वरिष्ठ कथाकार युवाओं को नहीं पढ़ते हैं : अनुज


संजय कृष्ण :  रांची की दीपिका कुमारी ने तीरंदाजी से देश का मान ही नहीं बढ़ाया है, उसने अपने संघर्ष से कथाकारों की नई पीढ़ी को भी प्रभावित किया है। अनुज नई पीढ़ी के कथाकार हैं। परिकथा के नए अंक में उनकी कहानी 'टार्गेटÓ आई है। कहानी दीपिका पर लिखी गई है, लेकिन क्रिकेट की चकाचौंध से इतर हाशिए पर जाते खेलों की चिंता भी कहानी में दर्ज है। अनुज रांची में हैं। बुधवार की शाम फिरायालाल की गहमगहमी के बीच दो पल बात करने का मौका मिला। उनके साथ थे युवा कथाकार पंकज मित्र, परिकथा के संपादक शंकर व अनुज के बहनोई डा. डीके सहाय। पूछता हूं, दिल्ली में रहते हुए रांची की दीपिका का ख्याल कैसे आया? बड़ी शाइस्तगी से कहते हैं, पहली बात तो यह खेल केंद्र में नहीं है। हाशिए पर चल रहा है। अखबारों के जरिए पता चला कि दीपिका के पिता रांची में आटो चलाते हैं। सो, इससे बेहतर कोई विषय नहीं हो सकता कहानी के लिए। और, इस तरह टार्गेट पाठकों के बीच आई। कहानी के केंद्र में दीपिका तो है ही लेकिन यहां उस ओर ध्यान दिलाया गया कि कैसे किसी की उपलब्धि को हमारे नेता 'इनकैशÓ करते हैं। मीडिया में भी नेताओं की बातें ज्यादा आईं। उसकी प्रतिभा, उसका संघर्ष नजरअंदाज कर दिया गया। मीडिया हाशिए के लोगों की नोटिस नहीं ले रहा है। जबकि उसे सपोर्ट करना चाहिए। अनुज कहते हैं, मीडिया का काम विचार बनाना है। उसे दिशा देना है।
कहानी के वर्तमान दौर पर चर्चा होती है। काशीनाथ सिंह चर्चा में हैं। सवाल वहीं से उठाता हूं। वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह कहते हैं, युवा कथाकारों के पास जमीन नहीं है। वह कहां से लिख रहे हैं, कहां के रहने वाले हैं, कहानी में पता नहीं चलता। इस बात से कितना इत्तेफाक रखते हैं।
अनुज थोड़े गंभीर होते हैं। लंबी सांस छोड़ते हैं। फिर जवाब देते हैं। कहते हैं, उनकी (काशीनाथ सिंह) मजबूरी यह है कि वह किन कारणों से, शायद उम्र का तकाजा हो, वे पढ़ते नहीं हैं। दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे काशीनाथ सिंह हों, या उनकी पीढ़ी के दूसरे कथाकार, जो बड़े लोग हैं, उनमें बहुत कम लोग ऐसे हैं, जिन्होंने युवा कहानी या कहानीकारों पर टिप्पणी करते हुए, या करने से पहले युवाओं को पढ़ा है। दूसरी बात, पुरानी पीढ़ी में असुरक्षा की भावना है। उन्हें लगता है कि उनकी सत्ता अब खत्म हो रही है, उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब युवाओं के आने के बाद खत्म हो रहा है, हालांकि ऐसा है नहीं। काशीनाथ सिंह युवा कथाकारों को मानवविरोधी कहते हैं, जो कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। अनुज कहते हैं, काशीनाथ सिंह से सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर नए लोगों ने कुछ नया नहीं लिखा है तो किए नए की अपेक्षा करते हैं। अनुज पूछते हैं, जो पुरानी पीढ़ी के लोग हैं, उनमें इतनी बेचैनी क्यों है कि युवा कहानीकार कुछ नहीं कर रहे हैं?
अनुज मौजूं सवाल उठाते हैं कि अभी तक पुरानी पीढ़ी का ही मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ है तो, अभी से कैसे तय हो गया कि युवा कुछ नहीं लिख रहे हैं। पहले पूरा मूल्यांकन तो होने दीजिए। कौन कहां रहेगा, यह तो समय बताएगा। कथा की दुनिया में आए हुए अनुज को अभी पांच साल ही हुए हैं। पहली कहानी वागर्थ में 2005 में आई थी। उनकी निगाहें प्रेमचंद से होती हुई रेणु, जैनेंद्र, अज्ञेय पर आकर ठहरती हैं। इसके बाद उदय प्रकाश पर आकर टिकती हैं। नई कहानी के दौर को भी अनुज नहीं भूलते, जिसमें से कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव की तिकड़ी आई थी। खैर, चलते-चलते अनुज बताते हैं कि एक उपन्यास पर काम कर रहे हैं, जिसमें देश की राजनीति है मगर फंतासी के साथ। खैर, उनका साथ छोड़ आफिस की ओर चल पड़ता हूं। 

बारूद की जमीन पर फूलों की गंध

संजय कृष्ण : जैसे कांची नदी की किस्मत, वैसी कांची गांव की। दामोदर पुंडीदीरी नदियों की कहानी भी जुदा नहीं। झारखंड की अधिकतर नदियों का दर्द ऐसा ही है। पानी-पानी को प्यासी...। पंचायत चुनाव का अंतिम चरण। 24 दिसंबर। शुक्रवार का दिन। बुंडू, तमाड़, राहे और सोनाहातू...। हम कांची नदी के समानांतर गांव तक जाती सड़क के किनारे-किनारे होते हुए कांची गांव पहुंचते हैं। नदी प्रखंडों का बंटवारा करती है। इस तरफ बुंडू, नदी के पार तमाड़। कांची बुंडू का अंतिम गांव। मिट्टी और पक्के मकान। गांव के बीच में राजकीय मध्य विद्यालय पर जवान मुस्तैद हैं। मतदाता अपनी-अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। यहां तीन बूथ हैं। तीनों पर कुल नौ सौ वोटर। मुंडा बहुल गांव में साहू, मछुआ, प्रमाणिक भी हैं। गांव के लिए बहुत संकीर्ण रास्ता है। गांव के बाहर खेत। इस साल पानी के अभाव में धान की बोआई नहीं हो पाई है। 65 वर्षीय गोपाल मुंडा कहते हैं, तैमारा घाटी से एक कांची पाइन यानी छोटी नहर आई है। पर, बरसात नहीं होने से खुद ही प्यासी है। नहर कच्ची है। सो, पानी बहुत दिन तक टिक नहीं पाता। इसकी प्यास बुझे तो खेत अवश्य लहललाने लगेंगे। इस नहर से कांची, हेट कांची और भोजडीह गांवों के खेतों को पानी मिल सकता है। पर, कोई सुनता नहीं। गांव के अरुण कुमार गुप्ता कहते हैं, पंचायत चुनाव के बाद नहर के पक्कीकरण पर जोर दिया जाएगा। वैसे, इस गांव की कई समस्याएं हैं। राजधानी रांची से महज साठ-सत्तर किमी दूर। जमशेदपुर तक जाती हाइवे की चमचमाती सड़क से एक डेढ़ किमी दूर गांव बसा है। हाइवे की सड़क गांव की सड़क को मुंह चिढ़ाती है। इसके बाद तमाड़ की ओर रुख करते हैं। रायडीह मोड़ से बुरूडीह पहुंचते हैं। बेहद खराब सड़क। राजकीय मध्य विद्यालय पर तीन बूथ हैं। तीनों पर लाइनें लगी हुई हैं। अमलेशा की महालेन भेंगरा अपना वोट डाल चुकी हैं। बस उनकी थोड़ी सी चाहत है। गांव में बिजली पहुंच जाए और खेत को पानी। बुरूडीह की शकुंतला देवी चाहती हैं कि बरसात में कादो-कीचड़ में पैर न सने। राजा पीटर का इलाका है। अब वे राज्य सरकार में मंत्री भी हो गए। पिछले चुनाव में झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को हराया था। तब शिबू राज्य के सीएम थे। उनके चुनाव हारते ही सरकार भी गिर गई थी। दुबारा चुनाव हुआ। जीते। पर, चुनाव के बाद उनका दर्शन नहीं हुआ। अब पंचायत से आस है। आजादी के 63 साल बाद भी इन गांवों में छोटी-छोटी खुशियां नहीं पहुंच पाई हैं। ये गांव मुख्य सड़क से बहुत दूर नहीं हैं। रायडीह से पुन: हम सारजोमडीह होते हुए बघाई तक पहुंचते हैं। सारजोमडीह से घना जंगल और भय हमारा साथ पकड़ लेते हैं। पुंडीदीरी नदी के पास पहुंचते ही पैर कांपने लगते हैं। नदी से गांव सटा हुआ है। चारों तरफ जंगल। सड़क बन रही है। याद होगा, डीएसपी प्रमोद कुमार को यहीं पर उड़ा दिया गया था। पर, तमाड़ का थाना प्रभारी 'चमत्कारिकÓ ढंग से बच गया था। हम आगे बढ़ते हैं। पेड़, पौधे, पहाड़ जैसे हमें ही घूर रहे हों...। एक अजीब दहशत। आस-पास खेतों में फैले सरसों के पीले-पीले फूल भी मानो हमें चेतावनी दे रहे हों, आगे मत बढऩा...। पूरी जमीन बारूदी। पर, कहीं-कहीं गेंदे के पीले फूलों की गंध हमारा ध्यान बारूदी जमीन से हटा देती है। हार्न बजाते हुए गाड़ी आगे बढ़ती है। सड़क में गड्ढे देख शरीर कांप जाता है। कहीं माइंस तो नहीं बिछा है। हम पातसायडीह होते हुए बघाई पहुंचते हैं। रायडीह मोड़ से 17 किमी दूरी तय कर घने जंगल में प्रवेश करते हैं। बघाई में खुले में मतदान हो रहा है। एक स्कूल है, जिस पर सीआरपीएफ के जवानों ने कब्जा कर रखा है। यानी स्कूल पुलिस कैंप में तब्दील। कैंप के सामने पहाड़ की तलहटी में खंखर पूस-पुआल की झोपड़ी। बांस के सहारे खड़ी। न कोई दीवाल न बेंच। पिछले चार साल से बच्चे इसी खुली झोपड़ी में पढ़ रहे हैं। चुनाव के आस-पास चार-पांच बच्चे दिखाई देते हैं। पूछता हूं, झोपड़ी में पढ़ाई कैसे होती है, कहते हैं, किसी तरह हो जाती हैं। कहीं दूसरा रास्ता भी नहीं। स्कूल में चार-पांच किमी की दूरी के बच्चे यहां पढऩे आते हैं। अब वे क्या करें। शिक्षा का कैसा मजाक झारखंड सरकार में चल रहा है...स्कूल की दशा देखकर समझ में आता है। इस रास्ते से सकुशल वापसी के बाद हम बुंडू से चुरगी का रास्ता पकड़ लेते हैं। लोआहतू, बारूहातू होते हुए। पहाड़ की तलहटी में बसा है बारूहातू गांव। चारों तरफ जंगल। सड़क की एक तरफ गांव और दूसरी तरफ पुलिस कैंप। पर, 18 नवंबर की रात माओवादी गांव में घुस गए और चार लोगों की हत्या कर दी। इनमें एक बच्ची भी शामिल थी। तीनों पूर्व माओवादी थे और अब एसपीओज थे। अब वे पुलिस के लिए काम रहे थे। रात्रि आठ बजे माओवादियों ने इनके घर पर धावा बोल दिया। गोलियां तड़तड़ाई और जंगल में समा गए। सौ गज की दूरी पर कैंप की पुलिस ताकती रही। गांव वाले पूछते हैं, जब कैंप की पुलिस हमारी रक्षा नहीं कर सकती, तो स्कूलों पर कब्जा क्यों? बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ क्यों? इसका जवाब तो राज्य सरकार की दे सकती है। खैर, पुलिस अब दूसरे ढंग से लड़ाई लड़ रही है। हम आगे बढ़ते हैं। चुरगी पहुंचते हैं। चुरगी के समानांतर कांची बहती है। यहां कांची दो जिलों का बंटवारा करती है। इस तरफ रांची और उस तरफ खूंटी। यहीं पर पांच करोड़ लूट की गाड़ी जलाई गई थी। नदी के उस पार अड़की प्रखंड, जो खूंटी जिले का हिस्सा बन गया है। माओवादी कुंदन पाहन का पैतृक घर। तीन बज रहे थे। मतदान संपन्न हो चुका था। सूरज पश्चिम की ओर ढरक रहा था। हम वापसी के लिए चल पड़ते हैं।

बहती नदी, प्यासे खेत और उदास आंखें

संजय कृष्ण:  सर्द हवाओं के थपेड़े से जंगल भी सहमे थे। सूरज की किरणों में गर्मी तो थी, लेकिन सर्द हवाओं के आगे वह भी बेबस...। यह हाल नामकुम के जंगली इलाकों से लेकर अनगड़ा, सिल्ली, मुरी तक था। 20 दिसंबर, सोमवार को पंचायत चुनाव का चौथा चरण था। रांची-मुरी मार्ग पर इक्का-दुक्का वाहन खामोशी से गुजर रहे थे। यह चुनाव का असर था कि लोग पैदल भी जाते दिखे। सुबह की बेला। खिलती धूप। अनगड़ा ब्लाक के साल्हन गांव पहुंचते हैं। मतदान केंद्र पर भीड़ है। भीड़ के पास कई तरह की समस्याएं हैं। विकास की बातें हैं। सुदेश महतो का इलाका। विकास के नाम प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के बोर्ड ज्यादा दिखाई पड़ते हैं बनिस्पत सड़कों के। रासबिहारी साहु मैट्रिक पास हैं। ठेकेदारी करते हैं। उम्मीद जताते हैं कि पंचायत चुनाव से कुछ काम होगा। ब्लाक पर बार-बार दौड़ लगाने से छुटकारा मिलेगा। गांव से थोड़ी दूर पर स्वर्णरेखा बहती है। यहां से ही नदी की धारा दिखाई पड़ती है, पर गांव और खेत दोनों प्यासे हंै। आंखें उदास हैं। यहां से वापस लौटते हैं और कोचो पंचायत के लगाम पर पहुंचते हैं। घड़ी की सुइयां 11 बजा रही थीं। प्राथमिक विद्यालय लगाम दक्षिणी पर तीन मतदान केंद्र बने हैं। बूथ संख्या 164 पर 365 मतों से 164 वोट पड़ चुके हैं। दूसरे 165 पर 342 में से 116 और तीसरे बूथ पर 166 पर 327 में से 185। सिल्ली से मुरी का रास्ता पकड़ते हैं। सिल्ली-रामगढ़ के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए हाकेदाग का रास्ता। हाकेदाग के गाझा गांव में अंतूराम माझी अवकाश प्राप्त शिक्षक हैं। वोट डाल चुके हैं। उम्मीद जताते हैं कि गांव में सिंचाई की व्यवस्था होगी। गांव में 65 घर हैं, जिनमें बेदिया, करमाली, मुंडा और 20-25 घर मुसलमान। यहां भी बुनियादी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। हालमाद गांव में कुछ दुकानें चट्टी का आभास पैदा करती हैं। हाकेदाग हालमाद से टाटी सिंगरी होते हुए डुमरा गांव। बीच में घने जंगल। तीखे मोड़। सर्पीली सड़कें और सीढ़ीदार खेत। बीच-बीच में कहीं प्यासे खेत तो कहीं सरसों के फूलों की चादर। जंगल इतना गझिन कि आगे का रास्ता भी दिखाई न दे। घाटियों से गुजरते हुए बार-बार जीवन की दुहाई। जंगल की खूबसूरती आनंदित भी कर रही थी और भयभीत भी। इस मार्ग से जाते हुए कुछ बच्चियां माथे पर सूखी लकडिय़ों का ग_र लिए चल रही हैं। उम्र यही कोई छह सात से लेकर बारह-तेरह वर्ष। कपड़े के नाम पर कुछ स्कूली डे्रस। नाम पूछने पर नहीं बताती। आज छुट्टी का दिन है उनके लिए। जोन्हा जल प्रपात पर भी दो बच्चियां अमरूद और बेर बेच रही थीं। एक शोभा कुमारी और दूसरी जसवंती कुमारी। दोनों कक्षा तीन की छात्रा। जोन्हा से चलते हुए गौतमधारा प्राथमिक स्कूल पर पहुंचते हैं। तीन बज रहे हैं। चुनाव खत्म। पीठासीन अधिकारी बक्से को सील कर रहे हैं। झारखंड जगुआर के जवान मुस्तैद। चेहरे पर इत्मीनान के भाव। स्कूल से बाहर सड़क पर युवाओं की भीड़। कुछ अधेड़ भी हैं। वे हमें घेर लेते हैं और अपनी समस्याएं गिनाने लगते हैं। पानी नहीं, बिजली नहीं। सड़क नहीं। यह जो सड़क है, वह जोन्हा तक चमचमाती जाती है, क्योंकि इस पर पर्यटक जाते हैं, पर हमारे गांव में पगडंडी भी नहीं...। हम वापसी की ओर रुख करते हैं। गांव के बाहर यानी प्रवेश द्वार पर एक पांच फीट का पत्थल गड़ा है। उस पर लिखा है, 'गुड़ीडीह सबसे अच्छा ग्रामसभाÓ। हम उम्मीद करते हैं, चुनाव के बाद पत्थलगड़ी की बात सच निकले।

