कहानी की सिमटती दुनिया और सीमित अनुभव में कहानी रचाव के इस दौर में श्यामल बिहारी श्यामल अपनी कहानियों में सिर्फ एक भूगोल तक सीमित नहीं रहते। उनका दायरा किसी एक शहर तक सीमित नहीं रहता। वैविध्यपूर्ण विषय और देखने की एक गहरी अंतरदृष्टि हमें समकाल से जोड़ती भी है और समकाल के कथाकारों से विलगाती भी है। हिंदी पाठकांे की लगातार सिमटती दुनिया में, जिसके लिए एक हद तक लेखक और उनका गिरोह जिम्मेदार है-श्यामल इस बंद गली से निकल एक अलग और अपनी दुनिया आबाद करते हैं। इसलिए, उनकी कहानियां हमारे प्रबुद्ध आलोचकांे की नजर में नहीं चढ़ पातीं। पर जब इन कहानियों से गुजरने की ईमानदार कोशिश हो तो हम अपने समय को इसमें पाते हैं। बनारस से लेकर पलामू, रांची धनबाद की अलग-अलग संस्कृति, भाषा, समाज और उनकी रोजमर्रा की समस्याओं, चिंताआंे, फितूरों से हम रूबरू होते हैं। श्यामलजी पत्रकार हैं। इस नाते इन जगहों और यहां की गलियों, घरों, सड़कों पर घूम रहे पात्रों से बोलते-बतियाते ही इन कहानियां का जन्म हुआ है।
बारह कहानियों के इस संग्रह में हर कहानी के भीतर एक कहानी छिपी हुई है। इसके कहने का आशय और अर्थ भी है। ‘कागज पर चिपका समय’ संग्रह की पहली कहानी है, जो बनारस पर है और अंतिम कहानी, ‘चना चबेना गंगजल भी बनारस पर। इनके भीतर पलामू, रांची और धनबाद है। पहली कहानी में हमें बनारस की वही चिरपरिचित भाषा की मिठास से साबका होता है-‘अरे भाईजान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिए न एक बार उधर से और हो लिया जाये।’
कहानी का यह पहला पैराग्राफ पाठक को उत्सुक बना देता है। जो बनारसी रंग को जानते हैं, वह गुरु और रीतिकाल के लक्षणार्थ से भी खूब परिचित होंगे। यह खुसूर-फुसूर बनारस के दूरदर्शन केंद्र के एक आफिस में होती है। इस कहानी में आगे क्या है, उसे आप पढि़ए, पर इसमें एक कंसेप्ट है, जो एक दूसरी कहानी को जन्म दे सकता है। दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम बनाने की तैयारी चल रही है और यह कार्यक्रम भूमिहीनों और शोषितों पर कंेद्रित है। ये भूमिहीन और शोषित कौन हैं? यह आगे खुलता है-‘अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पांडेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मंुशी प्रेमंचद की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्रा था। लमही में जन्म और जगतगंज में निधन तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्रा उनके साहित्य में अमर हैं, ऐसे पात्रांे की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं...’
