गांधीजी मोटरकार से घूमे थे झारखंड


मोहनदास करमचंद गांधी की महात्मा बनने की शुरुआत झारखंड से ही होती है। 1917 में पहली बार चंपारण आंदोलन के सिलसिले में रांची आए तो महात्मा शब्द नहीं जुड़ा था, लेकिन इस आंदोलन ने महात्मा बनने की शुरुआत कर दी थी। कहा जाता है कि चार जून 1917 से 1940 तक यानी, रामगढ़ कांग्रेस तक बीच-बीच में वे झारखंड आते रहे। लेकिन
फाइल फोटो
झारखंड का सुनियोजित राजनीतिक दौरा उन्होंने 1925 में 13 से 18 सितंबर तक किया था। इस दौरान वे पुरुलिया, चाईबासा, चक्रधरपुर, खूंटी, रांची, मांडर, हजारीबाग में रहे और इन स्थानों पर आयोजित अनेक बैठकों को संबोधित किया। अपनी झारखंड यात्रा में अनेक लोगों से भी मिले और कई महत्वपूर्ण संस्थानों को भी देखा था। झारखंड से लौटने के बाद 'यंग इंडियाÓ के 8 अक्टूबर 1925 के अंक में  'छोटानागपुर मेंÓ शीर्षक से उन्होंने दो संक्षिप्त संस्मरण लिखे।
सितंबर की यात्रा का जिक्र करते हुए गांधीजी लिखते हैं, छोटानागपुर की अपनी पूरी यात्रा मैंने मोटरकार से की। सभी रास्ते बहुत ही बढिय़ा थे और प्राकृतिक सौंदर्य अत्यंत दिव्य तथा मनोहारी था। चाईबासा से हम चक्रधरपुर गए फिर बीच में खूंटी और एक-दो अन्य स्थानों पर रुकते हुए रांची पहुंचे। हमारे रांची पहुंचने के वक्त ठीक सात बजे शाम को महिलाओं ने एक बैठक का आयोजन रखा था। बैठक में आयोजकों ने मुझसे देशबंधु मेमोरियल फंड के लिए अपील करने की कोई बात नहीं की थी, ऐसा मेरा ख्याल है। फिर भी मैं शायद ही कभी किसी सार्वजनिक सभा या बैठक में इस अपील को रखने से चुका हूं और मैंने नि:संदेह इस बैठक में भी यह अपील की। बैठक में शामिल लोगों में बंगाली बहुसंख्यक थे। आगे कहते हैं, 'इसके बाद मुझे रांची से नजदीक के एक छोटे से गांव ले जाया गया। जहां बाबु गिरिशचंद्र घोष, जो एक उत्साही खद्दर कार्यकर्ता हैं, के नेतृत्व में एक कोऑपरेटिव सोसायटी के जरिए हथकरघा को बचाने का प्रयास किया जा रहा है।Ó रांची आने के बाद कहते हैं,  रांची में देशबंधु मेमोरियल फंड के लिए शौकिया दलों द्वारा दो नाटकों का मंचन किया गया था। एक का मंचन बंगालियों ने किया जबकि दूसरा नाटक बिहारियों ने किया था। चूंकि दोनों ही शौकिया दल थे फिर भी उनके आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं थी। यह जुदा बात है कि बंगाली नाटक को देखते हुए मैं बहुत निराश हुआ। मैं शौकिया और व्यवसायिक नाटक के बीच के अंतर को साफ तौर पर देख रहा था। नाट्य प्रदर्शन में पेशेवर कलात्मकता का पूरा अभाव था। वस्त्र सज्जा पूरी तरह से विदेशी कपड़ों को लेकर तैयार की गयी थी। मेकअप अच्छा नहीं रहने से भी नाटक हल्का लग रहा था। यह अत्यंत उत्तम होता कि कम से कम पात्रों के वस्त्र निर्माण में वे खद्दर का उपयोग करते। इसलिए जब मुझसे बिहारी नाटक देखने के लिए लोग आग्रह करने आए तब मैंने उनसे कहा कि मैं तभी उनका नाटक देखने आऊंगा जब वे अपने नाटक में खद्दर का प्रयोग करेंगे, और ऐसा उन्हें अपने हर परफॉरमेंस में करना होगा, सिर्फ इस प्रदर्शन में नहीं। मुझे बेहद आश्चर्य तब हुआ जब उन लोगों ने मेरी यह शर्त बहुत आसानी से मान ली। मेरी बात मानने के लिए उनके पास अत्यंत कम समय था पर उन्होंने ऐसा कर दिखाया। नाटक शुरू होने से पहले उनके प्रबंधक ने घोषणा की कि मुझसे किए गए वायदे के अनुसार उन्होंने वस्त्र-विन्यास में परिवर्तन कर लिया है और इसके लिए वह ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि वे अपना वायदा पूरा कर पा रहे हैं। बिहारी कलाकारों ने अपने नाटक की झूठी चमक खो कर क्या पाया था? मेरे विचार से 'गौरवÓ। खद्दर के इस्तेमाल से उन्होंने प्रतिष्ठा पायी थी और नि:संदेह स्वदेशी खद्दर का प्रयोग मैं सभी नाटक कंपनियों के लिए आवश्यक मानता हूं।
गांधीजी आगे लिखते हैं, 'छोटानागपुर प्रवास के दौरान और भी कई दिलचस्प बातें हुई जिनमें खद्दर पर एन.के. रॉय और उद्योग विभाग के एस.के. राव के साथ हुई चर्चा तो शामिल है ही ब्रह्मचर्य आश्रम (अब योगदा सत्संग आश्रम) का विजिट भी स्मरणीय है जिसकी स्थापना कासिमबाजार के महराजा की देन है। मोटरगाड़ी से ही हम रांची से हजारीबाग गए जहां पहले से तयशुदा कार्यक्रमों के अलावा मुझे संत कोलम्बा मिशनरीज कॉलेज, जो बहुत पुराना शिक्षण संस्थान है, के छात्रों को भी संबोधित करने का आमंत्रण मिला। गांधीजी ने वहां भी संबोधित किया और फिर पलामू आदि की भी यात्रा की। अंतिम बार गांधीजी ने रामगढ़ कांग्रेस में आए थे और करीब दस दिनों तक यहां रहे थे।