वंदनवार वृक्ष, प्यासी धरती और वोटों की बारिश

संजय कृष्ण : रांची जिले के मांडर, बुड़मू, खलारी और चान्हो...चारों प्रखंडों में कहीं एमसीसी, कहीं पीएलएफआई तो कहीं टीपीसी जैसे उग्रवादी संगठन। इनके इशारे पर ही यहां की हवाएं अपना रुख तय करती हैं। आदमी की बिसात ही क्या? सोमवार का दिन। पंचायत चुनाव का तीसरा चरण। हम मांडर के अन्ना हाई स्कूल पर पहुंचते हैं। बंधु तिर्की का इलाका। वे यहां के विधायक हैं। ठंड की अलसाई सुबह के बावजूद मतदान केंद्र पर भीड़ जमी है। कहीं कोई बाधा नहीं। शांतिपूर्वक मतदान चल रहा है। वोट देकर आते रणसी खलखो से पूछता हूं पंचायत चुनाव से क्या कुछ बदलाव आएगा? कहते हैं, इसीलिए तो आधा कोस से चलकर आया हूं। माथे पर उभर आई रेखाएं उनकी उम्र का पता देती हैं। आपके प्रतिनिधि बंधु तिर्की हैं, फिर भी पीने के लिए पानी की किल्लत...। कहते हैं, कई बार उनसे कहा गया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सो, अब हिम्मत जवाब दे गई। रणसी करकच्चों गांव के हैं। गांव की आबादी वे तीन हजार बताते हैं। कहते हैं, पीने का पानी भी ठीक से मयस्सर नहीं। कुआं सूख चुका है। चापानल एक चल रह है, बाकी सब खराब। उनकी बातों की ताइद मांडर के प्यासे खेत भी करते हैं। मांडर से जब पतली सड़क पकड़ तिगोई अंबा टोली की ओर बढ़ते हैं तो सड़क के दोनों किनारे दूर-दूर तक फैले खेत अपनी पीड़ा खुद बयां करते हैं। सूखे खेतों में घास का तिनका तक नहीं। गाय-बैल-बकरी के लिए चारा जुटाना भी मुश्किल। मतदान केंद्र के बाहर खड़े अंबा टोली के पारा टीचर इम्तियाज अंसारी कहते हैं कि यहां सिंचाई को कोई साधन नहीं है। सिंचाई की व्यवस्था हो तो खेत सोना उगले। दो साल से बारिश भी ठीक से नहीं हो रही है, सो खेती प्रभावित है। इस बार धान की खेती भी नहीं हुई। इसी गांव के तिगई के सिब्बा उरांव वोट डाल चुके थे। इत्मीनान से धूप सेवन कर रहे थे। उनकी भी शिकायत वही थी। कहने लगे, चेकडैम गांव से एक किमी दूर बना है, लेकिन बारिश में बह गया। अब न पानी उसमें रुकता है न खेती हो पाती है। जनप्रतिनिधि चुनाव के दौरान आते हैं फिर वे कहां चले जाते हैं, खोजना मुश्किल। कहते हैं, पंचायत चुनाव से एक आस है। खेत प्यासे हैं, पेट भूखा है। पेट की आग तो मजदूरी से बुझा लेते हैं, लेकिन खेत...। इसी प्रखंड का हात्मा, छोटा हात्मा सब जगह एक ही नजारा था। वोट डालने के लिए लाइनें लगी थीं। मांडर की प्यासी धरती को छोड़ बुढ़मू की ओर बढ़ चलते हैं। पतली-सर्पीली राह से गुजरते हुए सड़क के दोनों ओर झाड़-झंखाड़। सिदरौल राजी टोला का वोट पंचायत भवन पर पड़ रहा है। पास में कुआं सूख चुका है। मतदान देने आए जगदीश साहु अपनी शिकायत की पोटली खोल देते हैं। न बीपीएल सूची में नाम दर्ज हुआ न इंदिरा आवास मिला। रांची में तीन हजार महीने में गार्ड की नौकरी और पांच जने का पेट। अधिकारी सुनते ही नहीं...। उमेडंडा के लैम्पस भवन पर वोटरों की भारी भीड़। अव्यवस्था का आलम। उमेश कुमार कहते हैं, छह बजे आए और 11 बजे वोट दिए। अधिकारी एकदम सुस्त हैं। यही शिकायत कई और वोटर करते हैं। एक कहता है कि यहां दो सौ वोटरों का नाम ही काट दिया गया। यहां से अब जंगल की ओर रुख करते हैं। सरले होते हुए राय बाजार, डकरा और खलारी। सरले से खलारी तक पांच किमी की दूरी और सड़क के दोनों ओर जंगल और पहाड़। सड़क के दोनों ओर सखुआ के विशाल वृक्ष वंदनवार खड़े। सूनसान सड़क। बीच-बीच में कोई आदिवासी दिख जाता है। जंगल से लकड़ी ले आता। छोटी-छोटी पहाडिय़ों पर छोटे-छोटे खपरैल के घर दूर से दिखाई पड़ते हैं। सीढ़ीदार पहाड़ और उसपर बसे मकान। जैसे दार्जिलिंग के किसी पहाड़ पर चल रहे हों...। खलारी अंतिम पड़ाव। कोयले की कालिख से पूरा शहर काला। दुकानें, मकान और लोग भी...। यहां एसीसी की खलारी सिमेंट फैक्ट्री भी है और यहीं पर सीसीएल का खदान भी है। शहर से बेहतर कस्बा इसे कह सकते हैं। यहां अस्सी प्रतिशत बिहारी हैं। खलारी से होते हुए चान्हो के चामा पहुंचते हैं। घड़ी की सुइयां तीन बजा रही हैं। मतदान केंद्र के बाहर सड़क पर काफी चहल-पहल। यहां दो बूथ हैं और दोनों पर लाइनें लगी हैं। ये अतिसंवेदनशील हैं। चुनाव अधिकारी बताते हैं कि आधे घंटे और चलेगा। वे मतदाताओं को पर्ची बांट रहे हैं। सुरक्षा में लगे जवान काफी मुस्तैद दिखे। धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते हैं। बीजूपाड़ा, मांडर होते हुए पुन: वापस। प्यासी धरती पर वोटों की बारिश आश्वस्त कर रही थी कि अब वे ज्यादा दिन तक नहीं टिकने वाली। उम्मीद की लौ हम भी जला लेते हैं...

सरसों के फूल, हडिय़ा की गंध और पठार पर कोहरा

संजय कृष्ण : रांची से नगड़ी, इटकी, बेड़ो और उससे होते हुए लापुंग। घुमावदार राहों से गुजरते हुए कभी कच्ची सड़क मिलती, तो कभी पक्की। कहीं-कहीं बेहद पतली-दुबली। सड़क के दोनों किनारों पर खिलते सरसों के पीले-पीले मुस्कुराते फूल...तो पठार और जंगलों का संग-साथ। बूंदा-बांदी के साथ नथुनों में समाती वन तुलसी की गंध। कहीं पंचायत चुनाव से बेखबर किसान धान ओसाते, तो कहीं मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की उमड़ती भीड़। लोकतंत्र की छोटी इकाई में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने को लोग बेताब। इस तरह, खूबसूरत प्रकृति की मनोहारी छटा को निहारते जब हम लापुंग प्रखंड पहुंचते हैं, तो दो बड़े होर्डिंग हमारा स्वागत करते हैं। एक होर्डिंग पर सूबे के मुखिया का हंसता चेहरा और खेलते बच्चे हैं। होर्डिंग पर बड़े-बड़े हरफों में एक स्लोगन है, पंचायत की पहली सीढ़ी, देख रही है अगली पीढ़ी। अगली होर्डिंग 32 साल बाद हो रहे चुनाव के बारे में जागरूक करता है। पर, अगली पीढ़ी...लतरातू का एक युवक करमवीर तिर्की शिकायती लहजे में कहता है, गांव में आज तक बिजली नहीं। सड़क नहीं। कच्ची सड़क से आना-जाना होता है। सिबन उरांव की उम्र साठ के आस-पास। बूढ़ी आंखें। माथे पर झुर्रियां। पूछता हूं, उम्र कितनी है। कहती हैं- का जानबे बाबू। अपनी उम्र नहीं बता पाती है। रंथी उरांव चुनाव में मशगूल है। वोटरों को उनके नाम की पर्ची खोज-खोज दे रहा है। ककरिया का फागू बैठा 50 वसंत देख चुका है। वह चुनाव से आश्वस्त है। कहता है, कुछ तो बदलाव आएगा ही....। जहां कुछ नहीं था, वहां कुछ तो होगा ही। बदना मुंडा भी पचास के पार है। वोट डालने के लिए इंतजार कर रहा है। कहता है, बहुत भीड़ है। थोड़ा निकस जाए तो जाएं। ककरिया चट्टी है। दो-चार दुकानें उग आई हैं। जरूरत की चीजें सब कुछ मिलती हैं। पाजी लोहरा अपनी पर्ची लेकर घूम रहा है। सुबह से हडिय़ा से आचमन कर चुका है। किसी दूसरे को खोज रहा है...शायद एकाध शीशी की व्यवस्था हो जाए...। पक्की सड़क छोड़कर हम कच्चे रास्ते से रामाटोली में पहुंचते हैं। चुनाव की गहमा-गहमी। चेहरे से साठ के पार लगती सुकरा मुंडाइन से पूछता हूं, वोट डाल देली। वह अपना अंगूठा दिखाती है। उसे लगता है कि हम कोई प्रत्याशी हैं, इसलिए पूछ रहे हैं। तुरंत कहती है, एक पौआ के देब...। जब तक मैं उसकी बात समझ पाता, एक युवक उसे पकड़ दूसरी ओर खींच ले जाता है...चल-चल हम देबी। यहां से दूसरे गांव की ओर रुख करता हूं। आकाश में सूरज का सुबह से ही अता-पता नहीं है। बादलों ने घेरा डाल रखा है। कभी-कभी बूंदा-बांदी। लगता है- जैसे पठार पर बैठा है खामोश कोहरा।

प्रेम गली अति साकरी

 संजय कृष्ण : हर युग में प्रेम की परिभाषा और उसकी कसौटियों को लेकर विमर्श के बिंदु उभरते रहे हैं। द्वापर के कृष्ण ने तो प्रेम की परिभाषा के बजाय उसे करना ज्यादा बेहतर समझा। वे इंद्र की तरह वासना से पीडि़त नहीं थे, बल्कि वे प्रेम के स्वस्थ प्रतीक बनकर उभरे। राधा, उनकी प्रेमिका थी, इसके अलावा उनकी चार पत्नियां भी थीं, लेकिन प्रेम किसी से कम न था। वैसे उनकी सोलह हजार पटरानियों का जिक्र भी मिलता है। लेकिन मिथक के इस अतिरेक में न भी जाएं तो, यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होगा कि पत्नि के अलावा राधा उनकी चाह थी। राम चूंकि मर्यादा में बंधे हुए थी, इसलिए मर्यादा को तोडऩे की शक्ति उनमें नहीं थी। समाज के बंधे-बंधाए नियम राम के लिए सब कुछ था। दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि राम समाज के पीछे-पीछे चलने वाले व्यक्ति थे तो कृष्ण समाज के आगे-आगे चलने वाले प्रेरणा के पुंज। इसे काल और समय का अंतर भी मान सकते हैं। संस्कृत के महाकाव्य तो प्रेमगाथाओं से भरे पड़े हैं। यम-यमी से लेकर उर्वशी-पुरुरवा तक। लेकिन यहां प्रेम देह से ऊपर नहीं उठ पाता है। मध्यकालीन संत तो प्रेम में पूरे पगे नजर आते हैं। मीरा गली-गली अपने प्रेम की पीड़ा का अहसास कराती घूम रही हैं तो कबीर प्रेम गली को इतना संकरा बताते और कहते हैं कि उसमें दो का प्रवेश नहीं  सकता। प्रेम के मामले में 'दोÓ बड़ा अर्थपूर्ण है। इसे समझने की जरूरत है। किसी ने कहा है कि दो जब एक हो जाए तभी प्रेम की सार्थकता है। जब तक शरीर का भान है, दो का बोध है, समझिए प्रेम में कोई कसक रह गयी है। कबीर ऐसे प्रेम के कायल हैं, जहां दो का अस्तित्व ही न बचे, ऐसा प्रेमी ही प्रेम की गली में प्रवेश कर सकता है और उसे पा सकता हैै।
वस्तुत: प्रेम आकर्षण से उपजता है। यह आकर्षण ईश्वर के प्रति हो, गुरु के प्रति हो या विपरीत लिंगी हो। यह सच है कि प्रेम चाहना से उत्पन्न होता है, लेकिन चाहकर आप प्रेम नहीं कर सकते। यह अनायास-अचानक घट जाता है। लेकिन समाज की अपनी आचार-संहिता होती है, जहां दो स्त्री-पुरुष के प्रेम को समाजविरोधी करार दे दिया जाता है। चूंकि समाज का अपना तर्क है। उसने विवाह नामक संस्था बनायी है। और इस संस्था से बाहर यदि कोई प्रेम करने की जुर्रत करता है तो उसे सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का दोषी माना जाता है, और इसकी सजा हर समाज ने अलग-अलग से मुकर्रर कर रखी है। प्रेम के संदर्भ में समाज की प्रकृति दरअसल तानाशाह की है। वह अपने ऊपर किसी भी प्रकार के व्यवधान का प्रतिरोध करता है। कभी-कभी आक्रामक की मुद्रा में तो कभी उसे नष्टï करने की चेतना से लैस होकर। जबकि प्रेम सारे व्यवधानों, सीमाओं या बंधनों को दरकिनार कर स्वयं में ही केंद्रित रहता है। उसके लिए किसी भी प्रकार के बंधन अस्वीकार्य हैं। एक अर्थ में यह मनुष्य की स्वतंत्रता की परम अभिव्यक्ति के रूप में उभरता है। पर समाज इस स्वतंत्रता को अपने लिए घातक समझता है। समाज की अपनी चिंताएं होती हैं तो प्रेमियों की अपनी चाह। हां, समर्थवानों को कोई समस्या नहीं है। उच्च मध्यवर्ग के लिए प्रेम कोई बड़ी समस्या नहीं है। वहां प्रेम अंतत: परिणय में परिणित हो जाता है। न भी हो तो वे एक दूजे में रस तो लेते ही हैं। सारी समस्या मध्यवर्ग के लिए है, जो रूढिय़ों और परंपराओं से चिपके रहना भी चाहता है और आधुनिकता की वकालत भी करता है। इन दोनों के बीच द्वंद्व से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला भी यही वर्ग है। दूसरे समाजों में इस तरह की बंदिशें नहीं है। आदिवासी समाज में 'घोटुलÓ नामक प्रथा स्त्री प्रेम की स्वतंत्रता का ही पक्षधर है। इस प्रथा के अंतर्गत गांव के बाहर युवक-युवतियों को एक साथ रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। वे जरूरी चीजें लेकर रहने के लिए चले जाते हैं। मौज-मस्ती करते हैं, हडिय़ा पीते हैं, नाचते-गाते हैं, तब यह फैसला होता है कि वे एक साथ रह सकते हैं कि नहीं। यदि नहीं तो, फिर किसी और के साथ।
हमारे समाज की त्रासदी यह है कि मन-मिजाज से तो हम आधुनिक दिखना चाहते है, लेकिन अपने जड़ संस्कारों पर पुनर्विचार भी करने से परहेज करते हैं। कभी ग्रंथों का हवाला देते हैं कभी सामाजिक मर्यादाओं का। लेकिन खुद इन हवालों से दूर ही रहते हैं और बार-बार नैतिकता की लाठी से प्रेम को लहूलुहान करते रहते हैं।
                                          

हाय रे हामर हीरानागपुर

संजय कृष्ण : झारखंड यानी झाड़-झंखाड़ों का प्रदेश। नदी-नालों का 'देसÓ। ऊंचे-नीचे, पहाड़-पर्वतों का देस। झरनों से निकलते संगीत का देस। मांदर की थाप पर नाचते-गाते लोगों का देस...और प्रकृति और परंपराओं के अनुरागियों का देस। एक ऐसा देस, जहां आ जाएं तो फिर लौटने का मन नहीं करता..आखिर असुर, मुंडा, उरांव जैसी जनजातियां जब यहां की धरती के पांव पखारीं तो फिर इस धरती की होकर ही रह गईं। उन्होंने यहां रहते हुए एक नई संस्कृति और समाज की नींव रखी। इसके बाद भी इस वन प्रदेश में लोगों के आने-जाने का सिलसिला कभी बंद नहीं हुआ। इस संदर्भ में यह लोकगीत शायद हमारी बात को और पुख्ता कर सकता हैै। देखं-
कहां जनमले मैना, कहां सिरजला रे
रूइदासगढ़ जनमले मैना, नागपुरे अड्डïा मारै।

