मंदिरों का गांव मालूटी

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मालूटी मंदिरों का गांव है। राज्य की दूसरी राजधानी दुमका से पूरब 55 किमी दूर शिकारीपाड़ा प्रखंड में यह ऐतिहासिक गांव स्थित है। रामपुर रेलवे स्टेशन से पश्चिम में 16 किमी दूर है। यहां पहुंचने के लिए राजधानी रांची से बस द्वारा देवघर होते हुए भी पहंुचा जा सकता है। वहीं दुमका से भी इस गांव में सड़क मार्ग द्वारा सुडीचुआं तक पहुंचा जा सकता है। यहां से पांच किमी दक्षिण पैदल या रिक्शा द्वारा यात्रा कर मंदिरों की नगरी में पहुंचा जा सकता है। इस गांव की जानकारी देश-दुनिया को 22-23 साल पहले हुई। गांव से बाहर इस मंदिर के बारे में लोग नहीं जानते थे। यहां पहले 108 शिव मंदिर थे, लेकिन अब 75 से 80 मंदिर ही शेा हैं। बंगाल की सीमा पर स्थित होने के कारण मंदिरों की शैली पर इसका प्रभाव स्पट देखा जा सकता है। बताते हैं कि तंत्रा साधना का बड़ा केंद्र था।   
  1979 में भागलपुर के तत्कालीन आयुक्त अरुण पाठक संयोगवश मालूटी गांव पहुंचे। लगभग 300 घरों का यह छोटा सा गांव मालूटी मंदिरों की नगरी में तब्दील थी। इसे देखकर वे काफी अचंभित हुए। भागलपुर लौटने के बाद उन्होंने इसकी जानकारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और बिहार पुरातत्व विभाग को दी और इसके संरक्षण के लिए आवश्यक कार्यवाही का आदेश दिया। इस तरह यह गांव पुरातत्व के नक्शे पर आया।
  झारखंड और बंगाल की सीमा पर स्थित मालूटी का प्राचीन नाम मल्लाहाटी बताया जाता है। उस समय यह गांव मनोहारी जंगलों से आच्छादित था। पुराने समय में यह गांव समुदेश, राढ़, मल्लभूम, कामकोटी, गौड़ और जंगल राज्य के अंतर्गत था। कहा जाता है कि कालांतर में मल्लाहाटी ही मालूटी बन गया। मालूटी मंे आदि शक्ति मां मौलीक्षा का मंदिर है। मौलीक्षा देवी के मंदिर को यहां जनसाधारण में मौलीकुटी कहा जाता है। इसी मौलीकुटी से विकसित होकर इस ग्राम का नाम मालूटी पड़ गया। मालूटी के पूरब सातरंगम गांव, पश्चिम में भगवछुट्ट गांव उत्तर में घटकपुर गांव एवं सतीघ्रदा नाला व दक्षिण में घरमपुर गांव हवा बंगाल एवं चंदन नाला स्थित है।

क्या है इतिहास
ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि 15 वीं शताब्दी में यह क्षेत्रा गौड़ राज्य के अधीन था। ननकर राज्य के संस्थापक वसंत राय जो एक स्थानीय पंडित थे, को उपहार स्वरूप गौड़ के तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन हुसैन शाह -1493-1519 द्वारा ननकर राज्य प्राप्त हुआ था। बताया जाता है कि बसंत राय का जन्म बीरभूम जिले के मौड़ेश्वर के निकट कटिग्राम नामक छोटे से गांव में हुआ था। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया था। अत्यंत निर्धनता के कारण पेट पालने के लिए वे दूसरों का मवेशी चराते थे। मवेशी चराने के क्रम में दोपहर के समय बसंत एक पेड़ की छाया में सोए हुए थे। कुछ समय बाद बसंत के मुंह पर सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस समय एक अद्भुत घटना घटी। एक विौला सांप वहां आकर बसंत के मंुह को बचाने के निए अपना फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसी समय काशी के सुमेरू मठ के महंत दंडीस्वामी निगमानंद तीर्थ महाराज वहां से गुजर रहे थे। उनके निकट आते ही सांप भाग गया। उन्हांेने पाया कि बालक के शरीर पर राजलक्षण हैं। उन्हांेने उसी शाम बसंत को सिंहवाहिनी मंत्रा की दीक्षा दी और इसे संजीवित करने की प्रक्रिया बताई। 
  काल क्रम मंे कहा जाता है कि एक बार गौड़ साम्राज्य के बादशाह अलाउद्दीन ओड़िसा से वीरभूम जिला होते हुए अपनी राजधानी गौड़ लौट रहे थे। रास्ते मंे विश्राम के लिए बादशाह ने मयूरराक्षी नदी के किनारे अपना शाही पड़ाव डाला। नृत्य-संगीत एवं आमोद-प्रमोद में सात दिन बीत गए। अंतिम दिन बेगम का प्रिय पालतू बाज पक्षी पिजड़े से उड़ गया। बेगम उस बाज के वियोग को सहन नहीं कर सकीं और बीमार पड़ गईं। बेगम की हालत देखकर बादशाह ने घोश्ाणा की कि जो व्यक्ति उनके बाज को लौटा देगा, उसे यथोचित उपहार दिया जाएगा।
  प्रतिदिन की तरह उस दिन भी बसंत राय मवेशी चराने के लिए गया था। जब उसने अपने मित्रों से बादशाह की घोाणा सुना तो उसने भी अपने मित्रों की तरह बाज पकड़ने का फंदा पेड़ की शाखा पर डाल दिया और अपने मित्रों के साथ खेलकूद में जुट गया। विधि का विधान कहिए या भाग्य का चमत्कार-दोपहर के समय बादशाह का बाज बसंत राय द्वारा डाले गए फंदे मंे फंस गया।
घोशण में बाज की जो पहचान दी गई थी, इस बाज के पेट में वैसी ही टूटी हुई सोने की चेन थी। बसंत उसे जाल में लपेटकर घर ले आया।
  दंडी स्वामी निगमानंद महाराज उसी क्षेत्रा में रह रहे थे। जब राजा द्वारा की गई घोाणा की जानकारी दंडीस्वामी को हुई तो वे तत्क्षण समझ गए कि बसंत राय के भाग्य परिवर्तन का समय आ गया है। वे अपनी तीर्थ यात्रा स्थगित कर बसंत राय के घर पहुंचे। बाज पक्षी को देखकर उनके आनंद की सीमा नहीं रही। दूसरे ही दिन स्वामी अपने शिय के साथ शिविर पहुंचे और बादशाह को उनका खोया हुआ बाज पक्षी लौटा दिया। स्वामीजी ने बसंत राय की आर्थिक दुर्दशा का वर्णन करते हुए पुरस्कार स्वरूप बसंत राय के लिए थोड़ी सी जमीन मांगी। स्वामी जी के अनुरोध पर बादशाह ने बसंत राय को पर्याप्त निस्कर ’बिना करवाला‘ जमीन देने को राजी हो गए। कहा कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक घोड़े पर सवार होकर जितने क्षेत्रा का अतिक्रमण कर सकोगे, निस्कर राज्य के रूप में वह क्षेत्रा दे दिया जाएगा।
  वैसा ही हुआ। दूसरे दिन बसंत राय शाही घोड़े पर सवार होकर बीस मील के व्यास वाले एक भूति की परिक्रमा करने में सफल हुआ। बादशाह ने बसंत राय को अधिकार पत्रा लिख दिया। इसा तरह बसंत राय को बाज के बदले राज्य मिल गया। जिसे आज भी बाजबसंत के नाम से जाना जाता है।
