राजभवन में उतरा बसंत


बागों में बहार है। कलियों में निखार है। पूरे वातावरण में चतुर्दिक मादकता बिखर रही है। धरती के कण-कण से हास और उल्लास फूट पड़ रहा है। मंद-मंद पवन में सुगंध की सुखद हिलोरे उठ रही हैं। मंजरियों का मुकुट पहने अमराइयों में मधुरिमा अंगड़ाइयां ले रही हैं। राजभवन का उद्यान दुल्हन की तरह सज गया है। पूरे परिसर में फूलों की चादर फैली हुई है। 

राजभवन रांची शहर के बीचोबीच स्थित है। यह कुल 62 एकड़ में फैला है, जिसमें 10 एकड़ में आंड्रे हाउस व राजभवन का सचिवालय है। इसका निर्माण 1930 में शुरू हुआ था यह मार्च, 1931 में तक यह पूर्ण हुआ था। उस समय इसकी लागत सात लाख रुपये आई थी। इसकी डिजाइन मिस्टर सैडो बैलर्ड ने की थी। इस भवन में ब्रिटिश डिजाइन की छाप है। इसके कुछ सुइट यहां के मौसम के हिसाब से बनाया गया है। बिल्डिंगों की छत रानीगंज टाइल्स से बनी है। कुछ में लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। राजभवन पूरा भवन हरा-भरा है। राजभवन में कई लॉन व गार्डेन हैं, जो महान व्यक्तियों के नाम पर रखे गए हैं। इसमें एक है अकबर गार्डेन, इसका निर्माण हाल में 2005 में किया गया है। यह कई प्रकार के गुलाब और मौसमी फूलों से महंकता है। बुद्धा गार्डेन नाम से एक ग्रीन हाउस है। यहां से खूबसूरत नजारा दिखता है। अशोका करीब 52 हजार फीट का खूबसूरत लॉन है। इसी प्रकार मूर्ति गार्डेन 15 हजार फीट, लीली पॉंड 12 हजार फीट का है। राजभवन में एक बड़ा हॉल है, जिसका नाम बिरसा मंडप रखा गया है। यहां पर सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित होती रहती हैं। राजभवन के दक्षिण में महात्मा गांधी गार्डेन है। यहां पर विभिन्न प्रकार के औषधीय पेड़-पौधे लगाए गए हैं। राजभवन के विशाल प्रांगण में बांसों का विशाल झूरमूट, 150 प्रकार के वृक्ष हैं। राजभवन के सामने ही एक नक्षत्र वन है, जिसका संचालन राजभवन द्वारा किया जाता है। यहां पर भी कई प्रजातीय के पौधे, वृक्ष आदि हैं।

राजभवन का उद्यान अब आम लोगों के लिए खुल गया है। यहां चहकते फूल हैं तो गाते हुए फव्वारे हैं। 52 एकड़ में फैले इस उद्यान में तरह-तरह के फूल, पौधे और औषधि हैं। नाचता हुआ मोर है और मसालों की खुशबू भी है। पिछले 35 सालों से राजभवन उद्यान की देखभाल कर रहे मुख्य उद्यान विक्षक चुलाही मंडल बताते हैं कि यहां 65 प्रकार के अलग-अलग फूल हैं। 1000 फलदार पौधे हैं। पांच सौ सखुआ के पेड़ है। दो सौ केला है। ये सब तो आम हैं। कुछ खास भी इस उद्यान में हैं।

कल्पतरू भी है और चंदन भी
विशाल उद्यान में दुर्लभ कल्पतरू के दो पेड़ भी हैं। चंदन के पेड़ भी हैं। लाल चंदन का पेड़ यहां देख सकते हैं। जिसे लोग रक्त चंदन भी कहते हैं। कल्पतरू के बारे में कई पौराणिक आख्यान है। सभी मनोकामना यहां पूरी होती है। इसलिए, इसका दर्शन जरूर करें।

