सन् 1857 की क्रांति ने भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की। इसे भारतीय आजादी का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों से लड़ाई का सिलसिला 1857 से पहले ही शुरू हो गया था। हां, जंगल की आग मैदानों तक नहीं पहुंच पाई थी। 1857 की क्रांति ने पूरे देश में आजादी की चिंगारी को सुलगा दिया और इस चिंगारी से छोटानागपुर का पहाड़-पठार भी धधकने से बच नहीं सका। यहां तो बहुत पहले से ही चिंगारी रह-रहकर सुलग उठती थी, लेकिन 1857 की कहानी एक नया मोड़ देती है।
इस राष्ट्रव्यापी पहली क्रांति 1857 में शेख भिखारी ने भी अहम भूमिका निभाई। एक निहायत सामान्य बुनकर परिवार में शेख भिखारी का जन्म रांची जिले के ओरमांझी थाना अंतर्गत खुदिया गांव में 1819 में हुआ था। बचपन से वह अपने खानदानी पेशा, मोटे कपड़े तैयार करना और हाट बाजार में बेचकर अपने परिवार की परवरिश में सहयोग करते थे। जब वे 20 वर्ष के हुए तो उन्होंने छोटानागपुर के महाराज के यहां नौकरी कर ली। परंतु कुछ ही दिनों के बाद अपनी प्रतिभा और बुद्धिमत्ता के कारण उन्होंने राजा के दरबार में एक अच्छी मुकाम प्राप्त कर ली। बाद में बड़कागढ़ जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उनको अपने यहां दीवान के पद पर रख लिया। शेख भिखारी के जिम्मे बड़कागढ़ की फौज का भार दे दिया गया। उस फौज में मुस्लिम और आदिवासी नौजवान थे।
1856 ई में जब अंगरेजों ने राजा महाराजाओं पर चढ़ाई करने का मंसूबा बनाया तो इसका अंदाजा देश के राजा-महाराजाओं को होने लगा था। जब इसकी भनक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को मिली तो उन्होंने अपने वजीर पांडेय गणपतराय, दीवान शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह से सलाह-ममशवरा किया।
इन सभी ने अंगरेजों के खिलाफ मोर्चा लेने की ठान ली और जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह से पत्राचार किया। इसी बीच में शेख भिखारी ने बड़कागढ़ की फौज में रांची एवं चाईबासा के नौजवानों को भर्ती करना शुरू कर दिया। अचानक अंगरेजों ने 1857 में चढ़ाई कर दी।
विरोध में रामगढ़ के हिंदुस्तानी रेजिमेंट ने अपने अंगरेज अफसर को मार डाला। नादिर अली हवलदार और रामविजय सिपाही ने रामगढ़ रेजिमेंट छोड़ दिया और जगन्नाथपुर में शेख भिखारी की फौज में शामिल हो गए। इस तरह जंगे आजादी की आग छोटानागपुर में फैल गई। रांची, चाईबासा, संताल परगना के जिलों से अंगरेज भाग खड़े हुए।
चाईबासा के अंसारी नौजवान अमानत अली, सलामत अली, शेख हारू तीनों सगे भाइयों ने दुमका के अंगरेज एसडीओ को मार डाला। इस घटना से छोटानागपुर में दहशत फैल गई और यह क्षेत्र अंगरेज अफसरों से खाली हो गया। इस खुशी में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव रांची डोरंडा में जश्न मनाने लगे। इसी बीच अंगरेजों की फौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गई और चुट्टूपालू की पहाड़ी रास्ते से रांची के पलटुवार चढऩे की कोशिश करने लगी।
उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुट्टूपालू पहाड़ी पहुंच गये और अंगरेजों का रास्ता रोक दिया। शेख भिखारी ने चुट्टूपालू की घाटी पार करनेवाला पुल तोड़ दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम कर दिया। शेख भिखारी की फौज ने अंगरेजों पर गोलियों की बौछार कर अंगरेजों के छक्के छुड़ा दिय। यह लड़ाई कई दिनों तक चली।
शेख भिखारी के पास गोलियां खत्म होने लगी तो शेख भिखारी ने अपनी फौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया। इससे अंगरेज फौजी कुचलकर मरने लगे। यह देखकर जनरल मैकडोन ने मुकामी लोगों को मिलाकर चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढऩे के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी ली। फिर उस खुफिया रास्ते से चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढ़ गये। इसकी खबर शेख भिखारी को नहीं हो सकी। अंगरेजों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को छह जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ्तार कर लिया और सात जनवरी 1858 को उसी जगह चुट्टूघाटी पर फौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया।
