डा. प्रभु नारायण विद्यार्थी से पहली बार परिचय डा. गिरिधारी राम गौंझू ने कराया। इसके बाद तो यह परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता गया। इसी क्रम में पहली बार गौंझूजी के साथ उनके हरमू स्थिति घर गया। घर के ग्राउंड फ्लोर पर ही उनका कार्यालय और पुस्तकालय है। इसी में दसों आलमीरा पुस्तकें भरी पड़ी हैं। घर में कुछ कुर्सियों को छोड़कर किताबों का अखंड साम्राज्य स्थापित है। उनका यह समृद्ध पुस्तकालय और राहुल की समग्र पुस्तकों को देखकर चकित ही हुआ जा सकता है। राहुल के प्रति उनमें विशेष अनुराग था। यही कारण था कि वे राहुल की किताबों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उनकी पत्नी और पुत्रों के साथ भी उनका आत्मीय रिश्ता कायम हो गया था। संभव है, उनको घूमने की प्रेरणा राहुल सांकृत्यायन से ही मिली हो! 'अथातो घुम्मकड़ जिज्ञासाÓ को चरितार्थ करता उनका चरित्र और बौद्ध धर्म के प्रति विशेष लगाव के कारण ही तो नहीं श्रीलंका में उनका निधन हुआ। श्रीलंका में सम्राट अशोक के पुत्र ने बौद्ध धर्म का बिरवा रोपा था, जो आज वट वृक्ष बनकर लहलहा रहा है। श्रीलंका में उनके निधन के कुछ तो निहितार्थ होंगे ही।
प्रशासनिक सेवा से मुक्त होने के बाद तो उनका एकमात्र काम घूमना रह गया था। कभी बोधगया, कभी श्रीलंका, कभी कनाडा, कभी अमेरिका। हमेशा यात्रा पर ही रहे। फोन मिलाइए तो उधर जवाब आता, अभी तो शिमला में हैं। पेंशन का पैसा घूमने और किताबों में ही खर्च होता। जहां जाते, किताबों का ग_ïर ले आते। अंगरेजी, बांग्ला, अरबी, मगही जैसी आधा दर्जन भाषाओं के जानकार विद्यार्थीजी ने कोई पचास किताबें लिखी हैं। इनमें क्षेत्रीय इतिहास से लेेकर कविता, कहानी, संस्मरण, लेख आदि शामिल हैं। अभी-अभी दिल्ली से छपकर उनकी नई किताब आई है 'सत्ता की साजिश और पाखंड का मकडज़ाल।Ó तीन सौ पृष्ठï की इस पुस्तक में बौद्ध धर्म से लेकर दलित विमर्श और जातियों के जंगल से गुजरते हुए अगड़ी-पिछड़ी राजनीति तक को समेटा है। यह पुस्तक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और पक्षधरता को रेखांकित करती है।
विद्यार्थीजी की सरलता व्यक्तिगत रूप से मुझे आकर्षित करती रही है। संयुक्त सचिव से अवकाश प्राप्त करने वाले इस अधिकारी में अकड़ या दंभ नाम की कोई चीज नहीं थी। इतनी सरलता और सहजता विरले लोगों में होती है। हो सकता है, यह बुद्ध के दर्शन का प्रभाव हो! यह भी हो सकता है कि झारखंड के आदिवासियों के बीच रहने के कारण यह गुण उनमें सहज आ गया हो। जब अधिकारी थे, जंगलों की खाक छानते और उनके दुख-दर्द को देखते और जितना संभव होता, उनकी मदद करते। आज के अधिकारियों की ओर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि भारत को भुखमरी को ओर ले जाने वाले ये ही नौकरशाह हैं। नितांत असंवेदनशील और बेईमान। झारखंड में जो भी योजनाएं गरीबों-आदिवासियों के लिए चलाई जा रही हैं, उन पर ये अधिकारी कुंडली मारकर बैठे हैं।
