रांची की नजर में गांधी


मैं रांची हूं। झारखंड की राजधानी। जब बिहार था, तब भी मुझे ग्रीष्मकालीन राजधानी का ओहदा मिला था। यहां की आबोहवा को देखकर ही अंग्रेजों ने इसे सजाया-संवारा और अपना एक प्रशासनिक ठिकाना बनाया। कलकत्ता पास होने के कारण सैकड़ों भद्र बंगालियों ने रांची की इस पठार पर अपनी कोठियां खड़ी कीं। उन्हें नहीं पता था कि यह पठार कितना पुराना है? बाहर से लोग आते हैं, और पहाड़ी मंदिर से शहर का खूबसूरत नजारा देखते हैं, उन्हें भी नहीं पता कि यह पहाड़ी हिमालय से करोड़ों साल पुरानी है और इस पहाड़ी पर अंग्रेज आजादी के दीवानों को फांसी पर लटका दिया करते थे। इसलिए इसका एक नाम फांसी टुंगरी भी पड़ गया। वैसे, हर गली-मुहल्ले में आजादी के किस्से मिल जाएंगे। शहीद चौक के पास 1857 के वीरों को फांसी पर लटका दिया गया। जब, रांची छोटी थी, लेकिन इसका विस्तार बहुत था। कहानियां बहुत हैं, क्या-क्या सुनाऊं? पर, आज जो कहानी सुनाने जा रही हूं, वह बापू से संबंधित है। वही बापू, जिनका नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। दुनिया ने उन्हें महात्मा कहा, लेकिन यह लोग नहीं जानते कि 'गांधी से महात्माÓ की यात्रा में रांची एक प्रमुख पड़ाव है।
गांधी के चरण झारखंड की धरती पर कई बार पड़े। एक लंबा कालखंड है। 1917 से 1940 के दरम्यान करीब पचास दिन उन्होंने झारखंड को दिया। कहते हैं, दो जून 1917 को पटना से चले और तीन को रांची पहुंचे और चार जून को पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत बिहार-ओडिशा के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर एडवर्ट गेट से आड्रे हाउस में उनकी मुलाकात हुई। गांधीजी की यह छोटी अवधि की यात्रा थी। इस यात्रा में उनके बेटे और बा भी शामिल थीं। दो दिन तक बातचीत होती रही। इसके बाद बिहार चले गए। अगले महीने आठ जुलाई को लिखे गए दो पत्र रांची के पते से मिलते हैं। इसके बाद 23 सितंबर, 1917 का पत्र रांची से लिखा मिलता है, जिसे मगनलाल गांधी को लिखा गया था। वह फिर चंपारण समिति की बैठक के सिलसिले में रांची आए थे। 24 सितंबर को चंपारण समिति की बैठक रांची में ही हुई थी। यह बैठक काफी लंबी चली और आंदोलन को लेकर काफी विमर्श हुआ। 25 जुलाई 1917 को गांधी जी ने लीडर अखबार के संपादक के नाम पत्र रांची से ही लिखा। गांधीजी चंपारण आंदोलन के सिलसिले में फिर पूना से 18 सितंबर को चले और 22 को रांची पहुंचे। यहां करीब 24 से 28 तक चंपारण जांच समिति की बैठक में शामिल हुए। इसके बाद पांच अक्टूबर को वे रांची से पटना चले गए। 25 सितंबर को ही जमनालाल बजाज को भी पत्र लिखा। इसके बाद मगन लाल गांधी को लिखे पत्र में जिक्र किया कि बुखार से मुक्त नहीं हुआ हूं। बुखार में भी वे चंपारण समिति की बैठक में भाग लेते रहे। एक पत्र 27 सितंबर को जीए नटेसन को लिखा और उसमें भी अंत में लिखा कि 'मेरे च्वर के कारण आप चिंतित न हों। वह अपने समय से ही जाएगा। वह अक्टूबर के पहले सप्ताह तक रांची में रहे। रांची में गांधीजी के रहने के बारे में चार अक्टूबर 1917 तक का जिक्र मिलता है। चंपारण के इस आंदोलन में रांची भी जुड़ गया और यह एक प्रमुख केंद्र बन गया। गेट ने एक कमीशन बना दी और गांधीजी को इसका मेंबर बनाने के लिए राजी कर लिया। इसके बाद कमीशन का काम बेतिया से शुरू हुआ। एक तरह से चंपारण आंदोलन की नीति, रणनीति और जांच समिति का रांची में ही गठन किया गया। फिर इस आंदोलन की सफलता की कहानी सब जानते हैं। गांधीजी यहां श्रद्धानंद रोड में रहते थे। पर, अब किसी को पता नहीं कि वह कौन सा मकान था। पटना के एक वकील जो