डॉ रामखेलावन पांडेय
देहात को मैंने प्रेमचंद की आंखों से देखा था-इसे स्वीकार करने में मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं, किसी प्रकार की दुविधा नहीं, अत: मोटरों की पों-पों, और कोलाहल, शहर की उड़ती धूल और गंदगी तथा कर्माकुल व्यस्त जीवन से त्राण या झारखंड के एक अंचल में-सभ्यता और कृत्रिमता से दूर देश में, जब रहने का अवसर मिला तब मुझे मालूम पड़ा जैसे सारी दुनिया पीछे छुट आयी है। यह अंचल जाना हुआ तो है, मगर पहचान नहीं। कभी पहचानने की चेष्टा भी नहीं की थी मैंने। मुझे लगा जैसे यहां की घड़ी की सुइया तक शिथिल हो गई हैं। यहां काल प्रवाह है ही नहीं, एक विचित्र आलस, एक अनुभूति निश्ंिचतता इस रहस्यमय अंचल को घेरे पड़ी है। सघन हरीतिमा की छाया में मानवता जैसे स्वप्न देख रही हो, उस युग का जिसमें संघर्ष न था, संघर्ष का उन्माद न था। नीली-नीली दूर तक फैली पहाडिय़ां धरती की छाती की भांति फूल उठी हैं और उन्हें घर कर उजले, लाल, पीले और अनेक रंगों के बादलों के टुकड़े प्रकृति का सिंगार कर रहे हैं। यह सौंदर्य अपरिचित सा ही लगा मुझे! पहाडिय़ां देखी थी मैंने, उड़ते बादलों के रंगीन पख भी देखे थे, पर जान पड़ा, ऐसा सौंदर्य तो था नहीं उनमें। ऊंचा सा टीला-पत्थरों का जमघट-एक आध लहलहाते पौधे और ऊपर आसमान में शरदपूनों का हंसता हुआ चांद बादलों की गोद में खेलता-सा, फुदकता-सा जान पड़ा। नदी के उस पार से कोई मिलन-संदेश भेज रहा हे-कितना विषादमय कितना करुण, किंतु कितना मादक! पास में था झरता हुआ क्षीण पहाड़ी झरना, पर स्पष्ट। स्वर के इनके गीत आधी रात में भटकने पर मोहक हो उठे।
इस ऊबड़खाबड़ अंचल की काली-काली चट्टानों को देखकर मैंने सोचा था, यहां के अधिवासी भी उन्हीं पत्थरों की भांति जड़ और शिथिल हैं। यह बात भी नहीं कि वैसे लोगों का अभाव है वहां, जिनके अविराम जीवन में दिन-मास-वर्ष की कोई गणना नहीं। वे चर्चिल और हिटलर को नहीं जानते, शायद गांधी और जिन्ना को भी नहीं! स्वभाव में एक विचित्र रुखाई-मिली सरलता है। सरलता जो मूर्खता की सीमा में घुसती जान पड़ती है। सच मानों, मुझे दो ही चीजें यहां प्रचुर मात्रा में मिली-एक ठंडा पानी और दूसरी सरलता। किंतु उन चट्टानों के बीच से दबकर निकलने वाले झरने भी हैं, सुस्वादु जल से पूर्ण, पर्वत की करुणा और स्नेह के प्रतीक।
गरीबी यहां खुलकर झांकती है-लोगों के चीथड़ों से। उसे किसी प्रकार की लजा नहीं, संकोच नहीं, झिझक नहीं। और, अमीरी उस पर हंसती है, खिलखिला कर, मचल-मचलकर। शहरों की गरीबी जैसी यहां की गरीब नहीं, वह इस तरह खुल कर झांकती भी नहीं-शरमा कर चलती है, लज्जा के भार से झुकी सी। अमीरी यहां धूर्तता की अमरलता है जो गरीबी की डाल पर फैलती है, शोषण ही जिसकी नीति है।
पढ़ा करता था-पहाड़ी देशों के लोग सबल होते हैं, कारण उनका प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष जो चल रहा है और संघर्ष में उसी की रक्षा संभव है, जो सबल है। संघर्ष यहां का जीवन नहीं, जीवन है, सहयोग, प्रकृति के साथ निरंतर सहयोग। बादल पानी बरसाते हैं, ऊंचे-नीचे खेतों की मिट्टी खुरेद लोग धरती माता के पेट में अन्न डाल देते हैं और माता का स्नेह फूट पड़ता है हरियाली के रूप में। हवा के झोंके के चंचल हरीतिमा जैसे जीवन की लहर हो। लोग इसलिए आलसी हैं, नितांत आलसी, निष्क्रियता की सीमा तक पहुंचने वाले आलससागर में निमग्न हैं। पेट में थोड़ा अन्न हो, अंग ढंकने को मात्र आवरण, बस इतना ही पर्याप्त है। उनके लिए अतीत नहीं, भविष्य भी नहीं, केवल वर्तमान है। वर्तमान परिश्रम से चूर, अभाव से पूर्ण, किंतु अभाव उन्हें खलता नहीं, भाव यहां कभी दिखा जो नहीं। निंदा, ईष्र्या, द्वेष और कलह का मूल कारण है यही आलस। शरीर बैठा रहेगा पर मन तो नहीं। और बेकार मन की यही खुराक है। शहरों के कर्म-संकुल जीवन में इतना अवकाश कहां जो लोग दूसरों की ओर देखें। क्या अपनी ही दौड़ कम है?
