1901 के अंकों में चीन की लड़ाई का जिक्र मिलता है। इसके साथ ही आस-पास की खबरें भी प्रकाशित होती थीं। जरूरी नहीं कि सभी खबरें चर्च की हों। 1911 में इसका एक विशेषांक आया था। कवर पर चार्ज पंचम एवं महारानी मेरी की पारंपरिक वेश में तस्वीर छपी थी। उन्हें कैसर-ए-हिंद कहा गया था। उनकी भारत यात्रा की खबर छपी थी। इसी तरह आज से सौ साल पहले 1918 के एक अंक में हो लोगों के बारे में सूचना दी। खबर का शीर्षक था-हो लोगों के बीच में एक नया धम्र्म। खबर दी गई थी-सिंहभूम जिला के कोलहन प्रगना में जिसमें चेबासा शहर है, खासकर हो लोग पाये जाते हैं। उनकी बोली वो धम्र्म वो दूसरे रीत दस्तूर मुन्डारी लोगों से बहुत मिलती हैं। ये लोग सींग बोंगा याने सूय्र्य को बड़ा देवता मानते हैं। खबर बड़ी है। उस समय पत्रिका की ङ्क्षहदी को भी देख सकते हैं। तब चाइबासा को चेबासा लिखा गया। कोल्हान को कोल्हन और परगना को प्रगना। इस तरह की अनेक रोचक बातें इसमें प्रकाशित होती थीं।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रांची से प्रकाशित 'घरबन्धुÓ शायद पहली पत्रिका है, जो 1872 से अनवरत निकल रही है। 1872 में ही रांची में लिथो प्रेस लगाया गया। दो नवंबर, 1845 को ही यहां जर्मन मिशनरियों के कदम पड़े और कुछ सालों में यहां हिंदी और स्थानीय भाषा सीखकर पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया।
इस पत्रिका का कहीं जिक्र नहीं होता है। चूंकि इसका मूल उद्देश्य धर्म प्रचार करना था, लेकिन इसे प्राचीन पन्ने पलटने से पता चलता है कि इसमें तार के समाचार भी प्रकाशित होते थे। एक दिसंबर, 1872 को इसका पहला अंक आया था। पहले यह पाक्षिक था। बाद में इसे मासिक कर दिया गया और अब यह मासिक ही निकल रही है। पहले इसका टैग लाइन था-चुटिया नागपुर की एवं जेलिकल मंडलियों के लिए और अब गोस्सनर चर्च की मासिक हिंदी पारिवारिक पत्रिका हो गया है। हालांकि गोस्सनर चर्च से करीब अस्सी हजार से ऊपर लोग जुड़े हैं, लेकिन चार-पांच हजार ही प्रकाशित होती है। यहां 1882 से अंक उपलब्ध हैं। इन अंकों में धर्म संबंधी प्रचार सामग्री हिंदी में प्रकाशित होती थी। इसके साथ तार के समाचार, स्थानीय समाचर प्रकाशित होते थे।
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