बावजूद इसके यहां पहले से रह रही सदान जातियों की संस्कृति और समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, हां एक दूसरे से प्रभाव अवश्य ग्रहण करते रहे। कोई भी समाज अपनी संस्कृतियों के कारण ही पहचान का बायस बनता है और संस्कृतियों के जरिए ही उस समाज की अंदरूनी लय को समझा जा सकता है, उसके गतिशास्त्र को पढ़ा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृतियों की वाहक भाषा होती है। कोई भी संस्कृति अपनी भाषा के जरिए ही विस्तार और विश्वास ग्रहण करती है। इस अर्थ में भाषा का यहां दोहरा चरित्र हो जाता है। यानी वह संप्रेषण के साथ-साथ संस्कृति के वाहक की भूमिका भी निभाती है। अफ्रीकी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो ने लिखा है-''एक संस्कृति के रूप में भाषा इतिहास में जनता के अनुभवों का सामूहिक स्मृति-भंडार (मेमोरी बैंक) है। संस्कृति उस भाषा से लगभग पूरी तरह अविभेद्य है, इसकी उत्पत्ति, निर्माण, विकास, अभिव्यक्ति और यथार्थ में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषण का काम करती है।ÓÓ कहना न होगा कि भाषा और संस्कृति एक दूसरे को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। किसी भी संस्कृति को उसके भाषा के जरिए ही उसके मूल आस्वाद को पा सकते हैं। अनुवाद की भाषा में वह संप्रेषण नहीं होता कि हम मूल के आस्वाद को पा सकें। इसीलिए संस्कृति के खोजियों ने उन संस्कृतियों को जानने के लिए वहां की भाषा सीखी। पाली भाषा के बिना बौद्ध धर्म के मूल आस्वाद को नहीं पा सकते हैं और न संस्कृत के बिना सनातन सत्यता को समझ सकते हैं। आखिर मुंडाओं के इतिहास को जानने और उसे लिपि बद्ध करने के लिए कुमार सुरेश सिंह को मुंडारी सीखनी ही पड़ी थी। थ्योंगो ने ठीक ही लिखा है कि 'संप्रेषणीयता और संस्कृति के  रूप में भाषा एक दूसरे का उत्पाद है।Ó दूसरी बात यहां ध्यान देने योग्य यह है कि संस्कृतियों का बहुत कुछ हिस्सा 'लोकÓ से निर्मित हुआ रहता है। उन लोक कथाओं में उन संस्कृतियों के बीज छिपे रहते हैं, जो हमारी स्मृति में रचे-बसे होते हैं। लोक में ही अनेक पर्वों को मनाने की परंपरा भी निहित होती है। ये सभी तत्त्व मिलकर ही संस्कृति का निर्माण करते हैं, उसकी पहचान को रेखांकित करते हैं। केवल भौतिक उपादान ही किसी संस्कृति का निर्माण नहीं करते बल्कि उसके साथ तमाम अवयव, जो मानसिक क्रियाओं से उद्भूत होते हैं, संस्कृति के निर्माण और उसके विस्तार में सहयोगी भूमिका निभाते हैं। ऐसे में यहां यह विशेष ध्यान रखने योग्य हैंकि संस्कृति से लेकर समाज तक- एक दूसरे से प्रभाव ग्रहण करते रहे हैं और चीजें एक दूसरे में घुल-मिलकर एक दूसरे का हिस्सा बनती रही हैं। यहां प्रकृति पर्वों की अटूट शृंखला है। अभी-अभी सरहुल समाप्त हुआ है। यह पर्व नए साल के आगमन और नए फसलों की तैयारी की पृष्ठïभूमि में मनाया जाता है। इस मौसम में पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा सब गुनगुनाने लगते हैं। हिंदुओं की बात करें तो होली के साथ ही चैत महीने के चढ़ते नए साल की शुरुआत हो जाती है। आदिवासी भी इसी महीने से नए साल में प्रवेश करते हैं। फगुआ, सरहुल, झंडा, मंडा, रथयात्रा, करमा, जीतिया, ईंद ,दसँय, सोहराइ, देवउठान, मागे, आदि पर्व हिंदू और आदिवासी कुछ परिवर्तन के साथ, साथ-साथ मनाते देखे जा सकते हैं। यही नहीं, यहां के पारंपरिक लोकगीतों में देवी-देवताओं के जो नाम आते हैं, उन्हें दोनों ही मानते हैं। मुण्डारी भाषा में एक जदुर गीत गाया जाता है, जिसकी प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ है:
' हमने हल चलाते समय उसे पाया था।
हम उसे सीता नाम देंगे।Ó
( सीतान रेगे होबु नामेलिआ
सीता नुतुमेबु नुतुमिआ।)

विवाह संस्कार के अवसर पर वर-वधू के लिए मंगल कामना की जाती है। कुछ पंक्तिया देखें-
अन्न माता, लक्ष्मी माता,
खेती-कृषि की देवियां
तुम्हारे साथ वास करें...

 महाश्वेता देवी तो काली और कृष्ण, शिव और पार्वती तक को आदिवासी मूल का ही बताती हैं। हिंदुओं के अनेक पर्व और परंपराएं आदिवासियों से ही ली गयी हैं। आज आदिवासी समुदायवाचक संज्ञा है, जबकि  प्राचीन काल से लेकर अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तक उन्हें उनके नाम मसलन कोल, भील, मुडंा, गोंड़, किरात, निषाद गिरिजन आदि के नाम से ही संबोधित किया जाता रहा है। सुग्रीव, बाली और हनुमान को आदिवासी ही माना जाता है। संयोग है कि ये सभी झारखंडी हंै। एक बात और भी अचरज पैदा करती है कि जो लोग यहां के आदिवासियों को यहां के प्राचीन निवासी मानते हैं, उन्होंने इस ओर गौर किया है कि नहीं कि यहां नदियों के नाम क्यों संस्कृत में मिलते हैं-दामोदर, कोयल, कांची, स्वर्णरेखा, शंख, देवनदी आदि। इसी तरह उर्दू में भी एक नदी पहचानी जाती है-अमानत नदी। हो सकता है कि इस नदी का पूर्व नाम कुछ और रहा हो और मुगलकाल में इसे अमानत का नाम मिल गया। क्योंकि ऐसा तो नहीं है कि इस नदी का उद्भव ही इस काल में हुआ होगा। यह तो हास्यास्पद बात होगी। यहां जंगलों में जो पुरातत्त्व के अवशेष भी मिलते हैं तो उनमें शिवलिंगों की बहुतायत रहती है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि यहां नागवंशियों से संबंधित अनेक चिह्नï मिलते हैं। नागवंशियों ने यहां लंबे समय तक राज किया है। वे शिवभक्त थे और शिवप्रिय नागों के भी। शिव को लिंग के रूप में भी पूजा जाता है। एक और जाति थी-भारशिव। वह अपनी भुजाओं में शिव लिंगों को बांधे रखती थी-संभवत: इसीलिए उसे भारशिव कहा गया। डा. काशी प्रसाद जायसवाल और ललित निबंधकार कुबेरनाथ राय ने इन पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पर उनके अवशेषों पर अभी बहुत काम नहीं हुआ है और न यहां के जंगलों में बिखरे मूर्ति या अन्य पत्थरों की ओर ध्यान ही लोगों का गया है। यदि गंभीरतापूर्वक इनका अध्ययन किया जाए तो कई मिथ टूट सकते हैं और झारखंड के इतिहास के विलुप्त अध्याय पर से रहस्य के पर्दे उठ सकते हैं।
 हिंदुओं के प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण के एक महत्वपूर्ण पात्र हनुमान को भी लोग झारखंडी और आदिवासी मानते हैं और आंजन ग्राम को लोग हनुमान और उनकी माता अंजनी से जोड़ते हैं। सीता तो मुंडारी गीतों में भी रची-बसी हैं। डा.रामदयाल मुंडा की माने तो सीता शब्द मुंडारी भाषा का है, जिसका अर्थ होता है-हल चलाना। मुंडारी में मूल शब्द 'सीÓ है, जिसका वही अर्थ ध्वनित होता है। हर कोई जानता है कि राजा जनक को सीता हल चलाते समय मिली थीं। संस्कृत में सीता का अर्थ फाल ही होता है, विद्वानों ने भी सीता शब्द को इसी अर्थ में ग्रहण किया है। अरविंद कुमार अपने थिसारस में भी सीता का यही अर्थ लगाते है। संस्कृत ग्रंथों में आज की तरह आदिवासी बनाम गैरआदिवासी का विभाजन नहीं मिलता है। दोनों के बीच ऐसी कोई विभाजन रेखा थी ही नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज जो हिंदू धर्म का स्वरूप है, उसके भीतर अनेक पर्वों और त्यौहारों की जो शृंखला मिलती है-उसका बहुत कुछ उत्स यही आदिवासी समाज का सांस्कृतिक पक्ष ही है। इन रक्त संबंधों से जाहिर होता है कि किसी न किसी प्रकार इनसे आर्यों के संबंध की रेखाएं रही होंगी, तभी तो ये एक दूसरे की स्मृतियों में रचे-बसे हैं। आखिर मिथिला की सीता, मुंडाओं की स्मृति में कैसे आ बसीं? क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए।
यदि खोजा जाए तो और भी संस्कृति-सूत्र मिल सकते हैं, जिससे एक दूसरे की निकटता को संभव बनाते हैं। जैसे रावण को कुड्ुख भाषी उरावं अपना पूर्वज मानते हैं। यह भी ज्ञात हैं कि रावण ब्राह्मïण था और वैदिक शास्त्रों का अद्भुत ज्ञाता भी। और हां, शिव का भक्त तो था ही। यहां पर आज भी अनेक चिह्नï शिव से संबंधित मिलते रहते हैं। लेकिन यहां भी वही बात है कि वह छोटानागपुर का नहीं था। स्मृतियों में वह लंकावासी था। इतिहासकारों की बहुत माथापच्ची के बाद भी अभी तक रावण के स्थान को आधिकारिक रूप से चिह्निïत नहीं किया जा सका हैै। भाषाई दृष्टि से कुड्ुख और तमिल के शब्द संपदाओं पर विचार होना चाहिए। हो सकता है कि कुछ सूत्र और संदर्भ हाथ लगे। कुड्ुखभाषियों की स्मृति को भी बल मिल सकता है। इन तमाम संस्कृति-संबंधों से यह बात स्पष्ट होती है कि वैदिक काल से लेकर रामायण और महाभारत काल तक आदिवासी (हालांकि आदिवासी संज्ञा वर्तमान की देन है, खासकर रिज्ले और कर्नल डाल्टन की, जिन्होंने सबसे पहले इस शब्द को गढ़ा और प्रयोग किया, जिनका विश्वास समाज को बांटने में ज्यादा था)और आर्यों के बीच केवल सांस्कृतिक आदान-प्रदान ही नहीं होते थे, बल्कि नातेदारी भी प्रचलित थी। वैदिक काल के अनेक राजाओं और ऋषियों के वैवाहिक संबंध गैरआर्यों से भी होते थे। लेकिन हमें आदिवासी बनाम वनवासी जैसे शुद्ध राजनीतिक नारों से परहेज करना चाहिए और उनसे भी सावधान रहने की जरूरत है जो आदिवासी के नाम पर राजनीति करते हैं। जिन्हें संस्कृति की समझ होती है, वह जानते हैं कि अलगाव और बंटवारे से कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ता है, हां, उसका विकास जरूर प्रभावित होता है। अमृता प्रितम ने एक जगह लिखा है कि राजनीति बांटने में ही विश्वास और विकास करती हैै और संस्कृति जोडऩे और जुडऩे में ही अपने वजूद को कायम रख पाती है।
 सांस्कृतिक वैशिष्टï्य के बावजूद यह स्वीकार करना पड़ेगा कि झारखंड की स्थिति दिनोंदिन बदतर होती जा रही है। खनिज संपदा से भरपूर इस प्रदेश का आम आदमी गरीबी, कुपोषण और बीमारी से जूझता हुआ अपनी अंतिम यात्रा की ओर बढ़ता जा रहा है। जो सपने देखे थे, अलग झारखंड के और विकास के, वे अब भी अधूरे हैं। दूसरी ओर विकास के नाम  लोगों के विस्थापन के मद्देनजर बनी पुनर्वास की नीतियां कितनी कारगर हैं, यह कोई छिपी बात नहीं है। सोचना होगा कि आखिर हीरानागपुर कहलाने वाला यह प्रदेश क्यों दिन ब दिन 'कंगालÓ होता जा रहा है, क्यों लाखों लोग पलायन के लिए विवश होते रहे हैं, क्यों आदिवासी लड़कियां अपने 'देसÓ से दूर परदेस में जाने के लिए विवश होती हैं? हमें अपनी संस्कृति और अस्मिता को बचाने के लिए इन सवालों से टकराना ही होगा, अन्यथा 'अखराÓ सूना हो जाएगा, क्या हम ऐसा ही चाहते हैं?..... 

बचपन की दिवाली

संजय कृष्ण : दिवाली आते ही बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं। सोचता हूं यादों में खोना आदमी की फितरत तो नहीं। क्या यह मजबूरी है? आदमी क्या अपने बस में है? फिर यादें कैसे बस में हो सकती हैं? लेकिन यादें हैं कि बरबस याद आने लगती हैं। अब दिवाली को ही देखिए? बचपन में दिवाली की आहट आने से ही मन तरंगित होने लगता था। तरह-तरह के सपने तैरने लगते थे। इच्छाएं आकाश चूमने लगती थीं। तब, स्कूल जाना काफी बोरिंग लगता था। एक-एक पल जैसे पहाड़ लगता। कब दीवाली आए और घरों, मुंडेरों पर दीप जलाएं। जगमग करे सारा जहां। आखिर, प्रकाश किसको प्रिय नहीं होता! कहा भी तो गया है, तमसो मां ज्योतिर्गमय:। रात के अंधेरे में दीपों का उत्सव...। एक खूबसूरत समां। तो, बचपन की दीवाली सिर्फ इसलिए नहीं याद आ रही है कि हम मंदिरों, अपने घरों, पास-पड़ोस में दीप जलाते थे। याद इसलिए आ रहा है, दीवाली के बाद सुबह की घनघोर प्रतीक्षा करते। कब रात जाए और सुबह आए और दीपों को मुंडेरो, घरों से लूट लें...। इसके लिए कभी-कभी आपस में हम बच्चे झगड़ा भी कर लेते...। अब आप सोच रहे होंगे कि इन दीयों को लूट कर करते क्या होंगे। तो बता दें कि हम लोग दीयों को लूट का तराजू बनाते। दीयों को लेते और उसमें एक-एक दीये में तीन-तीन छेद करते और उसमें सूतली डालकर डंडी से बांध देते। डंडी का भी जुगाड़ हम लोग पहले कर लेते थे। लकड़ी के रोल में जो कपड़े लपेट कर आते, उस रोल का इस्तेमाल डंडी में करते। और, इस तरह हमारा तराजू बनकर तैयार हो जाता। अब बचपन बीते एक जमाना हो गया है। लेकिन यादों की हूंक उठती है तो मन बचपन में लौट जाता है। पता नहीं, आज के कान्वेंटी स्कूल में पढऩे वाले बच्चे अपने बचपन को आने वाले समय में किस तरह याद करेंगे?

