तेलंगा खडिय़ा के वंशजों की कौन सुध लेगा

झारखंड में शहीदों के प्रति वह सम्मान नहीं दिखता, जो दूसरे प्रदेशों में दिखता है। देश-समाज के लिए शहीद हुए वीर पुरुष यहां आदिवासी बनाम गैरआदिवासी में बंटे हुए हैं। किस-किस शहीद को याद करना है, किनकी स्मृति में सभा-गोष्ठी करनी है, यह सब कुछ हम अपने पूर्वाग्रह के हिसाब से तय करते हैं। इसलिए, झारखंड के बहुत से नायकों के जीवन के बारे में मुकम्मल व प्रामाणिक जानकारी नहीं मिल पाती। इस राज्य को बने भी अब दो दशक हो गए, लेकिन जो सरकारें यहां आती-जाती रहीं, उनकी चिंता में भी कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं रहा। बहुत हुआ तो बेढंग की प्रतिमा लगवा दी और शहीद के गांव को आदर्श गांव का दर्जा दे दिया, लेकिन इसके बाद गांव की सुधि कोई लेता नहीं। शहीद के वंशज हैं तो उन्हें भी घोषणाओं की लड़ी थमा देना है। बस।   
रविवार को हमने अमर शहीद तेलंगा खडिय़ा का 215 वां जन्मदिन मनाया, लेकिन गुमला जिले के सिसई प्रखंड का मुरगू गांव आज भी उपेक्षित व बदहाल है। इसी गांव में 215  साल पहले तेलंगा खडिय़ा का जन्म हुआ था। 9 फरवरी 1806 को जन्म हुआ था। पिता का नाम ठुइंया खडिय़ा व माता का नाम पेटी खडिय़ा था। पत्नी का नाम रतनी खडिय़ा, दादा का नाम  सीरु खडिय़ा व दादी का नाम  बुची खडिय़ा। सुदूर गांव के इस नायक ने अंग्रेजों से लोहा लिया था, तब जब कोई साधन नहीं रहा होगा। जब आज भी गांव उपेक्षित है तो दो सौ साल पहले साधनों का क्या हाल रहा होगा, इसकी कल्पना कर सकते हैं।
पर, दुख इस बात का है कि जिसने एक सुंदर भारत का स्वप्न देख शहीदी को गले लगाया, उसके वंशज आज दर-बदर हो रहे हैं। तेलंगा खडिय़ा के परिवार और उनके वंशजों को आज भी सरकार की ओर से कोई सुविधा या काम उपलब्ध नहीं हो सका। हमारी सरकार को भी पता होना चाहिए कि तेलंगा खडिय़ा के शहीद होने के बाद अंग्रेजी हुकूमत में स्थानीय जमींदारों की मदद से खडिय़ा परिवार को मुर्गू गांव से खदेड़ दिया गया था। उनकी जमीन भी हड़प ली गई। घर को बर्बाद कर दिया गया। अब मुर्गू गांव में शहीद तेलंगा खडिय़ा की एक प्रतिमा है, जहां जयंती व पुण्यतिथि पर दो फूल लोग चढ़ा आते हैं। उनके वंशज सिसई प्रखंड के पहाड़ और जंगल से घीरे गांव घाघरा में जाकर  रहते हैं। गांव में जाने के लिए सड़क की स्वीकृति मिले सालों हो गए, लेकिन सड़क नहीं बन पाई। तेलंगा खडिय़ा के वंशज सोमरा पहान कहते हैं कि बड़ा विचित्र हाल है। उन लोगों का हाल देखने सुनने और जानने के लिए न कोई अधिकारी आता है और न ही कोई विधायक सांसद ही। सबके सब शहीद तेलंगा खडिय़ा का गुणगान करते हैं कभी मन हुआ तो धोती चादर ओढ़ाकर सम्मान करते हैं, इससे आगे कुछ नहीं। तेलंगा खडिय़ा के वंशज जरगो पाहन, सुमेश खडिय़ाइन, चामा खडिय़ा, सुका खडिय़ा, प्रधान खडिय़ा, सोहरी खडिय़ा, गंगा खडिय़ा, बिरसा खडिय़ा, शनिचरवा खडिय़ा, वासु खडिय़ा, मोना खडिय़ा, करमचंद खडिय़ा, मांगू खडिय़ा, तेवस खडिय़ा, घासी खडिय़ा, संतोष खडिय़ा,जोगिया खडिय़ा, बिनू खडिय़ा, संजु खडिय़ा की कोई खोज-खबर भी नहीं लेता।
तेलंगा ने गुरिल्ला लड़ाई लड़ी थी। कुम्हारी से गिरफ्तार हुए थे अबौर लोहरदगा में मुकदमा चला था। 14 साल की सजा हुई। सजा काटकर आए तो उनके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गए। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों के बंगले कांप उठे। जोड़ी पंचैत फिर से जिन्दा हो उठा और गुरिल्ला युद्ध प्रशिक्षणों का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपटें फैल गईं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर कोई उस विद्रोह के लिए उठ खड़ा हुआ। तेलंगा जमींदारों और सरकार के लिए एक भूखा बूढ़ा शेर बन चुके थे। दुश्मन के पास एक ही रास्ता था- तेलंगा को मार गिराया जाए। 23 अप्रैल 1880 को तेलंगा समेत कई प्रमुख विद्रोहियों को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया। तेलंगा गरजा-हिम्मत है तो सामने आकर लड़ो। कहते हैं तेलंगा की उस दहाड़ से इलाका थर्रा गया था। युद्ध कौशल से प्रशिक्षित विद्रोहियों से सीधी टक्कर लेने की हिम्मत दुश्मन में नहीं थी। सिपाही बेधन सिंह ने झाडिय़ों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी। बेहोश तेलंगा के पास आने की भी हिम्मत दुश्मनों में नहीं थी। मौके का फायदा उठाकर विद्रोही तेलंगा को ले जंगल में गायब हो गए। तेलंगा फिर कभी नजर नहीं आए। कहते हैं कि वह तारीख 23 अप्रैल 1880 थी। उन्हें गुमला के चंदाली में दफनाया गया। खडिय़ा लोकगीतों में आज भी तेलंगा जीवित हैं।