सिंदूर का भी पेड़
उद्यान में सिंदूर के भी कई पेड़ है। सिंदूर के पेड़ में कांटे भी हैं। इसलिए, संभलकर देखें। सिंदूर के सूखे फल के अंदर गोल-गोल सरसों के आकार का दाना एक दूसरे से जुड़ा होता है। पंजे पर रगड़ते ही लाल हो जाता है।     
रुद्राक्ष भी यहां है
उद्यान में रुद्राक्ष के भी पेड़ हैं। इसके लिए उत्तराखंड जाने की जरूरत नहीं। यहां रुद्राक्ष के पेड़ देख सकते हैं। बड़े बेर की तरह फल लगता है और इसमें ही रुद्राक्ष निकलता है। यहां एक रुद्राक्ष अंडाकार है और एक गोलाकार। दोनों का अपना महत्व है। इसकी यहां माला बनाकर राजभवन में आने वाले विशेष अतिथियों को प्रदान किया जाता है।

किचन गार्डन भी
उद्यान में किचन गार्डन भी हैं। यहां लौंग, इलायची, दालचीनी, तेजपत्ता सहित कई अन्य मसालों का गंध भी ले सकते हैं। इनके अलावा टमाटर, गाजर, बैगन भी है। सभी आर्गेनिक। किसी के उत्पादन में किसी प्रकार का रासायनिक उर्वरता का प्रयोग नहीं किया जाता। गोबर से यहां खाद बनाया जाता है। यहां गोशाला भी है।  
गांधी औषधि गार्डेन
यहां हर्बल मेडिसिनल प्लांट भी हैं, जिसमें 35 प्रकार की जड़ी-बूटियां हैं। कई औषधीय पौधे और पेड़ यहां लगे हुए हैं। बबुई तुलसी, अश्वगंधा, लवंग, बिलायती धनिया, गंध प्रसारिणी, सर्पगंधा, मशकदाना आदि हैं।  

अकबर गार्डन
अकबर गार्डन में फूलों की बहार है। बसंत यहीं पर उतरा है। खिलते और हंसते हुए फूल और संगीत की धुन पर झूमते फव्वारे। यह सेल्फी जोन भी है। यहां हजारों प्रकार के फूल हैं। विदेशी भी देशी। यहां सर्वाधिक भीड़ रहती है। 

गुलाबों की प्रजातियां
उद्यान में दो सौ प्रकार के गुलाब यहां लगाए गए हैं। लाल, गुलाबी, सफेद से लेकर हर रंग। लोग यहां गुलाब के संग भी सेल्फी लेते हैं। गुलाब के कई आकार यहां हैं। पूरा परिसर गुलाबों की सुगंध से महकता रहता है।

असीम शांति बुद्धा गार्डन में
जब घूमते हुए थक जाएं तो बुद्ध की शरण में जा सकते हैं। यहां असीम शांति का अहसास होगा। ध्यानस्थ बुद्ध यहां हैं। खूबसूरत पार्क। बैठने के लिए जगह। ठीक बगल में यहां नाचते मोर का भी दर्शन कर सकते हैं। यहां और भी बहुत कुछ है।

पिछले तीन दशक से उद्यान की सेवा कर रहा हूू। आज यह सब दिखाई दे रहा है, वह तीन दशक मेहनत का नतीजा है। मेरे साथ पचास से ऊपर मजदूर दिन रात लगे रहते हैं। सितंबर में नए फूल-पौधे लगाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अक्टूबर के पहले सप्ताह में लगा दिया जाता है और फरवरी तक दीदार के लिए यह उद्यान तैयार हो जाता है।
अब्दुस्सलाम, उद्यान विक्षक, राजभवन


राजभवन में बहुत कीमती पेड़ भी लगाए गए हैं। यहां चाइनीज बांस है। कई विदेशी वृक्ष भी यहां लगाए गए हैं। यहां राइस प्लांट है, जो बासमती की तरह महकता है।
चुलाही मंडल मुख्य उद्यान विक्षक, राजभवन

