गांधी चबूतरा

  गांधी के आने की खबर आग की तरह फैल गई थी।
  देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था। गांव-शहर-कस्बे इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने में पूरी तरह मुब्तिला थे। दिल्ली से बहुत दूर गाजीपुर जिले का जमानियां स्टेशन भी अंग्रेजों की गुलामी के जुए को उतार फेंक देना चाहता था। आंदोलन दर आंदोलन जारी था। पड़ोस में धानापुरकांड हो चुका था। आजादी के सिपाहियों ने थाने पर यूनियन जैक उतारकर तिरंगा लहरा दिया था। गरम और नरम दल दोनों अपने-अपने ढंग से देश को आजाद कराने में सक्रिय थे। गान्ही बाबा का अलग प्रभाव था। उनकी छवि ज्यादा प्रभावित कर रही था। तन पर महज एक कपड़ा। उन्हें लोग महात्मा ठीक ही कह रहे थे। लोग सोचते, असल महात्मा यही हैं। वे नहीं, जो मठों-मंदिरों मंे बैठकर रामनाम गाते हुए आडंबरपूर्ण जीवन जीते हुए अपनी तोंद बढ़ा रहे हैं। हवा में करो या मरो की अनुगूंज साफ सुनाई देने लगी थी। आंख मचियाते हुए एक सुबह जब सूरज अपनी आंखें खोल रहा था तभी जमानियां स्टेशन में उड़ती खबर कहीं से आई कि महात्मा गांधी टेन से पटना की ओर जा रहे हैं। किस टेन से, यह ठीक-ठीक पता नहीं था। लेकिन खबर पक्की थी। गान्ही बाबा के दर्शन का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा- प्यारे लाल ने सोचा। लेकिन दिक्कत यह थी कि गाड़ी रुके कैसे?
   खबर के बाद कुछ उत्साही युवाओं ने टेन को प्लेटफार्म पर रोकने की सोची ताकि महात्मा गांधी का दर्शन लाभ मिल सके। स्टेशन छोटा था, लोग छोटे थे, लेकिन सपने बड़े थे। सोचने का सिलसिला शुरू हुआ तो आखिर में गाड़ी को रोकने की तरकीब मिल ही गई। इसके बाद तो सैकड़ों लोग स्टेशन पर दर्शन करने के लिए जमा हो गए। गाड़ी के आने की सूचना घंटी द्वारा मिल चुकी थी। थोड़ी देर बाद गाड़ी की खबर होते हुए सिग्नल भी हरा हो गया। अब इसे लाल करना था ताकि गाड़ी रुक सके। कुछ उत्साही प्लेटफार्म से दूर, दक्षिणी छोर पर सिग्नल पोल के नीचे खड़े हो गए और किसी तरह तरकीब निकालकर हरा सिग्नल को लाल कर दिया। उत्साह और बढ़ गया। सिटी बजाती हुई दूर से टेन दिखाई देने लगी। सिग्नल लाल देखकर आखिरकार टेन आहिस्ते-आहिस्ते प्लेटफार्म को छूती हुई रुक गई। गान्ही बाबा की जय, महात्मा गांधी की जय से स्टेशन का प्लेटफार्म गूंजने लगा। सैकड़ों की संख्या में लोग महात्मा का दर्शन करने आए थे। उत्साह की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन इस उत्साह में स्टेशन मास्टर के हाथ-पांव फूलने लगे। जिस गाड़ी का यहां ठहराव ही नहीं था, और जिसमें महात्मा गांधी सफर कर रहे हों, वह बिना ठहराव के प्लेटफार्म पर बिना किसी पूर्व सूचना के रुक गई थी। इधर, जयकारा और नारा और तेज होने लगा। तब किसी तरह गान्ही बाबा अपनी लाठी लिए चिरपरिचित अंदाज के साथ बोगी से बाहर आए और ‘दर्शन’ देकर फिर बोगी में समाने लगे, तभी नाटे कद के महावीर जायसवाल ने समय की नजाकत भांपते हुए गांधीजी से एक फरियाद कर दी।
