ताड़ीघाट स्टेशन पर भूखे-प्यासे विवेकानंद


जब विवेकानंद गाजीपुर से गंगा के उस पार स्थित ताड़ीघाट स्टेशन पर उतरे, तब तक दोपहर बीत चुकी थी। स्टेशन के चौकीदार ने स्वामीजी को प्लेटफार्म के ऊपर बने शेड की छांव में नहीं बैठने दिया। विवश होकर वे विश्रामागार के बाहर ही जमीन पर अपना कंबल बिछाकर एक खंभे के सहारे बैठ गए। स्वामीजी ने सुबह से कुछ खाया नहीं था। उनके बिल्कुल सामने शेड के नीचे एक बनिया बड़े आराम से अपनी दरी पर बैठा था और थके-मांदे स्वामीजी को तरह-तरह से चिढ़ाने की चेष्टा कर रहा था। उसने कहा, 'अरे, देखो, पैसे में कितनी शक्ति है। तुम तो पैसा-कौड़ी रखते नहीं और उसका फल भी भोग रहे हो। परंतु मैं रुपये पैसे कमाता हूं और मेरी मौज मस्ती देख लो।Ó यह कहकर वह अपने साथ लाए खाद्य पदार्थों को खोलकर खाने लगा तथा स्वामीजी को वह सब दिखा-दिखाकर कहने लगा-'ये सारी पूडिय़ां, पेड़े, मिठाइयां क्या बिना पैसे के मिल सकती हैं?Ó
स्वामीजी सब कुछ चुपचाप सहे जा रहे थे। तभी अचानक वहां एक अन्य व्यक्ति आ पहुंच। उसके दाएं हाथ में एक गठरी तथा एक लोटा और बाएं हाथ में एक सुराही जल तथा एक दरी थी। प्लेटफार्म पर चारों ओर कई चक्कर लगाने के बाद वह स्वामीजी के पास आकर बोला-'बाबाजी, आप धूप में क्यों बैठे हैं? छांव में चलें। मैं आपके लिए कुछ भोजन-पानी लेकर आया हूं, कृपया ग्रहण करें।Ó
स्वामीजी सहसा विश्वास नहीं कर सके। आए हुए व्यक्ति द्वारा बारंबार भोजन के लिए अनुरोध करने पर स्वामीजी ने कहा-'भाई, मुझे ऐसा लगता है कि तुम भूल कर रहे हो। शायद किसी दूसरे को देने के लिए आए थे और गलती से मेरे पास चले आए हो।Ó इसके बाद भी उस व्यक्ति ने कहा, 'नहीं, नहीं, आप ही तो वे बाबाजी हैं, जिन्हें मैंने देखा था।Ó स्वामीजी ने उत्सकुतावश पूछा-'इसका मतलब? तुमने मुझे कब देखा?Ó
तब उसने सारा वाकया स्पष्ट करते हुए कहा-'देखिए, मैं एक हलवाई हूं। मेरी मिठाइयों आदि की दुकान है। दोपहर को भोजन के बाद मैं लेटकर विश्राम कर रहा था, उसी समय समने में देखा कि रामजी आकर मुझसे कह रहे हैं-मेरा एक साधु स्टेशन पर भूखा-प्यासा पड़ा हुआ दुख भोग रहा है। सुबह से ही उसने कुछ खाया-पीया नहीं है। तू तुरंत जाकर उसकी सेवा कर।Ó मैंने इसे अपने मन का भ्रम समझा और करवट बदलकर फिर सो गया। परंतु श्रीरामजी कृपा करके पुन: आए और मुझे धक्का देकर उठा दिया। फिर उन्होंने जैसा पहले कहा था, वही करने का आदेश दिया। तब मैं बिस्तर छोड़कर उठा और तंबाकू लेकर मैं यथाशीघ्र स्टेशन आ गया।
स्वामीजी ने फिर जानना चाहा, 'तुमने यह कैसे जाना कि वह साधु मैं ही हूं?Ó हलवाई बोला, 'पहले मुझे भी संदेह हुआ था, इसीलिए यहां आते ही मैंने एक बार चारों ओर घूमकर देख लिया, किंतु अन्य किसी साधु को न देखकर समझ गया कि वह साधु आपके सिवा कोई अन्य नहीं हो सकता।Ó इसके बाद उसने स्वामीजी को छाया में बैठाकर खाना खिलाया। भोजन के बाद हाथ पर पानी डालकर धुला दिया और धूम्रपान के लिए चिलम भर दी। स्वामीजी द्वारा धन्यवाद दिए जाने पर उसने कहा-'नहीं, नहीं, स्वामीजी, मुझे धन्यवाद मत दीजिए, यह बस रामजी की लीला है।Ó