चुटियानागपुर की सुंदरता

  -मिशन इंस्पेक्टर एच. काउश एवं मिशनरी एफ. हान

   जब कोई मिशन का मित्र हिंदुस्तान के बारे में सुनता है तो वह एक ऐसे जादुई देश की कल्पना करने लगता है जिसे प्रकृति ने शृंगार किया हो। लेकिन जैसा कि विदित है हिंदुस्तान अपने में एक दुनिया है। सभी जगहों पर उष्णकटिबंध की हरियाली भरी सुंदरता राज नहीं करती। कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जो कवि की कल्पना से मेल नहीं खाते। विशेषकर उत्तरी हिंदुस्तान प्रकृति की सुंदरता में कई मायने में कम है और चुटियानागपुर का हमारा मिशन क्षेत्र भी सामान्यत: तुलना में श्रीलंका अथवा बड़े सुंडाद्वीप के आकर्षण के बराबर नहीं है। फिर भी चुटिया नागपुर में सुंदरता के कई स्मारक सृष्टिकर्ता ईश्वर की कृपा से मौजूद हैं। हमारी तस्वीर में दिखाया गया सुंदर जलप्रपात इसका प्रमाण है। भूरे ग्रेनाइट की चट्टानों से सफेद झागदार पानी दिल थाम लेने वाली चौड़ाई में 100 फीट नीचे आवाज करता हुआ टूट कर गिरता है। नीचे एक प्यारा नीले रंग का छोटा झील बन जाता है जो साफ और पारदर्शक दिखाई देता है। सभी प्रकार की मछलियां विशेष कर सर्पमीन और कतला जाति की सौर पानी में विचरण करती हैं। बहुत गहराई में उदविलाव मछली, हां, स्वयं घडिय़ाल और बहुत सारे पानी सांप पाए जाते हैं। किनारे पर जहां पानी छिछला होता है, लोग नहाते-धोते हैं।
  इस क्षेत्र के जलप्रपातों में स्वर्णरेखा नदी का हुंडरू घाघ सबसे बड़ा है, जो रांची से 25 मील उत्तर पूर्व में है और 320 फीट की ऊंचाई से गिरता है। हमारी तस्वीर में चट्टानों के ऊपर घने जंगलों का भाग दिखाई देता है, जिसमें विभिन्न चौड़े पत्तों वाले वृक्ष तथा शिरीष के पेड़ दिखाई देते हैं। कहीं पर भी ताड़ के वृक्षों का नामोनिशान नहीं, ताड़ के नाम पर सिर्फ खजूर के पेड़ मिलते हैं। इसके विपरीत जंगल का मुख्य पेड़ सखुआ है, जो हमारे जर्मनी के ओक पेड़ के समान दिखाई देता है। इसकी लकड़ी घर बनाने के काम आती है। उसकी छाल से रस्सी बनाई जाती है। उसकी राल से हिंदुस्तान में अपरिहार्य धुवन बनता है। इसके अलावा जंगल के बड़े हिस्से में बांसों के झुंड पाए जाते हैं।
