अंधकार की आत्मीयता

काका कालेलकर
 एक बार संताल लोगों की परिस्थिति देखने के लिए हम घूम रहे थे। सांझ के समय एक गांव में आ पहुंचे। हम लोगों ने गांव के लोगों के साथ वार्तालाप शुरू की। धीरे-धीरे प्रकाश कम होने लगा। वहां के एक गृहस्थ से मैंने कहा-'अंधकार हो चला है-दीया ले आयें, तो अच्छा होगा!Ó
आश्र्च से मेरी तरफ  देखते हुए, वे बोले-'दीया? इस गांव में दीया कहां से मिलेगा? हम लोग दीया कभी इस्तेमाल नहीं करते। सूरज छिप गया कि, हमारा कारोबार समाप्त हो जाता है। फिर सुबह की पौ फटी कि हमलोग अपने-अपने काम में लग जाते हैं।Ó
 मनुष्य की बस्ती में अंधेरे का यह साम्राज्य? मैं बड़ी चिंता में पड़ गया। पर, इन लोगों को इसका कुछ भी बुरा नहीं लगता। अंधेरा तो रात को आयेगा ही। उसका दु:ख मानना चाहिए, यह बात भी इन लोगों के दिमाग में नहीं आती। भारत-भूमि, भारतीय जीवन और भारतीय संस्कृति के बारे में बराबर बोलते रहने वाले, मुझे इस दीप-विहीन जीवन की तब तक कल्पना ही नहीं थी। थोड़ी देर सोचने पर मुझे लगा कि, वस्तुत: इन लोगों पर तरस खाने के बदले मुझे अपने आप पर ही तरस खाना चाहिए।
 परिपक्वता आने पर, उपनिषद की प्रार्थना 'तमसो मां ज्योतिर्गमय!Ó से, अंधकार और प्रकाश जगत में सर्वव्यापी और परस्पर भिन्न जीवन-तत्व की बात ध्यान में आयी और प्रकाश के प्रति भक्ति दुगुनी हुई; लेकिन इसके साथ-ही-साथ अंधकार भी एक व्यापक व सार्वभौत तत्व है, इसकी कल्पना स्पष्ट हो जाने से अंधकार का महत्व भी समझ में आया। आध्यात्मिक दृष्टि से, हम अज्ञान को अंधकार कहते हैं। समस्त जीवन का विचार करते समय, जगत का अंधकार और हृदयाकाश का अज्ञान, ये भिन्न नहीं हैं-एक ही हैं, ऐसा प्रतीत हुआ।
 अनुभूति की एक और प्रसंग उपस्थित हुआ। एक बार एक कुटुम्ब पर दारुण संकट उपस्थित हुआ। घर के सब बड़े लोग शोक में डूब गये, लेकिन सिर्फ बालक हंस-खेल रहे थे। यह देखकर मन में विचार आया कि, ईश्वर की कितनी बड़ी कृपा है कि, इन बच्चों को कुटुम्ब पर आये संकट की कल्पना ही नहीं हो सकती। अगर उन्हें सच्ची परिस्थिति की कल्पना हो सकती, तो उनके कोमल हृदय पर आघात होने से उनके प्राण ही निकल जाते। मुर्गी के बच्चों का आकार बनने से पहले, जिस प्रकार उन्हें अंडे के कवच का रक्षण चाहिए उसी प्रकार मन पक्का हो, तब तक के लिए बच्चों को ईश्वर ने यह अज्ञान का कवच दिया है। यह उसकी बड़ी कृपा ही है।
 पर जब हम तत्वदर्शी होकर अथवा तत्व-जिज्ञासु बनकर जीवन का विचार करते हैं, तब जीवन और मृत्यु दोनों परस्पर पूरक, पोषक और एक सरीखे आवश्यक तत्व है, यह बात हमारी नजर में आती है। अज्ञान और ज्ञान-अंधकार और प्रकाश-के संबंध में भी ऐसी ही बात है।
 अंधकार-संबंधी एक और प्रसंग याद आ गया। शांति निकेतन में महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर रात की प्रार्थना के समय दीया हटा देते थे। रवींद्रनाथ ने यही परंपरा आगे चलायी। शांति निकेतन की यह पद्धति गांधीजी को इतनी पसंद आयी कि उन्होंने भी रात की और सुबह की प्रार्थना के समय दीय हटा देने की परिपाटी चला दी।
