सूर्य की तरह उगे धरती आबा बिरसा

15 नवंबर, 1875 को गुरुवार को धरती आबा ने जन्म लिया था। इसलिए नाम पड़ा बिरसा। बचपन से ही बिरसा के रंग-ढंग अलग होने लगे थे। सोच के स्तर पर भी और काम के स्तर पर। इसलिए, जब बिरसा महज बीस साल के थे तब 1895 में द क्वार्टली पेपर्स, एसपीजी मिशन के अक्टूबर अंक में बिरसा पर एक लेख प्रकाशित हुआ, 'ए लोकल प्रोफेटÓ। बिरसा पर यह संभवत: पहला लेख था। यानी, बीस की उम्र में बिरसा ने अपने काम से एक पुख्ता पहचान बना ली थी। उनके जीवन में प्रकाशित यह पहला लेख था। संस्कृतिकर्मी व लेखक अश्विनी कुमार पंकज ने कुछ और चीजें खोजी हैं। गोस्स
नर मिशन से बिहार-झारखंड की संभवत: पहली ङ्क्षहदी पत्रिका घर बंधु, 15 जून, 1900 के अंक में बिरसा उलगुलान पर हिंदी में लेख प्रकाशित हुआ। 'द मॉडर्न रिव्यूÓ, कोलकाता के जून 1911 के अंक में बिरसा मुंडा के जीवन, धर्म और आंदोलन पर हीरालाल हालदार का 'द क्यूरियस हिस्ट्री ऑफ ए मुंडा फेनेटिकÓ नामक लेख अंग्रेजी में छपा। 'द मॉडर्न रिव्यूÓ, कोलकाता के अप्रैल 1913 के अंक में हैम्बर्ग, जर्मनी में ओरिएंटल लैंग्वेज के प्रोफेसर होमेरसन कॉक्स का 'जीसस क्राइस्ट एंड बिरसाÓ नामक लेख अंग्रेजी में छपा। फा. हौफमैन ने 'बिरसा भगवानÓ, इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका लिखा, जो 1930 में प्रकाशित हुआ। जब 1940 में रामगढ़ में कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ तो उसकी स्मारिका में 1940 में जीसी.सोंधी का अंग्रेजी में लिखा लेख 'बिरसा भगवानÓ प्रकाशित हुआ था। इसी साल बिरसा पर जयपाल सिंह मुंडा का लेख 'बिरसा की जय या क्षयÓ, बिहार हेरेल्ड, पटना अंग्रेजी दैनिक में निकला। इन लेखों से पता चलता है कि बिरसा का आंदोलन उस समय कितना प्रभावी रहा था। उनके आंदोलन की धमक खूंटी की पहाडिय़ों से दूर-दूर तक पहुंच गई थी। जब, नौ जून, 1900 में शहादत दी तो उसके बाद भी आंदोलन की आंच कम नहीं हुई।
इसलिए, लोगों ने बिरसा को सूर्य कहा- ओ बिरसा, तुम चलकद में सूर्य की नाई उगे। तुम बढ़े और पूरे नागपुर को आलोकित कर दिया। बिरसा ने एक लड़ाई लड़ी, जंगल की, जमीन की, जल की। अपने लिए नहीं, अपने लोगों के लिए। एक शब्द पर उनके साथ पूरा मुंडा इलाका साथ खड़ा हो जाता। उनके साथ सैकड़ों ने शहादत पाई। कुछ के नाम याद रहे, कुछ गुमनाम हैं, जिन्हें खोजा जाना चाहिए। बिरसा में ऐसी कुछ बात तो थी, जिसे अंग्रेज कांपते थे। महज तीर-धनुष। यही हथियार थे बिरसा के। इसी से बिरसा ने इतिहास बनाया। और, पहाडिय़ां आंदोलन और संताल हूल की उस कड़ी को बिरसा ने एक अंजाम तक पहुंचाया। उनकी शहादत के बाद छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट अंग्रेजों को बनाना पड़ा। बिरसा ने राजनीतिक क्रांति को ही आगे नहीं बढ़ाया बल्कि एक धार्मिक-सामाजिक आंदोलन भी चलाया, जिसकी चर्चा बहुत कम होती है-वह है बिरसाइत धर्म। उसके कुछ अनुयायी खूंटी व बंदगांव के आस-पास आज भी हैं। इसके साथ उन्होंने हडिय़ा-शराब से दूर रहने को कहा-बिरसा का आदेश है कि हंडिय़ा और शराब न पियो, इससे हमारी जमीन हमसे छीन जाती है। अधिक मद्यपान और नींद ठीक नहीं। दुश्मन इस कारण हम पर हंसते हैं। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई आज भी जारी है और हडिय़ा-दारू का प्रचलन भी। बिरसा के इस संदेश को सुनने-गुनने की जरूरत है।

एके पंकज ने शोधपूर्ण काम किया है। उन्‍होंने एक सूची दी है। जो नीचे है'
-जूलियस तिग्गा, महात्मा बिरसा/वर्ष ज्ञात नहीं लेकिन 1950 के आसपास
-प्रियनाथ जेम्स पूर्ति, शहीद बिरसा मुंडा, किशोर प्रेस लि., जुगसलाई, टाटानगर, 1951/हिंदी में संभवत: पहली किताब
-भरमी मुंडा का विवरण - पांडुलिपि, सुरेश सिंह को यह जयपुर में 22 मई 1962 को प्राप्त हुई थी
- मुंडारी पत्रिका 'जगरसड़ाÓ, फरवरी-मार्च 1960, जीईएल चर्च प्रेस, रांची में बिरसा पर लेख
-लाइफ एंड टाइम्स ऑफ बिरसा भगवान, सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा, टीआरआई, रांची, 1964
-कुमार सुरेश सिंह की 'द डस्ट स्टोर्म एंड द हेंगिंग मिस्टÓ (बाद में 'बिरसा एंड हिज मूवमेंटÓ नाम से) 1966 में कोलकाता से प्रकाशित हुई
- 1940 के रामगढ़ कांग्रेस में बिरसा द्वार बनाया
- बिरसा मुंडा स्टेच्यू कमिटी, राउरकेला का गठन 1982 में
- संसद के केंद्रीय हॉल में 16 अक्टूबर 1989 को बिरसा के चित्र का अनावरण तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने किया। इसे बिरसा मुंडा स्टेच्यू कमिटी राउरकेला ने डोनेट किया था।
- बिरसा पर डाक टिकट 15 नवंबर 1989 में जारी हुआ
- 28 अगस्त 1998 को संसद परिसर में 14 फीट की बिरसा प्रतिमा (मूर्तिकार बीसी मोहंती, डोनेटेड बाइ सेल, इंडिया) का अनावरण तब के राष्ट्रपति केआर नारायणन ने किया।