बनारस में घुमन्तू वासी प्रवासी

 डॉ शुकदेव सिंह

यात्रियों, पर्यटकों के अलावा बनारस में कई हजार साल से रहन्तू औ घुमन्तू लोग आते रहे हैं। रहन्तु लोग गुजरात, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उड़ीसा, बंगाल, नेपाल, तमाम जगहों से आये और गंगा के किनारे और किनारे ही किनारे रच बस गये। सोनारपुरा, नागरटोला, बंगाली टोला और त


माम गलियों में बसे हुए स्थायी निवासी खान-पान और रहन-सहन के साथ आये। घाट, मंदिर, धर्मशालाएँ, स्कूल, पाठशालाएँ, मदरसे उनकी स्मृतियों से जुड़े हुए हैं। लेकिन काशी के परिसर के बाहर बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह अर्थात् डीह, आराम ऐसे वासियों से भरे जो यहाँ के रहने वाले होकर भी घुमन्तू हैं। वज्रयान, सहजयान, महायान और सनातन धर्मयान के दबाव में उनकी मूलजीविका घूमना, माँगना, खाना से जुड़ गयी। नट, मदारी, सँपेरे, बहुरूपिया, बहेलिया, हिजड़े इसी तरह के घुमन्तू हैं। इनका घर भी है फिर बेघर हैं फिरकी, मौर, मुकुट, बाँसुरी, सारंगी, एकतारा बनाने बजाने वाले ये घुमन्तू बिना जर जमीन के 'माँग के खइबो मसीत को सोइबो' की हीं तुलसी जिन्दगानी जीते हैं। हिंदुओं की खुशी के लिए गाने-बजाने वाले, सजाने और हंसाने वाले ये लोग साँप, बंदर, भालू, कौड़ी से सजे हुए भविष्यवाणी बैल, कभी मोरपंख लेकर घर घर घूमकर दूसरों की किस्मत बनाते हैं और अपनी किस्मत के लिए पीर, मुर्शिद, फक्कड़ कई तरह का बाना धारण करते हैं। इनकी आबादी घट रही है। पेशे बदल रहे हैं, लेकिन सँपेरे और अल्हइत, जादूगर, भालू-बन्दर से मन मथने वाले ये लोग इस दहशत में हैं कि जायें तो जायें कहाँ ?

यह स्थिति क्यों है? इसलिए कि ये मूलतः बौद्ध थे। वज्रयान के प्रभाव में तंत्र, मंत्र, जादू टोना और खतरे उठाकर जीवन जीना इनकी कला बन गया। लोग इनसे डरने लगे, इनसे घृणा करने लगे। बौद्धों के विरोधकाल अर्थात् ईसा से दो सौ वर्ष पहले और ईसा की दसवीं शताब्दी तक प्रायः बारह सौ वर्षों में इनकी जिंदगी 'मारो' 'मारो', 'भागो भागो' की जिन्दगी हो गयी। वर्णाश्रम व्यवस्था में इनकी कोई जगह ही नहीं थी। अधिकांश ने धर्म परिवर्तन कर लिया लेकिन पाँच नमाज, महीने भर का रोजा उनकी रोजी-रोटी के लिए आफत ही था। ये दोनों दीन-धर्मों के बीच न हिन्दू, न मुसलमान, न घर, न बाहर की जिन्दगी जीने लगे। इनके जातीय विश्वास, विवाह, पुनर्विवाह, अपराध, दण्ड और मरण संस्कार के नियम अलग और थलग थे। इनमें कई जातियाँ जो अधम हिंदू का जीवन जीती हैं उनके मुर्दे भी न मसान जाते हैं न गंगा में प्रवाहित किये जाते हैं। उन्हें समाधि दी जाती है। मडुवाडीह की रेल लाइन के उस पार वाली पटरी में गोसाइयों की बस्ती थी जिस बस्ती का काशी गोसाईं निर्गुणियाँ था वह बताता था कि हमारे जवान कोई भी काम करते हैं। चोरी, छिनालपन, पुराने कपड़े लेकर बर्तन देना लेकिन यदि उमर उतार पर आने लगे तो हर घर एक जोगिया चोला होता है जिसे पहनकर ये मँगता गोसाईं के रूप में एकतारा, रवाब या कभी कभी करताल लेकर निर्गुण गाते हैं, माँगते हैं। काशी गोसाई ने सेण्डियॉगो के संगीत प्रोफेसर के लिए बीस निर्गुन गाये थे जिसके अमेरिका से एल. पी. रेकॅर्ड बने थे। उसने ही बताया कि जरूरत पड़ने पर वे अपने को दलित या ब्राह्मण कुछ भी कह लेते हैं। इन्हीं गोसाईयों से जुड़े हुए साईं और पँवरिया मुसलमान होते हैं जिनका उस्ताद नसिरुल्ला मडुवाडीह में पँवारा पढ़ते हुए राजा पुरुषोत्तम अर्थात् राम के कथा गीत गाता था। एक खजड़ी और एक किंगरी (छोटी सारंगी) की सहायता से कथा शैली में गाने वाले ये पँवरिया कुशीलव अर्थात् लवकुश संस्कार से जुड़े हुए थे। अब उनके वंश में जो हैं, वे हैं, लेकिन पेशा नहीं है। ये रैदास के गांव मंडेसर ताल और कुतुबशाह तैयब के मजार से जुड़े हुए हैं।

