-डॉ शिवप्रसाद सिंह
बंगलादेश में चलने वाले स्वाधीनता-संघर्ष में हंसते-हंसते मरने वाले लोगों के बारे में मैं जब भी कोई बयान पढ़ता हूं, मुझे रवि बाबू का गीत याद आने लगता है-
कोन कानने जानिने फूल
गंधे एत करे आकुल
कांन गगने उठे रे चांद
एमन हांसि हंसे
ओ मां आंखि मेलि तोमा आलो
देखे आमार चोख जुड़ालो
ए आलोके नयन रेखे
मुंदबा नयन शेषे
सार्थक जनम आमार
जन्मेछि ए देशे।
नहीं जानता कि किसी और कानन में ऐसे फूल होते हैं, जिनकी गंध प्राणों का ऐसा आकुल कर सकती है। मुझे नहीं मालूूम कि किसी और गगन में ऐसा चां
द होता है, जो इस तरह खिल खिलाकर हंसता है। हे मां, तुम्हारा इस आलोक को देख कर मेरे नयन जुड़ाते हैं। इसी आलोक को आंखों में लिए चयन बंद कर लूं, यही कामना है। मैं ऐसे देश में जन्मा कि जीवन सार्थक हो गया।
लाखों लाख व्यक्तियों का यह जोश न तो गद्दारी है न देशद्रोह। इन्हें राज्य और शासन की मर्यादा का ढोल पीटकर दबाया नहीं जा सकता। शासन उस वक्त शैतान बन जाता है, जब वह जनता की इच्छाओं को, जीने और जीते रहने की मामूली ख्वाहिशों को संगीनों की नोंक पर उछालने की कोशिश करता है और आदमी के मामूली सपनों को अपने भद्दे बूटों से कुचल देने की बहशियापाना हरकत करता है। ऐसे शासन को लानत है। पाकिस्तानी फौजी शासन ने खुलेआम इस क्रांति को शरारतपसंदों की छेड़छाड़ कहा और फौजी छावनियों में घोषण की गई कि मुजीब कहता है कि बंगाली बहुमत में हैं इसलिए वे पाकिस्तान पर हुकूमत करेंगे, हमें इन्हें अल्पमत में बदल देना है ताकि ये पंजाबी और पठानों पर शासन का मनसूबा न रख सकंे।
उसने खुले चौराहे पर लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा-‘सुनो लोगो, संसार के तमाम खूंखार दरिंदों से कहीं बदतर एक जानवर होता है जिसे शासन कहा जाता है। यह निहायत बदसूरत और गलीज झूठ बोलता है। ये अल्फाज सिर्फ इसी की जुबान से निकलते है कि, मैं यानी शासन ही जनता है। हां...हां...हां। यह झूठ है। सरासर झूठ है। निर्माता वह है जिसने जनता को बनाया। उसने इनके उ$पर मुहब्बत और विश्वास की छांव डाली और हुकूमत? हुकूमत वह ध्वंसकारी गिरोह है जो बहुमत को हिकारत से देखती है और जनता पर तलवार और संगीनों की छाया तानती हैै।’ इस तरह बोला जरथुस्ट। नीत्से का यह पागल दार्शनिक आज जाने क्यों बार-बार याद आता है। साढ़े सात करोड़ जनता ने अपने सपनों और अरमानों को पूरा करने के लिए जिस आदमी को चुना, जिसे उन्होंने खुलेआम अपना एकमात्रा रहनुमा और नेता करार दिया, वह देशद्रोही और गद्दार है, जबकि दुनिया भर से भीख मांगकर बटोरे हुए जंगी सामानों की ढेरी पर खड़ा याहिया खान पाकिस्तान का सदर है और वह मुल्क की एकता और हुकूमत की मर्यादा को बचाने के नाम पर जो कुछ कर रहा है, वह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला है। कैसी बदसूरत होती है, हुकूमतों के नाम पर बनाई गई यह संवैधानिक साजिश। इसने दुनिया को छोटे-बड़े तमाम हुकूमतों के मुंह सिल दिए हैं। असल में हुकूमतों की भी एक अंतरराष्टीय गिरोहगर्दी होती है, जहां एक दूसरे के जुल्म और अमानवीय कार्य को ढंकना-तोपना गिरोहस्वार्थ की संहिता का परम पवित्रा उद्देश्य होता है।