आठ जनवरी 1858 को आजादी के आलमे बदर शेख भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी। वह पेड़ आज भी सलामत है। यह पेड़ आज भी हमें उनकी याद दिलाता है और यहां पर हर साल शहीद दिवस के मौके पर कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।
इस राष्ट्रव्यापी पहली क्रांति 1857 में शेख भिखारी ने भी अहम भूमिका निभाई। एक निहायत सामान्य बुनकर परिवार में शेख भिखारी का जन्म रांची जिले के ओरमांझी थाना अंतर्गत खुदिया गांव में 1819 में हुआ था। बचपन से वह अपने खानदानी पेशा, मोटे कपड़े तैयार करना और हाट बाजार में बेचकर अपने परिवार की परवरिश में सहयोग करते थे। जब वे 20 वर्ष के हुए तो उन्होंने छोटानागपुर के महाराज के यहां नौकरी कर ली। परंतु कुछ ही दिनों के बाद अपनी प्रतिभा और बुद्धिमत्ता के कारण उन्होंने राजा के दरबार में एक अच्छी मुकाम प्राप्त कर ली। बाद में बड़कागढ़ जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उनको अपने यहां दीवान के पद पर रख लिया। शेख भिखारी के जिम्मे बड़कागढ़ की फौज का भार दे दिया गया। उस फौज में मुस्लिम और आदिवासी नौजवान थे।
1856 ई में जब अंगरेजों ने राजा महाराजाओं पर चढ़ाई करने का मंसूबा बनाया तो इसका अंदाजा देश के राजा-महाराजाओं को होने लगा था। जब इसकी भनक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को मिली तो उन्होंने अपने वजीर पांडेय गणपतराय, दीवान शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह से सलाह-ममशवरा किया।
इन सभी ने अंगरेजों के खिलाफ मोर्चा लेने की ठान ली और जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह से पत्राचार किया। इसी बीच में शेख भिखारी ने बड़कागढ़ की फौज में रांची एवं चाईबासा के नौजवानों को भर्ती करना शुरू कर दिया। अचानक अंगरेजों ने 1857 में चढ़ाई कर दी।
विरोध में रामगढ़ के हिंदुस्तानी रेजिमेंट ने अपने अंगरेज अफसर को मार डाला। नादिर अली हवलदार और रामविजय सिपाही ने रामगढ़ रेजिमेंट छोड़ दिया और जगन्नाथपुर में शेख भिखारी की फौज में शामिल हो गए। इस तरह जंगे आजादी की आग छोटानागपुर में फैल गई। रांची, चाईबासा, संताल परगना के जिलों से अंगरेज भाग खड़े हुए।
चाईबासा के अंसारी नौजवान अमानत अली, सलामत अली, शेख हारू तीनों सगे भाइयों ने दुमका के अंगरेज एसडीओ को मार डाला। इस घटना से छोटानागपुर में दहशत फैल गई और यह क्षेत्र अंगरेज अफसरों से खाली हो गया। इस खुशी में ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव रांची डोरंडा में जश्न मनाने लगे। इसी बीच अंगरेजों की फौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गई और चुट्टूपालू की पहाड़ी रास्ते से रांची के पलटुवार चढऩे की कोशिश करने लगी।
उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुट्टूपालू पहाड़ी पहुंच गये और अंगरेजों का रास्ता रोक दिया। शेख भिखारी ने चुट्टूपालू की घाटी पार करनेवाला पुल तोड़ दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम कर दिया। शेख भिखारी की फौज ने अंगरेजों पर गोलियों की बौछार कर अंगरेजों के छक्के छुड़ा दिय। यह लड़ाई कई दिनों तक चली।
शेख भिखारी के पास गोलियां खत्म होने लगी तो शेख भिखारी ने अपनी फौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया। इससे अंगरेज फौजी कुचलकर मरने लगे। यह देखकर जनरल मैकडोन ने मुकामी लोगों को मिलाकर चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढऩे के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी ली। फिर उस खुफिया रास्ते से चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढ़ गये। इसकी खबर शेख भिखारी को नहीं हो सकी। अंगरेजों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को छह जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ्तार कर लिया और सात जनवरी 1858 को उसी जगह चुट्टूघाटी पर फौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया।
आठ जनवरी 1858 को आजादी के आलमे बदर शेख भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी। वह पेड़ आज भी सलामत है। यह पेड़ आज भी हमें उनकी याद दिलाता है और यहां पर हर साल शहीद दिवस के मौके पर कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।
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