पंद्रह पंक्तियों की कथा पर लिख डाला उपन्यास

 
संजय कृष्ण, रांची
दशमफॉल और उसके आस-पास के जंगलों में छैला संदु की कहानी आज भी विचरती है। छैला संदु नाम का कोई प्रेमी था या नहीं। या फिर यह मिथक है? यह सब किसी को पता नहीं। पर, सैकड़ों सालों से लोग इस कथा को सुनते आ रहे हैं। कहानी भी बहुत लंबी नहीं।
खंूटी के कथाकार मंगल सिंह मुंडा जब इस मिथक को पकड़ सच की तलाश में निकले तो बूढ़े-बजुर्गों ने महज 15 पंक्तियों की कथा सुनाई। पहले तो अचरज से पूछा, कहां से आए हो, क्या काम है, क्यों सुनना चाहते हो? जब मुंडा ने बात बताई और कहा कि हम आपके ही बच्चे हैं। मुंडा हैं, तब लोगों ने विश्वास किया। एक सप्ताह तक जंगलों की खाक छानने के बाद मंगल सिंह ने इस कथा को आगे बढ़ाने की सोची। इसके बाद इस उपन्यास को पूरा किया। छैला संदु के बहाने आदिवासी जीवन के संघर्ष, उनके शोषण और संस्कृति को भी पिरोने का काम किया। पूरा हो गया तो छपाई की समस्या। मंगल कहते हैं, उस समय (1996) कोलकाता में नौकरी करता था। वहां पुस्तक मेला लगा था। मेले में राजकमल प्रकाशन का स्टाल था और उसके मालिक अशोक माहेश्वरी आए थे। उनसे किसी तरह बात हुई। पांडुलिपि को भेजने के लिए कहा। दिल्ली भेज दिया। उन्होंने तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई आदिवासी लिख भी सकता है। उन्होंने रांची के एक पत्रकार को पांडुलिपि पढऩे के लिए भेजी। यहां से ओके होने के बाद फिर छपने की प्रक्रिया शुरू हुई। 2004 में पुस्तक छपकर आ गई और लोगों ने इसका खूब स्वागत किया। हर साल पुस्तक की रायल्टी मिलती है।
1945 में खूंटी के रंगरोंग गांव में जन्मे मंगल सिंह मुंडा ने काफी संघर्ष किया है। पिता राम मुंडा कवि और शिक्षक थे। समाज सुधारक भी थे। पर मां-बाप का प्यार नसीब नहीं हो सका। बचपन में ही मां-बाप चल बसे। चाचा ने पढ़ाया। एसएस हाई स्कूल खंूटी से पढ़ाई की। इसके बाद नदिया हायर सेकेंडरी स्कूल, लोहरदगा से मैट्रिक किया। चाइबासा के टाटा कालेज में प्रवेश लिया और पढ़ाई शुरू की। तभी रेलवे में नौकरी लग गई। पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने लगा। पढऩे की फिर ललक उठी। इसके बाद पत्राचार से बीए किया। छात्र जीवन से ही लिखना शुरू कर दिया था। नौकरी के समय भी लिखता। कलकत्ते में डा. श्रीनिवास शर्मा थे। वे पत्रिका निकालते थे। उन्होंने लिखने की प्रेरणा दी। खूब प्रोत्साहित किया। इसके बाद तो लिखने लगा। पहली रचना वैसे रांची से निकलने वाली पत्रिका आदिवासी में 1982 में छपी। इसके बाद शुभ तारिका अंबाला में भी रचना छपी। पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपने लगीं।
महुआ का फूल कहानी संग्रह दिल्ली से छपकर 1998 में आया। इसके बाद रांची झरोखा से 'कामिनालाÓ  मुंडारी-हिंदी में आया। कामिनाला का मतलब होता है काम की खोज। झरोखा से ही दुरंग को कोरे आद जाना? आया। अर्थ है गीत कहां खो गए। यह भी दोनों भाषाओं में हे। दो रचनाएं डायन और कॉलेज गेट प्रकाशित होने वाले हैं। डायन हिंदी में उपन्यास है और दूसरा नाटक।
2005 में रेलवे से अवकाश लेने वाले मंगल सिंह आज भी लिख रहे हैं। पर, हिंदी के कथित मुख्यधारा के रचनाकारों ने नोटिस नहीं लिया। उन लोगों ने भी नहीं, जो खुद को आदिवासियों का प्रवक्ता के तौर पर पेश करते हैं। रांची में ही गैरआदिवासी और हिंदी में प्रतिष्ठित लेखक और आलोचक हैं। लेकिन ये लोग खुद को स्थापित और दूसरे को विस्थापित करने में लगे हैं। पर आदिवासी साहित्य और आदिवासी लेखकों की ओर भूल से भी नजर नहीं डालते। जबकि आदिवासी पत्रिका के पुराने अंकों को पलटिए तो सैकड़ों आदिवासी रचनाकारों की सूची मिल जाएगी। लेकिन आज हम उन रचनाकारों को नहीं जानते। साहित्य में तो दलित विमर्श ने अपना एक मुकाम पा लिया। आदिवासी साहित्य को उसका प्राप्य कब मिलेगा? जबकि आदिवासी साहित्य का इतिहास भी सौ साल से कम नहीं। इस बात का कोफ्त मंगल सिंह मुंडा को भी है।