कितने ही योगी सांझ की, जब प्रकाश क्षीण होकर अंधकार प्रारंभ होता है, तब ध्यान में बैठना पसंद करते हैं। कारण, अंधकार एकाग्रता के लिए-अंतर्मुख वृत्ति के लिए-विशेष सहायक होता है। रात की बेला इतनी सौम्य और शांत होती है कि, अंतर्मुख होकर ध्यान करने में बाहर की परिस्थिति जरा भी बाधक नहीं होती।
 भगवान, हमें ऐसे प्रकाश में से शांतिदायक अंधकार की तरफ ले जाओ, ऐसी प्रार्थना करने के दिन सचमुच ही आ गये हैं। प्राकृतिक प्रकाश में मनुष्यता होती है। प्राकृतिक अंधेरे में आत्मीयता होती है और चिंतन के लिए अवसर भी मिलता है। प्राकृतिक प्रकाश और प्राकृतिक अंधकार दोनों ईश्वरदत्त प्रसाद है। दोनों में मनुष्य का व्यक्तित्व निखरता है और विकसित होता है। प्रकाश प्रवृत्तिपरायण होने के कारण विचलित कर सकता है। अंधकार में आत्मपरीक्षण का स्थान है और इसलिए वह साधना के लिए अनुकूल है।
 अंधकार की भावात्मक कही चाहे अभावात्मक, वह मनुष्य के मन के लिए, हृदय के लिए, आत्मा के लिए, पोषक वस्तु है-बहुत-से बंधन तोड़कर छुटकारा देने वाली हितकर वस्तु है। सारी रात कमरे में प्रकाश रखने की सुभीता होने पर भी सोने वाला व्यक्ति अंधकार का ओढऩा ही पसंद करता है। दिन में सोनेवाला व्यक्ति भी प्रकाश कम करके सोता है। नींद जिस तरह थके हुए व्यक्ति को आराम देकर ताजा करती है, उसी प्रकार अंधकार भी थकान दूर करके ताजगी उत्पन्न करता है। मनुष्य अंधकार में जाकर बैठता है, तो उसे नयी-नयी कल्पनाएं सूझती हैं, भरमाये हुए मनुष्य को संकट से मुक्त होने का मार्ग सूझता है और निराश मनुष्य की आशवा की खुराक मिलती है।
गोवा की राजधानी पणजर में एक बार मेरा व्याख्यान था। लोग एकाग्रता से सुन रहे थे। इतने में बिजली बंद हो गयी और दीवानखाने में निरा अमावस-सरीखा घुप्प अंधेरा हो गया। पेट्रोमैक्स लाने केलिए लोग भागे। थोड़ी देर ठहरकर मैंने समझाया-दीए की क्या दरकार है। आपलोगों ने मुझे देखा है, मैंने आपको देखा है। अपने विषय में हतम रंग चुके हैं। हम अंधेरे में ही व्याख्यान अभी क्यों न चलावें? प्रश्नोत्तर भी एक दूसरे का चेहरा देखे बिना चलाए जा सकेंगे। चेहरे पर का भाव यदि न भी दिखाई दिया, तो आवाज से एक दूसरे की वृत्ति ध्यान में आ सकेगी।
 सब शांत होकर एकाग्रता से सुनने लगे। और, सचमुच ही उस दिन का व्याख्यान और उसके बाद के प्रश्नोत्तर आकर्षक और सजीव हुए। सभा का काम समाप्त होते-होते कोई एक मोमबत्ती ले लाया। मोमबत्ती के पीछे-पीछे अपना विज्ञापन करता पेट्रोमैक्स भी आ गया। उसने लोगों की आंखें चौंधिया दी; पर उसके पक्ष की इतनी बात तो कबूल करनी ही चाहिए कि उसके प्रकाश के कारण सभा से लौटने वाले लोगों को अपने-अपने जूत खोज सकना सहज हो गया।
  इस सभा में मुझे एक नया ही अनुभव हुआ। अंधकार में वक्ता और श्रोता के बीच का संपर्क अधिक अच्छी तरह स्थापित हो सका। आपस में चेहरे दिखाई नहीं देते, मानों इसी के कारण हम सब अभिन्न मित्रा हो गए। एक दूसरे को देख नहीं सकते। इस अड़चन के कारण सबको सबके बारे में सहानुभूति हो गयी थी और अंधेरे की अड़चन की भरपाई करने के लिए सभी लोग, अपनी सज्जनता और आत्मीयता की पूंजी, खुले दिल से व्यवहार करने लगे थे। मुझे लगा कि अंधकार ने एक तरह से उपकार ही किया है। उस दिन अंधकार की इस शक्ति की तरफ मेरा ध्यान पहली बार गया।
-'यात्राओं में झारखंडÓ पुस्तक से साभार।