बड़े ताम-झाम के साथ रांची राजधानी से 175 किमी दूर परमवीर अलबर्ट के गांव जारी में उनकी जमीन पर मुख्यमंत्री रघुवर दास ने स्मारक समाधि-शौर्य स्थल का शिलान्यास किया था। यह तारीख थी, तीन दिसबंर, 2015। तीन दिसंबर को ही अलबर्ट देश के लिए शहीद हो गए थे। साल था 1971। जारी गांव में शिलान्यास के 22 महीने बीत जाने के बाद आज तक वहां एक ईंट भी नहीं रखी गई।
यह तब है, जब अलबर्ट एक्का के शहीद होने के 44 साल बाद उनके गांव को उनकी मिट्टी नसीब हुई थी, जिस मिट्टी में खेलकूद कर बड़े हुए थे। उनकी मिट्टी त्रिपुरा से ले आई गई। मिट्टी आई तो रांची से लेकर गुमला-जारी तक उत्सव का माहौल था और इस उत्सव के दौरान ही शौर्य स्थल की नींव रखी गई और आज तक वहां एक ईंट भी नसीब नहीं हुई। सरकार शिलान्यास कर जारी गांव को भूल गई। भूली न होती तो कम से कम चैनपुर से उस गांव तक एक बेहतर सड़क बना सकती थी। चैनपुर से जारी गांव का 12 किमी का सफर तय करना किसी पथरीली चढ़ाई से कम नहीं है। जारी गांव अब प्रखंड बन गया है, लेकिन विकास से अब भी कोसों दूर है।
एक ओर भारतीय सैनिकों के प्रति पाकिस्तान की बर्बरता को लेकर लोगों के मन में आक्रोश और दुख है। आक्रोश पाक के प्रति और दुख शहीद सैनिकों के परिवारों के प्रति। हम सैनिकों को लेकर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते। सरकार की घोषणाएं कागजों पर ही सिमट गई है। समाधि स्थल की चारदीवारी भी नहीं की गई है। समाधि पर एक छोटा सा क्रास है। मैदान में चारों तरफ गोबर फैला रहता है। गाय-भैंसों की आवाजाही मैदान में होती रहती है।
पुश्तैनी मकान भी ढह गया
अलबर्ट जिस खपरैल के मकान में पैदा हुए थे, वह मकान भी ढह रहा है। यहां कोई नहीं रहता। कुछ गांव में ही 1994 में बने मकान में रहते थे। अब उस पुश्तैनी मकान को देखने वाला कोई नहीं। अलबर्ट एक्का की पत्नी बलमदीना एक्का रुआंसे गले से गुहार लगाती हैं कि उनका वह पैतृक खपरैल का मकान बन जाए। वह कहती हैं, उस मकान से मेरी भी यादें जुड़ी हैं। इसी मकान में अलबर्ट जवान हुए और सेना में भर्ती हुए। इसी घर में खेलते-कूदते बड़े हुए। उनकी यह निशानी है। सरकार ध्यान दे तो यह निशानी बच सकती है और यहां एक स्मारक बन सकता है।
2013 में बेटे को लगी नौकरी
अलबर्ट एक्का के एकलौते बेटे विनसेंट एक्का अपनी मां एवं अपने परिवार के साथ चैनपुर में रहते हैं। यहीं पर अपने बेटों को पढ़ाते हैं। सरकार ने बस दस क_ा जमीन दे दी। उनके बेटे ने खुद ही यहां एसबेस्टस का मकान बनाकर रहते हैं। चैनपुर में 2013 में लिपिक की नौकरी सरकार ने दी।
यह तब है, जब अलबर्ट एक्का के शहीद होने के 44 साल बाद उनके गांव को उनकी मिट्टी नसीब हुई थी, जिस मिट्टी में खेलकूद कर बड़े हुए थे। उनकी मिट्टी त्रिपुरा से ले आई गई। मिट्टी आई तो रांची से लेकर गुमला-जारी तक उत्सव का माहौल था और इस उत्सव के दौरान ही शौर्य स्थल की नींव रखी गई और आज तक वहां एक ईंट भी नसीब नहीं हुई। सरकार शिलान्यास कर जारी गांव को भूल गई। भूली न होती तो कम से कम चैनपुर से उस गांव तक एक बेहतर सड़क बना सकती थी। चैनपुर से जारी गांव का 12 किमी का सफर तय करना किसी पथरीली चढ़ाई से कम नहीं है। जारी गांव अब प्रखंड बन गया है, लेकिन विकास से अब भी कोसों दूर है।
एक ओर भारतीय सैनिकों के प्रति पाकिस्तान की बर्बरता को लेकर लोगों के मन में आक्रोश और दुख है। आक्रोश पाक के प्रति और दुख शहीद सैनिकों के परिवारों के प्रति। हम सैनिकों को लेकर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते। सरकार की घोषणाएं कागजों पर ही सिमट गई है। समाधि स्थल की चारदीवारी भी नहीं की गई है। समाधि पर एक छोटा सा क्रास है। मैदान में चारों तरफ गोबर फैला रहता है। गाय-भैंसों की आवाजाही मैदान में होती रहती है।
पुश्तैनी मकान भी ढह गया
अलबर्ट जिस खपरैल के मकान में पैदा हुए थे, वह मकान भी ढह रहा है। यहां कोई नहीं रहता। कुछ गांव में ही 1994 में बने मकान में रहते थे। अब उस पुश्तैनी मकान को देखने वाला कोई नहीं। अलबर्ट एक्का की पत्नी बलमदीना एक्का रुआंसे गले से गुहार लगाती हैं कि उनका वह पैतृक खपरैल का मकान बन जाए। वह कहती हैं, उस मकान से मेरी भी यादें जुड़ी हैं। इसी मकान में अलबर्ट जवान हुए और सेना में भर्ती हुए। इसी घर में खेलते-कूदते बड़े हुए। उनकी यह निशानी है। सरकार ध्यान दे तो यह निशानी बच सकती है और यहां एक स्मारक बन सकता है।
2013 में बेटे को लगी नौकरी
अलबर्ट एक्का के एकलौते बेटे विनसेंट एक्का अपनी मां एवं अपने परिवार के साथ चैनपुर में रहते हैं। यहीं पर अपने बेटों को पढ़ाते हैं। सरकार ने बस दस क_ा जमीन दे दी। उनके बेटे ने खुद ही यहां एसबेस्टस का मकान बनाकर रहते हैं। चैनपुर में 2013 में लिपिक की नौकरी सरकार ने दी।
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