प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो देश गुलाम था। फिर आजादी मिली 1947 में। इसके भी हासिल किए 67 साल हो गए और प्रेमचंद के पात्रा आज भी वैसी ही दशा में हैं। यानी, दूसरी-तीसरी पीढ़ी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और चली गईं। गांव में रहने वाली 80 प्रतिशत आबादी की फिक्र देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। नारे जरूर लगाए। एक और बात, हमने इतनी जरूर तरक्की कर ली है कि प्रेमचंद के किसानों के सामने संकट जाहे जिस रूप में आए, पर वे आत्महत्या नहीं करते थे, पर हमारी नीतियों ने इतना जरूर विकास किया कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। हमारा बैंक, हमारी सरकार विजय माल्यों जैसों के प्रति बहुत उदार रहती है। कुछ ऐसे पूंजीपती भी हैं, जिनका हजारों करोड़ का कर्ज एक झटके में हमारी सरकार माफ कर देती है और जबकि चंद हजार रुपये के लिए हमारे किसान आत्महत्या कर लेते हैं। जो अन्न देता है, उसे हम भूखा मार देते हैं।
इसके भीतर एक और कहानी उभरती है-रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर शोध कर रही है....अखबारों मे रोज आ रहा है कि बनारस के बुनकर पलायन कर रहे हैं। रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं। यह भी शोर कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है, लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं।’-जो हाल किसानों की, मजदूरों की, वही हाल बुनकरों की। गर्दन में फांस यहां भी है। 67 सालों में जैसे समय ठहर गया है, कागज पर चिपक गया है।
‘आना पलामू’ यह संग्रह की चौथी कहानी है। पलामू श्यामलजी का घर भी है। 1998 में पलामू के सूखाड़-अकाल पर ‘घपेल’ नामक उपन्यास उनका आ चुका है। यह कहानी सुखाड़-अकाल पर नहीं है, पर इससे उपजी परिस्थितियों पर है। पलामू एक अजीब जिला है। ऐसा कि इसकी भूमि पत्राकारों की अपनी खींचती रही है-पी साईनाथ, रामशरण जोशी, महाश्वेता देवी, फणीश्वरनाथ रेणु, अज्ञेय...किसने नहीं लिखा और क्या नहीं लिखा, लेकिन पलामू नहीं बदला। 1880 में संजीब चटृोपाध्याय ने ‘पलामू’ लिखी। तब से पलामू यही है, यहां भी समय जैसे कागज पर चिपक गया है। मजा देखिए, यहां से निकले नेता झारखंड और देश में अपनी पहचान बनाए-कोई केंद्रीय मंत्राी बना, कोई राज्यपाल...पर पलामू की किस्मत नहीं बदली। आज स्थिति और भी बदतर है। यहां अकाल से निपटने के लिए चालीस-चालीस से डैम बनाए जा रहे हैं। ये आज तक पूरे नहीं हुए, लेकिन हर साल इसकी राशि बढ़ जाती है। तो पलामू यह है और इस उर्वर पलामू में नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चलकर पड़ाव डाला जो अब अपना घर बना लिया है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि झारखंड में नक्सलवाद का प्रवेश इसी मुहाने से हुआ और आज माओवाद के अलावा एक दर्जन संगठन सक्रिय हैं, जिसे कुछ पुलिस ने भी माओवाद से निपटने के लिए खड़ा किया है। लोहा से लोहा को काटने के लिए हमारी पुलिस के पास यही उपाय है! सो, इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है, जो शहर नहीं जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं। यह कहानी कुछ ऐसे ही सवाल खड़ा करती है और माओवाद को लेकर द्वंद्व को भी। एक दूसरी कहानी, इसी की पूरक है-छंद में हाहाकार। इस कहानी में बस एक ही दृश्य