कुआं लाशों से भर गया था, चारों तरफ खौफ का माहौल था


बालकराम मिढा की उम्र 97 को छू रही है। स्मृति अभी ताजा है, पर सुनने में थोड़ी कठिनाई होती है। पाकिस्तान के बहावलपुर इस्टेट से भारत आने के सफर की कहानी रोंगटे खड़ी कर देती है। अचानक बसी-बसाई गृहस्थी उजड़ गई। आजादी का जश्न मातम में बदल गया था।

 बालक राम उस भयानक दौर को याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर बात आगे बढ़ाते हैं, आजादी से पहले शादी हुई थी। बंटवारे का दंश लेकर रांची आए। पिता के साथ यहां आए। उम्र थी बीस साल। सब कुछ ठीक चल रहा था। लंबे संघर्ष के बाद देश ने आजादी में सांस ली, लेकिन क्या पता था, इस आजादी से हजारों की सांसें असमय थम जाएंगी? आजादी का सपना था। पूरा हुआ। इसकी चारों तरफ खुशी थी। लेकिन चारों तरफ यह भी शोर था कि एक नया देश जन्म लेगा। भारत आजाद तो होगा, पर उसके दो हिस्से हो जाएंगे। बहावलपुर में बंटवारे को लेकर चारों तरफ वातावरण में एक डर और खौफ तारी था। 

बालक राम कुछ सोचते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं, अचानक एक दिन फरमान आया, गांव छोड़ दो। हमें मोहलत दी गई, लेकिन मोहलत से दो दिन पहले गुरुद्वारे में शरण लिए लोगों पर हमला कर दिया गया। बहुत से लोग मारे गए। चारों तरफ लाशें। एक कुआं तो लाशों से पट गया था। डर, भय, आशंका...पता नहीं, जीवन बचेगा कि नहीं। गिद्ध आसमान में मंडरा रहे थे। एक अनहोनी, एक आशंका दिलो दिमाग में बैठ गई थी। न रात को नींद दिन में चैन। सिर्फ बेचैनी। पर अंग्रेज आर्मी अफसर ने किसी तरह बचाया। गांव के पास वाले शहर में तैनात थे अंग्रेज अफसर मून। उस अंग्रेज अफसर ने वहां के मुसलमानों को हिंदुओं की गिनती कर संख्या बता दी और उन्हें धमकाया कि इनमें से अगर एक भी हिंदू घटा तो आप लोगों के लिए अच्छा नहीं होगा। उसकी धमकी का असर दिखा। सभी शरणार्थी वहां दो रात तक सुरक्षित रहे। उसने लोगों को निकालना शुरू किया। जो भी साधन संभव था। किसी तरह पाकिस्तान के बार्डर पर स्थित हिंदूमल कोट स्टेशन आए तो सांस में सांस आई। हम सब भारत आ गए थे। यहां से राजस्थान के गीदड़वाह स्टेशन पहुंचे फिर वहां से कुछ लोग रांची रोड स्टेशन होते हुए रांची पहुंच गए। हिंदूमल पहुंचे तो बस, शरीर था, सांसें थीं और कुछ नहीं था और थीं पीछे छोड़ आए अपना गांव-घर। हिंदूमल से यहां से हरियाण के भिवानी आए। यहां एक मोहल्ले में चार महीने रहे। किसी तरह मजदूरी की। इसके बाद रोहतक में रहे। वहां भी ईंटा-बालू ढोने का काम किया। 

अंतत: फिर रांची आए। रांची आकर क्लब रोड स्थित खजुरिया तालाब के पास भारत सरकार द्वारा लगाए गए शरणार्थी शिविर में आश्रय लिया। यहीं पर बहावलपुर से आए लोग शरण लिए थे। यहां रहकर मजदूरी की। दूध बेचा। इस बीच मेरी पत्नी का निधन हो गया। एक बेटी थी। फिर दूसरी शादी रांची में ही हुई। तीन बेटे-तीन बेटियां हैं। पत्नी का निधन भी 2008 में हो गया। भरा-पूरा परिवार है। बेटे सब काम करते हैं। अपनी किस्मत अपनी मेहनत से अपनी तकदीर लिखी। बंटवारे में इतना जख्म दिया है कि उसे याद करते ही दुख हरा हो जाता है। बालम राम अकेले नहीं हैं। उनके आगे-पीछे करीब ढाई सौ लोग रांची आए और यहां बस गए। रांची की आर्थिक उन्नति में इनका अहम योगदान है। रातू रोड में एक कालोनी ही बस गई। शहर के बीच में रिफ्यूजी मार्केट है, जिसे अब शास्त्री मार्केट कहा जाता है।

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