राष्ट्रपति का व्यक्तित्व

श्रीयुत राधाकृष्ण
जिस समय महात्मा गांधी चम्पारन (बिहार) में निलहे गोरों के खिलाफ अहिंसा की लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय बाबू राजेंद्र प्रसाद भी महात्माजी के साथ लड़ाई में शामिल थे। उनकी बड़ी शान की वकालत थी। जैसे उनके पास विद्या थी वैसी ही तेज बुद्धि भी। राजेंद्र बाबू ने अपने विद्यार्थी जीवन में सदा सर्व प्रथम होकर पास किया था। वकालत में तो अच्छे-अच्छे वकील-बैरिस्टरों का तेज उनके आगे निष्प्रभ हो गया। लेकिन, उनकी रुपये जोड़-जोड़कर लखपति और करोड़पति बनने की इच्छा न थी। उनके कान तो देश की आत्र्त पुकारों को सुन रहे थे। हृदय पीडि़तों के हाहाकार विदीर्ण हो रहा था, किंतु चारों ओर विवशता की जंजीर पड़ी थी। उन्हीं दिनों चम्पारन में राजेंद्रबाबू को राह मिली। वहां उन्होंने सत्य और अहिंसा का बल देखा। उन्हें विश्वास हो गया कि सदा सत्य की जीत होती है-अहिंसा के समान आदमी का दूसरा हथियार नहीं। वे महात्मा गांधी के साथ हो गए।
राधाकृष्‍ण
आज हिंदुस्तान की जनता राजेंद्र बाबू को इस तरह मानती है जिस तरह आदमी अपनी आंख को प्यार करता है। राजेंद्र बाबू को दो बार कांग्रेस ने राष्ट्रपति का पदा दिया है। वे तो कांग्रेस के लिये सतत परिश्रम कर ही रहे हैं, बड़ी गंभीरता के साथ देश की विषम परिस्थितियों को भी सुलझाते जा रहे हैं।
उन्हें फुरसत नहीं, शांति नहीं, काम की इतनी भीड़ कि निश्ंिचत होकर बैठने का समय बिल्कुल ही नहीं। आज यहां हैं तो कल वहां। ऊपर से उन्हें दमा का रोग है। जिस समय उनका दमा उभड़ता है, उस समय वे बुरी तरह बेकाबू हो जाते हैं। फिर भी देश को उनकी सेवा की सख्त जरूरत हे, इसीलिए उन्हें अपने स्वास्थ्य की परवा नहीं। वे सदा साहरा के साथ धीर-गंभीर भाव से कामों में उलझे रहते हैं। उनके पास इतने काम और झंझट हैं कि जिनका हिसाब नहीं-सैकड़ेंा राजनीतक गुत्थियां, पचासों पेंच, जिनमें से एक का ही सामना हो जाने पर बड़े-बड़े लोगों की बुद्धि गोता खा जाएगी।
राजेंद्र बाबू का बड़प्पन बड़े गौर से देखने की चीज है। अगर तुम उनके पास जाओ तो देखोगे, वे किसी गहरे काम में व्यस्त हैं या किसी बड़े व्यक्ति के साथ किसी आवश्यक कार्य के संबंध में परामर्श कर रहे हैं। अगर तुम्हारी ओर उनकी दृष्टि फिर गई तो वे तुम्हें अवश्य बुला लेंगे। कोई काम हो या न हो, तुमसे जरूर बातचीत करेंगे-तुम्हारी बात को बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनेंगे और उसका जवाब देंगे। अगर वे तुम्हारी घरेलू भाषा जानते होंगे तो अवश्य तुमसे उसी भाषा में बात करेंगे। वे बंगालियों से बंगला में ही बातचीत करते हैं। उनसे बातचीत करते समय तुम्हें जरा भी ऐसा नहीं मालूम होगा कि तुम भारत क्या संसार के एक महापुरुष से बातें कर रहे हो, बिल्कुल तुम्हारी तरह, तुम्हारे मन के लायक बातें करेंगे। ऐसी कोई भी बात नहीं कहेंगे, जिसे तुम नहीं समझ सको। वे तुम्हारे साथ हंसेंगे, बोलेंगे और इस तरह हो जाएंगे कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि इनके सामने भी बड़े-बड़े काम हैं। बालकों को वे बहुत प्यार करते हैं। कोई बालक उनके पास जाकर यही अनुभव करेगा मानों अपने ऐसे पिता के आगे खड़ा है, जिसके हृदय में उसके प्रति ममता भरी है। ऐसा तो कभी मालूम ही नहीं होगा कि उसके आगे एक बड़ा आदमी है जिसका रोब और दबदबा सारे भारत में फैला हुआ है।
उनके पास धनी-मानी जाते हैं और आप-बीती सुना आते हैं। गरीब किसान जाते हैं और अपना तमाम दुख-दर्द हल्का कर आते हैं। क्या वकील, बैरिस्टर, क्या मजदूर और व्यापारी सब उनके पास पहुंचते हैं। उनका दरवाजा सबके लिये खुला हुआ है। न कार्ड भेजने की जरूरत, न दरवान की खुशामद, कहीं कोई रोक-टोक नहीं। आपसे कोई यह भी पूछने वाला नहीं कि कोई जरूरी काम है या यों ही समय बरबाद करना है? इस कारण कुछ लोग उनका समय बर्बाद करने से भी नहीं चूकते। अनेक ऐसे लोग भी उनके पास पहुंच जाते हैं, जिनकी बातों का न कोई सिर है न पैर। फिर भी वे बड़ी बेदर्दी के साथ राष्ट्रपति का समय बरबाद करते रहते हैं। नौकरी खोजने वाले भी उनके पास जा पहुंचते हैं। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि ऐसे त्यागी के पास नौकरी कहां से? दूसरा आदमी हो तो ऐसे आदमियों को बुरी तरह झाड़ दे-ऐसा रगड़े कि फिर बिना वजह कभी आने का महाशय नाम भी न लें। लेकिन राजेंद्र बाबू ही ऐसे मुरब्बतवाले व्यक्ति हैं कि हर किसी की प्रेम से सुनते हैं और बड़े प्रेम के साथ जवाब देते हंै। सहन शक्ति उनकी इतनी है कि आप लाख उनका समय बरबाद कर रहे हों, लेकिन वे कभी नहीं कहेंगे कि मेरा जरूरी काम हर्ज हुआ जा रहा है, आप अपना रास्ता नापिये।
 राजेंद्रबाबू के चेहरे-मोहरे से भी कोई बड़प्पन की झलक नहीं मिलती। दुबले-पतले दमा के मरीज आदमी हैं। सांवला शरीर। मूंछे घनी और बड़ी-बड़ी हैं जो अब धीरे-धीरे सफेद होने चली हंै। उनके कान साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ विशेष बड़े हैं। हाथ भी कुछ लंबा है। शरीर प्राय: अस्वस्थ रहता है, अत: वे बहुत दुबले-पतले हैं। अगर उनकी छाती की माप ली जाय तो मुश्किल से तीस इंच भी नहीं निकलेगी। पैर की पिंडलियों की भी यही हालत समझिये। बस नाममात्र की। उनका कंठस्वर यद्यपि बहुत कोमल नहीं है, दमे के लगातार दैारे के कारण कुछ रुखा हो गया है, फिर भी उस कंठस्वर में इतना स्नेह भरा रहता है कि जी चाहता है, वे कुछ कहते रहें और हम सुनते रहें। चाहे कैसा भी कठिन प्रसंग हो, उनमें  उत्तेजना मिलेगी और न क्रोध। सब कुछ वे शांत भाव से करते हुए पाये जाएंगे।