है-जन अदालत की। जन अदालत चरमपंथी गुट की। खुलासा नहीं किया गया है कि यह माओवादियों की है या दूसरे चरमपंथी गुट की। पलामू में एक दर्जन ऐसे संगठन सक्रिय हैं-ये भी जन अदालत लगाकर अपने दोषियों को अपने ढंग से सजा देते हैं। यहां भी औरंगा नदी के तट पर घने जंगल में जन अदालत लगी है, जिसमें चार मामले आए हैं-गोसाईडीह की पिरितिया के साथ बलात्कार का मामला, गंझू परहिया की पुलिस मुखबिरी का केस, डाकू रामसूरत यादव का मुकदमा और सरकारी संत बनकर जनता को भड़काने वाले कृषि विज्ञानी रामचंद्र मिश्रा का मुद्दा। पिरितिया के साथ बलात्कार कोई सवर्ण नहीं करता है, बल्कि पलामू में चेरो आदिवासी। वह इस तरह की कई वारदातें कर चुका है, बकौल कहानीकार। गंझू परहिया, डाकू रामसूरत। सबको सजा दी जाती है-वह सजा है मौत की, लेकिन रामचंद्र बच जाते हैं क्योंकि उन पर झूठे आरोप लगे थे। वे गांवों में कृषि का कायाकल्प कर गांव के लोगांे को रोजगार मुहैया कराते हैं। जो मजूदर पलायन करते थे, वह रुक गया है। यानी, मिश्रा जी यहां हितचिंतक के तौर पर उभरते हैं और इनका मामला जांच का विषय बन जाता है और इस तरह वे जन अदालत से छूट जाते हैं। गांव की एक महिला बताती है कि ये भले आदमी हैं- ‘ऐ बाबू्! ई सही आदमी हथ! जौना-जौना गांव में इनकर काम चलत हई, उहां के लोगन के अब शहर जाके मजूरी करे के जरूरत नइखे। गांव के जे अदमी पच्चीस-तीस रोपेया कमाये खातिर बीस कोस दूर शहर-बाजार जाइत रहन उ गांव में इनकरा साथ काम करके रोज सौ रोपेया कमात हथिन!...’ इस तरह मिश्रा जी बच जाते हैं। दरअसल दोनों कहानी आपको भी आमंत्रित करती है, आइए पलामू और फिर देखिए, ‘जन्नत’ की हकीकत।
अंतिम कहानी ‘चना चबेना गंगजल’ है। यह खांटी बनारसी कहानी है। यहां अस्सी का चौराहा भी है और घाट भी है। छल-छद्म की चादर ओढ़े आचार्य। और उनको हर दिन गरियाता उनका एक पूर्व साथी, जिसने गाढ़े समय में उनकी मदद की थी। कहानी अस्सी चौराहे से निकलकर घाट की ओर जाती है जहां एतवारू मिलते हैं-अरे हम कौनो बाबा-फाबा नाहीं हैं! क्ेवल बंस के हैं। गंगाजी में से बूड़ल लाश खोजकर निकालते हैं। यह एतवारू ही उस आचार्य को हर संझा गरियाने जाते हैं। क्यों, इसकी एक कहानी है, जो आहिस्ता-आहिस्ता खुलता है। निश्च्छल और ईमानदार। जिस लाश को गंगाजी में से पुलिस भी नहीं ढूंढ पाती, उसे एतवारू बहुत आसानी से खोज निकालते हैं। इस विषय पर कोई कहानी दिखाई नहीं दी, जिसने एतवारू जैसे पात्रा पर कहानी लिखी हो, जबकि बनारस से कई ख्यात कहानीकार निकले। कहते हैं, कहानी तो अपने आस-पास बिखरी होती हैं, उसे देखने वाली नजर चाहिए। घुमक्कड़ मन चाहिए। डांइग रूम में बैठकर कहानी नहीं लिखी जा सकती न खूब प्रयास से। इस कहानी में हम बनारस को महसूस कर सकते हैं, उसकी धड़कन को, उसकी संस्कृति को।
‘अट्टाहास काल’ हमारी छिजती संवेदना की कहानी है। मणिकर्णिका के बारे में हम सब जानते हैं यहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती है। 