प्रेमचंद परिवार में मेरे वे दिन

 श्यामा देवी

बात बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की है, जब विदेश यात्रा से लौटने वाला अथवा विधवा-विवाह करने वाला व्यक्ति समाज में बहिष्कृत कर दिया जाता था। मेरे पिता मुंशी गुलहजारी लाल एक कट्टर आर्य समाजी थे-सामाजिक कुरीतियों और ढकोसलों के घोर विरोधी। ऐसी अनर्गल बातों और रीति-रिवाजों के विरुद्ध संघर्ष करने में सदैव अग्रणी रहे। उनका प्रतिरोध केवल मौखिक तर्कों तक ही सीमित न रहा, बल्कि उन्होंने उसे कार्यरूप में भी परिणत कर दिखाया। अपनी ज्येष्ठ पुत्री के विवाह के लिए उन्होंने चुना उस समय के लखनऊ के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ महेश चरण सिन्हा को, जो वर्षों तक सारी दुनिया रौंद कर तथा विदेशों से विज्ञान की उच्च डिग्रियां लेकर स्वदेश लौटे थे। उन्हीं डा. महेश चरण सिन्हा की सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्री हैं, हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा। उक्त संबंध की उस समय समाज में काफी चर्चा रही और बड़ी-बड़ी आलोचनाएं हुईं। किंतु मेरे पिता अडिग एवं अविचल रहे। मैं उनकी दूसरी संतान थी और मेरे लिए उन्होंने वर चुना उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के अनुज, स्व महताब राय को। यह सर्व विदित है कि प्रेमचंद ने भी उस समय शिवरानी देवी से विधवा-विवाह कर समाज में एक उथल-पुथल सी मचा दी थी। अत: मेरे पिता ने सामाजिक कुरीतियों से इस प्रकार डट कर संघर्ष करने वाले साहसी व्यक्ति के अनुज से मेरा संबंध जोडऩे का उचित ही निर्णय किया। यहां इस बात का उल्लेख कर देना भी असंगत न होगा कि मेरी कनिष्ठ भगिनी सावित्री का विवाह स्व डा. संपूर्णानंद के साथ हुआ था। 

सन् 1919 में मैं प्रेमचंद की अनुज वधू बनकर लमही ग्राम में आयी। प्रेमचंद (जिन्हें में आगे भाई के नाम से संबोधित करुंगी) मेरे पतिदेव स्व महताब राय (जिन्हें आगे की पंक्तियों में बाबूजी से संबोधित करुंगी) के न केवल अग्रज बल्कि पिता तुल्य भी थे। बाबूजी जब तुतलाना सीख रहे थे, उसी समय उनके पिता गोलोकवासी हो गए और उनके भरण-पोषण का सारा भार आ पड़ा भाई जी पर। भाई जी के ही संरक्षण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और उन्होंने ही बाबूजी का विवाह भी किया। बाबूजी का भी अपने बड़े भाई के प्रति अगाध स्नेह था और वे उनका अत्यधिक आदर और सम्मान करते थे। अतीत के कुछ संस्मरण सुनाते हुए एक बार बाबूजी ने बतलाया कि उन्हें शहर से गांव (लमही) लौटने में रात्रि के लगभग 12 बज गए। डरते-डरते उन्होंने धीरे से द्वार की सांकल खटखटायी। चाहते थे कि उनके आने की खबर भैया को बिल्कुल न लगे और मां अथवा भावज द्वार खोल दें किंतु आशा के विपरीत भैया ने ही आकर द्वार खोला। देखकर बाबूजी के होश उड़ गये और पैरों तले से धरती जैसे खिसक गयी। धड़कते हृदय से चुपचाप अपने कमरे में दाखिल हो गये। सुबह जब बाबू जी सोकर उठे तो लोटा उठाकर शौच के लिए चले, तो भाईजी ने पूछा-क्यों छोटक, रात जब तुम आये तो कोई चार बजा रहा होगा? इतनी देर कहां कर दी तुमने?
बाबूजी ने सहमते हुए उत्तर दिया, 'नहीं भैया, बारह बजे थे। कुछ काम में फंस गया, जिससे देर हो गयी।Ó 
'अरे, मैंने तो समझा कि सवेरा हो चला है। तभी से बैठा लिख रहा था।Ó
ऐसी थी बाबू जी की भाई जी के प्रति आदर भावना और ऐसी थी भाई जी की तन्मयता कि सारी रात बैठे लिखते रहे और उन्हें समय का भी पता नहीं चल सका।
यों तो भाई जी के प्रति बाबूजी का स्नेह तथा आदर भाव कभी कम नहीं हुआ और मेरी ज्येष्ठानी श्रीमती शिवरानी देवी का भी मेरे प्रति बराबर स्नेह बना रहा, लेकिन नौकरी के सिलसिले में दोनों भाइयों को पृथक जिलों में रहना पड़ा और छठे-छमासे भेंट मुलाकात हो जाती। बाबूजी ने गांव में अपने पैतृक मकान के सामने एक पुख्ता बैठक बनवायी। कुछ दिनों पश्चात जब भाईजी सरकारी नौकरी  पर लात मारकर लमही आये, तो उन्होंने उस बैठक का विस्तार कर मकान का रूप दे दिया और अपने परिवार के साथ उसी में रहने लगे। बाबूजी तथा हमलोग जब कभी गांव आते तो पैतृक मकान में रहते। इस प्रकार बिना किसी कानूनी बंटवारे के ही गांव में एक के स्थान पर आमने-सामने दो घर हो गये और रहना-सहना भी अलग होने लगा।