जगजीत सिंह 70 वें जन्मदिन पर अपने चहेतों को देंगे तोहफा

संजय कृष्ण : खिलते हुए गेहुंआ रंग पर चटख लाल रंग की टी शर्ट। कंधे से झूलता लेदर बैग। चश्मे के भीतर से झांकती आंखें और उनसे बरसता नूर। आर्या होटल के रिसेप्शन कक्ष से सटे लॉन में मुखातिब गजल के शहंशाह जगजीत सिंह। राउंड टेबल द्वारा आयोजित 23 अक्टूबर की शाम-ए-गजल के सफल कार्यक्रम का चेहरे पर इत्मीनान झलक रहा था। मुख्तसर मुलाकात में बातों का सिलसिला शुरू हुआ। बात एक दो सवालों की थी, लेकिन कई सवालों का जवाब बेहद आत्मीयता से दिया।... तो रांची दूसरी बार आए थे। कहते हैं, बीस साल पहले आया था। तब काफी सिकुड़ी-सिकुड़ी थी। अब तो काफी फैल गई है। आपने ढेरों गजलें गाई हैं, कौन सी गजल आपके दिल को छूती है? वे प्रतिप्रश्न करते हैं, अब पिता से पूछ रहे हो कि आपको कौन बेटा प्रिय है? भई, पिता के लिए उसके हर बेटे प्रिय होते हैं। और शायर? शायरों के बारे में थोड़ी चूजी हूं। जो गजल पसंद होती है, उसे आवाज देता हूं। इसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। गालिब से लेकर मीर , बशीर बद्र, निदा फाजली, जावेद अख्तर, खालिद कुवैती, जिगर मुरादाबादी, पयाम सइदी तक...और भी नाम हैं...।
शास्त्रीय संगीत की तालीम और साफ जुबान को गजल गायिकी का सबसे अहम पहलू बताते हुए जगजीत सिंह कहते हैं, पिछले चालीस साल से इस क्षेत्र में हूं और तीसरी पीढ़ी को गजल सुना रहा हूं। अजब यह कि तीनों पीढिय़ां साथ-साथ भी सुनती हैं। रांची में भी शनिवार को तीनों पीढिय़ां एक साथ शाम-ए-गजल का आनंद ले रही थीं। तो एक लंबा सफर तय किया है...। अगले साल आप अपना 70 वां जन्मदिन मनाएंगे। क्या तोहफा देना चाहेंगे अपने चाहने वालों को? इसके लिए कई योजनाएं हैं। देश-दुनिया में सत्तर बेहतरीन कार्यक्रम पेश करना हैं। यह कार्यक्रम अगले साल फरवरी से शुरू हो जाएगा। सत्तर गजलों का एक एलबम भी निकालना है। चाहूंगा की रांची में भी एक आयोजन हो।    
पॉप म्यूजिक की ओर बढ़ते युवाओं के रुझान के बारे में दो टूक राय रखते हुए गजल सम्राट कहते हैं, इन्हें जो तालीम मिलेगी, वही करेंगे न! हम जो परोसेंगे, वही वे खाएंगे। इसके लिए उनसे कहीं ज्यादा हम जिम्मेदार हैं। गजल गायिकी के अपने लंबे सफर के बारे में कहते हैं, मुझे लगता है कि मैं आज भी गजल गायिकी में टिका हुआ हूं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मैंने 15-20 वर्षों तक शास्त्रीय संगीत सीखा है।
गजल सम्राट जल्द ही एक फिल्म में संगीत निर्देशन करेंगे। यह फिल्म मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की कहानी पर फिल्म बन रही है। कहानी के नाम का उल्लेख उन्होंने नहीं किया। इधर के फिल्मी गीतों के बारे में भी वे टूक जवाब देते हैं। इस जवाब से आज के फिल्मी गीतकार कुछ सबक ले सकते हैं। सिंह कहते हैं, आज ऐसे गीत लिखे-गाए जा रहे हैं कि हॉल से बाहर आते ही दिमाग से निकल जाते हैं। ऐसे गीतों का कोई भविष्य नहीं। बातें और भी होतीं...लेकिन उनके फ्लाइट का समय हो रहा था...    

मखमली घास पर ओस बन टपकी गजल

संजय कृष्ण : खुले आकाश में शरद की छिटकी चांदनी और जमीन पर फैली मखमली घास से टकराती गजल सम्राट जगजीत सिंह की कशिश भरी आवाज। कंपकंपाते होठों से झरते शब्द और हारमोनियम से खेलती उनकी उंगलियां। और, गीत-संगीत की लयबद्धता से टूटती खामोशी...। शनिवार की शाम कुछ ऐसी ही मदहोशी लेकर आई थी। रांची के जिमखाना क्लब का विशाल प्रांगण ही नहीं इस मदहोशी में झूम रहा था, पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा भी खामोशी से गजल का लुत्फ उठा रहे थे। अलाप से जगजीत ने गजल की शुरुआत की। गजल के बोल थे..ये इनायतें गजब की, ये बला की मेहरबानी, मेरी खैरियत भी पूछी किसी और की जुबानी।...ये घटा बता रही है, कि बरस चुका है पानी। गजल की इन पंक्तियों श्रोता झूम रहे थे। मानो नशे में हो। शायद श्रोताओं का मूड देख जगजीत ने उनकी पसंद की गजल सुनाई...ठुकराओ कि अब प्यार करो, मैं नशे में हूं, जो चाहो मेरे यार करो, मैं नशे में हूं...। और इस नशे से जमीं भी झूम रही थी और आसमां भी। पर, प्यार में तकरार न हो तो प्यार का मजा नहीं। बदले-वदले की बात भी प्यार में होती है। अपनी मखमली आवाज में जगजीत पूछते हैं, तुमने बदले हमसे गिन-गिन के लिए, क्या तुम्हें चाहा था इस दिन के लिए...। यह चाह ऐसी कि वस्ल का दिन भी मुख्तसर हो गया था। पूछना लाजिमी है, चि_ी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश...। माहौल में थोड़ी हरकत हुई। तालियों की गडग़ड़ाहट ने सन्नाटे को तोड़ा। इस हौसलाफजाई से जगजीत ने वही सुनाई जिसकी चाह थी..बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...। यकीनन, बात दूर तक गई। तभी, दौलत और शोहरत भी देने की बात जुबां पर आई। वाकई, क्या कोई बीते समय को लौटा सकता है। ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, मगर मुझको लौटा दे...। माहौल की रूमानियत में गजलप्रेमी सुर-समंदर में गोते लगाते हुए भीग रहे थे। चांद था, रात थी चांदनी थी... तारों की बारात भी थी और था जगजीत का साथ। और इस साथ से श्रोताओं की खुमारी बढ़ती जा रही थी। भूख ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता जा रहा था...हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले। और फिर जब अपनी मशहूर गजल सुनाई...कल चौदहवीं की रात थी ...तो फिर पूरा प्रांगण तालियों से गूंज उठा। इसके बाद उन्होंने एक से बढ़कर अपनी चर्चित नज्में सुनाकर रांचीवासियों को मंत्रमुग्ध कर दिया। रात जैसे-जैसे जवां हो रही थी, महफिल भी वैसे-वैसे गजल के सागर में गोते लगा रही थी। तुमको देखा तो ये ख्याल आया..आग का क्या पल दो पल का....बुझते-बुझते एक जमाना लगता है।

बीस रुपये में गुजारा करती लुप्त होती जनजाति

 

संजय कृष्ण : केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी आदिवासियों के जीवन स्तर में सुधार नहीं ला पा रही हैं। सो, यहां की अधिकांश आबादी आज भी आदिम युग में जीने को अभिशप्त हैं। उनकी रोजाना आय बीस रुपए से भी कम है। आंकड़े बताते हैं कि पांच सौ रुपए आय वर्ग में कुल आबादी का 70.28 प्रतिशत है। छह सौ रुपए कमाने वालों की संख्या 10.88 है। सात सौ कमाने वालों की संख्या 8.49 है। आठ सौ कमाने वाले 6.24, एक हजार कमाने वाले 2.72 और एक हजार से ऊपर कमाने वाले 1.09 प्रतिशत हैं। यह अलग बने झारखंड की कहानी है। राज्य की कुल आबादी 2,69,09,428 है। इनमें लुप्तप्राय जनजातियों की संख्या 1,92,425 है। यानी 0.72 प्रतिशत। इनमें बिरहोर (6579), परहिया (13848), माल पहाडि़या (60783), सावर (9949), सौरिया पहाडि़या (61121), हिल खडि़या (1625), कोरवा (24027), असुर (9100), बिरजिया (5393)हैं। आदिम जनजातियों की सर्वाधिक संख्या साहेबगंज में 35,129 है और सबसे कम धनबाद में महज 137। इनकी आजीविका जंगल पर निर्भर है। जंगल में वन विभाग और माओवादियों की चलती है। 2006 में वन अधिकार कानून लागू हुआ लेकिन सरकारी महकमा इसे लागू करने के प्रति उदासीन है। जिसके कारण आदिवासियों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। खेती से इनकी जीविका में सुधार हो सकता है, लेकिन सिंचाई के अभाव में इनकी अधिकांश भूमि असिंचित ही रह जाती है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि लुप्तप्राय जनजातियों के पास कृषि योग्य भूमि 23,876 एकड़ है। इनमें सिंचित भूमि 6594 एकड़ हैं और 17282 एकड़ भूमि पर सिंचाई नहीं हो पाती है। ये आंकड़े सरकार को ही मुंह चिढ़ाते हैं। उनकी योजनाओं के हश्र की कहानी बयां करते हैं। पिछले दिनों अर्जुन सेन गुप्ता ने भी अपने रिपोर्ट में लिखा था कि देश की आबादी का 80 प्रतिशत 20 रुपए रोज पर गुजारा करती है।

कम्बख्तो, मैं तुम लोगों की तरह पागल नहीं हूं...

राधाकृष्ण :  यों तो वह बिना किसी कारण के मुस्कराता रहता था।
ऐसे आदमी पागल होते हैं। अगर कोई अपने मतलब से अपने स्वार्थ से मुस्कराता है, तो वह ठीक है। कम से कम वह पागल तो नहीं है। लेकिन अगर कोई बिना वजह के मुस्कराता है तो वह मुस्कान का अपव्यय करता है। इस व्यापारिक युग में अपव्यय बड़ी खराब चीज है। इससे दिवाला निकल जाता है। सो, मुस्कान का भी अपव्यय नहीं होना चाहिए। जो फिजूल बिना कारण के मुस्कराता रहता है, वह पागल नहीं तो और क्या है?
खाने-पीने का भी उसका ठीक नहीं। जो मिला सो खा लिया। नहीं मिला, नहीं खाया। अपनी मौज में मुस्कराते रहे। जरूर ही वह पागल है, वरना खाना तो आदमी को दोनों वक्त मिलना ही चाहिए। इसी दोनों वक्त के भोजन के लिए आदमी चोरी, डकैती, घूसखोरी, जालसाजी और बेईमानी करता है। इसी भोजन के लिए राज्यक्रांतियां होती हैं, षड्यंत्र होते हैं, हत्याएं होती हैं, तख्त उलटते और पलटते हैं। भोजन ही तो सारवस्तु है। उस भोजन की ओर से लापरवाह? उस भोजन के बिना भी अलमस्त? वह जरूर पागल है। यदि वह पागल नहीं होता, तो अपने भोजन के लिए अवश्य ही जाल-फरेब करता, चोरी-डकैती करता अथवा किसी से भीख मांगता। मगर वह तो, यह सबकुछ भी नहीं करता। जरूर वह पागल है।
रहने का भी ठौर ठिकाना नहीं। जहां जमे वहीं अपना घर है। सड़क पर है, तो वहीं आराम है। जरूर वह पागल है, अन्यथा उसका कोई अपना घर जरूर होता। अगर अपना घर नहीं होता, तो कोई किराये का घर तो जरूर होता। अगर वह भी नहीं होता, तब भी किसी मकान या जमीन के लिए किसी अदालत में उसका कोई दीवानी मुकदमा जरूर चलता होगा। नहीं-नहीं वह पागल है। उसे अपने कपड़े-लत्ते का ख्याल नहीं। वह अपने भोजन की भी परवाह नहीं करता। उसके रहने का भी ठीक नहीं। ऊपर से वह बिना किसी कारण के मुस्कराता रहता है। उसके पास भीख मांगने की झोली तक नहीं और वह अलमस्त बना रहता है। जरूर वह पागल है। 
ऐसे पागल से कौन बोले? मैं भी नहीं बोलता। उसके पास तो अपनी कोई कामना नहीं। फिर वह दूसरों के काम में दिलचस्पी क्यों लेगा? जिसके पास अपना स्वार्थ नहीं, उससे दूसरे किसी का स्वार्थ कुछ भी नहीं सधेगा। वह फिजूल है। समाज और सामाजिक चेतना के लिए वह पागल है। पागल से नहीं बोलना चाहिए। मैं शाम-सवेरे, दिन-दोपहर, आते-जाते उसे बराबर देखता हूं। वह बराबर मुस्कराता रहता है, बराबर हंसता रहता है। मैं उससे बोलता ही नहीं।
वह पागल बराबर मेरे मुहल्ले में चक्कर काटता था, मेरे ही मुहल्ले में रहता था। घर तो उसका था ही नहीं। अपना पड़ोसी भी उसे कैसे कहूं? मगर वह मेरे ही मुहल्ले में रहता था।
सन 1946 की बात है। संप्रदाय और मजहब आपस में टकराने लगे। मुझे मालूम नहीं कि भगवान और अल्लाहताला कभी लड़ते होंगे, खुदाबंदा करीम और श्री रामचंद्र आपस में छूरेबाजी करते होंगे? लेकिन हिंदू और मुसलमान तो जरूर लडऩे लगे। सारा देश इस वातावरण में लीन हो गया।
फिर हमारा ही नगर क्यों चुप रहे? क्या गया के हिंदुओं ने मां का दूध नहीं पिया है? क्या मुसलमानों के पास इस्लाम की आन नहीं? अल्लाओ-अकबर! बजरंग बली की जय!!...लो, दोनों ओर ठन गई। खचाखच छुरियां चलने लगीं, बीच-बीच में बंदूकों से फायर होने लगे। फटाफट तमाम घरों के सभी दरवाजे बंद हो गए। सारे शहर में सन्नाटा छा गया। बस, कभी दूर से हर-हर महादेव की आवाज आती या फिर आत्र्तनाद का स्वर सुनाई देता। सड़कों पर लहू के धब्बे थे और निरीह की लोथ थी। ओह, कैसा बुरा वक्त था।
मगर वह पागल तब भी घूम रहा था, तब भी हंस रहा था। मैंने अपने मकान की खिड़की को खोलकर देखा। वह भागते हुए लोगों को देखकर हंस रहा था, मुर्दा पड़ी हुई लाशों को देखकर हंस रहा था।
आज पहली बार मुझे उस पागल पर ममता आई। डर लगा कि कहीं कोई उसे मार न डाले। मैंने खिड़की बंद की। जल्दी-जल्दी नीचे उतरा। पास जाकर बोला, तुम कहीं छिप क्यों नहीं जाते?
वह मुस्कराता रहा, मेरी ओर देखता रहा।
मैंने कहा-देखते नहीं, चारो ओर मार-काट मची हुई है?
उसने मुस्कराकर कहा-हां, मार-काट मची हुई है। सब पागल हो गए हैं।
वह ऐसा वक्त था कि आदमी या तो हिंदू था या मुसलमान था। इसके सिवा वह कुछ भी नहीं था। इसके सिवा वह कुछ हो भी नहीं सकता था। मेरे मन में एक संदेह ने सिर उठाया। मैंने उससे पूछा-तुम हिंदुओं की ओर हो या मुसलमानों की तरफ?
उसने हंसते हुए कहा-क्या तुम मुझे भी पागल समझ लिया है? मैं किसी की तरफ क्यों रहूं? मैं पागल नहीं हूं।
और, वह मुझे लक्ष्य करके हंसा, फिर गली की ओर चलकर मुड़ गया। जाते-जाते वह बड़बड़ा रहा था कि लोग पागल हो गए हैं कि मुझे पागल समझ रहे हैं। कम्बख्तो, मैं तुम लोगों की तरह पागल नहीं हूं।...
राधाकृष्ण की यह कहानी उनके पुत्र सुधीर लाल ने उपलब्ध कराई है। राधाकृष्ण के बारे में यही कहना है प्रेमचंद ने एक बार कहा था कि यदि पांच कहानीकारों की सूची बनाई जाए तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का भी होगा। प्रेमचंद के निधन के बाद राधाकृष्ण ने हंस का भी कुछ दिनों के लिए संपादन किया। सैकड़ों कहानियां लिखीं, दर्जनों उपन्यास लिखे। रांची से आदिवासी नामक पत्रिका का भी संपादन किया। पर, आज हिंदी के ख्यात आलोचकों का ध्यान राधाकृष्ण पर नहीं है। जबकि यह उनका जन्मशताब्दी वर्ष है। पर, हम इन्हें भूल गए। हिंदी का लेखक इतना कृतघ्न क्यों है...।
 यह कहानी क्यों, यह कहानी इसलिए कि हर ओर अयोध्या कांड को ले अरण्यरोदन जारी है। यह कहानी हमारी संवेदना को झिंझोड़ती है। 
                                                                                                                          

