1917 में पहली बार टाना भगत से मिले गांधी


'गांधी बाबास बड़ा लीला धारेस/ चरेखा ले ले मेरे ओजदस/ अंग्रेज सरकार बड़ा पापी रहचा/ गांधी बाबासीन कैदी नंजा/ कैदी नंजा बरा लाबागे लागिया/ मं गांधीस अंग्रेजन खेचस चिचस...।
यानी, महात्मा गांधी बहुत लीला वाले महापुरुष थे। वे चरखा द्वारा सूत काते थे। अंगरेज बहुत आततायी थे। गांधी बाबा को कैद कर लिया था और मारना चाहा था, परंतु अंत में अंगरेज को भागना पड़ा।
गांधी दुनिया के लिए महान पुरुष होंगे पर झारखंड के लिए वे भगवान हैं। टाना भगत उन्हें भगवान मानते हैं और तिरंगे को भी। 
1917 की घटना है, जब टाना भगत  गांधीजी से मिले। गांधीजी से ये इतने प्रभावित हुए कि पूरा ताना-बाना ही इनका बदल गया।  1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे।
 चार साल बाद, पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी
मोहनदास करमचंद गांधी रांची में पहली बार 920 में आए थे। असहयोग आंदोलन के सवाल पर वे देश का दौरा कर रहे थे, उसी क्रम में रांची भी आए। इसी साल रांची में जिला कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया। गांधीजी जब रांची आए तो यहां उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। आदिवासियों की स्थिति को देखकर ही उन्होंने कई योजनाएं भी चलाईं। अपने गृह प्रदेश गुजरात में भी उन्होंने 1920 में आदिवासियों की स्थिति देखी थी। वहां पर भील सेवा मंडल की स्थापना की गई। यह देश की पहली संस्था थी, जो सिर्फ आदिवासियों के कल्याण, विकास और बेहतर जीवन निर्माण की दिशा में काम करने के लिए बनी थी। इसके बाद संयुक्त बिहार में 'आदिम जाति सेवा मंडलÓ का गठन रांची में किया गया। इसके बाद दर्जनों संस्थाएं विभिन्न प्रांतों में गठित की गईं। उन्होंने ठक्कर बापा को उत्साहित किया और उनके इशारे पर ठक्कर बापा के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता गुजरात, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि स्थानों में, आदिवासियों की सेवा कार्य में जुट गए।
ठक्कर बापा का असली नाम अमृतलाल ठक्कर था। उन्होंने इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की थी और कुछ समय तक रेल विभाग में सहायक अभियंता रहने के बाद पांच साल तक वे पोरबंदर राज्य में मुख्य अभियंता रहे। वर्ष 1913 के अंत में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। बाद में गांधी जी ने उन्हें वंचितों की सेवा में लगा दिया। उस समय उनकी आयु 44 साल थी। इसके बाद वे वंचितों, हरिजनों और आदिवासियों के लिए काम करते रहे।