हमारे देश के लोग परेशान हैं कि यदि ऐसी घटनाओं का समर्थन दें तो एक दिन नागालैंड, कश्मीर, तमिलनाडु आदि का भी देश से अलग होने से बचाया न जा सकेेगा। कुछ लोग कहते हैं क्या दोनो बंगाल मिलकर एक हो जाएं। पता नहीं इस शंका पर पागल दार्शनिक जरथुष्ट क्या कहता पर एक मामूली बौद्धिक भी आसानी से कह सकता है कि क्या पूर्वी पाकिस्तान की घटनाओं से इतना भी नहीं सीख पाए कि मुहब्बत और विश्वास की छाया के नीचे ही एकता होती है, संगीनें और तलवारें एकता नहीं पैदा कर सकतीं।
हुकूमत हमेशा झूठ बोलती है। जनता एक न एक दिन अपने खून का हिसाब मांगती है, उसे जिस दिन यह विश्वास हो जाएगा कि अलगाव की बात करने वाले गिरोह-स्वार्थ की संहिता का पालन कर रहे हैं, वह उन हुकूमतों को इसी तरह दफना देगी, जैसे बांगलादेश में हो रहा है। एकता एक दूसरे की मदद से बेहतर जीवन जीने के बुनियादी प्रश्न पर टिक सकती है। यदि ऐसा नहीं है तो वह नकली एकता है। सवाल इस या उस हिस्से का नहीं, सवाल इंसान का है, जनता का है। आप जनता के नाम पर कुछ ही समय तक अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। कागज की नाव हमेशा नहीं चला करती। इसलिए हमें बांगलादेश की घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। बहुत बरसों के बाद इस उप महाद्वीप की जनता और नेताओं के सामने ऐसा अवसर आया है कि हम स्वार्थ और संकुचित सीमाओं से बाहर निकल कर कठोर यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर सही ढंग से सोचना शुरू करें। इस नव चिंतन में बहुत-सी चीजें टूटेंगी, जिन से हमारा मोह भी हो सकता है, पर मोहविद्ध स्थिति से छूटकारा पाने का सुअवसर भी जातियों को कभी-कभी ही मिलता है।
स्वतंत्राता जन्मसिद्ध अधिकार है, कहने वाला मांडले के जेल में बंद कर दिया गया। यह स्वतंत्राता शब्द भी खूब छलावा है। स्वतंत्राता के नाम पर आज कल एक-से-एक नारे प्रज्ज्वलित हो गए हैं। हम इसीलिए असली और नकली स्वतंत्राता में भेद करना होगा। असली स्वतंत्राता विश्वव्यापी मानवता की जरूरत है, नकली स्वतंत्राता गिरोहस्वार्थ वालों की सत्तालिप्सा का आवरण होती है। मैं कम्युनिस्ट शासन मंे व्यक्ति की सत्ता और स्वतंत्राता को नकारने वाली हुकूमत की लफ्फाजी का सख्त विरोधी हूं, पर मुझे फ्रेडरिक एंजिल्स का यह कथन हमेशा ही सही और सार्थक लगता रहा है कि ‘स्वतंत्राता प्राकृतिक नियमों को इन्कार करने की काल्पनिक स्थिति का नाम नहीं है, बल्कि मनुष्य की जरूरयात को पूरा करने की छूट की स्वीकृति है।’ मनुष्य की मामूली जरूरतें पूरी करने की भी जहां छूट नहीं होती, वहीं असली स्वाधीनता संघर्ष जन्म लेता है। यह असली स्वाधीनता मनुष्यता की स्वाभाविक अस्तित्वमूलक विशेषता है। यह कभी विभाजित नहीं होती। कभी धर्म, राष्ट, संस्कृति आदि की मामूली सीमाओं से घेरी नहीं जा सकती। इस स्वाधीनता के सैलाब को मजहब या राष्टीय एकता के नाम पर कुचला नहीं जा सकता और इसीलिए हर मनुष्य का यह स्वधर्म है कि मनुष्यता की इस अविभाज्य आत्मिक मांग को पूरा समर्थन दे। बांगलादेश की स्वाधीनता का संघर्ष असली स्वाधीनता संघर्ष है क्योंकि वह संघर्ष वहां की जनता के जीवन की मामूली जरूरतों को पूरी न हो सकने की स्थिति से जन्मा है, इसलिए यह एक आंतरिक असली और बुनियादी स्वाधीनता-संग्राम है। इसे स्वीकार करने में धर्म, संविधान, राष्टीयता, अंतरराष्टीय तौर-तरीकों की दुहाई देकर हिचकना अमानवीय और मानवधर्म के विपरीत है।