ऐसे समय में इनकी याद स्वाभाविक है। अवकाश प्राप्ति के बाद तो उनके पास दो ही शगल थे, लिखना और घूमना। इसके अलावा उन्हें एक और शौक था। इसे प्राय: कम लोग ही जानते हैं। पुराने-नए सिक्कों, नोटों और डाक टिकटों का संग्रह। उनके पास दुनिया भर के सिक्के, नोट और डाक टिकटों के कई एलबम भरे हुए हैं। जहां जाते, जिस देश जाते वहां के नोट, सिक्के और डाक टिकट ले आते और अपने एलबम को समृद्ध करते।
उनने एक महत्वपूर्ण काम यह किया है कि जहां-जहां वे अधिकारी रहे, उस क्षेत्र के अज्ञात इतिहास से पर्दा उठाया। रोमिला थापर ने अपने एक लेख में क्षेत्रीय इतिहास पर बल दिया था। क्षेत्रीय इतिहास की कडिय़ों को जोड़कर ही भारत का समग्र इतिहास लिखा जा सकता है। यह काम बड़ी ईमानदारी से विद्यार्थीजी ने किया। जब वे देवघर में पदस्थापित थे, वहां के एक मराठी ब्राह्मïण के बारे में लिखा। इस ब्राह्मïण सखाराम देउस्कर ने 'देेशेरकथाÓ लिखी थी। इस पुस्तक का उन्होंने पुनरुद्धार ही नहीं किया, बल्कि स्थानीय लोगों के सहयोग से उनकी मूर्ति भी स्थापित की। यह पुस्तक आजादी के आंदोलन की चश्मदीद कहानी है। लेखक ने महाराष्ट्र से अपने परिवार के आने की कहानी के साथ आजादी को लेकर चले संघर्ष की कहानी को भी लिखा है। अभी हाल में हिंदी के ख्यात आलोचक डा. मैनेजर पांडेय ने इस पुस्तक का संपादन किया है और यह नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक की भूमिका डा. पांडेय ने विद्यार्थी की महत्ता को रेखांकित किया है।
विद्यार्थीजी के काम का मूल्यांकन होना बाकी है। लोगों ने उनके कामों को रेखांकित करने से परहेज किया है। कारण, वे किसी गुट के आदमी नहीं थे। इधर, रांची में जो ट्रेंड चला है, तू मुझे सराहो, मैं तुझे सराहूं, इससे वे मुक्त ही रहे। इसलिए, लोग उन पर कम ही ध्यान देते हैैं। वैसे, राधाकृष्ण जैसे सिद्धहस्त कथाकार को जब रांची के कथाकार याद नहीं करते, तो विद्यार्थीजी को कैसे याद कर सकते हैं। अपने-अपने वैचारिक खूंटे में बंधे लोगों से बहुत अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब वह नहीं हैं, उनकी यादें, मुस्कुराता हुआ चेहरा बार-बार याद आता है।
प्रशासनिक सेवा से मुक्त होने के बाद तो उनका एकमात्र काम घूमना रह गया था। कभी बोधगया, कभी श्रीलंका, कभी कनाडा, कभी अमेरिका। हमेशा यात्रा पर ही रहे। फोन मिलाइए तो उधर जवाब आता, अभी तो शिमला में हैं। पेंशन का पैसा घूमने और किताबों में ही खर्च होता। जहां जाते, किताबों का ग_ïर ले आते। अंगरेजी, बांग्ला, अरबी, मगही जैसी आधा दर्जन भाषाओं के जानकार विद्यार्थीजी ने कोई पचास किताबें लिखी हैं। इनमें क्षेत्रीय इतिहास से लेेकर कविता, कहानी, संस्मरण, लेख आदि शामिल हैं। अभी-अभी दिल्ली से छपकर उनकी नई किताब आई है 'सत्ता की साजिश और पाखंड का मकडज़ाल।Ó तीन सौ पृष्ठï की इस पुस्तक में बौद्ध धर्म से लेकर दलित विमर्श और जातियों के जंगल से गुजरते हुए अगड़ी-पिछड़ी राजनीति तक को समेटा है। यह पुस्तक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और पक्षधरता को रेखांकित करती है।
विद्यार्थीजी की सरलता व्यक्तिगत रूप से मुझे आकर्षित करती रही है। संयुक्त सचिव से अवकाश प्राप्त करने वाले इस अधिकारी में अकड़ या दंभ नाम की कोई चीज नहीं थी। इतनी सरलता और सहजता विरले लोगों में होती है। हो सकता है, यह बुद्ध के दर्शन का प्रभाव हो! यह भी हो सकता है कि झारखंड के आदिवासियों के बीच रहने के कारण यह गुण उनमें सहज आ गया हो। जब अधिकारी थे, जंगलों की खाक छानते और उनके दुख-दर्द को देखते और जितना संभव होता, उनकी मदद करते। आज के अधिकारियों की ओर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि भारत को भुखमरी को ओर ले जाने वाले ये ही नौकरशाह हैं। नितांत असंवेदनशील और बेईमान। झारखंड में जो भी योजनाएं गरीबों-आदिवासियों के लिए चलाई जा रही हैं, उन पर ये अधिकारी कुंडली मारकर बैठे हैं।
ऐसे समय में इनकी याद स्वाभाविक है। अवकाश प्राप्ति के बाद तो उनके पास दो ही शगल थे, लिखना और घूमना। इसके अलावा उन्हें एक और शौक था। इसे प्राय: कम लोग ही जानते हैं। पुराने-नए सिक्कों, नोटों और डाक टिकटों का संग्रह। उनके पास दुनिया भर के सिक्के, नोट और डाक टिकटों के कई एलबम भरे हुए हैं। जहां जाते, जिस देश जाते वहां के नोट, सिक्के और डाक टिकट ले आते और अपने एलबम को समृद्ध करते।
उनने एक महत्वपूर्ण काम यह किया है कि जहां-जहां वे अधिकारी रहे, उस क्षेत्र के अज्ञात इतिहास से पर्दा उठाया। रोमिला थापर ने अपने एक लेख में क्षेत्रीय इतिहास पर बल दिया था। क्षेत्रीय इतिहास की कडिय़ों को जोड़कर ही भारत का समग्र इतिहास लिखा जा सकता है। यह काम बड़ी ईमानदारी से विद्यार्थीजी ने किया। जब वे देवघर में पदस्थापित थे, वहां के एक मराठी ब्राह्मïण के बारे में लिखा। इस ब्राह्मïण सखाराम देउस्कर ने 'देेशेरकथाÓ लिखी थी। इस पुस्तक का उन्होंने पुनरुद्धार ही नहीं किया, बल्कि स्थानीय लोगों के सहयोग से उनकी मूर्ति भी स्थापित की। यह पुस्तक आजादी के आंदोलन की चश्मदीद कहानी है। लेखक ने महाराष्ट्र से अपने परिवार के आने की कहानी के साथ आजादी को लेकर चले संघर्ष की कहानी को भी लिखा है। अभी हाल में हिंदी के ख्यात आलोचक डा. मैनेजर पांडेय ने इस पुस्तक का संपादन किया है और यह नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक की भूमिका डा. पांडेय ने विद्यार्थी की महत्ता को रेखांकित किया है।
विद्यार्थीजी के काम का मूल्यांकन होना बाकी है। लोगों ने उनके कामों को रेखांकित करने से परहेज किया है। कारण, वे किसी गुट के आदमी नहीं थे। इधर, रांची में जो ट्रेंड चला है, तू मुझे सराहो, मैं तुझे सराहूं, इससे वे मुक्त ही रहे। इसलिए, लोग उन पर कम ही ध्यान देते हैैं। वैसे, राधाकृष्ण जैसे सिद्धहस्त कथाकार को जब रांची के कथाकार याद नहीं करते, तो विद्यार्थीजी को कैसे याद कर सकते हैं। अपने-अपने वैचारिक खूंटे में बंधे लोगों से बहुत अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब वह नहीं हैं, उनकी यादें, मुस्कुराता हुआ चेहरा बार-बार याद आता है।
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