 -महाराज इहां की पुलिस बहुते तंग करती है। जेहल भेजने की धमकी देती है।
गांधीजी अचानक इस फरियाद की अपेक्षा नहीं किए थे। उन्हांेने भी तुरंत सादे कागज की फरमाइश कर दी-
कागज दो-गांधी जी ने कहा।
महावीर ने तत्काल एक कागज का टुकड़ा और कलम भी मौके की नजाकत को देखते हुए थमा दिया। जैसे पहलेे से इसका अंदेशा हो...।
 गांधीजी ने लिखकर उस को वापस कर दिया।
 चीट पर बस इतना ही लिखा था, इन्हें तंग न किया जाए। नीचे संक्षित हस्ताक्षर था-‘गांधी’।
  ये महावीर जायसवाल थे, जिनका पेशा अखबार बांटना था। उस समय ‘आज’ की एकमात्रा अखबार था, जो बनारस में छपता था और 70 किमी दूर जमानियां टेन से पहुंचता था। महावीर यही काम करते थे। 1947 का समय आया और देश आजाद हुआ। आजादी के बाद महावीर जायसवाल ने जुगत भिड़ाकर सरकारी कोटे की दुकान ले ली। पर अखबार बेचने का काम भी साथ-साथ चलता रहा। कोटे के दुकान से कभी-कभी घटतौली भी जाने-अनजाने हो जाया करती थी। गरीब-गुरबा शिकायत करती तो पुलिस आती और फिर महावीर गांधीजी का वही चीट दिखा देते, फिर पुलिस कुछ नहीं बोलती और चुपचाप चली जाती। उसे लगता कि इस आदमी की पहुंच बहुत दूर तक है। गांधीजी दुनिया में नहीं थे, उनकी चीट महावीर के लिए किसी सनद से कम नहीं थी। तो महावीर का आजादी में कुल योगदान यही था, उन्होंने जमानियां वालों को गान्ही बाबा का दर्शन करा दिया था।
 इस तरह उस ऐतिहासिक घटना की याद में उस छोटे से बाजार में एक चबूतरा गांधीजी के नाम पर बन गया। चबूतरा एक तिराहे पर सड़क के किनारे बना, जिसे लोग चौक नाम देते थे। पर, रास्ता तीन ओर ही जाता था, और इन तीन के अलावा एक गली की ओर भी रास्ता खुलता है। शायद, गली को भी इसमें जोड़ दिया गया। इसलिए, लोग उसे चौक ही पुकारते हैं।
  लंबा अरसा गुजर गया। इस बीच कितने बसंत आए, चले गए। कई शरद की ऋतुएं आईं और चुपचाप चली गईं। पर 1998 का साल कुछ और था। शरद की शाम थी। दुर्गापूजा को लेकर बाजार में चहल-पहल बढ़ गई थी। स्टेशन के पास मां दुर्गा का पंडाल सजा था। सप्तमी की तिथि थी। मां का पट खुल चुका था। एक ओर महिलाओं की लाइन लगी थी और एक ओर पुरुाों की। डॉ ईश्वरचंद्र जायसवाल, जो डॉक्टरी कम, समाजसेवा ज्यादा करते थे, अग्रिम पंक्ति में खड़े मां का ध्यान कर रहे थे। हाथ जोड़े। आंख बंद। मन ही मन संस्कृत के श्लोक ओठों से बुंदबुंदा रहे थे कि  भक्तों का प्रसाद चढ़ाने वाले पंडाल के एक स्वयंसेवक सतीश ने उनके कंधे को हिलाते हुए आहिस्ते से उनके कान में बोला...ऐ डॉक्टर, डॉक्टर...;