सन् 1921-22 में बाबूजी कलकत्ता में श्री महावीर प्रसाद पोद्दार के प्रेस के व्यवस्थापक थे। उन्हीं दिनों वाराणसी में बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने ज्ञान मंडल यंत्रालय की स्थापना की थी और हिंदी दैनिक 'आजÓ तथा अंग्रेजी दैनिक 'टुडेÓ के संपादक थे बाबू संपूर्णानंद। बाबू शिवप्रसाद गुप्त तथा श्री श्रीप्रकाश जी बाबूजी को कलकत्ता से खींचकर वाराणसी लाये और ज्ञानमंडल यंत्रालय का व्यवस्थापक बनाया। मुश्किल से दो वर्ष वहां बीते थे कि भाईजी ने बाबूजी के समक्ष अपना निजी प्रेस खोलने तथा नौकरी छोड़कर उसकी व्यवस्था का भार संभालने का प्रस्ताव रखा। आज्ञाकारी अनुज ने भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर नौकरी से इस्तीफा दे दिया। बाबू शिवप्रसाद गुप्त तथा श्रीप्रकाश जी ने बहुत समझाया, किंतु वे टस से मस न हुए। साझे में अपना सरस्वती प्रेस खोला और बाबूजी उसकी व्यवस्था देखने लगे। किंतु उन दिनों छापेखानों की दशा आज जैसी न थी। बड़ी मुश्किल से खर्च चलता था और आय बहुत थोड़ी होती थी।
और इस तरह कुछ समय तक काम करने के बाद जरूरी हो गया कि सरस्वती प्रेस से पृथक होकर कुछ और कार्य किया जाये। बाबूजी मिर्जापुर में राजा साहब विजयपुर के कलित प्रेस के व्यवस्थापक तथा यहीं से प्रकाशित होने वाले मिर्जापुर गजट के संपादक होकर चले गये। सरस्वती प्रेस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका हंस तथा साप्ताहिक जागरण, जिनका संपादन प्रेमचंद जी करते थे, की प्रतियां वे नियमित रूप से बाबूजी के पास मिर्जापुर भेजा करते थे तथा साथ ही अपनी सभी नव प्रकाशित कृतियों की प्रतियां भी बाबू को। वे लभभग 12 वर्ष मिर्जापुर में गुजारे, जिनमें से कुछ दिन तो रांची में व्यतीत हुए। किंतु उन्होंने कभी माथे पर शिकन न पडऩे दी। आर्थिक कशमकश के बीच भी वे टेनिस, क्रिकेट तथा शतरंज के खेलों में रमे रहते। इसी बीच उन्होंने कलित प्रेस की नौकरी छोड़ कर मिर्जापुर में ही अपना एक छोटा सा प्रेस चलाया। जो व्यक्ति उस समय के बड़े से बड़े प्रेसों की व्यवस्था का भार संभाल चुका था, उसे समय के थपेड़ों में पड़कर अपने छोटे से प्रेस में स्वयं काम भी करना पड़ा। परंतु इसके लिए उन्होंने कभी भाईजी को  नहीं कहा और न उनके प्रति स्नेह और आदर भाव में ही कोई कम आयी। सन् 1936 के मध्य में भाई के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना पाकर बाबूजी विक्षिप्त से हो उठे और अचानक बारह साल की जमी-जमायी गृहस्थी उजाड़कर मिर्जापुर को सदैव के लिए त्याग दिया और लमही चले आये। प्रेस मिर्जापुर में ही अपने एक मित्र को सुपुर्द कर आये कि उसे वाराणसी भिजवाने की व्यवस्था कर दें, किंतु मित्र महोदय ने काफी दिनों तक प्रेस से होने वाली आय का भरपूर उपयोग किया।
भाईजी उन दिनों वाराणसी नगर में धूपचंडी स्थित एक महान में किराये पर रहते थे। नीचे प्रेस था और ऊपर निवास-स्थान। किंतु लंबी अवधि तक उस घर में बीमार रहने के कारण उन्होंने मृत्यु के लगभग दो माह पूर्व मकान बदल दिया और समीप ही में राम कटोरा स्थित दूसरे मकान में चले गये। बाबूजी इस बीच निरंतर शहर जाते और भाई की सेवा टहल तथा इलाज की व्यवस्था में लगे रहत, किंतु भाईजी की दशा निरंतर बिगड़ती ही गयी और अंतत: आठ अक्टूबर 1936 को उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। बाबूजी इस बीच निरंतर उनके निकट रहे और अंत समय में भी उनके बगल में थे। बाबूजी कहते थे कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भाईजी एकाधिक बार उनसे कुछ आवश्यक बातें करने की इच्छा व्यक्त की। शायद वे बाबूजी जी से अकेले में कुछ बातें करना चाहते थे, किंतु अपनी यह अभिलाषा अंतर में लिये ही चल  बसे।