गांधीजी के साथ थे, उनके कोई रिश्तेदार यहां रहते थे तो पहली बार वे उन्हीं के यहां ठहरे थे। इस दौरान एक उल्लेखनीय बात यह हुई कि उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। गौरतलब है कि 1914 से टाना भगत धार्मिक पाखंड के साथ अंग्रेजों के लगान के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे। गांधीजी ने आठ जुलाई 1917 को अपनी डायरी में इसका उल्लेख किया है। लिखा है, आज मैंने टाना भगत नामक आदिवासी जमात के लोगों से बात की। ये अहिंसा और सदाचार को मानने वाले हैं।Ó गांधी के यहां पहुंचने से पहले से यहां सबसे पहले टाना भगतों ने अङ्क्षहसक लड़ाई छेड़ दी थी। इसे लोग कम जानते हैं। टाना भगत फिर गांधी के पक्के भक्त बन गए और खादी को अपना लिया। ये आज भी खद्दर ही पहनते हैं। दुनिया में ये गांधी के सच्चे अनुयायी हैं। पर, इन्हें कौन याद करता है? झारखंड में जब-जब गांधी की बात होगी, टाना भगतों की भी बात करनी होगी। गया कांग्रेस हो या रामगढ़ कांगे्रस, जब जगह पैदल ही हाजिर। एक बात कहना तो भूल रही थी। उसे याद करना जरूरी है। 1917 में ही मौलाना आजाद यहां नजरबंदी की सजा भोग रहे थे। वे चार साल तक यहां रहे। पर, कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता कि 1917 में उनकी मुलाकात बापू से हुई थी या नहीं?
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चंपारण आंदोलन जब मुकाम पा गया और गांधी की जब देश में धूम मची तो रांची को ओझल कर दिया गया। रांची की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया गया। पर, बापू न रांची को भूले न छोटानागपुर को। करीब सात-आठ साल बाद फिर बापू के कदम झारखंड की धरती पर पड़े। तब यह बिहार ही था। बापू की यह दूसरी यात्रा थी। 1925 का साल था। वे 13 से 18 सितंबर तक झारखंड की यात्रा चार पहिया वाहन से की। इस दौरान वे पुरुलिया, चाईबासा, चक्रधरपुर, खूंटी, मांडर, हजारीबाग घूमते हुए रांची पहुंचे। इन स्थानों पर आयोजित अनेकों बैठकों को संबोधित किया और आजादी की अलग जगाई। वे हर सभा में चरखा की बात जरूरत करते। स्वावलंबन का पाठ पढ़ाते। कहते, दूसरों पर निर्भरता ही गुलामी है। इसलिए, अपना सूत कातिए और कपडऩा बुनिए। एक सभा की याद है। 17 सितंबर को रांची के संत पॉल स्कूल के मैदान में तीन बजे सभा को संबोधित किया। स्कूल को भी नहीं पता था कि गांधी ने यहां सभा को संबोधित किया था। यहां भी बापू ने चरखा की बात की और लोगों ने एक हजार रुपये की थैली बापू को भेंट किया।
इस यात्रा में बापू झारखंड को समझ रहे थे। लोगों से मिल रहे थे। उनकी समस्याएं सुन रहे थे। झारखंड से लौटने के बाद 'यंग इंडियाÓ के आठ अक्टूबर 1925 के अंक में बापू ने 'छोटानागपुर मेंÓ शीर्षक से संस्मरण लिखा...सितंबर की यात्रा का जिक्रकरते हुए बापू लिखते हैं, छोटानागपुर की अपनी पूरी यात्रा मैंने मोटरकार से की। सभी रास्ते बहुत ही बढिय़ा थे और प्राकृतिक सौंदर्य अत्यंत दिव्य तथा मनोहारी था। चाईबासा से हम चक्रधरपुर गए फिर बीच में खूंटी और एक-दो अन्य स्थानों पर रुकते हुए रांची पहुंचे। हमारे रांची पहुंचने के वक्त ठीक शाम के सात बजे महिलाओं ने एक बैठक का आयोजन रखा था। बैठक में शामिल लोगों में बंगाली बहुसंख्यक थे।