  डॉक्टर ने अचकचाकर अचानक आंख खोली। बोला-तोहके पुलिस खोजत बा। यह सुनते ही डॉक्टर को जोर का धक्का बहुत जोर से लगा। सांस तेज हो गई और दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।...डॉक्टर सोच रहे थे, प्रसाद देने के लिए झकझोर रहा है। पर पुलिस का नाम सुनते ही डॉक्टर के होश उड़ गए। नवरात्रा-दशहरा का समय और इधर पुलिस...। डॉक्टर के शरीर का रक्तसंचार अचानक जैसे रुक गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। थोड़ी देर पहले से उत्सव का जो रौनक उनके चेहरे पर था, गायब हो गई। चेहरा जैसे पीला पड़ता जा रहा था....। आस-पास जलती हजारों झालरों की लाइटें अचानक बुझती प्रतीत हुईं। चारों ओर अंधेरा पसरने लगा। भक्तों की भीड़ का शोर भी निर्जन वन की तरह सांय-सांय करने लगा। डॉक्टर अपने बेजान पैरों से किसी तरह चुपचाप पंडाल से निकले और मुख्य मार्ग छोड़कर स्टेशन के रास्ते छिपते-छिपाते घर में समा गए। फिर घर का दरवाजा बाहर से भी बंद कर दिया। पत्नी ने बाहर से ताला लगा दिया। कोई आकर पूछता, डॉक्टर हैं, घर के भीतर से आवाज आती, नहीं...। मरीज देखने गए हैं। डॉक्टर की आंखों से नींद गायब थी। सांसें रह-रहकर धोखा दे रही थीं। सिर बहुत भारी हो रहा था। सोच रहे थे, किस मुसीबत मंे पड़ गए हैं। जो भीे काम हाथ में लेते हैं, कोई न कोई विघ्न आ ही जाता है....।      
 सन् 1997 में जब देश में आजादी की पचासवीं वर्ागांठ मनाई जा रही थी जो जमानियां में इसका भव्य आयोजन उसी चौक पर हुआ, जहां एक ओर बिना गांधी के पिरामिड आकार का पांच फीट का चबूतरा खड़ा था। बुजुर्ग लोग कहते, यह चबूतरा उसी घटना की याद में बनाया गया, लेकिन चबूतरा के बाद ऐसा कभी संयोग ही नहीं आया कि उस पर कोई गांधी की प्रतिमा स्थापित हो सके। इसी साल प्रज्ज्वलित सेवा संस्थान ने एक पत्रिका निकालने की सोची और इसी साल यह संकल्प भी लिया गया कि यहां अब गांधी लंबे समय तक वनवास नहीं भोगेंगे। अब वनवास खत्म हो गया और यहां गांधीजी की प्रतिमा स्थापित होकर रहेगी। इस तरह योजनाएं बनने लगीं। इटिंग-मीटिंग के चले लंबे दौर के बाद निर्णय हुआ कि इस नगर पालिका को भी शामिल कर लिया और पालिका के अध्यक्ष से गांधीजी की प्रतिमा ली जाए, बाकी खर्च संस्थान व्यवस्था करेगा। नगर पालिका से बातचीत हो गई। वह तैयार हो गया और इस तरह उसने गांधीजी की आवक्ष प्रतिमा बनवाकर पानी टंकी के कार्यालय में रखवा दिया। इधर, संस्थान ने चबूतरे पर संगमरमर लगवा दिया और एक संस्थान का शिलापटृ भी। नगर पालिका के शिलापटृट के लिए सबसे उ$पर जगह छोड़ दिया गया था। अब सारी तैयारियां अंतिम दौर में पहुंच गई थीं कि नगर पालिका के अध्यक्ष को किसी ने समझा दिया कि चबूतरे पर संस्थान का कोई शिलापट्ट नहीं लगेगा। नगर पालिका का लगेगा। अध्यक्ष भी बहकावे में आ गए। बहुत समझाने पर भी अध्यक्ष नहीं मानंे। पानी टंकी के कार्यालय में, जो निगम का एक तरह से उस समय अस्थायी कार्यालय हुआ करता था, उसमें संस्थान और नगर पालिका के प्रतिनिधि के अलावा मंदिर समिति के लोग साथ बैठे, लेकिन कोई हल नहीं निकला। मंदिर समिति के अंदर ही चबूतरा आता था। इसलिए वह भी एक पक्ष था। नगर पालिका के प्रतिनिधि ने संस्थान की ओर व्यंग्य मारा--नगर पालिका एक बड़ी संस्था है। टेबल पर रखे चाय का कुल्हड़ की ओर इशारा करते हुए जोड़ा, और आप इस कुल्हड़ की तरह?? यह बात मिर्ची की तरह लग गई। मामला बहुत गर्म हो गया...। नगर पालिका के प्रतिनिधि को जवाब दे दिया, आप अपनी मूर्ति अपने पास रखें। आपकी मूर्ति नहीं लगेगी। यह बात मिर्ची की तरह लगी और अध्यक्ष तक बात मिर्च-मसाला के साथ पहुंची। अहंकार को ठेस लगा और चबूतरा नपवाने की धमकी दे डाली। बात कोतवाली तक गई। वहां भी कोई समझौता नहीं हो सका और अंततः पालिका ने जमीन नपवाने की ठानी। लोगांे ने इसका भारी विरोध किया। मंदिर समिति ने जोरदार आवाज उठाई, चबूतरा मंदिर की जमीन मंे है। नगर पालिका का कोई अधिकार नहीं है! पर पालिका के अध्यक्ष की पहंुच बहुत दूर तक थी। लखनउ$ एक तरह उनका दूसरा घर था। पुलिस-थाना भी उनका। पानी टंकी में गांधी की प्रतिमा बोरे में कैद थी। एक विचार आया कि रात में उस प्रतिमा को उठाकर यहां स्थापित कर दिया। स्थापित होने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता? लेकिन इसे स्थगित कर दिया गया। अब इस तनातनी में गांधीकी प्रतिमा के लिए पैसा चाहिए। जो पैसा था, सब संगमरमर और मजदूरी में खत्म हो गया। लेकिन बात अब आन-बान-शान और जमानियां की थी। एक ही आसरा था, उम्मीद वहीं थीं। मिल पर पहुंचे और अनिल भैया से कहा गया कुछ मदद कीजिए। पहले तो खूब गाली दी। यह उनका अधिकार था। जब भी जरूरत होती, सामाजिक कार्यों में वे मदद करते। इस बार भी यहीं आसरा था। हम लोग पहले गाली खाए और फिर वे अंदर गए और कुछ पैसा लाकर दिए। अभी कुछ और की जरूरत थी। वहीं पर भाई जान यानी अजहर खान मिल गए। सब बात सुनाई गई तो उन्हांेने तुरंत मदद की। कुछ और लोग भी आए और फिर शाम तक मूर्ति के लिए पैसा जुट गया। अब बनारस के लिए गाड़ी की जरूरत थी। एक मित्रा की वैन मिल गई और इस तरह बनारस से गांधीजी की प्रतिमा तत्काल खरीदकर लाई गई। बनारस से नौ बजे रात को चले और 11 बजे तक जमानियां के बाहरी अलंग पर गाड़ी को रोक दिए। चांदनी छिटक रही थी और खेत दुधिया रोशनी से नहाए हुए थे। रात को हवा भी बहुत सुंदर बह रही थी। प्रकृति का यह नजारा देख सारी थकान मिट गई थी। आधी रात के बाद वैन आगे बढ़ी और फिर गांधी चौक पहंुची। यहां पांच-छह साथी पहले से तैयार थे। प्रतिमा को चिपकाने वाला मसाला भी तैयार था। चुपचाप चौक पर संगमरमर की भारी प्रतिमा