असली स्वाधीनता संग्राम एक प्रकाश स्तंभ होता है जो न केवल अपने मूल स्थान में अंधकार और तमस की जड़ता से टकराता और उस का विनाश करता है, बल्कि अपनी ओर सहानुभूति और मानवधर्मिता के भाव से देखने वालों को भी नया प्रकाश और उत्साह प्रदान करता है। असली स्वाधीनता संग्राम को राजनीतिक मतवादों की घुसपैठ से धूमिल और निरर्थक बनाने की कोशिशें भी कम नहीं होतीं, बल्कि प्रायः इन से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही रहा है, पर कभी-कभी प्रकृति मनुष्यता को सही दिशा-निर्देश्श देने के लिए शुद्ध स्वाधीनता-आंदोलन को जन्म देकर उदाहरण भी पेश करने का काम करती रहती है। आज यदि मुजीब अमेरिकी, चीनी या रूसी मतवाद का पिट्ठू होता तो उसे बिना मांगें अतुल सहायता मिल जाती पर तब यह भी खतरा होता कि एक नया वियतनाम पैदा हो जाता, जहां सत्य और असत्य का ऐसा गड़बड़झाला खड़ा कर दिया जाता कि पता ही नहीं चलता कि जनता और फौज की आवाज में फर्क क्या होता है। मुजीब इस दृष्टि से प्रकृति का निर्वाचित ऐसा प्रतिनिधि है जो मनुष्यता को ही अपना नारा और उद्देश्य बनाकर चला है किसी मतवाद और झंडे को नहीं। इसी कारण उसकी लड़ाई अमानवीयता के खिलाफ मानवता की लड़ाई बन गई है। इसी वजह से इस लड़ाई की जोखिम भी बढ़ गई है। मानवीयता को वरीयता देने के कारण मुजीब ने क्रांति में करुणा को जोड़ने की कोशिश की है। यानी लोहिया की शब्दावली में ‘क्रांति में करुणा का मेल सिविल नाफरमानी है।’ सिविल नाफरमानी के सब से बड़े उस्ताद लोहिया ने शायद यह नहीं सोचा कि दुर्दांत सत्ता सहित नाजीवाद की पुनरावृत्ति भी कर सकती हैै। लोहिया को शायद विश्वास था कि दुनिया आगे बढ़ रही है, इसलिए नाजीवाद का गड़ा मुर्दा क्यों कर खड़ा हो सकता है, पर हुआ और यह मानना पड़ेगा कि सिविल नाफरमानी के फलसफे में इस लड़ाई के बाद थोड़ी तरमीम करनी पड़ेगी। सिविल नारफरमानी कत्लेआम के सामने अहिंसक नहीं रहेगी, यह जोड़ना लाजिमी हो गया है। लोगों का पुराना शक फिर सिर उठा रहा है यानी गांधी का सत्याग्रह अपेक्षाकृत सभ्य अंग्रेजों के सामने और लोहिया की सिविल नारफरमानी देशी सत्ता के खिलाफ ही कारगर हो सकती है।
वस्तुतः मुजीब का स्वाधीनता-संग्राम एक ऐसी घटना है जो कई तरह के मुद्दे उभारेगी। इस लड़ाई ने या क्रांति ने कई चीजों पर सोचने के लिए विवश किया है। यह पहली विरथी क्रांति है अर्थात् इस लड़ाई के सामने मजहब, मतवाद या क्रांति के परिचित स्कूलों अर्थात माओ, चेग्वारा अथवा लेनिन आदि की क्रांतियों के नक्शे बेकार हो गए हैं। क्रांति कोई सिक्का नहीं कि उसे किसी न किसी छापे के बिना ढाला ही नहीं जा सकता। क्रांति जनता की आत्मा का आक्रोश है, रुद्रभाव है, जो अपनी अभिव्यक्ति की शक्ल खुद तलाश कर लेता है। मुजीब का स्वाधीनता संग्राम क्रांतियों की नई-नई पोशाकांे या लबादों के बिना सहज स्वाभाविक गति से पांव-प्यादे सामने आया है, जो कि मनुष्यता के भविष्यत संघर्षों को एक नया मोड़ देने का कार्य करेगा। अन्याय से जूझने का यह नया प्रयोग और इतने शहीदों का खून बेकार नहीं जाएगा। इसमें सफलता-असफलता के प्रश्न का कोई खास मतलब नहीं। सभी जानते हैं कि असफल क्रांतियां देशद्रोह बन जाती हैं। सवाल क्रांति के उसूलों और उसको चलाने के तरीकों का है। सफल होने या असफल होने का उतना नहीं।
