भिखारी ठाकुर भोजपुरी के उस व्यक्तित्व का नाम है, जिसने भोजपुरी भाषा को उस जमाने में भी मंच की भाषा बनने का गौरव प्रदान किया, जिस जमाने में गांव में भी साधारण पढ़-लिखे लोग भी, जब रास्ते में, बाजार में, या अपने दरवाजे या दालान बात करने में शर्म महसूस करते थे। इसे अनपढ़-गवारों की भाषा मानकर इसका खुले में प्रयोग करना, उनको, अपने अशिक्षित और पिछड़े होने का एहसास कराता था। ऐसे समय में भिखारी ठाकुर को अपनी इस बोली को, मंच की भाषा बनाने में ज
रा भी झिझक नहीं हुई। हलांकि भिखारी ठाकुर कोई बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने तो खुद कहा है, 'लिखे-पढ़े के हाल ना जानी, पत राख शारदा भवानीÓ।
भिखारी उस घर में पैदा हुए थे, जिसे उनके गंवई समाज में परजा पवनी का दर्जा प्राप्त था। वह नाई जाति में पैदा हुए थे जिसका काम लोगों की मुफ्त हजामत बनाना था, खास कर अपने जजमानिका के ओहदेदार लोगों का और इसके एवज में उनके परिवार को मिलता था वर्ष में दो बार खेतों में पैदा होने वाली फसलों का एक बंधा बंधाया और शादी-विवाह आदि संस्कारों में कुछ नेग। इस परिप्रेक्ष्य में आपका सोचना जायज है कि फिर ऐसे परिवार का लड़का आखिर कैसे इतना बड़ा लोक कलाकार बन गया? इतने नाटक, इतने गीत लिख गया, गाया भी, नाचा भी, अभिनय किया और गांव की गंवई भोजपुरी बोली को शहरी और नगरों तक पहुंचा दिया, वह भी मंच पर, जबकि उस दौर में भोजपुरी सिनेमा की भाषा भी नहीं बन पाई थी।
यह भिखारी ठाकुर और उनकी लोकप्रियता की देन है कि भोजपुरी को सिनेमा की भाषा बनाने पर बाद में लोगों ने सोचा, इस पर काम किया और इस सिनेमा के जनक बने, हिंदी फिल्मों के महान कलाकार, पर मन-मिजाज से खांटी भोजपुरिया रहे, जनाब नजीर हुसैन। भिखारी ठाकुर का पढ़ा-लिखा होना तो दूर, उन्हें कई वर्षों तक अक्षर ज्ञान भी नहीं हुआ था। उन्होंने खुद भी कहा है कि 'नौ बरिस के जब हम गइनी विद्या पढऩ पाठ पर गइनी, एक बरिस ले जबदल मति लिखे ना आइल राया गीत।Ó और अपनी इस जिंदगी की जलालत से तंग आकर भिखारी ठाकुर एक दिन अपना घर छोड़ कर भाग जाते हैं और पहुंचते हैं बंगाल के मेदनीपुर। वहां पहले तो अपने जीविकोपार्जन के लिए वही अपना पुश्तैनी पेशा अख्तियार करते हैं। पर बाद में बंगाल की कलात्मक उर्वरा भूमि, उनके मन में छिपे कलाकार को जगाती है, झिंझोड़ती है। जब वह, वहां पहली बार रामलीला देखते हैं, फिर बंगाल की प्रसिद्ध नाटक पद्धति जात्रा देखते हैं और अपने मन में भी कुछ वैसा ही करने की कल्पना पालने लगते हैं, फिर क्या था, लौट पड़ते हैं अपने गांव और वहां आकर पहले तो अपने मित्र भगवान दास बनिया से अक्षर ज्ञान प्राप्त करते हैं, कुछ लिखने पढऩे भी सिखते हैं और फिर अध्ययन करते हैं तुलसीदास कृत रामचरितमानस का। और फिर साकार हो जाती है उनके मन की कल्पना। अपने दोस्तों के साथ खड़ी करते हैं रामलीला मंडली, पिरोने लगते हैं अपने मन भावों को अपनी भाषा में रामचरित के नायकों का संवाद, गान और फिर होता है एक दिन मंचन। पूरा गांव सराह उठता है। हौसला बढ़ता है। पर माता-पिता की वर्जना बाधक बनती है। पर अब तो कलाकार के मन को पंख लग गये होते हैं। इन सारी वर्जनाओं के बावजूद वह कलाकार विद्रोह करता है, कलाकार विद्रोही नहीं हुआ तो कलाकार कैसा? सो अब बनती है नाज मंडली। शुरू होते हैं नाटक लिखने के सिलसिले। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा फिर जाने कितने। होने लगते हैं मंचन। राहुल सांकृत्यायन को कहना पड़ा कि 'भिखारी ठाकुर तो भोजपुरी भाषा के शेक्सपीयर हैं। और इसी भोजपुरी के शेक्सपीयर के नाटकों से कुछ चुनिंदा गीतों को गाया है कल्पना पटवारी ने। नौ गीतों को लंदन की मशहूर कंपनी वर्जिन ने रिलीज किया है। यह भोजपुरी के फक्र व सम्मान की बात है। अब भोजपुरी दुनिया के लिए अजूबा भाषा नहीं होगी।