                                                                                                                                             -संजय कृष्ण

हेसो के आंसू को कौन पढ़ेगा


संजय कृष्ण: रांची से पचास किलोमीटर दूर नामकुम प्रखंड का एक गांव है हेसो। बस इतनी-सी दूरी में रांची और हेसो में सैकड़ों सालों का फासला है। इस गांव से थोड़ी दूर पर एक पतली छिछली नदी बहती है। उसका नाम भी हेसो है। जैसे नदी की तकदीर वैसे ही गांव की। गांव तक जाने के लिए सड़क नहीं। उबड़-खाबड़ रास्ते से होकर गांव जाना पड़ता है। कहीं-कहीं बीच-बीच में पीसी पथ। इसके बाद फिर कच्ची सड़क। कुल पंद्रह से ऊपर किमी की मुख्य सड़क से गांव की दूरी तय करने में घंटों का समय लग जाता है। पहाड़ी रास्ते की अड़चने अलग से। जब सड़क नहीं पहुंची है तो बिजली कैसे पहुंच सकती है। राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण का हाल भी यह गाव बयां करता है। जब हम किसी तरह गांव पहुंचते हैं तो गांव के लोग कौतुहल से देखत हैं। कौन आ गया? गांव के आस-पास प्रकृति का नजारा लेते हैं। गांव को सारजोम बुरु (पहाड़) चारों ओर से घेरे हुए है। खेतों में पड़ी पपड़ी बारिश का इंतजार कर रही थी। माहौल में नमी जरूर थी।
गांव की आबादी चार सौ है। कुल अस्सी घर में मुंडा आदिवासियों के 60 घर हैं। गंझू दो घर और शेष अनुसूचित जाति के। गांव में प्राथमिक पाठशाला है। इसके बाद की पढ़ाई पास के फतेहपुर गांव में जाना पड़ता है। और आगे पढऩा हो तो बुंडू। गांव से बुंडू की दूरी सोलह किमी है। सबसे नजदीक स्वास्थ्य केंद्र बुंडू में ही है। हारी-बीमारी में सबसे नजदीक स्वास्थ्य केंद्र यहीं है। स्थिति बिगड़ गई तो रांची। बुनियादी सुविधाओं के नाम पर गांव में कुछ भी नहीं। छह चापाकल में सभी खराब। लोग महीनों से हेसो नदी का पानी पी अपनी प्यास बुझा रहे हैं। चापाकल खराब होने की शिकायत पिछले छह माह से नामकुम प्रखंड में संबंधित अधिकारियों से करते आ रहे हैं। पर इनकी सुने कौन? इनका सबसे बड़़ा दोष यह है कि ये आदिवासी हैं। निरक्षर हैं। सीधे हैं। गांव में अधिकतर लोगों के पास जॉब कार्ड है। पर, काम किसी के पास नहीं। सतीबाला और फुलोकुमारी का जॉबकार्ड मई 2006 में बना। काम मिला 2007 व 2008 में महज छह दिन। हालांकि कार्ड में काम के दिनों की संख्या बीस है। सतीबाला (48) बताती है हमें छह दिन की काम मिला। इसी तरह गांव के जुरा डोम, सुखदेव मिर्धा भी हैं। इनका कार्ड भी 2006 में ही बना, पर काम आज तक नहीं मिला। मनरेगा की यह हकीकत है। काम नहीं मिलने से जंगल ही एकमात्र सहारा है, पर जंगल में नक्सली और पुलिस का आतंक है। सो, जो जवान हैं, वे तो पलायन कर रहे हैं, लेकिन बूढ़े कहां जाएं? यहां मुंडा आदिवासियों के पास कुछ खेती लायक जमीन है, लेकिन बरसात नहीं होने के कारण खेत सूखे पड़े हैं। दलित हरिजनों की हालत सबसे दयनीय है। इनके पास न जमीन है न मजदूरी। कुछ बांस की टोकरी से 20 से 40 रुपए के बीच दिन में कमा लेते हैं तो चूल्हा जलता है। भोगल सिंह मुंडा 1982 से लकवा पीडि़त हैं। पिछले चार-पांच सालों से विकलांग पेंशन के लिए प्रखंड जाते-जाते थक चुके हैं। कहते हैं, एक बार जाने में चालीस-पचास रुपए खर्च हो जाता है। कहां से आएंगे पैसे कि रोज-रोज प्रखंड का चक्कर लगाएं? कमाई का कोई साधन भी नहीं। अंबिता देवी पिछले कई सालों से विधवा पेंशन के लिए भटक रही है। लेकिन उसे पेंशन नहीं मिला। हेसो की यह कहानी यहीं विराम नहीं लेती। हेसो पुलिस की नजर में नक्सलग्रस्त इलाका है। आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर पुलिस का आतंक हावी है। दिन में पुलिस और रात में नक्सली...। पुलिस का आंतक इतना कि कोई मोबाइल भी नहीं रखता। गांव के संतोष मुंडा बुंडु में बीए में पढ़ता है। उसने एक मोबाइल क्या रख ली, आफत ही बुला ली। नामकुम थाना पुलिस ने दो दिन थाने में उसे रख पूछताछ करती रही। जब पूरी तरह आश्वस्त हो गई कि नक्सलियों से इसके संबंध नहीं हैं, तब जाकर उसे छोड़ा। अब तो उसने गांव भी छोड़ दिया है। उसकी तरह कई युवा हैं, जिसे पुलिस प्रताडि़त करती रहती है। एक युवक कहता है, पुलिस नक्सलियों का सफाया करना चाहती है, लेकिन उसका रवैया नक्सलियों की ताकत को बढ़ा रहा है। गंगाधर मुंडा कहता है कि पुलिस ने चेतावनी दे रखी है कि जंगल में मत जाना नहीं गोली लग जाएगी। जंगल इनकी आजीविका है। इस आजीविका पर भी ग्रहण लग गया। मनरेगा काम नहीं दे पा रहा। रोजगार का कोई साधन नहीं। वन अधिकार कानून को लागू करने में भी अधिकारी व वन विभाग दिलचस्पी नहीं ले रहे। पिछले साल अक्टूबर में 40 आवेदन दिए गए थे। जिनमें पांच आवेदनों का सत्यापन किया गया। लेकिन उन्हें जमीन आज तक नहीं मिली। यह हेसो की कहानी है। झारखंड में ऐसे गांवों की संख्या अधिक है। और, ऐसे ही गांवों को घेरे है नक्सलियों का लाल कारीडोर।

...ताकि जंगल खाली हो जाए

केंद्र सरकार की नजर में माओवादी आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं। लेकिन सरकार के इस चुनौती का खामियाजा आदिवासियों को उठाना पड़ा रहा है। क्योंकि ये आदिवासी एक ओर माओवादियों से त्रस्त हैं तो दूसरी ओर आपरेशन ग्रीन हंट के जवानों से। वे दो पाटों के बीच ऐसे पीस रहे हैं कि उनकी आजीविका, जल, जंगल, जमीन सब कुछ हाथ से निकलता जा रहा है। और, शायद सरकार की यही मंशा है, ताकि जंगल-जमीन खाली हो जाएं और उन्हें कारपोरेट कंपनियों को सौंपा जा सके। कुछ इसी तरह की बातें शनिवार को एसडीसी सभागार में उभरकर आईं। झारखंड अल्टरनेटिव डवलपमेंट फोरम की ओर से आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी एवं जन सुनवाई के पहले दिन वक्ताओं और पीडि़तों की आपबीती से यही लगा। कार्यक्रम में दिल्ली से आए सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण, मशहूर लेखिका व एक्टिविस्ट अरुधंती रॉय, पूर्व डीजीपी एसके सुब्रमण्यम, पूर्व न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद आदि ने धैर्य से लोगों की बातें सुनीं। संगोष्ठी का विषय था इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्राइब्यूनल ऑन आपरेशन ग्रीन हंंट।
नक्सलवाद लॉ एंड आर्डर की समस्या नहीं है : रामदयाल
विषय की शुरुआत करते हुए राज्यसभा सांसद डा. रामदयाल मुंडा माओवाद को सतह की बजाय नजदीक से देखने की अपील करते हुए कहा कि यह महज लॉ एंड आर्डर की समस्या नहीं है। समस्या के पीछे लंबी उपेक्षा और प्रताडऩा है। ग्रीन हंट के नाम पर भी यही हो रहा है। सरकार विकास को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है। आदिवासी क्यों माओवादियों के साथ हैं, यह सोचने की जरूरत है। आदिवासियों की अस्मिता, पहचान, जल, जंगल, जमीन सब कुछ दांव पर लगा है। पर, सरकार को बदल देने का एजेंडा आदिवासियों का नहीं है, इसे भी समझना चाहिए। मुंडा ने आज के विकास मॉडल पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि इससे किसका विकास हो रहा है? आदिवासियों का या अधिकारियों का? विकास पर राशि खर्च हो रही है, क्या उससे विकास हो रहा है? हमें लाइन के इस पार और उस पार दोनों ओर देखना है। मुंडा ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक का हवाला देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री से कहा कि इससे समस्या का समाधान नहीं होगा। इसे खतरा और बढ़ेगा ही। हमें लोगों को विश्वास में लेकर ही कोई काम करना होगा।
सवाल पहचान और स्वायत्तता का है : संजय बुस मलिक
जंगल बचाओ आंदोलन के अगुवा संजय बसु मलिक ने माओवाद को संदर्भित करते हुए सवाल उठाया कि आदिवासियों का एजेंडा क्या है? जबाव भी दिया, स्वायत्तता। अपना शासन, अपना कानून। उन्होंने कौटिल्य का उल्लेख करते हुए कहा कि अर्थशास्त्र में कौटिल्य में आदिवासियों पर बहुत लिखा है। जिसमें यह भी है कि राष्ट्र तभी पनप सकता है जब आदिवासियों को जीत लें। केंद्र की सरकार यही काम कर रही है। उनके जल, जंगल, जमीन पर वह आपरेशन के जरिए कब्जा करना चाहती है। मलिक ने तेलंगना, तेभागा और नक्सलवाड़ी का भी जिक्र करते हुए आदिवासियों की समस्याएं उठाई। आदिवासी क्यों माओवादियों के साथ हैं। इस पर कहा कि नक्सलवाड़ी आंदोलन में भी जंगल संताल साथ थे जो आदिवासी थे। कभी आदिवासी माओवादियों के साथ हो लेते हैं, कभी माओवादी आदिवासियों के साथ। ऐसी स्थिति के लिए केंद्र की सरकारें ही जिम्मेदार हैं।
...वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती : बीपी केशरी झारखंड आंदोलन के बौद्धिक अगुवा डा. बीपी केशरी ने अपनी बात की शुरुआत उक्त शेर से की। कहा, एक देश में कई देश हैं। गरीब-शोषितों, पीडि़तों की सुनने वाला कोई नहीं। न सरकार न पुलिस। राज्य में औपनिवेशिक विकास हो रहा है। यहां के लोग पलायन कर रहे हैं। बाहरी आकर बस रहे हैं। यह विकास का मॉडल नहीं, विनाश का है। जो इसके खिलाफ आवाज उठाता है, वह माओवादी करार दिया जाता है। आपरेशन ग्रीन हंट आदिवासियों के लिए चलाया जा रहा है, न कि माओवादियों के लिए। सरकार ने सैकड़ों एमओयू किया है। धरातल पर एक भी नहीं उतरा। इसे उतारने के लिए जरूरी है कि प्रतिरोध की शक्ति को खत्म कर दिया जाए। उन्होंने जोर देकर कहा, विकास का रंगरूप बदलना चाहिए और यह दिल्ली में नहीं गांव में बनेगा।
विकास को लेकर प्रतिबद्ध क्यों नहीं है सरकार : एलेक्स एक्का 
एक्सआईएसएस के निदेशक एलेक्स एक्का ने बड़ा मौजू सवाल उठाया। कहा, केंद्र की सरकार जितनी प्रतिबद्ध आपरेशन ग्रीन हंट को लेकर है, उतनी प्रतिबद्धता विकास को लेकर दिखाई होती तो यह स्थिति पैदा नहीं होती। उन्होंने कहा, दुर्भाग्य यह है कि जिस देश में ब्लाक स्तर पर अधिकारी हों, उसका विकास नहीं हो पाता। इसकी जिम्मेदारी किसकी है? मोटी-मोटी तनख्वाह क्यों इन्हें दी जाती है? ब्लाक में न डाक्टर न शिक्षक। यह किसकी जवाबदेही है? क्या सरकार ने ऐसे लोगों पर कभी कार्रवाई की है? विकास का कहां चला जा रहा है, इसकी छानबीन कभी की है? अच्छा शासन आप दे नहीं सकते। लेकिन आपरेशन चलाकर आदिवासियों का खात्मा जरूर करेंगे।
15 लाख हो गए विस्थापित : स्टेन स्वामी 
स्टेट स्वामी ने कहा आजादी के बाद सूबे से 15 लाख लोगों का विस्थापन हुआ। ये कहां गए, पता नहीं। अनौपचारिक रूप से तीन लोग और विस्थापित हुए। 15 लाख एकड़ जमीन गई, विकास के नाम पर। पर किसका विकास हुआ? आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए कानून बने हैं। 5वीं अनुसूची है, लेकिन उनकी जमीन की रक्षा नहीं हो पा रही है। कानून उन्हें मुंह चिढ़ा रहा है। सरकार यूएपीए के तहत लोगों को जेल में ठूस रही है। कई को फर्जी मुठभेड़ में मारकर वाह-वाही लूटी जा रही है। इससे क्या शांति स्थापित हो सकती है? क्या हम झारखंड को अशांत नहीं बना रहे हैं? इस मौके पर आरती कुजूर ने कई घटनाओं का उल्लेख किया। संंचालन पीपी वर्मा ने किया।
पीडि़तों ने सुनाई पीड़ा
दूसरे सत्र में पुलिस ज्यादतियों के शिकार लोगों ने अपनी पीड़ा सुनाई। जीतन मरांडी की पत्नी अर्पण मरांडी ने पति की गिरफ्तारी की कहानी सुनाई। तमाड़ के जगमोहन सिंह मुंडा ने क्रास फायरिंग में अपनी बेटी के मारे जाने की मर्मांतक पीड़ा का बयान किया। खूंटी के पौलूस बागे ने भी सीआरपीएफ की ज्यादतियों के बारे में बताया। पलामू छतरपुर से आए दशरथ यादव ने पुलिस कस्टडी में अपने बेटे के मारे जाने की पीड़ा बयान की। इसके अलावा भी कई लोगों ने अपनी पीड़ा सुनाई। इस दूसरे सत्र का संचालन ग्लैडसन डुंगडुंग ने किया। 

समाज से जुड़े हैं नक्सली : अरुंधती राय

जानी-मानी लेखिका अरुंधती रॉय ने माओवाद और भारत सरकार की शल्य चिकित्सा करते हुए कहा कि समाज से तो नक्सली जुड़े हुए हैं, लेकिन सरकार आजादी के बाद से आज तक नहीं जुड़ सकी। जुड़ी होती तो माओवाद पैदा ही नहीं होता।
अरुधंती रविवार को एसडीसी सभागार में 'इंडिपेंडेंट पीपुल्स ट्राइब्यूनल ऑन आपरेशन ग्रीन हंटÓ विषय पर जनसुनवाई के बाद अपनी बात रख रही थीं। कार्यक्रम का आयोजन झारखंड वैकल्पिक विकास मंच ने किया था।
विकास और नरसंहार का क्या कोई रिश्ता है? अरुधंती ने कहा औपनिवेशिक युग में विकास के लिए नरसंहार होते रहे हैं। यह रिश्ता बहुत पुराना है। जो भी आज विकसित देश बने हैं, वे अपने पीछे नरसंहार छोड़ आए हैं। लैटिन अमेरिका, दक्षिण अफ्रिका आदि देशों में विकास के लिए बड़े पैमाने पर नरसंहार किए गए। अपने देश में भी सरकार विकास के लिए आदिवासियों का नरसंहार कर रही है। आपरेशन ग्रीन हंट इसीलिए चलाया जा रहा है। इसके जरिए सरकार आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण कर कारपोरेट कंपनियों को देना चाहती है। वे धरती के गर्भ में छिपे बाक्साइट को कंपनियों के हवाले करना चाहते हैं। इससे किसका विकास होगा? देश का? नहीं। इससे कंपनियां मालामाल हो जाएंगी, हो रही हैं। सरकार के हाथों कुछ नहीं आएगा। रॉय ने कहा, देश में नई स्थिति है। अब अपने देश में ही आदिवासी क्षेत्रों में नई कालोनियां बनाई जा रही हैं। यह आंतरिक उपनिवेशवाद है।
अरुंधती ने कांग्रेस और भाजपा के समान चरित्र का उद्घाटन करते हुए कहा कि दोनों में एक ही तरह का जेनोसाइड है। यानी भाजपा के लिए हिंदुत्व पहले है और आर्थिक फासीवाद दूसरे नंबर पर है जबकि कांग्रेस के लिए पहले नंबर पर आर्थिक फासीवाद और दूसरे नंबर पर है हिंदुत्व। दोनों के लिए इंडिया चमक रहा है। यही वजह है कि देश के सौ करोड़पतियों के पास देश की संपत्ति का 25 प्रतिशत है।
रॉय ने 1986 के बाद का जिक्र करते हुए कहा कि देश और देश के बाहर कई घटनाएं घटीं। अफगानिस्तान पर अमेरिका ने अपना प्रभाव जमा लिया। उस समय पूरी दुनिया बदल गई। और, इसी समय दो घटनाएं हुई। बाबरी मस्जिद का ताला खुलना और देश में बाजार का प्रवेश। देश कहा खड़ा है, यह दिखाई दे रहा है। उदारीकरण का जिक्र करते हुए रॉय ने कहा कि नरसिंहा राव सरकार ने इंटरनेशल मानेटरी से लोन लिया। उसने दो शर्तों पर लोन दिया। 1. दुनिया के लिए बाजार खोलना व निजीकरण करना और 2. हमारे आदमी को वित्तमंत्री बनाना। उस समय रॉव ने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया, जिन्हें देश में उदारीकरण का जनक माना जाता है। देश कहां जा रहा, यह सबको पता है। इन बीस सालों में बीस रुपए रोज पर गुजारा करती है अस्सी करोड़ आबादी। इसी को हम विकास कह रहे हैं। यही कारण है कि न्यायालय, संसद, प्रेस सब कुछ खोखला हो गया है। लेकिन इन सबके बीच आशा की किरण भी हैं। रॉय ने झारखंड को संदर्भित करते हुए कहा कि यहां बड़े-बड़े कारपोरेट कंपनियों को छोटे-छोटे किसानों ने रोक रखा है। सौ एमओयू हुए हैं, लेकिन धरातल पर कोई नहीं उतरा। यहां के लोगों को मैं सलाम करती हूं। रॉय ने कहा, विकास होना चाहिए लेकिन दिल्ली में बैठकर योजना बनाने वालों की तर्ज पर नहीं। विकास के लिए आदिवासियों के पास जाना चाहिए। उनके मॉडल का विकास होना चाहिए। एक प्रश्न के जवाब में अरुंधती रॉय ने कहा कि हम माओवादियों के हर कदम का समर्थन नहीं करते हैं। इंदुवार फ्रांसिस व लुकस टेटे की हत्या की घोर निंदा करते हैं। यह यह क्रांतिकारिता नहीं है। कस्टडी में किसी की भी मौत हो, उसकी निंदा करती हूं।
इसके पहले शनिवार को बातचीत करते हुए राय ने कहा कि सरकार जंग चाहती है। ऐसा नहीं होता तो आजाद की हत्या नहीं होती। एक ओर बातचीत की तैयारी दूसरी ओर हत्या। यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती। उन्होंने छत्तीसगढ़ का उल्लेख करते हुए कहा कि सरकार चाहती है कि सलवा जुडूम के जरिए गांव के गांव खाली हो जाएं, ताकि जमीन को कारपोरेट कंपनियों के हवाले कर दिया जाए। एक सवाल के जवाब में कहा कि गरीबों का निवाला छिना जा रहा है। उनकी जमीन, जल, जंगल सबकुछ छीनी जा रही है। इसके लिए सरकार ने दो लाख जवानों को लगा रखा है। क्या लड़ाई गांधीवादी तरीके से नहीं लड़ी जा सकती। रॉय ने कहा, अब समय बदल गया है। वह दौर खत्म हो चुका है कि भूख हड़ताल से समस्या का समाधान होगा। जो खुद भूखे हैं, वह कैसे भूख हड़ताल करेंगे। अब तो लड़ाई दो तरफा है। कौन किस तरफ है या होगा, यह महत्वपूर्ण है। उन्होंने सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि सरकार असंवैधानिक तरीके से काम कर रही है। वह कानून का उल्लंघन कर आदिवासियों की जमीन छिन रही है, जबकि माओवादी संविधान की रक्षा कर रहे हैं। वे आदिवासियों के हक में लड़ रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की रक्षा कर रहे हैं। कश्मीर के सवाल पर उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या बहुत पेचीदा हो गया है। समाधान के लिए हमें कश्मीरियों की आवाज सुननी होगी। समस्या का समाधान तभी होगा।