  अब बसंत राय राजा बन गए थे। उन्हांेने सबसे पहले वीरभूम के मयूरेश्वर नामक स्थान में
अपनी राजधानी बनाई। बाद में राजा बसंत राय ने अपनी राजधानी मयूरेश्वर से स्ािानांतरित कर डमरा गांव ले गए जो राज्य के बीचोबीच स्थित था। ऐसा सुरक्षा एवं प्रशासिनक दृिट से किया गया था। इस समय भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों मंे बंटा था। यही कारण है कि 1649-1697 के मध्य राजनगर के राजा खाजा कमाल खां और ननकर राज्य के बीच भीाण युद्ध हुआ था, जिसमें ननकर राज्य को पराजय का मुंह देखना पड़ा तथा राजा को राजधानी छोड़का अन्यत्रा पलायन करना पड़ा। राजा कमाल खां से पराजित होने के बाद लभग 1680 मंे राजा बसंत राय के वंशज सपरिवार मालूटी चले आए। उस समय मालूटी का क्षेत्रा घनघोर जंगलों से आच्छादित था। जंगलों को काटकर साफ किया गया तथा ननकर राज्य की स्थापना की गई। राज परिवार के लोग स्थायी रूप से रहने लगे। कालांतर में चलकर राजा बसंत राय के वंशजों ने जागीरदारी को लेकर झंझट होने लगा। राजा बसंत राय के तीन भाई थे। तीनों भाई में बंटवारा हुआ। बड़े भाई को राजा की पदवी मिला और उसके जागीरदारी को राजारबाड़ी कहा गया। मझले भाई की जागीरदारी को सिकिरबाड़ी तथा छोटे भाई की जागीरदारी को छय तरफ कहा गया। कुछ दिन बाद बड़े भाई की जागीरदारी का भी विभाजन हुआ, जिसे मध्य बाड़ी कहा गया। इस प्रकार बसंत राय का परिवार चार परिवारों में बंट गया।   आंतरिक कलह एवं बाहरी आक्रमण के बीच राजा बसंत राय व उनके राजपरिवार के सदस्यों ने मालूटी गांव में अपने निवास के लिए राजमहल का निर्माण नहीं कर देवी-देवताओं के निवास के लिए 108 मंदिरों का निर्माण करवाया। इन मंदिरों का निर्माण लगातार 100 साल तक होते रहा। आगे चलकर वक्त के थपेड़ों और प्राकृतिक आपदाओं को झेलते 75-80 मंदिर ही बचे हैं इनमंे 54 मंदिर काफी बेहतर स्थिति मंे हैं। मंदिर राजपरिवारों की जागीरदारी के नाम पर हैं। जैसे राजारबाड़ी मंदिर समूह में कुल 20 मंदिर हैं। इनमें टोराकोेटा से युक्त शिव मंदिरों की संख्या 12, सादा शिव मंदिर 6, छतदार काली मंदिर एक व रास मंदिर एक। ये सभी मंदिर मालूटी गांव के उत्तरी-पश्चिमी भाग में स्थित हैं। दूसरे, मध्यम बाड़ी एवं सिकिर बाड़ी मंदिर समूह में कुल 28 मंदिर हैं, जो उत्तर-पूरब में स्थित हैं। इनमें टेराकोटो अलंकरण से युक्त शिव मंदिर सात, सादा शिव मंदिर 16 एवं छतदार मंदिर पांच। छय तरफ मंदिर समूह मंे कुल 16 मंदिर हैं। ये गांव के दक्षिण भाग में स्थित हैं। इनमें टेराकोटा अलंकर युक्त शिव मंदिर 10, सादा शिव मंदिर 1 व छतदार मंदिरांे की संख्या पांच है।
  इनके अलावा पांच मंदिर सड़क कि बगल में स्थित हैं। ये हैं-सादा काली मंदिर एक व सादा शिव मंदिर चार हैं। मालूटी गांव के दक्षिण पूर्वी कोण पर दो मंदिर हैं। एक मौलीक्षा मंदिर व दूसरा सादा शिव मंदिर।
