव ही नहीं छीने गए, उनकी दो बहने भी छीन ली गईं। सिखों ने उनके साथ बलात्कार किया। यही शिकायत मुसलमान फारमरों के खिलाफ भी थी। जफर नामक एक फारमर ने सिंहभूम के बंदगांव के मुंडा सुर्गा पर बड़ा अत्याचार किया था और उसकी पत्नी को भी उठा ले गया था। दिकुओं के इन कुकृत्यों ने आदिवासियों को जवाब देने को मजबूर कर दिया।
अत्याचार, उत्पीडऩ और अपमान के कारण आक्रोश बढ़ता गया। इसके बाद सिंगराय, बिंदराय और सुर्गा ने बंदगांव तथा रांची अंचल के सभी मुंडा लोगों की सभा बुलाई। सभा में दिकुओं और उनके संरक्षकों को तबाह करने का निर्णय लिया गया। इसके बाद इनके नेृतत्व में 11 दिसंबर, 1831 को यह विद्रोह फूट पड़ा। इनके नेतृत्व में सात सौ लोगों ने उन गांवों पर हमला बोल दिया, जो सिंदराय से छीन लिए गए थे। इन्होंने गांव को लूट लिए और गांव में आग लगा दी। दूसरे महीने जफर अली के गांव को पर हमला किया गया। जफर ही सुर्गा की पत्नी को उठा ले गया था। सारा गांव जला दिया गया। जफर अली, उसके दस आदमी और औरतों को भी मार दिया गया। इस विद्रोह 19 मार्च 1832 को कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में सेना की टुकडिय़ों ने इस विद्रोह को दबा दिया। संयुक्त कमिश्नर विल्किंसन और डेंट ने, जिनकी नियुक्ति उस विद्रोह को दबाने के लिए हुई थी, विद्रोह की वजहों को रेखांकित करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा- 'पिछले कुछ वर्षों के भीतर पूरे नागपुर भर के कोलों पर वहां के इलाकादारों, जमींदारों और ठेकेदारों ने 35 प्रतिशत लगान बढ़ा दिये हैं। परगने भर की सड़कें उन्हें (कोलों को) बिना किसी मजदूरी के बेगारी द्वारा बनानी पड़ी थीं। महाजन लोग, जो उन्हें रुपये या अनाज उधार दिया करते थे, 12 महीने के भीतर ही उनसे 70 प्रतिशत और कभी-कभी उससे भी ज्यादा वसूल कर लेते थे। उन्हें शराब पर लगाये गये कर, जिसकी दर तो चार आना प्रति घर के हिसाब से निश्चित थी, लेकिन जिसकी वसूली आम तौर पर इससे कहीं अधिक की जाती थी और उसके अलावे सलामी के रूप में प्रति गांव एक रुपया और एक बकरी भी ली जाती थी, से सख्त नफरत थी।....कोलों को अफीम की खेती नापसंद थी। ...हाल में वहां एक ऐसी डाक प्रणाली चलायी गयी थी, जिसका पूरा खर्च गांव के कोलों को वहन करना पड़ता था।....कोलों के बीच यह भी शिकायत का विषय था कि जो लोग बाहर से आकर नागपुर में बसे हैं, उनमें से बहुतों ने, जिनका कोलों पर बेतरह कर्ज लद गया है, अपने कर्ज की वसूली के लिए बहुत सख्ती की है। बहुत से कोलों को उनके नाम 'सेवक-पट्टाÓ लिख देना पड़ा है। यानी उनके हाथ अपनी सेवा तब तक के लिए बेच देनी पड़ी है, जब तक कर्ज अदा नहीं हो जाय। इसका मतलब है अपने आप को ऐसे बंधन में डाल देना कि उनकी पूरी कमाई का पूरा हकदार महाजन बन जाय और वे जीवन भर के लिए महाजन के दास बन जाएं।Ó
1831 में कोल विद्रोह के फूटने की शुरुआती वजहों के बारे लिखते हुए विल्किंसन ने 12 फरवरी, 1832 की अपनी रिपोर्ट में कहा-रांची जिला में ईचागुटू परगने के सिंहराय मानकी के 12 गांवों को कुछ बाहरी लोगों के हाथ ठीका दे दिया गया था। उन लोगों ने मानकी को न केवल बेदखल किया, वरन उसकी दो जवान बहनों को बहकाकर उनके साथ बलात्कार भी किया था। इसी तरह एक बाहरी ठेकेदार ने सिंहभूमि जिले के बंद गांव में एक मुंडा के साथ अत्याचार किया और उसकी पत्नी को भगा कर उसकी इज्जत बिगाड़ दी थी। अत्याचार से पीडि़त लोगों को जब इन्साफ करने वालों के यहां से इन्साफ नहीं मिला, तो उन्होंने सोनपुर, तमाड़ और बंदगांव परगनों के सभी कोलों को तमाड़ में लंका नामक स्थान पर एकत्रित होने का आह्नान किया। वहां उन्होंने फैसला किया कि वे अब उन पर हो रहे अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे विरोध में आग लगाने, लूटने और खून करने की कार्रवाई शुरू करेंगे।Ó
रांची और सिंहभूम के कोल सब एक साथ लड़ाई के मैदान में कूद पड़े। सिंहभूम के हो भी इनके साथ आ मिले और लड़ाई और तेज हो गई और यह विद्रोह रांची ही नहीं, हजारीबाग, पलामू के टोरी परगने, मानभूम के पश्चिम हिस्से तक फैल गया। विद्रोही गांव-गांव जाते और जो भी गैर आदिवासी मिलते, उन्हें मौत के घाट उतार देते। उनके घरों को लूट कर जला देते। अनुमान लगाया जाता है कि इस तरह 800 से 1000 आदमी या तो मारे गए या वे अपने घर में जलकर मर गए। इसके साथ ही इन्होंने अत्याचारी जमींदारों को भी नहीं छोड़ा। तेजी से बढ़ते कोल विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। कलकत्ता, बनारस, संभलपुर और नागपुर सभी दिशाओं से अंग्रेजी पलटनें मंगानी पड़ीं। कप्तान विल्किंसन छोटानागपुर पठार के उत्तरी छोर, पिठौरिया नामक स्थान पर 1832 में जनवरी के मध्य में पहुंचा। लेकिन उसका हमला फरवरी के मध्य में शुरू हुआ। पूरी सेना को तीन दलों में बांट कर पूरे प्रांत पर उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए हमला करने को कहा गया। भीषण संघर्ष हुआ। अंग्रेज सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। पिठाौरिया और रांची के बीच नगड़ी के विद्रोहियों ने तो आखिरी दम तक लडऩे की कसम खायी थी। वहां अंग्रेजों ने खास सेना भेजी। उसे स्पष्ट आदेश था कि वह हमला, कत्ल और बर्बादी करे। अंग्रेजों की उस सेना का तीन-तीन हजार विद्रोही कोल सैनिकों ने मुकाबला किया लेकिन अंग्रेज सेना की बर्बरता के सामने वे टिक नहीं सके। नगड़ी के बहादुर कोल विद्रोही एक-एक कर मारे गये। विद्रोहियों के नेता सुर्गा, सिंदराय और बिंदराय अंत तक लड़ते रहे। उन्होंने 19 मार्च, 1832 को आत्मसमर्पण कर दिया। हालांकि कोल विद्रोह के शांत होते ही मानभूम जिले में भूमिज जनजातियों का विद्रोह शुरू हो गया।
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