नागार्जुन कवि थे, कैडर नहीं

 नागार्जुन को क्या किसी बद्ध आंखों से देखा जा सकता है, क्या उन्हें विचारधारा के कठघरे मे खड़ा कर उनकी कोई मुकम्मल तस्वीर बनाई जा सकती है। क्या कविकर्म और दुनियादारी में कोई फर्क है। जब हम नागार्जुन के रचना संसार पर दृष्टि डालते हैं,तो ऐसे असहज सवालों का सामना करना पड़ता है। हिंदी के प्रख्यात आलोचक व वागर्थ के संपादक विजय बहादुर सिंह ने इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढऩे की कोशिश शुक्रवार को सीसीएल के विचार कक्ष में की। दूरदर्शन, रांची द्वारा आयोजित नागार्जुन पर दो दिवसीय विचार गोष्ठी का समापन करते हुए डा. सिंह ने कहा कि नागार्जुन को देखना हो तो निगाहें खोलकर देखिए। अक्सर होता यह है कि हम अपने-अपने चश्मे से देखने लगते हैं। ऐसे में उन सात अंधों की तरह हम हाथी की तरह अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने लगते हैं। नागार्जुन विचारधारा के कायल कभी नहीं रहे। कवि और कैडर में अंतर होता है। कवि अपने दिल की आवाज सुनता है और कैडर की। नागार्जुन कवि थे, कैडर नहीं। उनके लिए विचारधारा से पहले राष्ट्र था। यही, वजह है कि चीन आक्रमण पर उन्होंने उसके खिलाफ कविताएं लिखी।
विषय प्रवेश कराते हुए डा. खगेंद्र ठाकुर ने नागार्जुन के जीवन की कई घटनाएं सामने रखीं। डा. ठाकुर ने बताया कि साहित्य का कथ्य समाज में पैदा होता है और फिर साहित्य में स्थान पाता है। बलचनमा प्रेमचंद के गोदान से आगे की कथा है, जहां नायक खेत मजदूर है। नागार्जुन  लिखते ही नहीं, लड़ाई में शरीक भी होते हैं। अमवारी में किसान आंदोलन की अगुवाई हो या फिर जेपी आंदोलन...। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का साहित्य चिंतन को प्रेरित करता है। और उनके पात्र अंधेरे में रोशनी पैदा करने वाले हैं। इस मौके पर रांची के सिद्दीक मुजीबी, अशोक प्रियदर्शी, अलीगढ़ से आए डा. वेद प्रकाश, दिल्ली से विष्णु नागर, पटना से आए अलोचना के संपादक अरुण कमल ने भी अपने विचार रखे। अरुण कमल ने कहा कि नागार्जुन की रचनाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी जीवनी लिखी जानी चाहिए।

नक्सलवाद में सरोकार थे, माओवाद में फिसलन

'पुरस्कार अच्छा लगता है।Ó यह प्रतिक्रिया है सुपरिचित कथाकार जयनंदन की। वे मंगलवार को रांची आए थे राजभाषा पुरस्कार लेने। पर, मलाल यह था कि वरिष्ठ लेखक नहीं आए पुरस्कार लेने। आते तो अच्छा लगता। 26 फरवरी, 1956 को नवादा (बिहार) में जन्मे जयनंदन की अब तक तेरह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 'श्रम एव जयतेÓ, 'ऐसी नगरिया में केहि विधि रहनाÓ, 'सल्तनत की सुनो गांव वालोÓ। ये सभी उपन्यास है। आठ कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं और दो नाटक। 1983 में पहली कहानी 'नागरिक मताधिकारÓ छपी सारिका में। तब से छपने का सिलसिला रुका नहीं। कहानी लिखना चुनौतीपूर्ण है अपेक्षाकृत उपन्यास के। ऐसा जयनंदन मानते हैं। कहते हैं, कहानी में सब कुछ समेटना होता है। थोड़े में बहुत कुछ कहना। उपन्यास में विस्तार की गुंजाइश होती है। शाखाएं, उपशाखाएं, प्रतिशाखाएं...निकलती रहती हैं। कहानी में यह अवकाश नहीं है। फिलहाल, जयनंदन टाटानगर पर उपन्यास लिख रहे हैं। युवा कथाकारों की आई नई पौध को लेकर संतुष्ट हैं। वे कहते हैं, उनकी प्रतिभा, लेखन शैली और विषय की विविधता ध्यान आकर्षित करती है। नक्सलवाद व माओवाद को लेकर कहते हैं, नक्सलवाद में वैचारिक प्रतिबद्धता थी, सामाजिक सरोकार थे। माओवाद में विकृति है। सैद्धांतिक फिसलन है। हिंसा का अतिरेक है। जयनंदन कहते हैं, इनसे सत्ता ही टकरा सकती है, लेकिन सत्ता का जो चरित्र है, वह संदेह पैदा करता है। कई नेता उन्हीं की बदौलत विधायक-सांसद बनते हैं। फिर, वे कैसे कार्रवाई करेंगे? दूसरी ओर, साहित्य केवल दिशा दे सकता है। सीधे टकरा नहीं सकता। वह वायुसेना की तरह हवाई हमला ही कर सकता है। वायुसेना थल सेना की मदद करती है। वैसे ही लेखक मदद कर सकता है। आपरेशन ग्रीन हंट से माओवाद का खात्मा हो सकता है? कहते हैं, इससे कुछ नहीं होगा। सिस्टम बदले। भ्रष्टाचार रुके। बेरोजगारी दूर हो। तभी इस नासूर बन चुकी समस्या का स्थाई समाधान हो सकेगा। अन्यथा बालू में लकीर खींचते रहेंगे। जयनंदन सधे कथाकार हैं। टाटा स्टील की गृह पत्रिका का संपादन करते हैं। राधाकृष्ण पुरस्कार, विजय वर्मा कथा सम्मान, बिहार सरकार राजभाषा सम्मान और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा युवा लेखक प्रकाशन सम्मान पा चुके हैं। कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद और नाटकों का आकाशवाणी और विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारण व मंचन हो चुका है। असहमति लिखने को प्रेरित करती है। ऐसा जयनंदन मानते हैं।
                                                                                                                                           संजय कृष्ण

संघर्ष की भूमि पर खड़ा है बाबा का साहित्य

बाबा नागार्जुन की जन्मशती पर रांची दूरदर्शन द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी 'नागार्जुन का रचना संसारÓ के पहले दिन गुरुवार को सीसीएल के विचार कक्ष में रचना और कविताओं को लेकर लंबी चर्चा चली। वरीय पत्रकार हरिवंश से लेकर शीन अख्तर, अरुण कमल, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय बहादुर सिंह, मदन कश्यप, रामदयाल मुंडा, वीपी केशरी, रविभूषण, विष्णु नागर सहित दर्जनभर से ऊपर कवि-समालोचकों ने नागार्जुन के रचना संसार पर हर ओर-छोर से दृष्टि डाली। शीन अख्तर ने शुरुआत की और बहस की जमीन हरिवंश ने तैयार की। कहा, साहित्य-संस्कृति के बिना कारपोरेट कंपनियां भी नहीं चल सकतीं। इसके बाद दिल्ली से आए वरिष्ठ आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कई कोणों से नागार्जुन को देखने की कोशिश की। बताया कि वे जनकवि थे। उनकी प्रतिबद्धता आम जनता के प्रति थी। अध्यक्षता करते हुए 'आलोचनाÓ के संपादक व कवि अरुण कमल उनकी कविता, यात्रावृत्तांत, उपन्यास आदि पर चर्चा करते हुए यह स्थापित करने का प्रयास किया कि बाबा का संपूर्ण साहित्य संघर्ष की भूमि पर खड़ा है।
 बताया, सरहपा से होते हुए कबीर, नजीर अकबराबादी, मुकुटधर पांडेय, निराला के नए पत्ते की पूरी परंपरा नागार्जुन में मौजूद है। कमल ने बहुत विस्तार से अपने विचार रखते हुए उनकी संस्कृत, बांग्ला, मैथिली कविताओं की प्रासंगिकता उद्धरण के साथ रेखांकित की। उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि वे हिंदी के ऐसे जादूगर हैं, जहां भाषा के कई रूप मौजूद हैं। तुम खिलो रात की रानी और मंत्र कविता से लेकर बाकी बच गया अंडा तक...।
निष्कर्ष यह कि वे निरंतर प्रतिपक्ष के कवि थे। कमल ने उनके उपन्यास बलचनमा के बारे में बताया कि इसमें गोदान से आगे की कथा है, जहां भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं। बाबा बटेसर नाथ, जमनिया क बाबा की भी चर्चा की। पहले सत्र का संचालन नाटककार विनोद कुमार ने किया।
दूसरा सत्र नागार्जुन की कविताओं को समर्पित था। रविभूषण ने विषय प्रवर्तन किया। अपने 40 मिनट के व्याख्यान में नागार्जुन के अड़सठ सालों की रचनायात्रा की चर्चा करते हुए कहा कि नागार्जुन की कविताओं के कई पाठ हो सकते हैं। दलित, स्त्री, आदिवासी, उत्तर आधुनिक आदि-आदि। किसी ने प्रश्न उठाया था कि झारखंड में नागार्जुन क्यों? रविभूषण ने बड़ा सटीक जवाब दिया। कहा, नागार्जुन ने मुंडा, उरांव को तब याद किया जब उनकी चर्चा कहीं नहीं थी। पद्मश्री डा. रामदयाल मुंडा ने राहुल के बाद नागार्जुन को सबसे बड़ा यायावर बताया। मौके पर एक मुंडारी गीत भी सुनाया, जिसका आशय था सब एक हैं। सबको समन्वित करो। भोपाल से आए ओम भारती ने परंपरा और आधुनिकता के बरक्स उनकी कविताओं को देखा-परखा। वहीं, कवि व द पब्लिक एजेंडा के साहित्य संपादक मदन कश्यप ने व्यापक जन सरोकारों का उल्लेख किया। मुुंबई से आए आलोचक विजय कुमार ने नागार्जुन को फकीर और साधु कहा। कई तरह के अंत की घोषणा के बरक्स विजय ने नागार्जुन की कविताओं को समझने की कोशिश की। बीपी केशरी ने हिंदी कवियों और आलोचकों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि आप गरीबों पर भी नजर डालिए। नागार्जुन की परंपरा को आगे बढ़ाइए। 'वागर्थÓ के संपादक व विशिष्ट अतिथि विजय बहादुर सिंह, जो बाबा के बहुत निकट रहे हैं, बहुत स्पष्ट कहा कि बाबा को कवि-लेखक के दायरे से बाहर निकल कर देखने की जरूरत है। किताबी तौर पर बाबा को नहीं देखा जा सकता। इससे हम खंडित नागार्जुन को देख पाएंगे। समग्र रूप से देखने के लिए उनकी हर कविता को पढ़ा जाना चाहिए। अध्यक्षीय उद्बोधन विष्णु नागर ने दिया। इस सत्र का संचालन माया प्रसाद ने किया। इसके पूर्व सभी अतिथियों को पुष्पगुच्छ व शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया।   