मैं ऐसी भाषा सीख कर यहां आया था जो भाव छिपाना जानती है, बनावटी है, कृत्रिम है। सभ्यता आखिर अपनी प्रकृति को छिपाने का ही नाम तो है, किंतु यहां की भाषा, इसे जंगली भले न कहूं, सभ्य तो कह नहीं सकता।
बंगाल के संपर्क में आया हुआ यह प्रदेश शक्ति का उपासक है, हिंसा का, बलिदान का। दुर्गा और काली पूजा के अवसरों प मनुष्य की पशुता नाचती सी दीख पड़ी। निकट स्थित गया में आकर गौतम को बुद्धत्व मिला, किंतु मालूम होता है अहिंसा की गंध इस मिट्टी को नहीं मिली।
मनुष्य सभी को अलग-अलग कर देखने का अभ्यस्त है। ऊंच-नीच, राजा-रंक, अमीर-गरीब, काला-गोरा, सुंदर-असुंदर का भेद सर्वत्र है। शिक्षित और अशिक्षित का भेद भी इधर कम नहीं, किंतु वहां का यह भेद इतना प्रबल है कि जर्मनी में जर्मन और यहूदियों में क्या रहा होगा। भय यहां जीवन की कुंजी है, सर्वत्र ही है, किंतु भूतों का भय जैसे यहां दीख पड़ा वैसा कहीं नहीं। लड़कों और स्त्रियों की बात करें, अच्छे खासे तगड़े जवान भी भूतों की कहानी सुन अकेले आंगन में नहीं निकलते।
यह रही झारखंड के एक अंचल की झांकी-धूमिल और स्पष्ट रेखाओं में सीमित सी, किंतु वास्तव में कितनी असीम, कितनी विस्तृ।
देहात को मैंने प्रेमचंद की आंखों से देखा था-इसे स्वीकार करने में मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं, किसी प्रकार की दुविधा नहीं, अत: मोटरों की पों-पों, और कोलाहल, शहर की उड़ती धूल और गंदगी तथा कर्माकुल व्यस्त जीवन से त्राण या झारखंड के एक अंचल में-सभ्यता और कृत्रिमता से दूर देश में, जब रहने का अवसर मिला तब मुझे मालूम पड़ा जैसे सारी दुनिया पीछे छुट आयी है। यह अंचल जाना हुआ तो है, मगर पहचान नहीं। कभी पहचानने की चेष्टा भी नहीं की थी मैंने। मुझे लगा जैसे यहां की घड़ी की सुइया तक शिथिल हो गई हैं। यहां काल प्रवाह है ही नहीं, एक विचित्र आलस, एक अनुभूति निश्ंिचतता इस रहस्यमय अंचल को घेरे पड़ी है। सघन हरीतिमा की छाया में मानवता जैसे स्वप्न देख रही हो, उस युग का जिसमें संघर्ष न था, संघर्ष का उन्माद न था। नीली-नीली दूर तक फैली पहाडिय़ां धरती की छाती की भांति फूल उठी हैं और उन्हें घर कर उजले, लाल, पीले और अनेक रंगों के बादलों के टुकड़े प्रकृति का सिंगार कर रहे हैं। यह सौंदर्य अपरिचित सा ही लगा मुझे! पहाडिय़ां देखी थी मैंने, उड़ते बादलों के रंगीन पख भी देखे थे, पर जान पड़ा, ऐसा सौंदर्य तो था नहीं उनमें। ऊंचा सा टीला-पत्थरों का जमघट-एक आध लहलहाते पौधे और ऊपर आसमान में शरदपूनों का हंसता हुआ चांद बादलों की गोद में खेलता-सा, फुदकता-सा जान पड़ा। नदी के उस पार से कोई मिलन-संदेश भेज रहा हे-कितना विषादमय कितना करुण, किंतु कितना मादक! पास में था झरता हुआ क्षीण पहाड़ी झरना, पर स्पष्ट। स्वर के इनके गीत आधी रात में भटकने पर मोहक हो उठे।
इस ऊबड़खाबड़ अंचल की काली-काली चट्टानों को देखकर मैंने सोचा था, यहां के अधिवासी भी उन्हीं पत्थरों की भांति जड़ और शिथिल हैं। यह बात भी नहीं कि वैसे लोगों का अभाव है वहां, जिनके अविराम जीवन में दिन-मास-वर्ष की कोई गणना नहीं। वे चर्चिल और हिटलर को नहीं जानते, शायद गांधी और जिन्ना को भी नहीं! स्वभाव में एक विचित्र रुखाई-मिली सरलता है। सरलता जो मूर्खता की सीमा में घुसती जान पड़ती है। सच मानों, मुझे दो ही चीजें यहां प्रचुर मात्रा में मिली-एक ठंडा पानी और दूसरी सरलता। किंतु उन चट्टानों के बीच से दबकर निकलने वाले झरने भी हैं, सुस्वादु जल से पूर्ण, पर्वत की करुणा और स्नेह के प्रतीक।