बापू आगे लिखते हैं, 'छोटानागपुर प्रवास के दौरान और भी कई दिलचस्प बातें हुई जिनमें खादी पर एन.के. रॉय और उद्योग विभाग के एस.के. राव के साथ हुई चर्चा तो शामिल है ही ब्रह्मचर्य आश्रम (अब योगदा सत्संग आश्रम) का दौरा भी स्मरणीय है। जिसकी स्थापना कासिमबाजार के महराजा की देन है। मोटरगाड़ी से ही हम रांची से हजारीबाग गए, जहां पहले से तयशुदा कार्यक्रमों के अलावा मुझे संत कोलंबा मिशनरीज कॉलेज, जो बहुत पुराना शिक्षण संस्थान है, के छात्रों को भी संबोधित करने का आमंत्रण मिला। बापू ने वहां भी संबोधित किया और फिर पलामू आदि की भी यात्रा की। इस तरह बापू ने 1925 में झारखंड को बहुत नजदीक से देखा। तब पुरुलिया रांची में था। अब वह पं बंगाल का हिस्सा है। बापू ने योगदा आश्रम का ऊपर जिक्र किया है। इसकी स्थापना भी 1917 में हुई थी। चंपारण आंदोलन भी 1917 में शुरू हुआ था। दोनों ने अपने शताब्दी वर्ष मनाए। बापू से परमहंस योगदानंद की निकटता बढ़ गई थी। बापू के वर्धा आश्रम में भी परमहंस गए थे। दो संत अलग-अलग ध्येय पर काम कर रहे थे।
झारखंड में बापू की अनेक यादें हैं। कितना बखान करूं? पर इस बखान के बिना बापू के झारखंड की कहानी अधूरी ही रहेगी। वह कहानी है रामगढ़़ कांग्रेस की। बापू अंतिम बार 1940 में आए जब रांची से 40 किमी दूर रामगढ़ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। मार्च का महीना था। वे मोटरकार से रामगढ़ गए। वह कार आज भी सुरक्षित है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस महत्वपूर्ण अधिवेशन में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद अध्यक्ष बनाए गए थे। दामोदर नदी के किनारे जंगलों में सैकड़ों पंडाल लगाए गए थे, जिसमें महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ श्रीकृष्ण सिंह, डॉ.राजेंद्र प्रसाद जैसे तमाम नेताओं की भागीदारी हुई थी। इस बार जब वे आए तो रांची में वे बिरला कोठी, लालपुर में ठहरे थे, जहां अब बीआइटी एक्सटेंशन चलता है। वे रांची से फोर्ड गाड़ी में रामगढ़ पहुंचे थे। रांची के स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मी नारायण जायसवाल के पास फोर्ड कंपनी की बीआरएफ -50 गाड़ी थी। इस गाड़ी को खुद लक्ष्मी नारायण ड्राइव कर ले गए थे। रांची और रामगढ़ इसी गाड़ी से आना जाना होता था। गांधीजी 1940 में एक मार्च से 20 मार्च तक रहे। हालांकि वे 12 मार्च की शाम ईसाई मिशनरियों से बातचीत करने के लिए रामगढ़ से चले आए। 14 मार्च को रामगढ़़ में खादी ग्रामोद्योग प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। 19 मार्च की सुबह ठक्कर भवन एवं हरिजनों एवं आदिवासियों के लिए भवन का उद़घाटन करने के बाद रामगढ़ चले गए। रामगढ़़ कांग्रेस ऐतिहासिक रहा। खूब आंधी-पानी भी आई। इसके बाद भी सम्मेलन संपन्न हुआ। पर, बापू का असहयोग आंदोलन हो या 1942 का करो या मरो का नारा, रांची ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। रांची में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। देश जब आजाद हुआ, उस आधी रात को रांची पहाड़ी पर तिरंगा फहराया गया। तब से इस मंदिर पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फहराया जाता है। पर, कुछ ऐसे भी क्रांतिकारी थे, जब बंटवारे से क्षुब्ध थे। रांची में उस रात जब जश्न मन रहा था, जब आजादी के एक दीवाने डॉ यदुगोपाल मुखर्जी सरकुलर रोड वाले अपने मकान में चिंतामग्न बैठे थे। वे बंटवारे से बहुत दुखी थे। गांधी के कहने पर ही अ‍िंहसक आंदोलन छोड़ कांग्रेस का दामन थामा था। ये ऐसे वीर सिपाही थे कि गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस की सदस्यता छोड़ देनी है। 15 अगस्त, 1947 को ही कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बिहार का राज्यपाल बनने का प्रस्ताव दिया, लेकिन उसे ठुकराकर गरीबों की सेवा आजीवन करते रहे। ऐसे भी निस्पृही थे रांची के आंगन में। अब अपनी राम कहानी को यहीं विराम देती हूं।