आगे हम महुआ पेड़ का भी जिक्र कर रहे हैं, जिसके फूलों से मादक द्रव्य बनाया जाता है। कुसुम पेड़ की डालियों पर लाह के कीड़े पाए जाते हैं। सुंदरता में सबसे अलग है आम के पेड़ जिनके बड़े फल हमारे यहां के आलूबुखारा की तरह होते हैं और जिन्हें बड़े चाव से खाया जाता है। करीब सभी गांवों के आने आम के बगीचे हैं। सबसे विशिष्ट है बरगद का पेड़ जो समांतर डालियों से जड़ों को नीचे गिराता है और जब वे जमीन के अंदर पहुंचती है तो उनसे नया पेड़ निकलता है। बहुधा ऐसा होता है कि वर्षों के अंतराल में एक अकेला बरगद एक सरीखे का छोटा जंगल बन जाता है। पीपल के पेड़ को विशेषकर हिंदुओं की ओर से धार्मिक सम्मान मिलता है। प्रत्येक पत्ती पर लोग कहते हैं कि देवता निवास करते हैं। जब बारिश होती है तब लोग इसकी पूजा करते हैं। यह पेड़ समूचे हिंदुस्तान का परोपकारी पेड़ है, क्योंकि यह लोगों को सबसे ज्यादा छाया प्रदान करता है। इमली का पेड़ भी छाया का धनी है और लोग गांव के अखरा में इसे लगाना पसंद करते हैं, क्योंकि बारिश की बूंदों को भी इसी पेड़ की घनी पत्तियां रोक लेती हैं। जंगल जीवन से भरपूर है। चुटियानागपुर में पहले के उल्लेख के अलावा, जंगली जानवरों की भरमार है, यहां वहां हाथी भी दिखाई देते हैं। यहां के रहने वाले हिरण, हिरणी और खरगोश का शिकार करते हैं किंतु बिना आग्नेय शस्त्रों का प्रयोग किए। लोग हो हल्ला कर जानवरों को खदेड़ कर एक जगह लाते हैं और मारते हैं अथवा अधिक से अधिक तीरों से शिकार करते हैं। जंगली सुअर लगाए हुए बीजों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। सियारों की संख्या बहुत अधिक है। विभिन्न तरह की चिडिय़ां मधुर संगीत सुनाती हैं, गरुड़, गिद्ध, बगुला, तोता, कोयल, कौआ, गोरैया, बगेरी और अबावील। कीड़े-मकोड़ों की भरमार के बारे में शायद ही शिकायत सुनने को मिलती है। सबसे ज्यादा परेशानी जाहिर है, दीपक द्वारा होती है जो सभी चीजों को बर्बाद कर देती हैं। मच्छरों से बचाव के बहुत सारे उपाय पहले से मौजूद हैं। काफी संख्या में जुगनू अंधकार में निकलते हैं और भरे जंगल में एकमात्रा लालटेन का काम करते हैं।  
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1885 में लिखा गया लेख। जर्मन से अनुवाद दोमिनिक बाड़ा।