बजरडीहा, लखरॉव, मडुवाडीह के मजार, बगीचे, ताल, पोखर, रावलजोगियों, पतियों, ढोलकिया, असला कहार, सिकलीगर, कोरी, रैगर, बाजीगर, नचनी जातियों के भी अड्डे हैं। तैयब के मज़ार पर अब भी गोपीचंद भरथरी, रामावतारी, कृष्णावतारी, कबीर, बुल्लेशाह के निर्गुन गाने वाले रावलजोगी अशरफ के गीत भी गाते हैं। ये सब गुरु गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में हैं। जौनपुर बस्ती, लम्हुवां, सुल्तानपुर, जखनियाँ, जमानियाँ समस्तीपुर, सीवान, अर्थात् बिहार से लेकर गोरखपुर देवरिया और कई पहाड़ी इलाकों से जुड़े हुए रावलजोगी घुरू के साथ मध्यम आकार की सारंगी लेकर अलख जगाते हैं। इनके दो नाम और दो धर्म होते हैं। जीवनलाल जैनुल, नरसिंह- नसीर, हबीबुल्ला बुलाकीराम या रजई, मिठाई, चौथी, खटूटू ऐसे नाम होते हैं जिनसे धर्म स्पष्ट न हो सके। ये शत प्रतिशत मुसलमान होते हैं। अपनी एक महीने की आरंभिक भैरवी गाने के बाद कांसा, पीतल, पुराने कपड़े दक्षिणा के रूप में लेते हैं और राजघाट अजगैबशहीद के मजार पर बेंचकर चुनार भर्तरी की समाधि पर शिव की पूजा करने के बाद गोरखपुर गोरखमठ के जोगी को गुरु फीस देते हैं। धर्म से मुसलमान और विश्वहिंदू परिषद् के सांसद महंत के शिष्य पूछने पर पूछते हैं शिव जी हिंदू थे या मुसलमान ?

ढोलकिया बाराबंकी से लेकर देश के कई हिस्सों से आकर कुतुबशाह के मजार के आस पास बसते रहते हैं। ढोलक पर नाल चढ़ाना उसे नाथना नाँधना रंग और पॉलिश का काम यहीं होता है। एक फीट से लेकर पूरे साइज की ढोलक बनाने बेंचने वाले ढोलकिया का एक सरदार महबूब हसन कहता है कि ढोलक हमारे किसी पर्व, त्यौहार, शादी विवाह या परोजन में हमारे घर नहीं बजती। आमतौर से मुसलमान के घर भी नहीं बजती। पुरुष ढोलक बेचते हैं औरतें टिकुली, बिन्दी, बउँखा, लहटी। इन्हीं से थोड़ी अलग एक और जाति है जिनके मरद दिन में सोते हैं, रात में जागते हैं। औरतें गोंदना गोदती हैं, सोहर गाती हैं। घरों के बारे में अंदाज लगाकर अपने मरदों को बताती हैं, जो रात में चोरी, डकैती करते हैं। इनकी एक जाति बावरिया है जिनकी औरतें सिकहर या कोई घरेलू सामान बेचती हैं। पुरुष परंपरा से देवी उपासक हैं। हत्या, हिंसा पेशा है। लेकिन वे न लोहे का कोई हथियार चलाते हैं, न बन्दूक, पिस्तौल । उनका हथियार कुन्द लकड़ी शायद बबूल की लकड़ी से बना हुआ लबेदा होता है। वे उसी से हिंसक लूट-पाट करते हैं। उनमें कुछ को आजकल कच्छावनियान वाला 'वावरिया’ कहा जाता है। ये नारी सूफी बावरी साहिबा से जुड़े कहे जाते हैं। असला कहार मूर्तियाँ बनाते हैं। प्लास्टर आफ पेरिस या मिट्टी से बने हुए इनके बर्तन भांडे और मूरतें सड़क पर तम्बू कनात लगाकर बनती हैं। वे घूम घूमकर कौड़ी के मोल, पानी के भाव बेचते हैं। बनारस में ये महमूरगंज, मडुवाडीह के आस पास ही रहते हैं। ये भी मुसलमान हैं जैसे अश्क की कहानी का 'काँकड़ा का तेली' कुम्हार भी है, तेली भी है, मुसलमान भी है।

 कबीर, रैदास इसी बजरडीहा, लखरॉव, पहड़िया, मडुवाडीह, लहरतारा की विहंगम जातियों के बीच श्रमजीवी दस्तकारों के परिवार से आये थे। उनकी जाति रही होगी धर्म भी रहा होगा लेकिन जोगी, जती, नट, लोना, बैद, बक्को, पवरियाँ, नचनी, कथिक, साई, गोसाईं के गाने बजाने, चमड़े और तार वाद्यों, करघों, रंगाई, बुनाई और गीत-संगीत से खाने जीने वालों के बीच रहने के कारण 'जाति भी ओछी, जनम भी ओछा, ओछाकसब हमारा' कहते हुए ये कवि, गीतकार खसम की खोज में अनहद - बाजा सुनने लायक हुए। अब इस घुनन्तू समाज के पास न अपना घर है, न घर के बाहर को दुनियाँ। ये दलितों में भी दलित हैं। इन पर कोई आरक्षण भी लागू नहीं होता क्योंकि न इनकी कोई जाति है न इनका कोई समर्थित धरम । मनुष्यता की विरादरी के जब दिन लौटेंगे तब  इनकी रातों में भी चाँद उगेगा। ●

साभार: नागरी पत्रिका, 14 जून 2005



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