मजाक भी उनके एक से एक अनोखे होते हैं। एक बार की बात है। सन 30 से पटने में झंडा सत्याग्रह चल रहा था। नौजवान लोग राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकालते थे और पुलिस उन पर डंडे बरसाती थी, घोड़े दौड़ा देती थी। इसी सिलसिले में एक अंगरेज सर्जेंट ने राजेंद्र बाबू के ऊपर बेंत चला दिया था। प्रोफेसर अब्दुलबारी साहब भी उसी अंगरेज सर्जेंट के द्वारा बेंत से पीटे गये थे। और मजा यह है कि बेंत  चलाता और कहता-यह एक बेंत मेरी ओर से है, दूसरा मेरे साथी की ओर से। इसी तरह सपासप जिस किसी का नाम ले लेकर उसने बारी साहब को पांच या सात बेंत लगाये। लेकिन आखिरी दो बेतों के लिये उसने किसी का नाम न लिया। इस पर स्वर्गीय हसन इमाम साहब ने एक सभा में इसका जिक्र करते हुए मजाक में कहा था-तो वे आखिरी दोनों बेंत किसकी ओर से लगाये गए? राजेंद्र बाबू ने परिहासपूर्वक उनकी ओर देखा और कहा-सल्तनत की ओर से। इस पर सारी सभा खिलखिलाकर हंस पड़ी।
राष्ट्रपति को तुम अगर लेक्चर देते हुए देखो, तो पाओगे कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह बड़े ही सीधे-सादे ढंग से। न कोई आडंबर है और न लच्छेदार वाक्य। दूसरे नेताओं की तरह न हाथ पैर पटकते हैं, न गर्जन-सर्जन करते हैं-सीधे चुपचाप खड़े हैं और जो कहना है, स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं। उनके लेक्चरों में इतनी सादगी और सरलता रहती है कि निपट बच्चों से लेकर ठेठ देहाती भी सब कुछ आसानी से समझ जाते हैं। दूसरी ओ, वही सरल और सीधा सदा व्याख्यान बड़े से बड़े राजनीतिज्ञों को चक्कर में डाल देता है। चाहे लाख कानून का विरोध कर रहे हों, लेकिन कानून का अगाध विद्वान भी उसमें से एक शब्द ऐसा नहीं निकाल सकता जिसे लेकर कानूनी कार्रवाई की जा सके। अर्थात एक ओर से स्पष्ट और सरल होते हुए भी दूसरी ओर इतना ठोस और गंभीर होता है कि लोग मुंह देखते ही रह जाते हैं और उनको जो कहना होता है वह साफ-साफ  कह डालते हैं।
शांति, गंभीरता और सहनशीलता उनमें गजब की है। एक बार आस्ट्रिया के ग्राज नामक शहर में उन्होंने युद्ध-विरोधी भाषण दिया था। उनके युक्तिसंगत तर्कों को सुनकर लड़ाई के पक्षपाती बड़े चिढ़ गये। उन्होंने राजेंद्र बाबू का अपमान किया-उन पर सड़े हुए अंडे फेंके। यही नहीं, उन्हें मारा भी। लेकिन राजेंद्र बाबू शांत, चुपचाप सब सहते रहे। विरोधियों को शांत रहने को भी नहीं कहा। उस समय उनको बड़ी चोट आई थी।
इस समय राजेंद्र बाबू की अवस्था चौवन वर्ष की है। उनका परिवार बहुत बड़ा है। शहरों की अपेक्षा उन्हें देहात की जिंदगी बहुत पसंद है। जब कभी मौका मिलता है, वे अपने गांव जीरादेई में चले जाते हैं। यहीं उनके परिवार के सभी लोग रहते हैं।
आजकल उनके पास इतने काम हैं कि दम लेने की फुरसत भी नहीं मिलती राष्ट्रपति का पद ही ऐसा है। तुम इन्हें अकेला या बिना काम के बैठे हुए कभी पा ही नहीं सकते। हां, दतवन करते हुए या नहाने के लिये तेल लगाते हुए, तुम उन्हें अकेला देख सकते हो। उस समय भी ऐसा मालूम होता है मानो उनका शरीर यहां है, लेकिन मन न जाने कहां है-किस दूर देश में भटक रहा है। भगवान जानें उस समय वे क्या सोचते रहते हैं।

बालक, अक्टूबर, 1939।