मेरे इलाके की धूप-छांव की कथायात्रा

अरुण कुमार : आदिवासी जीवन और समस्याओं पर लिखे इधर के हिंदी उपन्यासों में सर्वेक्षण की दृष्टि प्रधान रही है। कुछ उपन्यास अपवाद हैं, जिनमें सर्वेक्षण बिल्कुल कच्चे माल के रूप में नहीं आया है। मनमोहन पाठक का उपन्यास 'गगन घटा घहरानी', हरिराम मीणा का 'धूणी तपे तीर', मंगल सिंह मुंडा का उपन्यास 'छैला संदु'। अस्सी के दशक में श्रवणकुमार गोस्वामी के उपन्यास 'जंगल तंत्रम' का विषय जंगल के जीव-जंतुओं का संवाद है, जिसे पंचतंत्र की कथा शैली कह सकते हैं। यह समय कथा साहित्य का नहीं है। फिर भी, कथा साहित्य की दुनिया में जितने प्रयोग हो रहे हैं, उतने शायद पहले नहीं हुए होंगे। जब उपन्यास केंद्रीय विधा थी, तब के दौर में आदिवासी जीवन पर लिखे योगेंद्र सिन्हा के उपन्यास 'वन लक्ष्मी', 'वन के मन में' आदि सर्वेक्षण की नहीं थी। एक पूरा गठा कथानक उनके उपन्यास 'वन के मन में' का है। वरिष्ठ कवि विद्याभूषण (वनस्थली के कथापुरुष) ने लिखा है कि यह उपन्यास 'हो' समाज के अंतरंग से आत्मीय परिचय कराता है। इस उपन्यास में 'हो' समाज के संगठन और उनकी परंपराओं का बिल्कुल आंखों देखा चित्र आया है। ये चित्र इतने गठे और सिलसिलेवार हैं कि एक बार 'हो' के बहाने पूरे आदिवासी समाज से अंतरंग होने की इच्छा महसूस होती है। ऐसा लगता है कि एक अधिकारी किसी इलाके में नियुक्त होने के बाद अपनी लिखी डायरी को उपन्यास नहीं बनाता है। ध्यातव्य है कि योगेंद्रजी 1928 में बिहार उड़ीसा वन सेवा में आए थे और बिहार से वन संरक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। एक अधिकारी होने की नीयत से अपने इलाके का सर्वेक्षण उनके कामकाज का हिस्सा होता था। वही ठसक उपन्यास में आ जाए तो वह इतिहास या किसी साहित्येतर विषय की शक्ल ले लेगा।
आज की पीढ़ी का लेखक आत्म विज्ञापन में जीने को अभ्यस्त और कहीं मजबूर भी है। ऐसे में विरासत में मिली पूंजी भी उसकी दिनचर्या से गायब हो सकती है।
मुझसे एक बार उपन्यासकार हरिराम मीणा बोले कि अमुक पत्रिका के संपादक को मेरी अफसरी का अहसास है, लेखक होने का नहीं। मीणा उन थोड़े कथाकारों में हैं जो राजस्थान की भील जनजाति पर उपन्यास लिखने के क्रम में वहां के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीरानंद ओझा जी को भी नहीं बख्शते हैं। बड़ी साफगोई से राजस्थान की जनजातियों में सामाजिक सुधार आंदोलन करने वाले गोविंद गुरु (धूणी तपे तीर) को एक सुगठित कथानक में ढालते हैं। राजस्थान का इतिहास कर्नल टाड ने भी लिखा है और मीणा भी उपन्यास के बहाने लिख रहे हैं। फर्क देखिए, बारीकी का, कल्पना का। कहावत है, सुनसान रातों में महुआ चुपचाप रोता है। तथ्य है कि गर्मी में भी महुआ के पत्तों से पानी की बूंदें गिरती हैं। और उपन्यासकार की नजर कितनी दूर तक है कि जंगल के सियार भी रो रहे हैं। धूणी तपे तीर के नायक गोविंद गुरु की मानसिक संरचना में त्वरित विद्रोह के लिए कोई स्थान नहीं है। भगवान ने ओले बरसा दिए, फसलें नष्ट हो गई। गोविंद गुरु का किसानों को संदेश है। करम प्रधान जगत रचि राखा। गोविंद गुरु राजपूताने के राजा और ब्रिटिश राज की मैत्री पर हमला करता है। वह आदिवासियों को संगठित करता है। 1898-1900 की अवधि में दक्षिणी राजपूताने (मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़) में भारी अकाल पड़ा और अपराधकर्म में काफी वृद्धि हुई। अंग्रेज सरकार ने अपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत आदिवासियों को सूचीबद्ध कर दिया। इस पूरे प्रसंग को मीणा एक कारीगर की तरह बुनते हैं। आदिवासियों को गोविंद गुरु का एक मंत्र है फिरंगियों, महाराजा और ब्राह्मणों की तिकड़ी के खिलाफ एकजुट होना है। गोविंद गुरु का त्वरित क्रांति में विश्वास नहीं है। मानगढ़ पहाड़ की तलहटी में जमा हुए गोविंद गुरु और उनके शिष्यों की टोली से किसी आदिवासी किसान ने कहा, 'ओ गुरु महाराज, यह तो अच्छा सगुन है। मोर ने चार बार बोल दिए हैं। इसका मतलब आषाढ़ से कुआर तक चार महीने अच्छी बारिश होगी।'
धूणी तपे तीर में ऐसे प्रसंग कथानक के प्रवाह के क्रम में इस कुशलता के साथ विन्यस्त हुए हैं कि कोई इसे इतिहास की धरोहर भी न समझे, आंकड़ों का खेल भी न समझे और आदिवासी समाज को गुड्डों-गुडि़यों का खजाना भी नहीं मान लें।
मीणा का यह उपन्यास आदिवासियों के आंदोलन के लिए वैचारिक धरातल बनाता है, जिस ओर झारखंड के किसी उपन्यासकार का ध्यान नहीं गया है। विस्थापन की कथा सभी कहते हैं। परंतु उसकी जड़ तक पहुंचने और संगठन बनाने के विचार में वे पीछे रह जाते हैं। झारखंड के उपन्यासकार मंगल सिंह मुंडा के उपन्यास 'छैला संदु' में लोककथा के बहाने पूरी बस्ती के उजाड़ दिए जाने का विवरण ठोस सूत्रों में है। जैसे, सूबेदार हकीम सिंह के संभावित हादसे से आतंकित बस्ती के मवेशियों का रातोंरात कूच कर जाना इत्यादि। और फिर इसके बाद बस्ती किसानों और मवेशियों की कूच यात्रा का वर्णन और उसके साथ बदल रही प्रकृति इतने सिलसिलेवार तरीके से आई है कि जैसे पुराने समय के बायस्कोप की रील घूम रही हो। इसके बावजूद मुंडा बिरादरी में प्रचलित लोककथा की तासीर को बचाए रखने में अपनी पूरी मेहनत झोंक देते हैं। इसलिए इस उपन्यास में आदिवासियों की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि उतनी पसार नहीं छेकती है। फिर भी, उपन्यास में मुंडा बिरादरी में प्रचलित लोककथा को तीन खंडों (बाल लीला, प्रेमलीला और मृत्युलीला) में जिस तकनीक से सजाया गया है, उससे मुंडा जाति में शुरुआती दौर के परिवार की दृष्टि मिलती है।
मंगल सिंह मुंडा उस दौर की कथा कहते हैं जब मुंडा क्या किसी भी गांव-कस्बे में बाहर के किसी आदमी के आने को शक की निगाह से देखा जाता था। घटना यह है कि उपन्यास का नायक छैला अपने इलाके के सूबेदार हकीम सिंह की बेटी से प्रेम करता है। छैला पर बुंदी को भगाने का आरोप है। सूबेदार उसकी तलाश में आदिवासियों की बस्ती उजाड़ देता है।
रांची जमशेदपुर मार्ग का तमाड़ इलाका और उसके दक्षिण में कांची नदी पर मनोहर जलप्रपात (दशम) और उस पर टिका है मंगल सिंह मुंडा का उपन्यास छैला संदु। छैला संदु की कथा प्रेमकथा है। मुझे लगता है कि समय गुजरने के साथ इस प्रेमकथा पर अनेक पैबंद लगे होंगे। मंगल उस समय कथा कहते हैं, जब खेती के उत्पाद और साधन बहुत विकसित नहीं थे। छैला संदु में छैला की अनेक प्रेमिकाएं हैं, कहें गोपियां। मुंडारी साहित्य में कृष्ण काव्य की परंपरा समृद्ध रही है। इस लोक कथा पर उसकी छाप है। इसलिए बाल लीला और प्रेम लीला वाले खंड में बाहरी तत्वों (दिकुओं) के उस इलाके में प्रवेश को लेकर भारी रोष फैल जाता है। बाल लीला की जो प्रेमकथा है, उसमें बाहरी तत्वों की चर्चा नहीं है। प्रेम लीला में इस चर्चा के यह संकेत हैं कि छैला की प्रेमकथा में वक्त दर वक्त अनेक पैबंद जुड़े होंगे।
खैर, हाल ही में राकेश कुमार सिंह की एक कहानी आई है, अंधेरे से अंधेरे तक। कहानी पलामू के जनजातीय समाज की पीड़ा बयान करती है। पीड़ा है, प्लास्टिक के आम हो जाने पर तुरी का पारंपरिक रोजगार छिन जाता है। बांस का सामान बनाना मंदा पड़ने लगा। अब प्लास्टिक के टोकरे आ गए। लोहसारी का काम मंदा पड़ा। अब वहां के लोग बंदूक बनाने का काम करते हैं। ये है बाजार की तानाशाही।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने के बाद प्रत्येक बिरादरी को अपने समाज की रीत-कुरीति की जांच परख करनी चाहिए। कोई जरूरी नहीं कि पिछड़े या प्रगतिशील बिरादरी की हर रीति को आदिवासी समझ गले लगा लेना चाहिए। योगेंद्र सिन्हा के उपन्यास 'वन के मन' में हो समाज में हो रहे आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों के साथ उस समाज के अच्छे बुरे रस्म-रिवाजों का बहुत सुंदर विवरण आया है। इसका आभास हाल के कथा-साहित्य में भी मिलता है। राजनीति की अपेक्षा साहित्यकारों की परिकल्पना में आदिवासी समाज बिखरी सामाजिक आर्थिक इकाई नहीं है। उसे अपने संसाधनों का विकास करना होगा। आदिवासियों के जीवन पर लिखे साहित्य में एक बड़ा भाग इस आशय का जरूर है।
ध्यातव्य है कि आदिवासी समाज में एक तरह का विकास और सामाजिक तंत्र नहीं मिलता है। कहीं खेती बहुत पहले आई (झारखंड) और संपन्न है तो कहीं वह बहुत बाद में आई। इसलिए वहां का सामाजिक तंत्र अपने भीतर सिमटा हुआ है। इस या शायद पिछले वर्ष प्रकाशित प्रकाश मिश्र के उपन्यास 'रूपतिल्ली की कथा' में पूर्वोत्तर प्रांत की पहाड़ी रूपतिल्ली के निकट बसने वाली जनजाति समाज की पीड़ा है। यह उपन्यास मिजोरम की पृष्ठभूमि पर है। इस इलाके के कबीले में हर काम-काज, हर निर्णय सामूहिक तौर पर होते हैं। नेतृत्व भी उनके बीच से ही उभरता है। यहां बहुपति प्रथा भी है। यौन संबंध बनाने की छूट है। इस समाज की पीड़ा है, इसका आत्मस्वावलंबन। अपने में ही यह समाज बिल्कुल सिमटा हुआ है। इसकी जरूरतें अपने ही समाज से पूरी हो जाती हैं। वह दूसरे समाज की ओर क्यों देखे? ऐसे समाज में खेती का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। इसलिए इनके यहां अब भी गाय का बछड़ा, सूअर आदि काटने और उसे सामूहिक रूप से खाने और नृत्य करने का रिवाज है। प्रकाश मिश्र के इस उपन्यास में मिजोरम की खासी जनजाति में संपन्न कृषि के अभाव का ब्यौरा आया है। मजा ये इनके द्वारा भूमि पर मालिकाना हक हर साल बदलता है। हर साल उस कबीले के राजा और पुजारी की सलाह से उस जमीन का आवंटन होता है। इस आलोक में देखें तो आदिवासी समाज के विकास के लिए एक स्वतंत्र नीति बनाने की आवश्यकता है। परंतु नई धारा के साथ उसका जुड़ाव भी उतना ही आवश्यक है।
लेखक हिंदी के जाने-माने समीक्षक हैं। वसुधा के 1857 अंक का संपादन। सिनेमा पर भी लगातार लेखन।

दर्द, दमन, दहशत के बीच सोसाकुटी

संजय कृष्ण :उ (नक्सली) दिने पिटेला इ (नक्सली) राइते पिटेला। यह दर्द अकेले लुडू देवी का नहीं है। उन जैसी सैकड़ों औरतें इसी दर्द, दमन और दहशत के बीच दिन और रात गुजारने को विवश हैं। लुडू देवी रांची जिले के इटकी प्रखंड के सोसाकुटी गांव की रहने वाली है। इस गांव का कसूर यह है कि इसी गांव का गुरुवा लोहार नक्सली है। अब पुलिस पूरे गांव के साथ नक्सलियों के साथ जैसा व्यवहार करती है। किसी का किवाड़ तोड़ देना, अनाज छींट देना, पके भात को चूल्हे में ही पलट देना..आदि-आदि। और, गांव में किसी लड़की ने सूट-सलवार पहन रखा हो तो, पुलिस की नजर में उसका नक्सली होना काफी है। ललिता कुमारी की उम्र 12-13 साल है। मां बचपन में ही गुजर गई। पिता हैं। सो, पढ़ाई बीच में ही छूट गई। पिछले आठ जुलाई, गुरुवार को जब सौ से ऊपर की संख्या में पुलिस बल पहुंचा तो गांव वालों के साथ उसने यही सलूक किया। ललिता ने स्कर्ट पहन रखा था। पुलिस ने सवाल दागा.क्या गुरुवा ने दिया तेरे को। जिस उम्र की दहलीज पर ललिता है, उसे क्या पता यह गुरुवा कौन है? गांव में दहशत का आलम यह है कि कोई गाड़ी यदि बिना हार्न बजाए घुस रही हो तो गांव के लोग भागकर छिपने लगते हैं। फ्रेंडली पुलिस का यह दहशत है। गांव की ही ऐतवारी, शशिकला की कहानी भी यही है। लुडू को बेटा विपुल लोहरा, जो नवयुवक छऊ नृत्य पार्टी में काम करता है, 19 जून को छऊ मुहानी से उठा ले गई। पिता सुखराम लोहरा कहते हैं कि मामला जब अखबार में आया तब जाकर उसे जेल भेजा गया। सोसाकुटी गांव का टोला है सोसोहातु। सड़क से सिंदरी गांव और उसके पीछे सोसोहातु। गांव तक जाने के लिए कोई सड़क नहीं। न बिजली न सिंचाई का कोई साधन। पूरी तरह बारिश पर निर्भर। इस गांव में उस बासंती से उसका दर्द पूछिए, जिसे पुलिस शादी की रात ही उसके पति सत्यनारायण मुंडा को उठा ले गई। शादी करने अपनी ब्याहता को ले आया था। घर का एकलौता चिराग। सो, पिता ने जश्न में कोई कोताही नहीं बरती। देर रात तक चला पार्टी..। क्या पता था कि कुछ घंटों में पार्टी का रंग फीका हो जाएगा..। पुलिस पहले भी उसे गिरफ्तार कर जेल भेज चुकी थी। आरोप यही था कि वह दस्ते को लेवी की रकम वसूल कर और अन्य सामान पहुंचाता है। इधर, वह हालांकि वह खेती-बारी कर रहा था। लेकिन पुलिस..। उसके पिता धान सिंह मुंडा कहते हैं कि हम लोगों की स्थिति इधर कुआं, उधर खाई जैसी हो गई है। क्या करें, कहां जाए?

प्रतिरोध की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हैं आदिवासी भाषाएं