भिखारी उस घर में पैदा हुए थे, जिसे उनके गंवई समाज में परजा पवनी का दर्जा प्राप्त था। वह नाई जाति में पैदा हुए थे जिसका काम लोगों की मुफ्त हजामत बनाना था, खास कर अपने जजमानिका के ओहदेदार लोगों का और इसके एवज में उनके परिवार को मिलता था वर्ष में दो बार खेतों में पैदा होने वाली फसलों का एक बंधा बंधाया और शादी-विवाह आदि संस्कारों में कुछ नेग। इस परिप्रेक्ष्य में आपका सोचना जायज है कि फिर ऐसे परिवार का लड़का आखिर कैसे इतना बड़ा लोक कलाकार बन गया? इतने नाटक, इतने गीत लिख गया, गाया भी, नाचा भी, अभिनय किया और गांव की गंवई भोजपुरी बोली को शहरी और नगरों तक पहुंचा दिया, वह भी मंच पर, जबकि उस दौर में भोजपुरी सिनेमा की भाषा भी नहीं बन पाई थी।
यह भिखारी ठाकुर और उनकी लोकप्रियता की देन है कि भोजपुरी को सिनेमा की भाषा बनाने पर बाद में लोगों ने सोचा, इस पर काम किया और इस सिनेमा के जनक बने, हिंदी फिल्मों के महान कलाकार, पर मन-मिजाज से खांटी भोजपुरिया रहे, जनाब नजीर हुसैन। भिखारी ठाकुर का पढ़ा-लिखा होना तो दूर, उन्हें कई वर्षों तक अक्षर ज्ञान भी नहीं हुआ था। उन्होंने खुद भी कहा है कि 'नौ बरिस के जब हम गइनी विद्या पढऩ पाठ पर गइनी, एक बरिस ले जबदल मति लिखे ना आइल राया गीत।Ó और अपनी इस जिंदगी की जलालत से तंग आकर भिखारी ठाकुर एक दिन अपना घर छोड़ कर भाग जाते हैं और पहुंचते हैं बंगाल के मेदनीपुर। वहां पहले तो अपने जीविकोपार्जन के लिए वही अपना पुश्तैनी पेशा अख्तियार करते हैं। पर बाद में बंगाल की कलात्मक उर्वरा भूमि, उनके मन में छिपे कलाकार को जगाती है, झिंझोड़ती है। जब वह, वहां पहली बार रामलीला देखते हैं, फिर बंगाल की प्रसिद्ध नाटक पद्धति जात्रा देखते हैं और अपने मन में भी कुछ वैसा ही करने की कल्पना पालने लगते हैं, फिर क्या था, लौट पड़ते हैं अपने गांव और वहां आकर पहले तो अपने मित्र भगवान दास बनिया से अक्षर ज्ञान प्राप्त करते हैं, कुछ लिखने पढऩे भी सिखते हैं और फिर अध्ययन करते हैं तुलसीदास कृत रामचरितमानस का। और फिर साकार हो जाती है उनके मन की कल्पना। अपने दोस्तों के साथ खड़ी करते हैं रामलीला मंडली, पिरोने लगते हैं अपने मन भावों को अपनी भाषा में रामचरित के नायकों का संवाद, गान और फिर होता है एक दिन मंचन। पूरा गांव सराह उठता है। हौसला बढ़ता है। पर माता-पिता की वर्जना बाधक बनती है। पर अब तो कलाकार के मन को पंख लग गये होते हैं। इन सारी वर्जनाओं के बावजूद वह कलाकार विद्रोह करता है, कलाकार विद्रोही नहीं हुआ तो कलाकार कैसा? सो अब बनती है नाज मंडली। शुरू होते हैं नाटक लिखने के सिलसिले। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा फिर जाने कितने। होने लगते हैं मंचन। राहुल सांकृत्यायन को कहना पड़ा कि 'भिखारी ठाकुर तो भोजपुरी भाषा के शेक्सपीयर हैं। और इसी भोजपुरी के शेक्सपीयर के नाटकों से कुछ चुनिंदा गीतों को गाया है कल्पना पटवारी ने। नौ गीतों को लंदन की मशहूर कंपनी वर्जिन ने रिलीज किया है। यह भोजपुरी के फक्र व सम्मान की बात है। अब भोजपुरी दुनिया के लिए अजूबा भाषा नहीं होगी।
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