इस तरह की क्रांतियां हमेशा आंतरिक और बौद्धिक चेतना से खाद और खुराक ग्रहण करती हैं। बुद्धि को गिरवी रखकर क्रांति का फल संभवतः आसानी से या कम दिक्कत से पाया जा सकता है। पर बिना गिरवी रखी बुद्धि को क्रांति के दौर में जिन खूनी घाटियों से गुजरना होता है, उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है। इसका सच से कड़वा स्वाद बांगलादेश के बौद्धिकों को चखना पड़ा है। अपनी बुद्धि पर विश्वास करना स्वाभिमान भले लगे खतरनाक कम नहीं होता। मुजीब और उसके साथी इसे जानते थे। इसका परिणाम भी सामने है। बांगलादेश को सामूहिक बौद्धिक चेतना को बंदूकों से उड़ा देने का प्रयत्न शैतान की बेइंतहा अक्लमंदी का प्रमाण है, पर शैतान हमेशा ही यह गलती करता है, शायद यही उसकी विशेषता भी है कि वह असली स्वतंत्राता की तरह असली बौद्धिकता को भी क्षेत्राीय वस्तु मान लेता है। बांगलादेश के बौद्धिक, जो अब नहीं है, अपनी चेतना की विरासत, विश्व के उन तमाम बौद्धिकों के नाम छोड़ गए हैं, जो बुद्धि को गिरवी रखना मृत्यु से बदतर मानते हैं। बांगलादेश की यह विरथी क्रांति वस्तुतः विश्व के बौद्धिकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
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डॉ शिवप्रसाद सिंह हिंदी के जाने-माने लेखक। ललित निबंधकार, उपन्यासकार। यह लेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, एक मई, 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था
बंगलादेश में चलने वाले स्वाधीनता-संघर्ष में हंसते-हंसते मरने वाले लोगों के बारे में मैं जब भी कोई बयान पढ़ता हूं, मुझे रवि बाबू का गीत याद आने लगता है-
कोन कानने जानिने फूल
गंधे एत करे आकुल
कांन गगने उठे रे चांद
एमन हांसि हंसे
ओ मां आंखि मेलि तोमा आलो
देखे आमार चोख जुड़ालो
ए आलोके नयन रेखे
मुंदबा नयन शेषे
सार्थक जनम आमार
जन्मेछि ए देशे।
नहीं जानता कि किसी और कानन में ऐसे फूल होते हैं, जिनकी गंध प्राणों का ऐसा आकुल कर सकती है। मुझे नहीं मालूूम कि किसी और गगन में ऐसा चां
द होता है, जो इस तरह खिल खिलाकर हंसता है। हे मां, तुम्हारा इस आलोक को देख कर मेरे नयन जुड़ाते हैं। इसी आलोक को आंखों में लिए चयन बंद कर लूं, यही कामना है। मैं ऐसे देश में जन्मा कि जीवन सार्थक हो गया।
लाखों लाख व्यक्तियों का यह जोश न तो गद्दारी है न देशद्रोह। इन्हें राज्य और शासन की मर्यादा का ढोल पीटकर दबाया नहीं जा सकता। शासन उस वक्त शैतान बन जाता है, जब वह जनता की इच्छाओं को, जीने और जीते रहने की मामूली ख्वाहिशों को संगीनों की नोंक पर उछालने की कोशिश करता है और आदमी के मामूली सपनों को अपने भद्दे बूटों से कुचल देने की बहशियापाना हरकत करता है। ऐसे शासन को लानत है। पाकिस्तानी फौजी शासन ने खुलेआम इस क्रांति को शरारतपसंदों की छेड़छाड़ कहा और फौजी छावनियों में घोषण की गई कि मुजीब कहता है कि बंगाली बहुमत में हैं इसलिए वे पाकिस्तान पर हुकूमत करेंगे, हमें इन्हें अल्पमत में बदल देना है ताकि ये पंजाबी और पठानों पर शासन का मनसूबा न रख सकंे।
उसने खुले चौराहे पर लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा-‘सुनो लोगो, संसार के तमाम खूंखार दरिंदों से कहीं बदतर एक जानवर होता है जिसे शासन कहा जाता है। यह निहायत बदसूरत और गलीज झूठ बोलता है। ये अल्फाज सिर्फ इसी की जुबान से निकलते है कि, मैं यानी शासन ही जनता है। हां...हां...हां। यह झूठ है। सरासर झूठ है। निर्माता वह है जिसने जनता को बनाया। उसने इनके उ$पर मुहब्बत और विश्वास की छांव डाली और हुकूमत? हुकूमत वह ध्वंसकारी गिरोह है जो बहुमत को हिकारत से देखती है और जनता पर तलवार और संगीनों की छाया तानती हैै।’ इस तरह बोला जरथुस्ट। नीत्से का यह पागल दार्शनिक आज जाने क्यों बार-बार याद आता है। साढ़े सात करोड़ जनता ने अपने सपनों और अरमानों को पूरा करने के लिए जिस आदमी को चुना, जिसे उन्होंने खुलेआम अपना एकमात्रा रहनुमा और नेता करार दिया, वह देशद्रोही और गद्दार है, जबकि दुनिया भर से भीख मांगकर बटोरे हुए जंगी सामानों की ढेरी पर खड़ा याहिया खान पाकिस्तान का सदर है और वह मुल्क की एकता और हुकूमत की मर्यादा को बचाने के नाम पर जो कुछ कर रहा है, वह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला है। कैसी बदसूरत होती है, हुकूमतों के नाम पर बनाई गई यह संवैधानिक साजिश। इसने दुनिया को छोटे-बड़े तमाम हुकूमतों के मुंह सिल दिए हैं। असल में हुकूमतों की भी एक अंतरराष्टीय गिरोहगर्दी होती है, जहां एक दूसरे के जुल्म और अमानवीय कार्य को ढंकना-तोपना गिरोहस्वार्थ की संहिता का परम पवित्रा उद्देश्य होता है।
हमारे देश के लोग परेशान हैं कि यदि ऐसी घटनाओं का समर्थन दें तो एक दिन नागालैंड, कश्मीर, तमिलनाडु आदि का भी देश से अलग होने से बचाया न जा सकेेगा। कुछ लोग कहते हैं क्या दोनो बंगाल मिलकर एक हो जाएं। पता नहीं इस शंका पर पागल दार्शनिक जरथुष्ट क्या कहता पर एक मामूली बौद्धिक भी आसानी से कह सकता है कि क्या पूर्वी पाकिस्तान की घटनाओं से इतना भी नहीं सीख पाए कि मुहब्बत और विश्वास की छाया के नीचे ही एकता होती है, संगीनें और तलवारें एकता नहीं पैदा कर सकतीं।
हुकूमत हमेशा झूठ बोलती है। जनता एक न एक दिन अपने खून का हिसाब मांगती है, उसे जिस दिन यह विश्वास हो जाएगा कि अलगाव की बात करने वाले गिरोह-स्वार्थ की संहिता का पालन कर रहे हैं, वह उन हुकूमतों को इसी तरह दफना देगी, जैसे बांगलादेश में हो रहा है। एकता एक दूसरे की मदद से बेहतर जीवन जीने के बुनियादी प्रश्न पर टिक सकती है। यदि ऐसा नहीं है तो वह नकली एकता है। सवाल इस या उस हिस्से का नहीं, सवाल इंसान का है, जनता का है। आप जनता के नाम पर कुछ ही समय तक अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। कागज की नाव हमेशा नहीं चला करती। इसलिए हमें बांगलादेश की घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। बहुत बरसों के बाद इस उप महाद्वीप की जनता और नेताओं के सामने ऐसा अवसर आया है कि हम स्वार्थ और संकुचित सीमाओं से बाहर निकल कर कठोर यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर सही ढंग से सोचना शुरू करें। इस नव चिंतन में बहुत-सी चीजें टूटेंगी, जिन से हमारा मोह भी हो सकता है, पर मोहविद्ध स्थिति से छूटकारा पाने का सुअवसर भी जातियों को कभी-कभी ही मिलता है।