सांप्रदायिकता और प्रांतीयतावाद



जयपाल सिंह मुंडा
 भारतीय राष्ट्रवाद का कीड़ा बहुत पुराना है। यह सच है कि भारतीय राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद से ऊपर नहीं उठ पाया है न ही स्पष्ट रूप से यह सामंती समाज और धर्म के खिलाफ हो सका है। इसने कभी भी कोई मौलिक क्रांतिकारी मांग नहीं उठाई और इसीलिए व्हाइट हाउस के साम्राज्यवादियों को भारत के मु_ी भर विद्रोहियों को बेहद छोटे स्तर पर भारतीयकरण की तुष्टीकरण कर उनसे निबटने में खास दिक्कत नहीं हुई। धार्मिक कट्टवादियों ने सार्वजनिक मंचों पर कब्जा कर लिया है और वे उन संस्कृतियों पर हमला कर रहे हैं जो उनसे अलग अपनी पहचान रखते हैं। मतभेदों या सहमति के बावजूद विभिन्न राजनीतिक दलों और जो सच्चे हमवतनी हैं उन्हें भी अल्पसंख्यक विरोधी विचार अपनाने के लिए बाध्य किया किया जा रहा है। यह सभी रोग, जो भयावह रूप में व्याप्त हैं, भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अनोखे नहीं हैं। ये दूसरे देशों में भी फले-फूले हैं पर वहां के नेता-जनता इनसे ऊपर उठे हैं और राष्ट्रवाद की सीमाओं के परे जाकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीयतावाद और सार्वभौमवाद को अपनाया है। ग्रेट ब्रिटेन में 'लैसेस फेयरÓ (व्यक्तियों और समाज के आर्थिक मामलों में न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप की नीति) या मुक्त व्यापार का इतिहास हमें उन आर्थिक परिस्थितियों के बारे में बताता है, जो राजनीतिक सिद्धांतों के बचाव में आया। विश्व बाजार में ग्रेट ब्रिटेन अपना आधिपत्य तभी तक बरकरार रख सकता है जब तक कि दूसरे देश ब्रिटिश एकाधिकार को यह धमकी देना शुरू नहीं कर देते कि संरक्षणवादी पूंजी की वापसी हो सकती है।
हमारे लोकप्रिय नेताओं ने विरोधाभासी और दमनकारी परिस्थितियों के बीच बहादुरी से संघर्ष किया है। विदेशों में भारतीय छात्रों को खुद को भारतीय मानने में कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन भारत में उनको वही भारतीय राष्ट्रवाद पसंद आता है जिसमें सांप्रदायिक और कट्टरपंथी राजनीति होती है। इस तरह के विरोधाभासों का सबसे बढिय़ा उदाहरण गांधीजी हैं। वह हमेशा रहस्यवादी अहिंसा और पश्चाताप वाली हिंसा के बीच डोलते रहे हैं। पारंपरिक तौर पर बड़ी पूंजी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का कट्टर दुश्मन है। यह बात गांधीजी से अविभाज्य रूप में जुड़ी है क्योंकि उनके पास अपने संरक्षक पूंजीपतियों से अलग होने का साहस बिल्कुल नहीं है। अपने पूर्वाग्रहों और कमजोरियों से वही व्यक्ति ऊपर उठ पाता है जिसके पास अत्यंत तर्कसंगत वैज्ञानिक नजरिया है। सबको पता है कि इस बीमारी की अचूक दवा कहां है तब भी हम ठोस कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर हम अपने स्वार्थी दावों को त्यागने के लिए तैयार नहीं हैं, तो फिर आपसी सौहार्द, विश्व बंधुत्व, सार्वभौमिक मताधिकार और लोकतंत्र की बात करने का क्या मतलब है? हम अपने अधिकारों के बारे में बहुत अधिक सोचते हैं और उसकी मांग करते हैं, लेकिन हम हद दर्जे की असंवेदनशीलता के साथ अपने प्राथमिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते हैं। ऐसी स्थिति में जब हमारे नेताओं ने 20 लाख बंगालियों को मरने के लिए छोड़ दिया है, यह दावा बहुत ही बकवास है कि हम भ्रष्टाचाररहित एक ईमानदार सरकार के लिए राजनीतिक रूप से तैयार हैं। इंग्लैंड में भुखमरी से एक मौत होने पर पूरे राष्ट्र में विद्रोह फूट पड़ेगा और सरकार गिर जाएगी। यहां हमारे नेता उस व्यक्ति को क्लीन चिट दे देंगे जो असंख्य मौतों का जिम्मेदार है और उसके साथ गलबहियां डालकर मजे करेंगे।
मैं अपनी राजनीतिक प्रगति बनाए रखना चाहता हूं, पर इसके साथ ही एकतरफा अधिकारों और विशेषाधिकारोंपर जो जोर है, उससे धीरे-धीरे मुक्त होने की कोशिश भी कर रहा हूं। धर्म, पूंजी और सामंती समाज हमारे दुश्मन हैं। ये बीमारियां हमारे वास्तविक राष्ट्रवाद को निगल रही हैं। इनके खिलाफ साहसपूर्ण संघर्ष चला कर ही भारतीय राष्ट्रवादी एक बेहतर देश की रचना कर सकते हैं। देश को दीमक की तरह खा रहे इन कीड़ों की पहचान मुश्किल नहीं है। हमारा फौरी कार्यभार यही है कि इनका अस्तित्व पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए हम तुरंत ठोस कार्रवाई में उतरें।