24 घंटे चिता की लपटें उठती रहती हैं। पर, कहानी यह नहीं है। कहानी यह है कि गांव वाले एक स्वाभाविक मृत्यु को कैसे भजाते और लाश पर राजनीति करते हैं और मुआवजा वसूलते हैं। लाश की राजनीति राजनेता करते रहे हैं लेकिन गांव वाले ऐसा करें तो समझना चाहिए शहर की जो बारूदी हवा अब गांवों की ओर मुड़ गई है। गांव अपने भोलेपन के लिए जाना जाता है, लेकिन आज के समय में यह बात अब नहीं कही जा सकती है। कहानियां और भी हैं और पात्रा भी। प्रेत पाठ भी रहस्य के आवरण में लिपटी एक कौतूहल पैदा करती है। पत्तों की रात, निद्रा नदी, सीधान्त, बहुत कुछ अलग-अलग स्वाद रचती हैं। वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव ने व्लर्ब पर ठीक ही लिखा है, ‘ये कहानियां पाठक को लोकजीवन के नैसर्गिक प्रवाह में बड़ी कुशलता से बहा ले जाती हैं।’ इन कहानियों में कई-कई भूगोल देखते हैं। कई-कई भाषा देखते हैं और इस वैविध्यपूर्ण रोशनी में हम अपने समय और समाज को देखते हैं। हमारे लोकजीवन पर चढ़ता शहरी रंग और इस रंग में बदरंग होते मानवीय रिश्ते, स्वार्थ की परछाइयों में अपना ही बौना होता कद और थरथराती-कांपती नदियों से अपना दुखड़ा सुनाते पलामू के पहाड़-जंगल....बिना किसी लाग-लपेट और बनावटी भाषा के।
साभार, लमही से।
बारह कहानियों के इस संग्रह में हर कहानी के भीतर एक कहानी छिपी हुई है। इसके कहने का आशय और अर्थ भी है। ‘कागज पर चिपका समय’ संग्रह की पहली कहानी है, जो बनारस पर है और अंतिम कहानी, ‘चना चबेना गंगजल भी बनारस पर। इनके भीतर पलामू, रांची और धनबाद है। पहली कहानी में हमें बनारस की वही चिरपरिचित भाषा की मिठास से साबका होता है-‘अरे भाईजान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिए न एक बार उधर से और हो लिया जाये।’
कहानी का यह पहला पैराग्राफ पाठक को उत्सुक बना देता है। जो बनारसी रंग को जानते हैं, वह गुरु और रीतिकाल के लक्षणार्थ से भी खूब परिचित होंगे। यह खुसूर-फुसूर बनारस के दूरदर्शन केंद्र के एक आफिस में होती है। इस कहानी में आगे क्या है, उसे आप पढि़ए, पर इसमें एक कंसेप्ट है, जो एक दूसरी कहानी को जन्म दे सकता है। दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम बनाने की तैयारी चल रही है और यह कार्यक्रम भूमिहीनों और शोषितों पर कंेद्रित है। ये भूमिहीन और शोषित कौन हैं? यह आगे खुलता है-‘अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पांडेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मंुशी प्रेमंचद की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्रा था। लमही में जन्म और जगतगंज में निधन तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्रा उनके साहित्य में अमर हैं, ऐसे पात्रांे की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं...’
प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो देश गुलाम था। फिर आजादी मिली 1947 में। इसके भी हासिल किए 67 साल हो गए और प्रेमचंद के पात्रा आज भी वैसी ही दशा में हैं। यानी, दूसरी-तीसरी पीढ़ी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और चली गईं। गांव में रहने वाली 80 प्रतिशत आबादी की फिक्र देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। नारे जरूर लगाए। एक और बात, हमने इतनी जरूर तरक्की कर ली है कि प्रेमचंद के किसानों के सामने संकट जाहे जिस रूप में आए, पर वे आत्महत्या नहीं करते थे, पर हमारी नीतियों ने इतना जरूर विकास किया कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। हमारा बैंक, हमारी सरकार विजय माल्यों जैसों के प्रति बहुत उदार रहती है। कुछ ऐसे पूंजीपती भी हैं, जिनका हजारों करोड़ का कर्ज एक झटके में हमारी सरकार माफ कर देती है और जबकि चंद हजार रुपये के लिए हमारे किसान आत्महत्या कर लेते हैं। जो अन्न देता है, उसे हम भूखा मार देते हैं।