अश'्रिवनी कुमार पंकज :
'देश में अगर किन्हीं लोगों के साथ सबसे अधिक बुरा व्यवहार हुआ है तो वे मेरे लोग हैं। पिछले 6000 वषरें के दौरान उनके साथ असम्मानजनक व्यवहार हुआ है और उनकी उपेक्षा हुई है।''
- जयपाल सिंह मुण्डा (19 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में)
स्वतंत्रता, न्याय, समानता और भागीदारी, लोकतंत्र के इन चारों आयामों के संदर्भ में भारत के आदिवासी जनों का अनुभव नीम से भी ज्यादा कड़वा है। लगभग जहर जैसा। वे न सिर्फ औपनिवेशिक काल में छले, लूटे व मारे गये, बल्कि स्वतंत्र भारत में भी आंतरिक उपनिवेश बने हुए हैं। वे अपने तमाम संसाधनों से बेदखल किये गए, भाषा-संस्कृति से विस्थापित हुए और बड़े पैमाने पर धार्मिक रूपांतरण का शिकार बने। आधुनिकीकरण और विकास के पहले चरण में जहां उन्हें अदृश्य युद्धों (विस्थापन) में सब कुछ खो देना होता है, वहीं संस्कृतिकरण से पीढ़ी दर पीढ़ी धीमे-धीमे मरते रहना पड़ता है। पिछले 350 वषरें से इस आदिवासी दोहन, लूट, नरसंहार और संस्कृतिकरण की प्रक्त्रिया में कोई शिथिलता नहीं आई है। यदि कुछ शिथिल हुआ भी है, तो वह है संविधान और लोकतंत्र।
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आदिवासी समुदायों के साथ शासक वगरें का यही विश्वासघाती रवैया रहा है। आधुनिक नगरीय जीवन की चमक-दमक और विकास का मायाजाल (शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार) लेकर वे आदिवासी दुनिया में प्रवेश करते हैं और उनसे उनका सबकुछ (स्वतंत्रता, आत्मनिर्णय का अधिकार, सांस्कृतिक अस्मिता) छीनकर उन्हें अपना शासित बना लेते हैं। इसके बाद उनके ऊपर एक ऐसी सांस्कृतिक व्यवस्था आरोपित कर दी जाती है, जिससे उनकी इतिहास चेतना हमेशा-हमेशा के लिए कुंद हो जाए और वे कभी भी प्रतिरोध की हिम्मत नहीं जुटा पाएं। न्यूगी वा थ्योंगो कहते हैं, 'औपनिवेशिक ताकतें अपने आर्थिक और राजनीतिक नियंत्रण को ज्यादा से ज्यादा मुकम्मल रूप देने के लिए सांस्कृतिक परिवेश पर अपना नियंत्रण बनाने की कोशिश करती हैं। शिक्षा, धर्म, भाषा, साहित्य, गीत, नृत्य के विविध रूप, अभिव्यक्ति के प्रत्येक रूप आदि पर नियंत्रण करके वे जनता के समग्र मूल्यों पर नियंत्रण हासिल कर लेती हैं और अंतत: जनता के विश्वदृष्टिकोण पर भी उनका नियंत्रण हो जाता है और इसी के अधीन लोग खुद को परिभाषित करने लगते हैं।' (न्गुगी वा थ्योंगो: भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृष्ठ 54)
भाषा-संस्कृति का सवाल सीधे-सीधे सांस्कृतिक अस्मिता और आर्थिक-राजनीतिकी स्वायत्तता से जुड़ा है। अगर आज समूची दुनिया के प्रथम नागरिकों का अस्तित्व खतरे में है, तो इसके कारण उस 'ऐतिहासिक अन्याय' में निहित हैं, जिसके लिए विकसित देशों (आस्ट्रेलिया आदि) को आज अपने मूल निवासियों एवं आदिवासियों से माफी मांगनी पड़ रही है। इस ऐतिहासिक अन्याय के कारण ही भारत के 699 आदिवासी समुदायों में से 52 का पूरी तरह से खात्मा हो चुका है। यही नहीं वे आज भी भारतीय राजसत्ता और कॉरपोरेट घरानों के हिटलिस्ट में सबसे पहले नंबर पर हैं। वे आधुनिक दुनिया की शुरुआत के समय से ही 'विकास' का सबसे पसंदीदा शिकार रहे हैं। उन्होंने राष्ट्र निर्माण की प्रक्त्रिया में सबसे ज्यादा कीमत चुकायी है और देश के किसी भी नागरिक समुदाय की तुलना में सबसे कम पाया है। जहां तक भारत के आम गरीब-वंचित जनता की बात है तो तथ्य यह भी है कि 'सत्ता हस्तांतरण' के 62 सालों बाद भी जनता का 80 प्रतिशत हिस्सा 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम पर गुजर बसर कर रहा है। वहीं सबसे धनी 100 परिवारों की कुल आय देश के जीडीपी का 25 प्रतिशत है। ये तथ्य हमें भारतीय शासकवर्ग की जनता के जीवन और स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता के बारे में संदेह करने के लिए बाध्य करते हैं।
आदिवासियों के इस संदेह को स्वाधीनता प्राप्ति (सत्ता हस्तांतरण) के समय ही जयपाल सिंह मुण्डा ने तीखी अभिव्यक्ति प्रदान की थी। जब उन्होंने 19 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में ऑब्जेक्टिव्स रिजॉल्युशन पर बोलते हुए यह कहा था, 'मैं भी सिंधु घाटी की सभ्यता की ही एक संतान हूं और उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकांश बाहर से आए हुए घुसपैठिए हैं। जहां तक हमारी बात है, बाहर से आए हुए लोगों ने हमारे लोगों को सिंधु घाटी से जंगल की ओर खदेड़ा। हम लोगों का समूचा इतिहास बाहर से यहां आए लोगों के हाथों निरंतर शोषण और बेदखल किए जाने का इतिहास है। .. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू की बात पर यकीन करता हूं, मैं आप सबकी इस बात पर यकीन करता हूं कि हम एक नए अध्याय की शुरुआत करने जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत का एक नया इतिहास जहां अवसरों की समानता होगी, जहां किसी की उपेक्षा नहीं की जाएगी।' पर हम देखते हैं कि स्वाधीन भारत में आदिवासियों की इस उम्मीद और विश्वास को कोई तरजीह नहीं दी गई। सिर्फ भाषा का उदाहरण ही लें तो 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं थीं। 2001 में यह संख्या घटकर मात्रा 234 रह गई। अर्थात् पिछले चार दशक में भारत 1418 भाषाएं खो चुका है। हो सकता है कि यह आंकड़ा कुछ कम हो, क्योंकि इसमें उन भाषाओं की गिनती से बाहर रखा गया है, जिन्हें बोलनेवालों की संख्या दस हजार से कम है। फिर भी यह आंकड़ा तेजी से सिकुड़ रहे भाषाई गणतंत्र और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र 'भारत' की अत्यंत भयावह तस्वीर पेश करता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि पिछले 40 वषरें में विलोपित हुए भाषाई समुदायों को सामाजिक, राजनीति, आर्थिक, सांस्कृतिक सहित जीवन के सभी स्तरों पर जबरदस्त आघातों से गुजरना पड़ा है, जिनकी सुरक्षा-संरक्षण का उल्लेख भारतीय संविधान में किया गया है। साथ ही जब हम यूनेस्को द्वारा फरवरी 2008 में जारी 'खतरे में पड़ी भाषाओं का विश्व-मानचित्र' देखते हैं, जिसके अनुसार भारत की 196 भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है तो पाते हैं कि भाषाई, जातीय व सांस्कृतिक घृणा, उपेक्षा और भेदभाव की यह प्रक्त्रिया निर्बाध रूप से जारी है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सबसे तेज़ी से भाषाओं के ग़ायब होने की दर भारत में ही है। इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहां 192 ऐसी भाषाएं हैं और फिर तीसरे नंबर पर है इंडोनेशिया, जहां 147 भाषाएं दम तोड़ रही हैं। यूनेस्को के अध्ययन के मुताबिक हिमालयी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में करीब 44 भाषाएं-बोलियां ऐसी हैं, जो जन-जीवन से गायब हो रही हैं, जबकि उड़ीसा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में ऐसी करीब 42 भाषाएं विलुप्त हो रही हैं। भाषाओं का इस भयानक तेजी के साथ अदृश्य होते जाना सामाजिक विविधता के लिए भी चिंता की बात है। विशेषकर, ग्लोबलाइजेशन के बाद समाज के सभी आयामों में उन समुदायों के प्रति हिंसा-दमन का दौर पहले से और बर्बर, और अधिक तीव्र हुआ है, जो मुख्यधारा से बाहर की भाषाएं बोलते हैं। ये वे लोग हैं, जो भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 8.4 प्रतिशत हैं (लगभग साढ़े आठ करोड़), लेकिन संसाधनों की दृष्टि से देश के सबसे समृद्ध समुदाय हैं।
इन समृद्धशाली समुदायों के साथ भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना है। वैदिक काल से लेकर अब तक के लिखित साहित्य में उनके अमानवीय शोषण, दोहन, और दमन की अंतहीन कहानियां बिखरी पड़ी हैं। 'माओवाद से देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा' के नाम पर पिछले वर्ष से आदिवासी इलाकों में शुरू हुआ 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' रक्तरंजित इतिहास और सत्ता के दमनकारी कारवाइयों की सबसे ताजा बर्बर कड़ी है। गौर करने लायक बात यह है कि माओवाद (नक्सलवाद) उन इलाकों में संगठित है, जो इलाके देश में सबसे ज्यादा खनिज सम्पदा से भरे पूरे हैं, लेकिन साथ ही साथ वहां रहने वाले आदिवासी समुदायों की गरीबी और बेरोजगारी चरम पर है। ये वे इलाके हैं, जिनका निजी और सरकारी कंपनियों ने पूरा दोहन किया है, परंतु छोड़ा सिर्फ विस्थापन, भुखमरी, गरीबी व संस्कृतिकरण है। ऑपरेशन ग्रीन हंट इसलिए चलाया जा रहा है, क्योंकि इन क्षेत्रों में खनिज और खनिज आधारित उद्योगों के लिए किये गये सैकड़ों करारों (एमओयू) के क्त्रियान्वयन में आदिवासी एवं अन्य स्थानीय समुदाय जबरदस्त प्रतिरोध पैदा कर रहे हैं। इस प्रतिरोध को कमजोर किये बिना भारत सरकार की खनिज और साथ ही उसकी एफडीआई नीति कार्यान्वित नहीं हो सकती है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कॉरपोरेट घरानों के साथ कई खरब डॉलर के सैंकड़ों समझौतों पर दस्तखत किये हैं। स्टील प्लांट, स्पंज आयरन फैक्टरी, पावर प्लांट, एल्युमिनियम रिफाइनरी, बांधों और खदानों के लिए किये गये ये सारे समझौते गोपनीय हैं। लिहाजा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कांग्रेस, बीजेपी, और सीपीएम में 'निवेश और त्वरित आर्थिक विकास के लिए' अनुकूल वातावरण बनाने के प्रश्न पर आम सहमति है। स्पष्ट है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट भारत के उन प्रथम नागरिकों के अस्तित्व को बर्बरतापूर्वक कुचल देने की कार्रवाई है, जो अन्यायपूर्ण विकास का विरोध करते हैं, राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ खड़े हैं तथा अपने पूर्वजों की धरोहर को बचाकर रखना चाहते हैं।

ेदेश के पहले आदिवासी उपन्यासकार थे मेनस ओड़ेया


संजय कृष्ण : देश के पहले आदिवासी उपन्यासकार थे मेनस ओड़ेया (1884-1968)और पहला उपन्यास है 'मतुराअ: कहनि'। उपन्यास प्राचीन मुंडारी में 1920 के आस-पास लिखा गया। हालांकि यह बीसवीं शताब्दी के पिछले दशक में यानी 1984 में प्रकाशित हुआ, लेकिन लिखा गया बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में। एक लंबा अंतराल लिखने और छपने के बीच। कारण, 1700 पृष्ठों का होना और भाषा मुंडारी। कोई प्रकाशक तैयार नहीं। कैसे छपे उपन्यास। कौन थे मेनस और कहां से मिली उपन्यास लिखने की प्रेरणा? कहानी बड़ी दिलचस्प है।
मेनस ओड़ेया 'इनसाइक्लोपीडिया आफ मुंडारिका' के संकलनकर्ता फादर हाफमैन के स्टेनो थे। करीब पांच हजार पेजों की सामग्री उन्होंने टंकित की थी। टंकण के समय ही यह विचार आया, क्यों न इन सामग्रियों से एक उपन्यास की रचना कर दूं, उनकी भाषा में उनके लिए। इसी बीच विश्वयुद्ध छिड़ गया। फादर जर्मन थे। सो, अंग्रेजों ने उन्हें अपने वतन लौटने का हुक्म सुना दिया। फादर जर्मनी अपने गांव लौट गए और वहीं से सामग्री रांची भेजते फिर पटना जाता छपने के लिए। कहते हैं, फादर अंतिम दिनों में गठिया से ग्रसित हो गए थे और उन्हें टाइप करने में काफी दिक्कत होती थी। एक छोटी सी हथौड़ी के सहारे वे टाइप करते। एक अक्षर टाइप करने में कई मिनट लग जाता। फिर भी, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। यह संयोग देखिए कि इनसाइक्लोपीडिया का अंतिम भाग डिस्पैच जिस दिन भेजा, उसके दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने अंतिम डिस्पैच करते समय लिखा, 'ईश्वर को धन्यवाद कि अब मुझको टाइप नहीं करना पड़ेगा।' रांची छोड़ने से पहले फादर सर्वदा मिशन खूंटी में रहते थे और यहीं पर मेनस भी उनके साथ रहते थे। एक बार भगवान बिरसा ने इस मिशन पर हमला कर दिया था। सौभाग्य से दोनों बच गए। उस समय भगवान बिरसा का आंदोलन चरम पर था। मेनास ने भगवान के आंदोलन को भी नजदीक से देखा था। वे खुद भी मुंडा थे। सो, अपने समाज के बारे में जानते थे। रही-सही कसर फादर के शोध अध्ययन से पूरा कर लिया। यहीं से उपन्यास का बीज पड़ा- 'मतुराअ: कहनि'। इस उपन्यास के केंद्र में नायक मतुरा है। मतुरा खूंटी के पास एक नई बस्ती बसाता है। उस बस्ती में एक ही गोत्र के लोग रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे गोत्र के लोग भी पहुंचते हैं और बस्ती बड़ी होने लगती है। अब नई बस्ती की जरूरत पड़ती है। पाहन पहाड़ों से पत्थरों को लुढ़काता है। गांव का सीमांकन किया जाता है। मुंडा गांवों को ससनदिरि (श्मशान का पत्थर) ही विभाजित करता है। यहीं से कहानी शुरू होती है। हिंदी-मुंडारी भाषा के विद्वान और इस उपन्यास को प्रकाशित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रो दिनेश्वर प्रसाद ने इस कृति के बारे में लिखा है, 'मथुरा की कहानी मुंडा जीवन का महाभारत है। महाभारत के विषय में कहा जाता है, यन्न भारते तन्न भारते। यानी जो महाभारत में नहीं, वह भारत में भी नहीं। यह उपन्यास भी कुछ ऐसा ही महत्व रखता है। यह उपन्यास की शक्ल में मुंडा जीवन का विश्वकोश है। इसमें मुंडा समाज, संस्कृति एवं इतिहास की प्रत्येक जानकारी उपलब्ध है।' मेनस का अंतिम दिन कष्ट में बीता। वे लोगों के स्नायु और हड्डी जोड़ आदि बीमारियों का इलाज कर अपना जीवन यापन करते थे। लंबा कद और गठा शरीर था। खैर, उनके जीते जी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी। 1934 में फादर पोनेट रांची आए। इन्होंने भी मुंडारी भाषा पर काफी काम किया। बहुत प्रयास किया इसके प्रकाशन के लिए, पर वे अपने जीवन के अंतिम काल में ही इसे प्रकाशित करवा सके कैथोलिक प्रेस से। फिलहाल, इसके हिंदी अनुवाद को लेकर प्रो दिनेश्वर प्रसाद और अश्विनी कुमार पंकज सक्रिय हैं।

रेड अलर्ट : रियल कम, अनरियल ज्यादा

नक्सल आंदोलन पर बनी अनंत महादेवन निर्देशित फिल्म 'रेड अलर्ट: द वार विद इनÓ जिस नाटकीयता के साथ शुरू होती है, उसी नाटकीयता और आश्चर्य के साथ समाप्त हो जाती है। चालीस साल से चल रहा आंदोलन बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो जाता है। पुलिस कहती है कि हम उनसे लडऩे में सक्षम नहीं हैं, वही पुलिस नक्सलियों का खात्मा कर देती है। निर्देशक का यह दावा कि यह रियल स्टोरी पर आधारित है, पर कहीं-कहीं यह वास्तविकता से दूर भागने लगती है।
फिल्म में नक्सली स्कूल पर दिन में धावा बोलते हैं। वहां पुलिस ने कैंप किया है और बच्चे पढ़ रहे होते हैं। पुलिस-नक्सली की क्रास फायरिंग में एक स्कूली बच्चा मारा जाता है। आगे चलकर इसका प्रभाव नरसिम्हा (सुनील शेट्टी) पर पड़ता है, जिसे दस्ते में जबरदस्ती शामिल कर लिया गया था। नरसिम्हा गांव का एक सीधा-सादा युवक है, जो किसी के कहने पर जंगल में नक्सलियों को खाना पहुंचाने जाता है। उसके वहां पहुंचते ही पुलिस भी पहुंच जाती है और क्रास फायरिंग शुरू हो जाती है। इसमें तीन लोग मारे जाते हैं। नरसिम्हा किसी तरह बच जाता है। पर, दलम के लीडर वेलू अन्ना (आशीष विद्यार्थी) उसे जाने नहीं देते और खाना बनाने के साथ-साथ बंदूक चलाने की ट्रेनिंग शुरू कर देते हैं। नरसिम्हा गिड़गिड़ता है, अपनी पत्नी (भाग्यश्री) और दो बच्चों का हवाला देता है। पर, लीडर नहीं पिघलता। फिल्म के अंत तक नरसिम्हा नहीं बदलता। बार-बार इस तरह की 'अनावश्यकÓ हिंसा उसे विचलित करती है। पूछता है, दोनों ओर तो अपने लोगां हैं। जब नरसिम्हा अपने लीडर की हत्या कर भागता है तो उसे पत्रकार की याद आती है।
खैर, एक पत्रकार (मकरंद देशपांडे) के सवाल पर अन्ना कहता है हम सिस्टम के खिलाफ हैं और आतंकवादी देश के। फिल्म में चेग्वारा की शक्ल का एक बौद्धिक पात्र भी है। नरसिम्हा से एक बार कहता है, हथियारों से ज्यादा ताकत होती है शब्दों में। फिल्म में तेंदु पत्ता तोडऩे की मजदूरी के सवाल भी हैं। भ्रष्टाचार, शोषण, गरीबी की समस्या को उठाया गया है। सेज की समस्या को भी सतही ढंग से दिखाया गया है। नसीरुद्दीन शाह की इंट्री भी नाटकीय ढंग से होती है। फिल्म में दो-चार मिनट की भूमिका है, लेकिन प्रभावशाली। लक्ष्मी (समीरा रेड्डी )की इंट्री भी कुछ इसी अंदाज में होती है। थाने में जब नक्सली धावा बोलते हैं, एक कमरे में सिसकती हुई मिलती है। नक्सली उसे अपने साथ उठा ले जाते हैं। वह भी दलम में शामिल हो जाती है। लेकिन मुठभेड़ में मारे जाने के बाद कुछ नक्सली बच निकलते हैं, जिनमें लक्ष्मी भी है, जो थाने में ही आत्महत्या कर लेती है। उसकी भूमिका ग्लैमरस नहीं है, लेकिन वह अपना प्रभाव छोडऩे में कामयाब होती है। विनोद खन्ना, सीमा विश्वास, आयशा धारकर ने भी अपने-अपने हिस्से की भूमिका धारदार ढंग से निभाई है। सुनील शेट्टी और समीरा की भूमिका बेहद कमजोर है, लेकिन अपने अभिनय से दोनों दर्शकों को बांधे रहते हैं। स्क्रिप्ट मजबूत है, संवाद की डिलीवरी भी कमजोर नहीं है। लोकेशन फिल्म को वास्तविकता प्रदान करता है। कसी हुई फिल्म के बावजूद उसका अंत अत्यंत सतही ढंग से होता है। अंत में आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के पुत्र के एक कोटेशन, फाइंउ एनॉदर वे के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है। बेशक, महादेवन ने मेहनत की है, लेकिन नक्सल आंदोलन पर और गहराई से सोचने और शोध की जरूरत थी। नक्सलवाद और आतंकवाद का घालमेल विचार विभ्रम की स्थिति पैदा करता है। जंगलों में माओवादियों के रहन-सहन, खान-पान, देह की भूख आदि चीजों को भी समेटा गया है। ऐसी फिल्मों में गीत की गुजांइश नहीं होती है। है भी नहीं। गीत का एक मुखड़ा जरूर पाश्र्व संगीत के साथ सुनाई देता है। 1980 के दशक में स्मिता पाटिल की 'द नक्सलाइट्सÓ फिल्म 2002 में आई 'लाल सलामÓ की ही कतार में यह खड़ा होती है।
प्रस्तुति: संजय कृष्ण