बाबूजी जब तक जीवित थे, प्रेमचंद पर शोधकार्य करने वाले स्कॉलर उनके पास आया करते थे और कई-कई दिनों तक उनसे प्रेमचंद के विषय में जानकारी प्राप्त किया करते थे। आकाशवाणीवालों ने भी दो-एक इंटरव्यू की टेव रिकार्डिंग की थी। सोवियत लेनिनग्राद के एक शोध स्कॉलर बलतर बालिन, जो प्रेमचंद पर शोध कार्य करने भारत आये थे, काफी समय तक बाबूजी के पास प्रेमचंद्र के पारिवारिक जीवन के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए आते रहे। 
82 वर्षीया मेरी ज्येष्ठानी शिवरानी देवी के दोनों सुयोग्य पुत्र श्रीपतराय और अमृत राय हर प्रकार से संपन्न हें। इधर कई महीनों से वे (श्रीमती शिवरानी देवी)पुन: वाराणसी में हैं। आंखों से सूझता नहीं और कान से सुनाई नहीं पड़ता। किंतु वाराणसी में ही अपने जीवन के अंतिम दिन व्यतीत करने की उनकी हार्दिक अभिलाषा है। कहती हैं-उनकी (प्रेमचंद)की आत्मा मुझे यहीं ढूंढती होगी। मेरा भी काफी समय उन्हीं के साथ व्यतीत होता है। घंटों बैठे हम लोग अतीत को याद कर दुख-सुख की बातें किया करते हैं। वे मुझे बराबर अपने साथ ही रहने को कहा करती हैं, किंतु पारिवारिक बंधन के कारण यह संभव नहीं हो पाता। जब कभी वे मुझे दुखी या खिन्न पाती हैं तो आश्वस्त करते हुए कहती हैं-तुम क्यों फिक्र करती हो श्यामा, मैं छोटक की शादी कर तुम्हें घर लायी थी और जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हें कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। देखना है, जीवन की इस दौड़ में हम दोनों में से कौन किसे पछाड़ता है!
समय के साथ उम्र बीत रही है। अतीत को दुहराते रहने के अतिरिक्त कोई काम भी नहीं, लेकिन इस तरह अतीत-जीवी भी तो नहीं रहा जा सकता! 
हर अगला पल अदृश्य की ओर ले जा रहा है। पता नहीं कब विराम मिलेगा !
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यह लेख धर्मयुग में एक अक्‍टूबर 1972 के अंक में प्रकाशित हुआ था।