  मंदिरों की नगरी मालूटी गांव में शिवपुरी काशी के समान शिव मंदिरों की संख्या सर्वाधिक है। मालूटी में जो मंदिर हैं, उनमें 58 शिव मंदिर हैं। शेा काली, दुर्गा, विणु, मौलीक्षा आदि के हैं इनके अलावा वामाखेपा, धर्मराज आदि के भी मंदिर हैं, जो आधुनिक हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन मंदिरों के निर्माण में किसी एक स्थापत्य का अनुसरण नहीं किया गया है। सभी शिव मंदिरों का निर्माण शिखर शैली में किया गया जो एक कक्षवाला ‘चार चाला कुटीर’ की आकृति मंे बनाई गई है। पर त्रिशूल के आकार में व्रजटणु गर्भगृह मंे शिवलिंग स्थापित एवं पूजित है। इन मंदिरों की न्यूनतम चाई लगभग 15 फीट व अधिकतम चाई लगभग 60 फीट है। अधिकांश मंदिरों के सम्मुख भाग पर तरह-तरक की नक्काशियां की गई हैं तथा मंदिरों के उपरी हिस्से प्रोटो-बंगला अक्षरों की सहायता से संस्कृत अथवा प्राकृत भासा में प्रतिठास्ता का नाम व स्थापना तिथि आदि अंकित है।   काली, दुर्गा, वामाखेपा तथा धर्मराज मंदिरों की शैली सामान्यतः समतल छत की है। ये मंदिर मंच शैली के आधार पर निर्मित हैं। इसे रासमंच कहा जाता है। यह मंदिर छतविहीन हैं तथा सभी दिशाओं से खुले हैं। गांव के दक्षिणी भाग में मां मौलीक्षा मंदिर के निर्माण में जिस प्रकार के स्थापत्य कला का सहारा लिया गया है, उसे बंगला शैली कहा जाता है। यह बंगाल की लोकप्रिय शैली है। बिहार-झारखंड में बंगला शैली में यह एकमात्रा मंदिर है। इसकी बनावट दो चाला कुटीर के समान है।
  मंदिरों में टेराकोटा का काम आकर्िात करने वाला है। टेराकोटा के विभिन्न चित्रांकनों, डिजाइनों, अलंकरणों एवं दृश्यों से युक्त मंदिर केवल स्ािापत्य की दृिट से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं वरन अनुपम एवं विलक्षण कला कौशल की दृिट से भी अद्वितीय हैं। मंदिर के अग्रभाग के मुख्य पैनल तथा पार्श्व पैनल में रामलीला एवं कृण लीला का दृश्य काफी प्रभावकारी ढंग से दिखाया गया है। राजा जनक द्वारा हल चलाने, राम, लक्ष्मण एवं सीता का वन गमन, मारीच बध, राम द्वारा शिकार करने का दृश्य, बालि बध, हनुमान द्वार सेतुबांध निर्माण, सिर पर पत्थरों को ढोने, राम-सुग्रीव आदि केवल स्वाभाविकता को ही प्रकट नहीं करते हैं वरन करुणा और मार्मिकता की भी सर्वोच्च संचाई को भी चित्रित करने में सफल हैं। वैसे ही कान्हा की लीला भी प्रदर्शित की गई है। यशोदा द्वारा दही मंथन, गोपियों का कान्हा द्वारा चीर हरण, बकासुर बध, गोपियों संग रासलीला, राधा संग कान्हा का बांसुरी वादन आदि देखकर मुग्ध हुआ जा सकता है। टेराकोटा से बने ये चित्रा वज्र लेह से दीवार पर चिपकाए गए हैं। हर मंदिर की भीतरी दीवारें पौराणिक इतिहास का आख्यान रचती हैं। महिसाासुरमर्दिनी से लेकर रावण बध तक की प्रस्तुति में एक सजीवता है। कलात्मकता है। टेराकोटा के इस अद्भुत काम को देखकर इस शैली की कलात्मक उंचाई का बोध होता है। ये मंदिर टेराकोटा मंदिरों के नाम से भी प्रचलित हैं।   
