जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पर आवेÓ

'जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि जहाज पर आवे।Ó यह कहावत हिंदी के प्रतिष्ठित किस्सागो राकेश कुमार सिंह पर चरितार्थ होती है। सोलहो आना। राकेश का जन्म पलामू में हुआ। पढ़ाई-लिखाई के बाद अब बिहार के आरा में नौकरी। लेकिन उनकी रचनाओं का केंद्र झारखंड। पलामू से लेकर संताल की यात्रा उनकी रचनाओं में सन्निहित है। देर से कहानी लेखन के क्षेत्र में उतरे। पर, यह देर, उन्हें स्थापित करने में विलंबित राग नहीं छेड़ा। देर आए पर दुरुस्त। तब से वे ङ्क्षहदी कथा साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। अपनी अलग पहचान, भाषा और किस्सागोई के साथ। एक पंक्ति पढ़कर आप पहचान जाएंगे कि यह किसकी पंक्ति है। यह पहचान किसी-किसी के नसीब में आती है। सो, इस नसीब वाले कथाकार ने अपना नसीब खुद बनाया। पलामू से चलकर आरा होते हुए फिर-फिर पलामू की यात्रा अपने रुट की यात्रा। अपने होने की यात्रा। खुद को जानने की यात्रा। इस यात्रा की पहली परिणति 2003 में दिखी, जब 'जहां खिले हैं रक्तपलाशÓ नामक उपन्यास पाठकों के हाथ में पहुंचा। वहां के भूमिगत आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखी गई यह कृति एक दस्तावेज भी है। 
एक निजी कार्यक्रम में वे रांची आए थे। गुरुवार की सुबह, सच पूछिए तो दोपहर होने वाली थी, हम अल्बर्ट एक्का चौक पर मिले। इंदुजी की दुकान पर। फिर साथ चाय पी। साथ उनके बेटा भी था, जो यहीं पर हाईकोर्ट में वकालत करते हैं। लंबे अरसे बाद मुलाकात हुई थी। बातों-बातों में ही उनकी गहरी संवेदनशीलता और रचनाशीलता से रूबरू हुआ। यह भी ज्ञात हुआ कि झारखंड के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रचारात्मक किस्म की नहीं है। गहरे कर्तव्यबोध से जुड़ी है। यही कारण है कि उसी साल, 'पठार पर कोहराÓ नामक उपन्यास आया और खूब चर्चित रहा। 
पलामू से संताल की यात्रा के बारे में कहते हैं कि हूल क्रांति को वह स्थान नहीं मिला, जिसकी वह हकदार है। 1857 की पहली क्रांति के दो साल पहले एक बड़ी क्रांति झारखंड के सुदूर अंचल में घटित हुई, लेकिन उसे स्थानीय कहकर उसके ऐतिहासिक महत्व को कमतर कर दिया गया। इसलिए, 'जो इतिहास में नहीं हैÓ, उपन्यास लिखा और उसके केंद्रीय महत्व को लाने का एक प्रयास किया। इसी प्रकार, 1755 में पहाडिय़ों का विद्रोह हुआ था। तिलका मांझी को बहुतेरे लोगों ने संताल बताया, जबकि वह पहाडिय़ा थे। राकेश बताते हैं, इस चरित्र को लेकर बड़ा घालमेल रहा है और अब भी है। ऐतिहासिक छानबीन के बाद 'हूल पहाडिय़ाÓ लिखा और तिलका मांझी के पूरे चरित्र, आंदोलन और उस दौर को समेटने का प्रयास किया। तिलका संताली नहीं, पहाडिय़ा थे। 
राकेश कहते हैं, पता नहीं क्यों, जब-जब यहां आता हूं, घूमता हूं, लोगों से मिलता हूं तो कुछ न कुछ शेष रह जाता है। इसी साल ज्ञानपीठ से 'महाअरण्य में गिद्ध आया।Ó पूरा झारखंड आंदोलन इसके केंद्र में है। झारखंड के पृथक आंदोलन की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास खड़ा है, लेकिन इसमें बहुत कुछ है। एक बड़ा हिस्सा पलामू पर है। इसमें एक चरित्र पलामू का आदमखोर भी है। 
राकेश बताते हैं कि झारखंड पर ही 'आपरेशन महिषासुरÓ प्रेस में जाने को तैयार है। झारखंड बनने के बाद उदारीकरण, भूमंडलीकरण और आदिवासी जन-जीवन पर इसके प्रभाव-दुष्प्रभाव को इसमें रखा गया है। अपनी रचनाओं में बार-बार झारखंड को केंद्र में रखने के बाबत कहते हैं कि झारखंड से बाहर निकलने की कोशिश करता हूं। 'साधो, यह मुर्दों का गांवÓ लिखा। यह छोटा उपन्यास है, जो विचाराधीन कैदियों पर है। इस देश में साठ हजार कैदी विचाराधाीन हैं। इस विषय पर इस तरह का पहला प्रयास था। लोगों ने इसे पसंद किया। 
पर, कहते हैं न जैसे जहाज का पंछी कहीं घूमे-उड़ान भरे, फिर-फिर वह अपने मस्तूल पर आ ही जाता है, वही हाल मेरा है। झारखंड में इतना चुंबक है कि यह बार-बार खींच लेता है। यहां के जंगलों में मन भटकने लगता है।

नेहरू का निधन और ‘आदिवासी’ की श्रद्धांजलि

  देश के पहले प्रधानमंत्राी पं जवाहर लाल नहेरू का निधन जब 27 मई, 1964 को दिल्ली में हुआ तब उसके अगले दिन ‘आदिवासी’ का नया अंक 28 मई को आया। आदिवासी का यह सत्राहवां अंक था और साल 18। पहले पेज पर नेहरू की एक तस्वीर दी गई और नई दिल्ली डेड लाइन से खबर प्रकाशित की गई। खबर का शीर्षक था, शान्ति का मसीहा-भारत का राष्टनायक उठ गया। तीसरी पंक्ति में थी प्रधानमंत्राी नेहरू का देहावसान और अंतिम पंक्ति मंे थी, सारा देश शोकाकुल। खबर इस प्रकार थी। ‘नई दिल्ली। 27 मई के अपरा दिन के दो बजे यहां प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू
  नेहरू के निधन का समाचार रांची भी पहुंचा। वे रांची कई बार आ चुके थे। रांचीवासियों के मन में नेहरू की एक अमिट छाप थी। यहां भी उनके देहावसान का समाचार बिजली की तरह फैल गया। सभी के चेहरे पर उदासी छा गई और सारा नगर मातम में डूब गया। उस दिन रांची में मंत्रिमंडल की बैठक होने वाली थी, परंतु शोक समाचार मिलते ही बैठक स्थगित कर दी गई। कार्यालय, संस्थान तथा दुकानें बंद कर दी गईं।उस दिन स्थानीय कांग्रेस कमेटी से दिन के दो बजे शोक जुलूस निकला। यह जुलूस मुख्य सड़क होते हुए बीएमपी मैदान में सभा में परिणत हो गया। वहां दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई। स्वास्थ्य मंत्राी अब्दुल क्यूम अंसारी ने सभा की अध्यक्षता की थी। पंचायत मंत्राी सुशील कुमार बागे ने भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
    राष्टपति ने राष्ट के नाम संदेश दिया। नेहरू को मानव जाति का एक बड़ा मुक्तिदाता बताया। राष्टपति ने 27 को ही प्रसारित अपनी विज्ञप्ति में गुलजारी लाल नंदा को प्रधानमंत्राी नियुक्त किया और उन्हें मंत्रियों को नियुक्त करने के लिए उन्हें सिफारिश करने को भी कहा। ‘आदिवासी’ का अगला अंक 4 जून, 1964 को प्रकाशित हुआ। अंक के मुख पृष्ठ के दाहिने ‘श्री लालबहादुर शास्त्राी कांग्रेस संसदीलय दल के नेता निर्वाचित’ होने का समाचार प्रमुखता से छापा गया था। शास्त्राी ने नेहरू के पदचिों पर चलने का संकल्प दुहराया और समाजवाद को अपना लक्ष्य निर्धारित किया।
    हालांकि दाह संस्कार की खबर विस्तार से इसी अंक में प्रकाशित हुई। दस लाख लोगों ने अपने प्रिय नेता को अंतिम श्रद्धांजलियां देने के लिए अंतिम संस्कार के समय उपस्थित थे। जबकि नेहरू के निवास स्थान से लेकर यमुना के तट तक करीब बीस लाख लोगों ने अपने प्रिय नेता का अंतिम दर्शन करने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। ऐतिहासिक पुरुष की शवयात्रा भी ऐतिहासिक थी। कई देशों के प्रधानमंत्राी, राजकुमार, नेता, कूटनीतिज्ञ से लेकर आम लोग तक शामिल थे। ब्र्रिटेन के प्रधानमंत्राी सर डगलस होम, अर्ल माउंटबेटेन, लंका की प्रधानमंत्राी भंडार नायक, रूस के प्रथम उपप्रधानमंत्राी कोसीजिन,  नेपाल मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष डाक्टर तुलसी गिरि, अमेरिका के परराष्टपति श्री डीन रस्क, संयुक्त अरब गणराज्य के उपाध्यक्ष श्री हुसैन सफी, युगोस्लाविया के प्रधानमंत्राी श्री पी स्टाम बोलिच, पाकिस्तान के परराष्ट मंत्राी श्री भुट्टो, इरान के गृहमंत्राी, फ्रांस के परराष्ट मंत्राी भी उपस्थित थे। हर आंखें डबडबाई थीं। कुछ लोग रो भी रहे थे।
    मई की महीना था। चिलचिलाती धूप थी। लाखों लोग यमुना तट पर जमा थे और अर्थी की प्रतीक्षा रहे थे। पानी का फुहारा देकर गर्मी को शांत किया जा रहा था। फिर भी गर्मी में बहुत से लोग बेहोश भी हो जा रहे थे। एक विदेशी कूटनीतिज्ञ की पत्नी भी बेहोश हो गई थीं। यहीं नहीं, भीड़ इतनी थी कि कई लोग घायल हो गए। प्रधानमंत्राी के निवास स्थान से जब नेहरू की शवयात्रा निकाली गई तो उस समय करीब अस्सी हजार लोग थे। यहां दो व्यक्ति दबकर मर गए और एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए, जिन्हें एंबुलेंस से अस्पातल भेजा गया। भीड़ यहां इतनी बेकाबू थी कि लोग पुलिस पर पत्थर व जूते फेंकने लगे। खैर, किसी तरह यहां से शवयात्रा निकाली गई। पूरा पथ पंडित नेहरू अमर रहे है नारे लगे। अर्थी ज्योंही श्मशान पहंुची कि एक हेलीकाप्टर ने पर से गुलाब के फूलों की वर्षा करना शुरू कर दिया। कार्यकारी प्रधानमंत्राी गुलजारी लाल नंदा, निर्विभागीय मंत्राी लालबहादुर शास्त्राी, प्रतिरक्षा मंत्राी चैहान, मोरारजी देसाई, कृष्ण मेनन चिता के चारों ओर खड़े थे। सैनिक अफसरों ने दिवंगत नेहरू के पर से तिरंगा झंडा हटाया। यह अवसर बड़ा मार्मिक था। सबकी आंखें गीली थीं। पंडितों ने वेद का पाठ शुरू किया। पवित्रा जल शव पर छिड़का गया। संजय ने चिता में आग दी। चिता की लपटें पर उठने लगीं। बंदूकें गरज उठीं। नेहरू अमर रहे के गगनभेदी उद्घोष से पूरा वातावरण गूंज उठा। पास में ही सौ गज की दूरी पर महात्मा गांधी भी अपनी समाधि में सोए हुए थे और अपने प्रिय शिष्य को पांचों तत्व में मिलते हुए देख रहे थे।    
    नेहरू के निधन पर देश-दुनिया से शोक संदेश आने लगे। पूरा विश्व नेहरू के निधन से शोकाकुल था। वे वैश्विक व्यक्तित्व थे। अमेरिका, आस्टेलिया, युगोस्लाविया, सोवियत संघ, संयुक्त अरब गणराज्य, चीन, श्रीलंका, नेपाल, अरग, सूडान, पाकिस्तान आदि के मुखिया शोकाकुल थे। रामकृष्ण प्रसाद ‘उन्मन’ और दीनेश्वर प्रसाद ‘स्वतंत्रा’ ने अपने छंदों के माध्यम से श्रद्धांजलि दी। जमशेदपुर, धनबाद, चक्रधरपुर के अलावा रांची के कई स्थानों पर सभाएं कर चाचा नेहरू को श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
    ‘आदिवासी’ का 19 वां अंक भी नेहरू को ही समर्पित था। यह 11 जून 1964 को निकला था। इस अंक में उनके भस्मावशेष प्रवाहित होने की सूचना थी। साथ ही दाह संस्कार की कुछ तस्वीरें भी छापी गई थीं। नेहरू की अस्थियां इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित की गईं। 8 जून को प्रातः 8 बजकर 45 मिनट पर वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच संगम में प्रवाहित की गईं। यहां भी दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए करीब दस लाख लोग जमा थे। अकबर के ऐतिहासिक किले के नीचे जुलूस में आए लाखों व्यक्ति नेहरूजी अमर रहे, चाचा नेहरू जिंदाबाद के गगनभेदी नारे लगा रहे थे। राजीव व संजय ने टक से अस्थिकलश को नीचे उतारकर एक विशेष जेट्टी में रखा। सैनिक अपने हथियारांे को झुकाकर नतमस्तक हो गए। हजारों लोग गंगा में खड़ा होकर अपने प्रिय नेता को श्रद्धांजलि दे रहे थे। नेहरू जी का परिवार को मनोनीत प्रधानमंत्राी लाल बहादुर शास्त्राी एक नाव पर सवार थे। नेहरू के साथ उनकी पत्नी कमला नेहरू की अस्थियां भी प्रवाहित कर दी गईं। नेहरू ने कमला नेहरू का भी भस्मावशेष अब तक अपने पास ही रखा था। अस्थि कलश एक विशेष टेन से नई दिल्ली से इलाहाबाद ले आया गया था। टेन इलाहाबाद 4 बजकर 55 मिनट पर पहंुची थी। यहां  भस्मावशेष का स्वागत करने के लिए पहले से ही आए लाल बहादुर शास्त्राी, रेल मंत्राी सरदार स्वर्ण सिंह वायुयान से आ गए थे। टेन से राजीव व संजय अस्थियां लेकर उतरे। दोनों भाई नंगे पैर थे। उनके पीछे इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्णाहठी सिंह व नेहरू परिवार के अन्य सदस्य थे। स्टेशन से आनंद भवन अस्थिकलश पहंुचा। स्टेशन से लेकर आनंद भवन तक चार मील तक लोग खड़े रो रहे थे। नेहरू का यह पैतृक घर था। यहां लोगांे के लिए दर्शनार्थ अस्थिकलश रखा गया था। यहां से फिर संगम की ओर यात्रा प्रारंभ हुई। रामधुन के बीच जुलूस आठ बजे संगम तट पहुंचा। और, फिर पुरोहितों ने अस्थिकलश को संगम में प्रवाहित कराने का अनुष्ठान पूरा कराया। इस तरह भारत का खोजी, स्वप्नदर्शी, शांति का संदेश वाहक संगम में सदा-सदा के लिए विलीन हो गया। 
का देहांत हो गया। वे 27 मई के प्रातःकाल अचानक बीमार हो गये थे। नेहरूजी की उम्र 74 वर्ष की थी। उनके निधन का समाचार पाते ही राष्टपति राधाकृष्णन और केंद्रीय मंत्रिपरिषद के सदस्य तुरत उनके निवास स्थान पहुचे। लोकसभा में केंद्रीय इस्पात और खान मंत्राी श्री सी सुब्रह्मण्यम ने उनके निधन की घोषणा की। सदन के कई सदस्य यह समाचार सुनते ही रोने लगे। लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह ने यह खबर पाते ही लोकसभा की बैठक स्थगित कर दी। ज्योंही उनके निधन का समाचार फैला, बहुत बड़ी संख्या में लोग नेहरूजी के निवासस्थान के बाहर एकत्रा हो गये।’ अगले पेज पर खबरें विस्तार से थीं। अगले दिन शवयात्रा की खबर भी थी। बताया गया कि नेहरूजी की शवयात्रा 28 मई को एक बजे दिन में उनके निवास स्थान से शुरू हुई और राजघाट पर अंत्येष्टि क्रिया संपन्न हुई। उनके दौहित्रा श्री संजय गांधी ने दाह-संस्कार किया। कई मील लंबा शोक जुलूस था। देश-विदेश के नेता पहुंचे और अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।