(जयपाल सिंह मुंडा का यह अंग्रेजी लेख 'द बिहार हेराल्डÓ, पटना के 13 नवंबर 1945 में छपा था, जिसे शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'आदिवासियतÓ से लिया है। आजादी के 70 साल बाद पहली बार हिंदी में प्रकाशित होने वाली 'आदिवासियतÓ में जयपाल सिंह मुंडा के 19 चुनींदा लेख और भाषण हैं जिसका अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद और संपादन अश्विनी कुमार पंकज ने किया है। पुस्तक का प्रकाशन प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची द्वारा किया जा रहा है जो फरवरी दूसरे सप्ताह से पाठकों के लिए उपलब्ध होगी।)

अंधकार की आत्मीयता

काका कालेलकर
 एक बार संताल लोगों की परिस्थिति देखने के लिए हम घूम रहे थे। सांझ के समय एक गांव में आ पहुंचे। हम लोगों ने गांव के लोगों के साथ वार्तालाप शुरू की। धीरे-धीरे प्रकाश कम होने लगा। वहां के एक गृहस्थ से मैंने कहा-'अंधकार हो चला है-दीया ले आयें, तो अच्छा होगा!Ó
आश्र्च से मेरी तरफ  देखते हुए, वे बोले-'दीया? इस गांव में दीया कहां से मिलेगा? हम लोग दीया कभी इस्तेमाल नहीं करते। सूरज छिप गया कि, हमारा कारोबार समाप्त हो जाता है। फिर सुबह की पौ फटी कि हमलोग अपने-अपने काम में लग जाते हैं।Ó
 मनुष्य की बस्ती में अंधेरे का यह साम्राज्य? मैं बड़ी चिंता में पड़ गया। पर, इन लोगों को इसका कुछ भी बुरा नहीं लगता। अंधेरा तो रात को आयेगा ही। उसका दु:ख मानना चाहिए, यह बात भी इन लोगों के दिमाग में नहीं आती। भारत-भूमि, भारतीय जीवन और भारतीय संस्कृति के बारे में बराबर बोलते रहने वाले, मुझे इस दीप-विहीन जीवन की तब तक कल्पना ही नहीं थी। थोड़ी देर सोचने पर मुझे लगा कि, वस्तुत: इन लोगों पर तरस खाने के बदले मुझे अपने आप पर ही तरस खाना चाहिए।
 परिपक्वता आने पर, उपनिषद की प्रार्थना 'तमसो मां ज्योतिर्गमय!Ó से, अंधकार और प्रकाश जगत में सर्वव्यापी और परस्पर भिन्न जीवन-तत्व की बात ध्यान में आयी और प्रकाश के प्रति भक्ति दुगुनी हुई; लेकिन इसके साथ-ही-साथ अंधकार भी एक व्यापक व सार्वभौत तत्व है, इसकी कल्पना स्पष्ट हो जाने से अंधकार का महत्व भी समझ में आया। आध्यात्मिक दृष्टि से, हम अज्ञान को अंधकार कहते हैं। समस्त जीवन का विचार करते समय, जगत का अंधकार और हृदयाकाश का अज्ञान, ये भिन्न नहीं हैं-एक ही हैं, ऐसा प्रतीत हुआ।
 अनुभूति की एक और प्रसंग उपस्थित हुआ। एक बार एक कुटुम्ब पर दारुण संकट उपस्थित हुआ। घर के सब बड़े लोग शोक में डूब गये, लेकिन सिर्फ बालक हंस-खेल रहे थे। यह देखकर मन में विचार आया कि, ईश्वर की कितनी बड़ी कृपा है कि, इन बच्चों को कुटुम्ब पर आये संकट की कल्पना ही नहीं हो सकती। अगर उन्हें सच्ची परिस्थिति की कल्पना हो सकती, तो उनके कोमल हृदय पर आघात होने से उनके प्राण ही निकल जाते। मुर्गी के बच्चों का आकार बनने से पहले, जिस प्रकार उन्हें अंडे के कवच का रक्षण चाहिए उसी प्रकार मन पक्का हो, तब तक के लिए बच्चों को ईश्वर ने यह अज्ञान का कवच दिया है। यह उसकी बड़ी कृपा ही है।
 पर जब हम तत्वदर्शी होकर अथवा तत्व-जिज्ञासु बनकर जीवन का विचार करते हैं, तब जीवन और मृत्यु दोनों परस्पर पूरक, पोषक और एक सरीखे आवश्यक तत्व है, यह बात हमारी नजर में आती है। अज्ञान और ज्ञान-अंधकार और प्रकाश-के संबंध में भी ऐसी ही बात है।
 अंधकार-संबंधी एक और प्रसंग याद आ गया। शांति निकेतन में महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर रात की प्रार्थना के समय दीया हटा देते थे। रवींद्रनाथ ने यही परंपरा आगे चलायी। शांति निकेतन की यह पद्धति गांधीजी को इतनी पसंद आयी कि उन्होंने भी रात की और सुबह की प्रार्थना के समय दीय हटा देने की परिपाटी चला दी।