मौलीक्षा मंदिर
  मालूटी गांव तांत्रिकों का शक्तिपीठ भी है। इस गांव में मौलीक्षा देवी का मंदिर स्थित है। यह मध्यकाल में ही नहीं, बौैद्ध काल से ही एक तांत्रिक सिद्धि का एक बड़ा केंद्र रहा है। ननकर राज्य के राजा अपनी कुल देवी दुर्गा के रूप में मौलीक्षी देवी की पूजा-अर्चना करते थे। मंदिर का निर्माण सुनकर राजाओं ने 17वीं शताब्दी में किया गया है। यह मंदिर भी बंगला शैली में निर्मित है। इसकी बनावट दो चाला कुटीर के समान है। मंदिर के बाहरी भाग की लंबाई 15 फीट एवं चौड़ाई 12 फीट 6 इंच है। मंदिर का निर्माण लाहौरी ईंटों द्वारा सुरखी-चूना की सहायता से किया गया है। मंदिर का शीर्ा भाग शिखरनुमा है। यह एक उंचे चबूतरे पर स्थित है।
 मंदिर का गर्भगृह 8 फीट 5 इंच लंबा एवं 5 फीट 3 इंच चौड़ा है। गर्भगृह की दीवार सुरखी-चूने से प्लास्टर किया हुआ है। गर्भृह के अंदर उंची वेदी पर मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा का निर्माण लाल पत्थर से किया गया है। यह प्रतिमा पूर्ण नहीं, केवल मस्तक है। यहां भक्त केवल मां के मस्तक का ही दर्शन करते हैं। इसलिए  मां को मौलीक्षा कहकर पुकारते हैं। माली का अर्थ होता है मस्तक एवं इक्षा का दर्शन। यानी मौलीक्षा का अर्थ हुआ मस्तक का दर्शन। मौलीक्षा देवी की आंख चांदी से बना हुआ है। मौलीक्षा देवी की प्रतिमा के दाहिने थोड़ा हटकर भैरव की प्रतिमा है जो बलुआही पत्थर से निर्मित है। मां काली का जीभ बाहर निकला हुआ है। मौलीक्षा देवी के आगे शिवलिंग है जो काले पत्थर से बना है।

 मौलीक्षा देवी इस क्षेत्रा का एक महान शक्तिपीठ है। यहां विभिन्न धर्र्माे के मतावलंबी अपने मतानुसार साधना कर सिद्धि प्राप्त करते हैं। कहा जाता है कि मौलीक्षा मां की स्वीकृति के बगैर तारापीठ में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। तारापीठ मौलीक्षा मंदिर से 15 किमी दूर बंगाल के वीरभूम जिले में स्थित है। कहा जाता है कि बाकाखोपा, जो तारापीठ के निकट आटला गांव का निवासी थे, दो साल तक मां मौलीक्षा की साधना की। इसके बाद एक मौलीक्षा मां का साक्षात दर्शन हुआ, तब उन्हें तारापीठ में जाकर सिद्धि प्राप्त हुई।
  इनके अलावा मालूटी गांव में कुछ छतदार मंदिर भी हैं जो बाद के काल में बनाए गए हैं। इन मंदिरों का निर्माण ईंटों से किया गया है तथा गोरे के रूप में सुरखी-चूना का प्रयोग किया गया है। मंदिर का शीर्ा भाग शिखरनुमा न होकर छतदार है। दुर्गा मंदिर के सम्मुख भाग में मनुयों की कुछ मूर्तियां, दोनों किनारे पर एक शेर तथा परियों का अंकन अंग्रेजी संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है। खैर, मालूटी गांव के मंदिरों के संरक्षण को लेकर झारखंड की सरकार गंभीर हुई है। इन ऐतिहासिक मंदिरों की सुरक्षा जरूरी है।