इसके भीतर एक और कहानी उभरती है-रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर शोध कर रही है....अखबारों मे रोज आ रहा है कि बनारस के बुनकर पलायन कर रहे हैं। रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं। यह भी शोर कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है, लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं।’-जो हाल किसानों की, मजदूरों की, वही हाल बुनकरों की। गर्दन में फांस यहां भी है। 67 सालों में जैसे समय ठहर गया है, कागज पर चिपक गया है।
‘आना पलामू’ यह संग्रह की चौथी कहानी है। पलामू श्यामलजी का घर भी है। 1998 में पलामू के सूखाड़-अकाल पर ‘घपेल’ नामक उपन्यास उनका आ चुका है। यह कहानी सुखाड़-अकाल पर नहीं है, पर इससे उपजी परिस्थितियों पर है। पलामू एक अजीब जिला है। ऐसा कि इसकी भूमि पत्राकारों की अपनी खींचती रही है-पी साईनाथ, रामशरण जोशी, महाश्वेता देवी, फणीश्वरनाथ रेणु, अज्ञेय...किसने नहीं लिखा और क्या नहीं लिखा, लेकिन पलामू नहीं बदला। 1880 में संजीब चटृोपाध्याय ने ‘पलामू’ लिखी। तब से पलामू यही है, यहां भी समय जैसे कागज पर चिपक गया है। मजा देखिए, यहां से निकले नेता झारखंड और देश में अपनी पहचान बनाए-कोई केंद्रीय मंत्राी बना, कोई राज्यपाल...पर पलामू की किस्मत नहीं बदली। आज स्थिति और भी बदतर है। यहां अकाल से निपटने के लिए चालीस-चालीस से डैम बनाए जा रहे हैं। ये आज तक पूरे नहीं हुए, लेकिन हर साल इसकी राशि बढ़ जाती है। तो पलामू यह है और इस उर्वर पलामू में नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चलकर पड़ाव डाला जो अब अपना घर बना लिया है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि झारखंड में नक्सलवाद का प्रवेश इसी मुहाने से हुआ और आज माओवाद के अलावा एक दर्जन संगठन सक्रिय हैं, जिसे कुछ पुलिस ने भी माओवाद से निपटने के लिए खड़ा किया है। लोहा से लोहा को काटने के लिए हमारी पुलिस के पास यही उपाय है! सो, इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है, जो शहर नहीं जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं। यह कहानी कुछ ऐसे ही सवाल खड़ा करती है और माओवाद को लेकर द्वंद्व को भी। एक दूसरी कहानी, इसी की पूरक है-छंद में हाहाकार। इस कहानी में बस एक ही दृश्य है-जन अदालत की। जन अदालत चरमपंथी गुट की। खुलासा नहीं किया गया है कि यह माओवादियों की है या दूसरे चरमपंथी गुट की। पलामू में एक दर्जन ऐसे संगठन सक्रिय हैं-ये भी जन अदालत लगाकर अपने दोषियों को अपने ढंग से सजा देते हैं। यहां भी औरंगा नदी के तट पर घने जंगल में जन अदालत लगी है, जिसमें चार मामले आए हैं-गोसाईडीह की पिरितिया के साथ बलात्कार का मामला, गंझू परहिया की पुलिस मुखबिरी का केस, डाकू रामसूरत यादव का मुकदमा और सरकारी संत बनकर जनता को भड़काने वाले कृषि विज्ञानी रामचंद्र मिश्रा का मुद्दा। पिरितिया के साथ बलात्कार कोई सवर्ण नहीं करता है, बल्कि पलामू में चेरो आदिवासी। वह इस तरह की कई वारदातें कर चुका है, बकौल कहानीकार। गंझू परहिया, डाकू रामसूरत। सबको सजा दी जाती है-वह सजा है मौत की, लेकिन रामचंद्र बच जाते हैं क्योंकि उन पर झूठे आरोप लगे थे। वे गांवों में कृषि का कायाकल्प कर गांव के लोगांे को