मेरी मनोरंजक भूलें

राधाकृष्ण
जब स्कूल में नाम लिखाकर पढऩे के लायक पैसे नहीं, साथ खेलने के लायक उपयुक्त साथी नहीं, तमाम खाली-खाली वक्त और करने को कुछ काम नहीं। ऐसी हालत में कोई लड़का क्या कर सकता है? या तो वह पाकेटमारी और लफंगेबाजी करके अपनी आर्थिक स्थिति सुधारेगा या इधर-उधर फटीचरी करके अपनी तबीयत बहलाता रहेगा। उस समय रांची छोटा-सा नगर था और हां पाकेटमारी की कला विकसित नहीं हुई थी। बदमाशी को भी उस समय पेशे के रूप में नहीं लिया गया था।
 सबसे बड़ी बात यह भी थी कि मुझे ऐसे साथी भी नहीं मिले थे और मैं अपने ढंग का अकेला लड़का था। अतएव मैंने अपने मनोरंजन के लिए एक अच्छे उपाय का आविष्कार कर लिया था और उससे मेरा इतना पर्याप्त मनोरंजन होता था कि उसकी याद आने पर मैं बड़ी देर तक हंसता रहता था। करता क्या था कि जब तबीयत नहीं लगती और कुछ फटीचरी का विचार आता, तो मन बहलाने के लिए किसी दूसरे मुहल्ले में चला जाता। वहां सड़क के किनारे उपयुक्त स्थान देखकर कुछ खोजना शुरू कर देता। इधर देखता, उधर देखता, बड़ी तन्मयता के साथ किसी काल्पनिक चीज की खोज करता रहता। विस्मय प्रकाश करते हुए दूसरे लड़के आते और पूछते, क्या हुआ जी, कुछ खो गया है क्या?
मैं उदास लहजे में कहता, क्या बतलाऊं, एक रुपया था। सो, यहीं गिर गया है और खोज रहा हूं तो मिलता नहीं।
उस समय एक रुपये का अच्छा-खासा महत्व था। रुपया पाने के लोभ में वे लड़के भी लग जाते और तन्मयता के साथ खोजना शुरू कर देते। कभी-कभी एक आध बड़ी उम्र के आदमी भी आते और उस काल्पनिक रुपये को खोजने लगते। जब खोजने वाले की संख्या पांच-छह हो जाती और मैं देख लेता कि लोग रुपया पाए बिना खोजना बंद नहीं करेंगे तो मैं वहां से चुपचाप खिसक जाता और ये रुपया खोजने वाले खोजते रहते।
मैं यह भी जानता था कि यह किस्सा एक ही जगह अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। इसलिए मैं दूर-दूर के मुहल्लों की यात्राएं करता। कभी इस मुहल्ले, कभी उस मुहल्ले में वहां जाकर मेरा काल्पनिक रुपया खो जाता और मैं उसे ध्यानपूर्वक खोजना शुरू कर देता। सदा की तरह उत्सुक लड़के आ जुटते, फिर बड़-बूढ़े आते और इस तरह रुपया न भुलाने का आदेश दे कर वे भी उस रुपये को खोजने लगते। मौका देखकर मैं चुपचाप फिरंट हो जाता।
इस खेल में इतना मजा आता था कि मैं रात के समय भी अकेले में हंसता रहता था। मेरा यह खेल काफी जम गया था और मैंने इस बात की ओर ध्यान भी नहीं दिया कि कुछ लड़कों ने मेरी शैतानी भांप ली है।
इस कारस्तानी के लिए जब मैं एक दिन हिंदपीढ़ी मुहल्ले पहुंचा तो एक लड़का एक लंबी सी डोर का छोर पकड़ मानो मेरे स्वागत में ही खड़ा था। मुझे देखते ही उसने कहा, या, जरा इस डोर को पकड़ कर खड़े हो जाओ, तो मैं तुम्हें एक तमाशा दिखलाऊं।
मैंने पूछा, क्या तमाशा?
उसने कहा, तुम इसे पकड़कर खड़े रहो और मैं जाकर इसका कनेक्शन ग्रामोफोन से मिला देता हूं। तब पांच मिनट में ही तुम्हें तरह-तरह के गाने सुनाई देने लगेंगे।
बड़ा कुतूहल मालूम हुआ। यह तो बड़े मजे की चीज है। मैं डोर पकड़कर खड़ा हो गया और मेरा यह अनजान मित्र एक गली में मुड़ा और ओझल हो गया।
मैं खड़ा हूं और खड़ा हूं। ग्रामोफोन की आवाज आती नहीं। कोई गाना सुनाई नहीं देता। पांच की जगह पंद्रह मिनट बीत गए। तब मुझे संदेह हुआ और मैंने गली में जाकर देखा कि उस डोर का दूसरा छोर एक दीवार की खिड़की में फंसाकर छोड़ दिया गया था। मेरे उस अनजान मित्र का पता नहीं था।
मैंने समझा कि बदला लिया गया है और मुझसे भूल हा गई है।
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धर्मयुग, 16 जनवरी, 1972