को बोरे से आजाद किया गया और फिर किसी तरह उसे चबूतरे पर स्थापित की गई। स्थापित करने में पसीने छूट रहे थे। एक तो भय। कोई देख न ले। कोई पुलिस वाला गश्ती करते हुए यहां न पहुंच जाए। अन्यथा सब खेल गुड़-गोबर। इसे पूरी तरह गोपनीय रखा गया था। कुछ लोगों को ही यह बात पता थी। जल्दी-जल्दी प्रतिमा को चबूतरे पर स्थापित करने के बाद जिसे बोरे से उन्हें आजाद किया गया था, उसी बोरे से फिर गांधीजी को ढंक दिया गया। पूरी तसल्ली के बाद उस रात सभी अपने-अपने घर गए और लंबे समय के बाद चैन की नींद सोए।
   सुबह जब सूरज ने आंखें खोली तो लोगों की आंखें चौंधिया गई। अचानक चबूतरे पर उन्हें कुछ भारी-भरकम चीज दिखी। समझने में देर नहीं लगी कि यह गांधीजी की प्रतिमा है। फिर तो सामने चाय की दुकान पर काना-फूंसी होने लगी। तरह-तरह की चर्चा। गांधीजी स्थापित हो चुके थे और यह बात जमानियां से 14 किमी दूर नगर पालिका अध्यक्ष के कान में पहंुचने में देर नहीं लगी। काटो तो खून नहीं। लौंडों ने नगर पालिका को चुनौती दे दी थीं। यह हंसी का खेल नहीं था। लेकिन गांधीजी तो गांधीजी ठहरे। टस से मस नहीं हुए। उनकी प्रतिमा को वहां से हटाना मतलब राटद्रोह...। बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...। अब जब नगर पालिक थक-हार गई तो मंदिर समिति को न जाने कहां से सद्बुद्धि आ गई और उसने दांवा ठोंक दिया। मंदिर के पुजारी आकर शिलापट्ट ही उखाड़ने लगे। उन्हें पता नहीं था कि जहां गांधी बाबा स्थापित हो गए, वहां की एक ईंट भी उखाड़ना कानून की नजर में अपराध था। पुजारी बाबा छेनी-हथौड़ा लेकर उखाड़ने जा ही रहे थे कि सामने पान की दुकान में पान खा रहे थानेदार ने उन्हंे ऐसा डपटा कि तेजी से वहां भागे। इसके बाद तो यहां पुलिस वालों का पहरा भी लग गया। पुलिस वालों तक बात पहुंची। उन्हें नगर पालिका ने बरगलाया और वह संस्थान के लोगांे को खोजने लगा। अब क्या था? दशहर के पर्व और पुलिस की खोजबीन....पुलिस हम सबको तलाश रही थी। उसी पान की दुकान पर भाजपा के नेता और व्यवसायी दारोगा सेठ ने थानेदार से कहा कि एक भी लड़के को गिरफ्तार किया तो परिणाम बुरा होगा। पर्व-त्योहार चल रहा है। यह बात पता चला किसी तो पुलिस चौकी नहीं बचेगी। अब पुलिस वाले भी इस पचड़े में नहीं पड़ना मुनासिब समझा। त्योहार के समय कुछ उ$ंच-नीच हो गया तो मामला दूसरा रंग भी ले सकता है। लेकिन यह खबर तो फैल ही गई थी कि लोगांे को पुलिस खोज रही है। डॉक्टर तक यह बात पहुंची तो वे तेजी से घर की ओर लपके...।
  दिन बीते, रात आई। इस तरह दिसंबर का महीना आ गया। दिसंबर की एक सांझ, भव्य समारोह में बोरे से महात्मा गांधीजी आजाद कर दिए गए। गांधीजी आज भी चौक पर अपनी निगाह गड़ाए हैं।

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