रोजगार मुहैया कराते हैं। जो मजूदर पलायन करते थे, वह रुक गया है। यानी, मिश्रा जी यहां हितचिंतक के तौर पर उभरते हैं और इनका मामला जांच का विषय बन जाता है और इस तरह वे जन अदालत से छूट जाते हैं। गांव की एक महिला बताती है कि ये भले आदमी हैं- ‘ऐ बाबू्! ई सही आदमी हथ! जौना-जौना गांव में इनकर काम चलत हई, उहां के लोगन के अब शहर जाके मजूरी करे के जरूरत नइखे। गांव के जे अदमी पच्चीस-तीस रोपेया कमाये खातिर बीस कोस दूर शहर-बाजार जाइत रहन उ गांव में इनकरा साथ काम करके रोज सौ रोपेया कमात हथिन!...’ इस तरह मिश्रा जी बच जाते हैं। दरअसल दोनों कहानी आपको भी आमंत्रित करती है, आइए पलामू और फिर देखिए, ‘जन्नत’ की हकीकत।
अंतिम कहानी ‘चना चबेना गंगजल’ है। यह खांटी बनारसी कहानी है। यहां अस्सी का चौराहा भी है और घाट भी है। छल-छद्म की चादर ओढ़े आचार्य। और उनको हर दिन गरियाता उनका एक पूर्व साथी, जिसने गाढ़े समय में उनकी मदद की थी। कहानी अस्सी चौराहे से निकलकर घाट की ओर जाती है जहां एतवारू मिलते हैं-अरे हम कौनो बाबा-फाबा नाहीं हैं! क्ेवल बंस के हैं। गंगाजी में से बूड़ल लाश खोजकर निकालते हैं। यह एतवारू ही उस आचार्य को हर संझा गरियाने जाते हैं। क्यों, इसकी एक कहानी है, जो आहिस्ता-आहिस्ता खुलता है। निश्च्छल और ईमानदार। जिस लाश को गंगाजी में से पुलिस भी नहीं ढूंढ पाती, उसे एतवारू बहुत आसानी से खोज निकालते हैं। इस विषय पर कोई कहानी दिखाई नहीं दी, जिसने एतवारू जैसे पात्रा पर कहानी लिखी हो, जबकि बनारस से कई ख्यात कहानीकार निकले। कहते हैं, कहानी तो अपने आस-पास बिखरी होती हैं, उसे देखने वाली नजर चाहिए। घुमक्कड़ मन चाहिए। डांइग रूम में बैठकर कहानी नहीं लिखी जा सकती न खूब प्रयास से। इस कहानी में हम बनारस को महसूस कर सकते हैं, उसकी धड़कन को, उसकी संस्कृति को।
‘अट्टाहास काल’ हमारी छिजती संवेदना की कहानी है। मणिकर्णिका के बारे में हम सब जानते हैं यहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती है। 24 घंटे चिता की लपटें उठती रहती हैं। पर, कहानी यह नहीं है। कहानी यह है कि गांव वाले एक स्वाभाविक मृत्यु को कैसे भजाते और लाश पर राजनीति करते हैं और मुआवजा वसूलते हैं। लाश की राजनीति राजनेता करते रहे हैं लेकिन गांव वाले ऐसा करें तो समझना चाहिए शहर की जो बारूदी हवा अब गांवों की ओर मुड़ गई है। गांव अपने भोलेपन के लिए जाना जाता है, लेकिन आज के समय में यह बात अब नहीं कही जा सकती है। कहानियां और भी हैं और पात्रा भी। प्रेत पाठ भी रहस्य के आवरण में लिपटी एक कौतूहल पैदा करती है। पत्तों की रात, निद्रा नदी, सीधान्त, बहुत कुछ अलग-अलग स्वाद रचती हैं। वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव ने व्लर्ब पर ठीक ही लिखा है, ‘ये कहानियां पाठक को लोकजीवन के नैसर्गिक प्रवाह में बड़ी कुशलता से बहा ले जाती हैं।’ इन कहानियों में कई-कई भूगोल देखते हैं। कई-कई भाषा देखते हैं और इस वैविध्यपूर्ण रोशनी में हम अपने समय और समाज को देखते हैं। हमारे लोकजीवन पर चढ़ता शहरी रंग और इस रंग में बदरंग होते मानवीय रिश्ते, स्वार्थ की परछाइयों में अपना ही बौना होता कद और थरथराती-कांपती नदियों से अपना दुखड़ा सुनाते पलामू के पहाड़-जंगल....बिना किसी लाग-लपेट और बनावटी भाषा के।
साभार, लमही से।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएं