रांची में रिफ्यूजियों ने शुरू की थी रावण दहन की परंपरा

रांची में रावण दहन की कोई प्राचीन परंपरा नहीं मिलती। इतिहास की किताबें भी मदद नहीं करतीं। पुराने लोग भी नहीं बताते। रांची में एचइसी की स्थापना 1953-54 के बाद रामलीला की परंपरा जरूर शुरू हुई। एचइसी के घाटे में जाने के बाद भी यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। किसी तरह यह अब रस्म अदायगी पर रह गई है, लेकिन रावण दहन रामलीला से पहले एक दिनी उत्सव आजादी के एक साल शुरू हो गई। 1948 में बहुत छोटे स्तर पर इसकी शुरुआत की गई थी और इसका श्रेय भी उन लोगों को जाता है, जो बाहर से आकर यहां बसे। बाहर से का मतलब जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से यहां आए। कहा जाता है कि बंटवारे के समय पश्चिमी पाकिस्तान के कबायली इलाके (नार्थ वेस्ट फ्रंटियर) के बन्नू शहर से रिफ्यूजी बनकर रांची आए करीब एक दर्जन परिवारों ने मिलकर रांची में रावण दहन कर दशहरा मनाने की नींव डाली। पर इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? शायद, लुट-पीटकर आए पंजाबियों ने अपने दुख-दर्द को भुलाने के लिए दशहरा उत्सव को चुना। बंटवारे के दंश को वही महसूस कर सकता है, जो भोगा हो। कई ऐसे परिवारों से मिलने के बाद उनके दुख को समझने का मौका मिला। यह दुख छोटा नहीं था। एक बारगी, एक रेखा ने जीवन के सारे सपने को चूर कर दिया था। रातों रात लाखों लोगों का अपना वतन बदल गया था। यह कोई मामूली शॉक नहीं था। दुख बड़ा था। अब भुलाना ही इसका उपाय। रावण के जलाने से बड़ा प्रतीक उन्हें दूसरा नहीं मिला। जिन्होंने देश को बांटा, वे रावण की तरह उनके सामने खड़े थे। ऐसे ही दुख-कातर के समय दशहरे की नींव डाली।  

  • दिवंगत लाला एस राम भाटिया, स्वर्गीय मोहन लाल, कृष्णलाल नागपाल व स्वर्गीय अमीरचंद सतीजा, जो बन्नू समाज के मुखिया थे, इनके नेतृत्व में डिग्री कॉलेज(बाद में रांची कॉलेज मेन रोड डाकघर के सामने) के प्रांगण में 12 फीट के रावण के पुतले का निर्माण किया गया और फिर उसका दहन किया गया। रांची में दशहरा दुर्गापूजा के रूप में मनाया जाता था। पहली बार स्थानीय लोगों ने रावण दहन को देखा। रावण दहन के दिन तीन-चार सौ लोग नाचगान कर तथा कबायली ढोल-नगाड़ों के बीच रावण का पुतला दहन किया गया। पहले रावण का मुखौटा गधे का बनता था, जिसे बाद में बंद कर दिया गया। 1950 से 55 तक बारी पार्क में रावण दहन होता रहा। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती चली गई तो पुतलों की ऊंचाई भी 20 से 30 फीट होती गई। खर्च की राशि स्वर्गीय लाला मनोहरलाल नागपाल, स्वर्गीय टहल राम मिनोचा व अमीरचंद सतीजा ने मिलकर उठाए। बन्नू समाज इस काम के लिए चंदा नहीं लेता था। इधर, पुराने लोगों के निधन और खर्च बढऩे के बाद स्वर्गीय मनोहर लाल ने रावण दहन की जिम्मेदारी की कमान पंजाबी ङ्क्षहदू बिरादरी के लाला धीमान साहब, लाला राम स्वरुप शर्मा, लाला मंगत राम, लाला कश्मीरी लाल, लाला राधाकृष्ण को सौंप दी। बाद में रावण दहन राजभïवन के सामने होने लगा। जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, भीड़ बढ़ी गई तो रावण दहन का आयोजन मोरहाबादी मैदान में होने लगा, जो अब तक जारी है। 1960 के आसपास रावण दहन मेकान, एचइसी तथा अरगोड़ा में भी होने लगा। पंजाबी ङ्क्षहदू बिरादरी अब भव्य तरीके से मोरहाबादी मैदान में रावण दहन का आयोजन करती है। सूबे का सीएम ही रावण का दहन करता है। हां, एक बार जब शिबू सोरेन सूबे के मुखिया थे, तब उन्होंने दहन करने से इनकार कर दिया, क्योंकि रावण उनके लिए पूज्य है।