गरीबी यहां खुलकर झांकती है-लोगों के चीथड़ों से। उसे किसी प्रकार की लजा नहीं, संकोच नहीं, झिझक नहीं। और, अमीरी उस पर हंसती है, खिलखिला कर, मचल-मचलकर। शहरों की गरीबी जैसी यहां की गरीब नहीं, वह इस तरह खुल कर झांकती भी नहीं-शरमा कर चलती है, लज्जा के भार से झुकी सी। अमीरी यहां धूर्तता की अमरलता है जो गरीबी की डाल पर फैलती है, शोषण ही जिसकी नीति है।
पढ़ा करता था-पहाड़ी देशों के लोग सबल होते हैं, कारण उनका प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष जो चल रहा है और संघर्ष में उसी की रक्षा संभव है, जो सबल है। संघर्ष यहां का जीवन नहीं, जीवन है, सहयोग, प्रकृति के साथ निरंतर सहयोग। बादल पानी बरसाते हैं, ऊंचे-नीचे खेतों की मिट्टी खुरेद लोग धरती माता के पेट में अन्न डाल देते हैं और माता का स्नेह फूट पड़ता है हरियाली के रूप में। हवा के झोंके के चंचल हरीतिमा जैसे जीवन की लहर हो। लोग इसलिए आलसी हैं, नितांत आलसी, निष्क्रियता की सीमा तक पहुंचने वाले आलससागर में निमग्न हैं। पेट में थोड़ा अन्न हो, अंग ढंकने को मात्र आवरण, बस इतना ही पर्याप्त है। उनके लिए अतीत नहीं, भविष्य भी नहीं, केवल वर्तमान है। वर्तमान परिश्रम से चूर, अभाव से पूर्ण, किंतु अभाव उन्हें खलता नहीं, भाव यहां कभी दिखा जो नहीं। निंदा, ईष्र्या, द्वेष और कलह का मूल कारण है यही आलस। शरीर बैठा रहेगा पर मन तो नहीं। और बेकार मन की यही खुराक है। शहरों के कर्म-संकुल जीवन में इतना अवकाश कहां जो लोग दूसरों की ओर देखें। क्या अपनी ही दौड़ कम है?
मैं ऐसी भाषा सीख कर यहां आया था जो भाव छिपाना जानती है, बनावटी है, कृत्रिम है। सभ्यता आखिर अपनी प्रकृति को छिपाने का ही नाम तो है, किंतु यहां की भाषा, इसे जंगली भले न कहूं, सभ्य तो कह नहीं सकता।
बंगाल के संपर्क में आया हुआ यह प्रदेश शक्ति का उपासक है, हिंसा का, बलिदान का। दुर्गा और काली पूजा के अवसरों प मनुष्य की पशुता नाचती सी दीख पड़ी। निकट स्थित गया में आकर गौतम को बुद्धत्व मिला, किंतु मालूम होता है अहिंसा की गंध इस मिट्टी को नहीं मिली।
मनुष्य सभी को अलग-अलग कर देखने का अभ्यस्त है। ऊंच-नीच, राजा-रंक, अमीर-गरीब, काला-गोरा, सुंदर-असुंदर का भेद सर्वत्र है। शिक्षित और अशिक्षित का भेद भी इधर कम नहीं, किंतु वहां का यह भेद इतना प्रबल है कि जर्मनी में जर्मन और यहूदियों में क्या रहा होगा। भय यहां जीवन की कुंजी है, सर्वत्र ही है, किंतु भूतों का भय जैसे यहां दीख पड़ा वैसा कहीं नहीं। लड़कों और स्त्रियों की बात करें, अच्छे खासे तगड़े जवान भी भूतों की कहानी सुन अकेले आंगन में नहीं निकलते।
यह रही झारखंड के एक अंचल की झांकी-धूमिल और स्पष्ट रेखाओं में सीमित सी, किंतु वास्तव में कितनी असीम, कितनी विस्तृ।
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