कितने ही योगी सांझ की, जब प्रकाश क्षीण होकर अंधकार प्रारंभ होता है, तब ध्यान में बैठना पसंद करते हैं। कारण, अंधकार एकाग्रता के लिए-अंतर्मुख वृत्ति के लिए-विशेष सहायक होता है। रात की बेला इतनी सौम्य और शांत होती है कि, अंतर्मुख होकर ध्यान करने में बाहर की परिस्थिति जरा भी बाधक नहीं होती।
 भगवान, हमें ऐसे प्रकाश में से शांतिदायक अंधकार की तरफ ले जाओ, ऐसी प्रार्थना करने के दिन सचमुच ही आ गये हैं। प्राकृतिक प्रकाश में मनुष्यता होती है। प्राकृतिक अंधेरे में आत्मीयता होती है और चिंतन के लिए अवसर भी मिलता है। प्राकृतिक प्रकाश और प्राकृतिक अंधकार दोनों ईश्वरदत्त प्रसाद है। दोनों में मनुष्य का व्यक्तित्व निखरता है और विकसित होता है। प्रकाश प्रवृत्तिपरायण होने के कारण विचलित कर सकता है। अंधकार में आत्मपरीक्षण का स्थान है और इसलिए वह साधना के लिए अनुकूल है।
 अंधकार की भावात्मक कही चाहे अभावात्मक, वह मनुष्य के मन के लिए, हृदय के लिए, आत्मा के लिए, पोषक वस्तु है-बहुत-से बंधन तोड़कर छुटकारा देने वाली हितकर वस्तु है। सारी रात कमरे में प्रकाश रखने की सुभीता होने पर भी सोने वाला व्यक्ति अंधकार का ओढऩा ही पसंद करता है। दिन में सोनेवाला व्यक्ति भी प्रकाश कम करके सोता है। नींद जिस तरह थके हुए व्यक्ति को आराम देकर ताजा करती है, उसी प्रकार अंधकार भी थकान दूर करके ताजगी उत्पन्न करता है। मनुष्य अंधकार में जाकर बैठता है, तो उसे नयी-नयी कल्पनाएं सूझती हैं, भरमाये हुए मनुष्य को संकट से मुक्त होने का मार्ग सूझता है और निराश मनुष्य की आशवा की खुराक मिलती है।
गोवा की राजधानी पणजर में एक बार मेरा व्याख्यान था। लोग एकाग्रता से सुन रहे थे। इतने में बिजली बंद हो गयी और दीवानखाने में निरा अमावस-सरीखा घुप्प अंधेरा हो गया। पेट्रोमैक्स लाने केलिए लोग भागे। थोड़ी देर ठहरकर मैंने समझाया-दीए की क्या दरकार है। आपलोगों ने मुझे देखा है, मैंने आपको देखा है। अपने विषय में हतम रंग चुके हैं। हम अंधेरे में ही व्याख्यान अभी क्यों न चलावें? प्रश्नोत्तर भी एक दूसरे का चेहरा देखे बिना चलाए जा सकेंगे। चेहरे पर का भाव यदि न भी दिखाई दिया, तो आवाज से एक दूसरे की वृत्ति ध्यान में आ सकेगी।
 सब शांत होकर एकाग्रता से सुनने लगे। और, सचमुच ही उस दिन का व्याख्यान और उसके बाद के प्रश्नोत्तर आकर्षक और सजीव हुए। सभा का काम समाप्त होते-होते कोई एक मोमबत्ती ले लाया। मोमबत्ती के पीछे-पीछे अपना विज्ञापन करता पेट्रोमैक्स भी आ गया। उसने लोगों की आंखें चौंधिया दी; पर उसके पक्ष की इतनी बात तो कबूल करनी ही चाहिए कि उसके प्रकाश के कारण सभा से लौटने वाले लोगों को अपने-अपने जूत खोज सकना सहज हो गया।
  इस सभा में मुझे एक नया ही अनुभव हुआ। अंधकार में वक्ता और श्रोता के बीच का संपर्क अधिक अच्छी तरह स्थापित हो सका। आपस में चेहरे दिखाई नहीं देते, मानों इसी के कारण हम सब अभिन्न मित्रा हो गए। एक दूसरे को देख नहीं सकते। इस अड़चन के कारण सबको सबके बारे में सहानुभूति हो गयी थी और अंधेरे की अड़चन की भरपाई करने के लिए सभी लोग, अपनी सज्जनता और आत्मीयता की पूंजी, खुले दिल से व्यवहार करने लगे थे। मुझे लगा कि अंधकार ने एक तरह से उपकार ही किया है। उस दिन अंधकार की इस शक्ति की तरफ मेरा ध्यान पहली बार गया।
-'यात्राओं में झारखंडÓ पुस्तक से साभार।