डोंबारी बुरू : जहां हुआ थाा अंतिम उलगुलान, पर आज है उपेक्षित

बिरसा मुंडा की अंतिम लड़ाई का गवाह उपेक्षा का शिकार
-बिरसा स्मारक बहुउद्देशीय विकास समिति ने कराया था निर्माण
-समिति के सचिव थे डॉ रामदयाल मुंडा
-तत्कालीन मंडलायुक्त सीके बसु ने किया था स्मारक का उद्घाटन
-9 जून, 1991, बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर हुआ था लोकार्पण
100 फीट ऊंचा है डोंबारी बुरू का स्मारक
30 फीट कास्य की प्रतिमा अब हो रही है जर्जर


आज से ठीक 118 साल पहले नौ जनवरी, 1900 को डोंबारी बुरू पर ब्रिटिश सेना-पुलिस और बिरसा मुंडा के आंदोलनकारियों बीच जंग छिड़ी थी








। सईल रकब से लेकर डोंबारी बुरू तक घाटियां सुलग उठी थीं। 25 दिसंबर 1899 से लेकर नौ जनवरी 1900 तक खूंटी का कई इलाका अशांत था। रांची से लेकर खूंटी-चाइबासा तक। मुंडा आंदोलनकारियों के साथ नौ जनवरी की लड़ाई अंतिम लड़ाई साबित हुई। इसके बाद बिरसा मुंडा के साथियों की धर-पकड़ तेज हो गई। बिरसा मुंडा भी तीन फरवरी, 1900 को बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए और नौ जून को उन्होंने अंतिम सांस ली।      
डोंबारी बुरू बिरसा मुंडा के जन्म स्थान उलिहातु से थोड़ी दूर है। उस ऐतिहासिक युद्ध की स्मृति में उस पहाड़ पर एक विशाल स्तंभ निर्माण मुंडारी भाषा के विद्वान जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से किया गया। इसके लिए बिरसा स्मारक बहुउद्देशीय विकास समिति का गठन किया गया और इस समिति के सचिव बनाए गए डॉ रामदयाल मुंडा। ऐतिहासिक लड़ाई की स्मृति को बनाए रखने के लिए स्मारक के गठन का प्रयास शुरू हुआ। इसके बाद पहाड़ पर 100 फीट ऊंचा है डोंबारी बुरू का स्मारक पत्थरों से बनाया गया। यह स्मारक दूर से दिखाई देता है। उस समय मंडलायुक्त थे सीके बसु। उन्हीं के कर-कमलों से स्मारक का उद्घाटन 9 जून, 1991 बिरसा मुंडा के शहादत दिवस पर किया गया था। पहाड़ की तलहटी में एक मंच भी बनाया गया और उसके पास ही 30 फीट की बिरसा मुंडा की कास्य प्रतिमा भी स्थापित की गई। कास्य प्रतिमा का निर्माण नेतरहाट के राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने किया है। इस साल भी अंकित है 1990। प्रतिमा तक पहुंचने के लिए सीढिय़ां बनाई गई हैं, लेकिन आज जर्जर हो चुकी हैं। लोहे की रेलिंग में जंग लग गया है। सीमेंट जगह-जगह से छोड़ रहा है। प्रतिमा का बेस कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकता है। पिछले 28 सालों से इसका रंग-रोगन भी नहीं हुआ है।
यहीं पर एक छोटा सा मैदान भी है। एक विशाल मंच भी है। इसके बाद अंदर स्मारक तक जाने के लिए सीमेंटेड सड़क बनी है। यहां तक पहुंचने के लिए सीधी चढ़ान है। यहीं से सइल रकब भी दिखाई देता है। सरकार का विकास केवल बिरसा मुंडा के जन्मस्थल तक ही सिमट गया है, जबकि उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल उपेक्षा के शिकार हैं। एक महत्वपूर्ण स्मारक, उपेक्षित है। जबकि उस समय यहां एक छोटा सा अस्पताल और स्कूल खोलने की बात भी थी। पर, बिहार के समय जो काम हुआ, राज्य बनने के बाद फिर एक ईंट भी नहीं रखी गई। अलबत्ता स्थानीय लोगों ने ग्राम पंचायत गुटुहातु, मुरहू के सौजन्य से यहां नौ जनवरी 2014 को एक पत्थलगड़ी जरूर कर दी है, जिस पर अंग्रेजों के गोलीकांड में शहीद छह लोगों के नाम दर्ज है।