स्वतंत्राता जन्मसिद्ध अधिकार है, कहने वाला मांडले के जेल में बंद कर दिया गया। यह स्वतंत्राता शब्द भी खूब छलावा है। स्वतंत्राता के नाम पर आज कल एक-से-एक नारे प्रज्ज्वलित हो गए हैं। हम इसीलिए असली और नकली स्वतंत्राता में भेद करना होगा। असली स्वतंत्राता विश्वव्यापी मानवता की जरूरत है, नकली स्वतंत्राता गिरोहस्वार्थ वालों की सत्तालिप्सा का आवरण होती है। मैं कम्युनिस्ट शासन मंे व्यक्ति की सत्ता और स्वतंत्राता को नकारने वाली हुकूमत की लफ्फाजी का सख्त विरोधी हूं, पर मुझे फ्रेडरिक एंजिल्स का यह कथन हमेशा ही सही और सार्थक लगता रहा है कि ‘स्वतंत्राता प्राकृतिक नियमों को इन्कार करने की काल्पनिक स्थिति का नाम नहीं है, बल्कि मनुष्य की जरूरयात को पूरा करने की छूट की स्वीकृति है।’ मनुष्य की मामूली जरूरतें पूरी करने की भी जहां छूट नहीं होती, वहीं असली स्वाधीनता संघर्ष जन्म लेता है। यह असली स्वाधीनता मनुष्यता की स्वाभाविक अस्तित्वमूलक विशेषता है। यह कभी विभाजित नहीं होती। कभी धर्म, राष्ट, संस्कृति आदि की मामूली सीमाओं से घेरी नहीं जा सकती। इस स्वाधीनता के सैलाब को मजहब या राष्टीय एकता के नाम पर कुचला नहीं जा सकता और इसीलिए हर मनुष्य का यह स्वधर्म है कि मनुष्यता की इस अविभाज्य आत्मिक मांग को पूरा समर्थन दे। बांगलादेश की स्वाधीनता का संघर्ष असली स्वाधीनता संघर्ष है क्योंकि वह संघर्ष वहां की जनता के जीवन की मामूली जरूरतों को पूरी न हो सकने की स्थिति से जन्मा है, इसलिए यह एक आंतरिक असली और बुनियादी स्वाधीनता-संग्राम है। इसे स्वीकार करने में धर्म, संविधान, राष्टीयता, अंतरराष्टीय तौर-तरीकों की दुहाई देकर हिचकना अमानवीय और मानवधर्म के विपरीत है।
असली स्वाधीनता संग्राम एक प्रकाश स्तंभ होता है जो न केवल अपने मूल स्थान में अंधकार और तमस की जड़ता से टकराता और उस का विनाश करता है, बल्कि अपनी ओर सहानुभूति और मानवधर्मिता के भाव से देखने वालों को भी नया प्रकाश और उत्साह प्रदान करता है। असली स्वाधीनता संग्राम को राजनीतिक मतवादों की घुसपैठ से धूमिल और निरर्थक बनाने की कोशिशें भी कम नहीं होतीं, बल्कि प्रायः इन से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही रहा है, पर कभी-कभी प्रकृति मनुष्यता को सही दिशा-निर्देश्श देने के लिए शुद्ध स्वाधीनता-आंदोलन को जन्म देकर उदाहरण भी पेश करने का काम करती रहती है। आज यदि मुजीब अमेरिकी, चीनी या रूसी मतवाद का पिट्ठू होता तो उसे बिना मांगें अतुल सहायता मिल जाती पर तब यह भी खतरा होता कि एक नया वियतनाम पैदा हो जाता, जहां सत्य और असत्य का ऐसा गड़बड़झाला खड़ा कर दिया जाता कि पता ही नहीं चलता कि जनता और फौज की आवाज में फर्क क्या होता है। मुजीब इस दृष्टि से प्रकृति का निर्वाचित ऐसा प्रतिनिधि है जो मनुष्यता को ही अपना नारा और उद्देश्य बनाकर चला है किसी मतवाद और झंडे को नहीं। इसी कारण उसकी लड़ाई अमानवीयता के खिलाफ मानवता की लड़ाई बन गई है। इसी वजह से इस लड़ाई की जोखिम भी बढ़ गई है। मानवीयता को वरीयता देने के कारण मुजीब ने क्रांति में करुणा को जोड़ने की कोशिश की है। यानी लोहिया की शब्दावली में ‘क्रांति में करुणा का मेल सिविल नाफरमानी है।’ सिविल नाफरमानी के सब से बड़े उस्ताद लोहिया ने शायद यह नहीं सोचा कि दुर्दांत सत्ता सहित नाजीवाद की पुनरावृत्ति भी कर सकती हैै। लोहिया को शायद विश्वास था कि दुनिया आगे बढ़ रही है, इसलिए नाजीवाद का गड़ा मुर्दा क्यों कर खड़ा हो सकता है, पर हुआ और यह मानना पड़ेगा कि सिविल नाफरमानी के फलसफे में इस लड़ाई के बाद थोड़ी तरमीम करनी पड़ेगी। सिविल नारफरमानी कत्लेआम के सामने अहिंसक नहीं रहेगी, यह जोड़ना लाजिमी हो गया है। लोगों का पुराना शक फिर सिर उठा रहा है यानी गांधी का सत्याग्रह अपेक्षाकृत सभ्य अंग्रेजों के सामने और लोहिया की सिविल नारफरमानी देशी सत्ता के खिलाफ ही कारगर हो सकती है।
वस्तुतः मुजीब का स्वाधीनता-संग्राम एक ऐसी घटना है जो कई तरह के मुद्दे उभारेगी। इस लड़ाई ने या क्रांति ने कई चीजों पर सोचने के लिए विवश किया है। यह पहली विरथी क्रांति है अर्थात् इस लड़ाई के सामने मजहब, मतवाद या क्रांति के परिचित स्कूलों अर्थात माओ, चेग्वारा अथवा लेनिन आदि की क्रांतियों के नक्शे बेकार हो गए हैं। क्रांति कोई सिक्का नहीं कि उसे किसी न किसी छापे के बिना ढाला ही नहीं जा सकता। क्रांति जनता की आत्मा का आक्रोश है, रुद्रभाव है, जो अपनी अभिव्यक्ति की शक्ल खुद तलाश कर लेता है। मुजीब का स्वाधीनता संग्राम क्रांतियों की नई-नई पोशाकांे या लबादों के बिना सहज स्वाभाविक गति से पांव-प्यादे सामने आया है, जो कि मनुष्यता के भविष्यत संघर्षों को एक नया मोड़ देने का कार्य करेगा। अन्याय से जूझने का यह नया प्रयोग और इतने शहीदों का खून बेकार नहीं जाएगा। इसमें सफलता-असफलता के प्रश्न का कोई खास मतलब नहीं। सभी जानते हैं कि असफल क्रांतियां देशद्रोह बन जाती हैं। सवाल क्रांति के उसूलों और उसको चलाने के तरीकों का है। सफल होने या असफल होने का उतना नहीं।
इस तरह की क्रांतियां हमेशा आंतरिक और बौद्धिक चेतना से खाद और खुराक ग्रहण करती हैं। बुद्धि को गिरवी रखकर क्रांति का फल संभवतः आसानी से या कम दिक्कत से पाया जा सकता है। पर बिना गिरवी रखी बुद्धि को क्रांति के दौर में जिन खूनी घाटियों से गुजरना होता है, उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है। इसका सच से कड़वा स्वाद बांगलादेश के बौद्धिकों को चखना पड़ा है। अपनी बुद्धि पर विश्वास करना स्वाभिमान भले लगे खतरनाक कम नहीं होता। मुजीब और उसके साथी इसे जानते थे। इसका परिणाम भी सामने है। बांगलादेश को सामूहिक बौद्धिक चेतना को बंदूकों से उड़ा देने का प्रयत्न शैतान की बेइंतहा अक्लमंदी का प्रमाण है, पर शैतान हमेशा ही यह गलती करता है, शायद यही उसकी विशेषता भी है कि वह असली स्वतंत्राता की तरह असली बौद्धिकता को भी क्षेत्राीय वस्तु मान लेता है। बांगलादेश के बौद्धिक, जो अब नहीं है, अपनी चेतना की विरासत, विश्व के उन तमाम बौद्धिकों के नाम छोड़ गए हैं, जो बुद्धि को गिरवी रखना मृत्यु से बदतर मानते हैं। बांगलादेश की यह विरथी क्रांति वस्तुतः विश्व के बौद्धिकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
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डॉ शिवप्रसाद सिंह हिंदी के जाने-माने लेखक। ललित निबंधकार, उपन्यासकार। यह लेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, एक मई, 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था
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