प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंची संजय कच्छप के मन की बात


माता-पिता बहुत गरीब थे। मजदूरी करते थे। मजदूरी करते हुए वे किसी तरह हमें पढ़ा पाते थे। आसपास भी गरीबी पसरी हुई थी। शिक्षा के प्रति हमारा समाज उदासीन था। सामाजिक कुरीतियां पीछा नहीं छोड़ रही थीं। हमारे समाज में हड़िया-दारू पीना जैसे संस्कार हो। पर, मन में शिक्षा की ललक थी। आठवीं-नौंवी-दसवीं तक काफी परिश्रम कर अपनी पढ़ाई की। 1996 में दसवीं के बाद बच्चों को ट्यूशन कर आगे की पढ़ाई की। इनमें भी गरीब बच्चों से कोई शुल्क नहीं लेते था। उस समय महंगी और जरूरी किताबों के साथ मार्गदर्शन की कमी महसूस कर रहे थे। 

 ये संजय कच्छप के बचपन का संघर्ष है। मन की बात में रविवार को देश के प्रधानमंत्री ने नरेन्द्र मोदी ने संजय कच्छप के काम को सराहा। पीएम ने कहा, संजय कच्छपजी गरीब बच्चों के सपनों को नई उड़ाने दे रहे हैं। संजय इस समय दुमका में कृषि विपणन में सचिव पद पर कार्यरत हैं। दैनिक जागरण से विशेष बातचीत में कहा कि शिक्षा से ही हम अपने समाज में बदलाव ला सकते हैं। शिक्षा के लिए जरूरी है किताबें। बचपन में हमने इस कमी को झेला था। पढ़ाई के दौरान ही यह प्रण लिया था कि हम समाज के लिए भी कुछ करेंगे। अपनी योजना में अपने दोस्तों को शामिल किया। इसकी शुरुआत गांधी जयंती के दिन हुई। दो अक्टूबर 2008 में पुलहातू, बड़ीबाजार, चाईबासा के सामुदायिक भवन में छोटे स्तर पर इसकी शुरुआत हुई। यहां पुस्तकालय खोलने के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद ऐसे लोगों को बात भी समझ में आ गई जब इनके परिवार के बच्चे यहां आने लगे। संजय बताते हैं, मेरे घर में मात्र दो कुर्सी थी। कुछ मेरी किताबें थीं। इसी से शुरू किया। जब कुर्सी ले जा रहा था तब मां बोली-मेहमान आएंगे तो कहां बैठाओगे? बहुत बड़ा हरिचंदर बना है? पर, मां आज मां बहुत खुश है। संजय ने मां से कहा, आज प्रधानमंत्री ने मेरे नाम-काम का जिक्र किया है तो मां बहुत खुशी से बोली-और अच्छा काम करो। दूसरों के जीवन में उजियारा लाओ।

मई 1980 में जन्मे झारखंड में लाइब्रेरी मैन से प्रसिद्ध संजय कच्छप ने 2004 से 2008 तक रेलवे में नौकरी की। 2008 में ही जेपीएससी से चयन के बाद विपणन विभाग में आ गया। तब से पुस्तकालय खोलने और बच्चों को पुस्तकें उपलब्ध कराने का काम जारी है। अब तक 12 डिजिटल लाइब्रेरी, 18 से ऊपर पुस्तकालयों में इंटरनेट व कंप्यूटर की सुविधा है और 24 से अधिक पुस्तकालय हैं। हमने इसे आंदोलन का रूप दिया। अपने मित्रों का सहयोग लिया। नक्सल प्रभावित इलाकों मुसाबनी, चक्रधरपुर, मनोहरपुर आदि सुदूर इलाकों में पुस्तकालय चल रहे हैं। पचास से अधिक बच्चे अधिकारी बन गए हैं। इससे बड़ा सुख क्या हो सकता है? 

42 वर्षीय संजय बताते हैं, अभी चार महीने पहले दुमका आया हूं। यहां आदिम जनजाति हास्टल में पुस्तकालय खोला। अपने गैराज को साफ-सुथरा कर रात्रि पाठशाला शुरू कर दिया है। यहां दो लोग सहयोग कर रहे हैं। जिला प्रशासन के सहयोग से अन्य आदिवासी छात्रावासों में भी पुस्तकालय खोलने का काम चल रहा है। 

 करीब ढाई हजार से ऊपर बच्चे पुस्तकालय से जुड़े हुए हैं। पूरे कोल्हान में करीब पांच हजार बच्चे पुस्तकालय से लाभान्वित हो रहे हैं। जिन गरीब आदिवासी बच्चों के पास स्मार्टफोन है, वे हमसे आनलाइन प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बारे में जानकारी लेते हैं। छोटे-छोटे प्रयास से ही हम यहां तक पहुंचे हैं। हमें खुशी होती है जहां हमार बचपन गुजरा, वहां गरीबी और स्लम जैसी स्थिति थी। वहां के बच्चे पढ़कर अपना मकान पक्का कर लिए हैं। इसमें पीएम आवास का भी योगदान हैं। पर, अब उनका परिश्रम और काम भी दिखता है। संजय अपने इस जुनून के लिए अपनी छुट्टियों को भी कुर्बान कर देते हैं।

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