जनपद के कवि त्रिलोचन रांची में भी रहे। 1959 में। करीब एक साल वे यहां पुस्तक भवन के अभिज्ञान प्रकाशन में काम किया। कचहरी रोड पर यहा पुस्तक भवन था। रांची से ही राधाकृष्ण के संपादन में निकल रही आदिवासी पत्रिका में उनकी कई कविताएं भी छपीं और उनका एक लेख मंडा पर्व भी आदिवासी के अंक में प्रकाशित हुआ था। मंडा पर्व आदिवासी और मूलवासियों का पर्व है, जहां वे शिव की आराधना करते हैं पूरी पवित्रता के साथ। इस पर्व में आदिवासी-मूलवासी भोक्ता नंगे पैर आग पर चलते हैं। त्रिलोचन जिस वर्ष के मंडा पर्व का उल्लेख करते हैं, वह 1940 के समय का है, जब रांची से 40 किमी दूर रामगढ़ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था और उसमें डा. राजेंद्र प्रसाद, सीमांत गांधी, सरदार बल्लभ भाई पटेल सरीखे नेताओं ने आग पर चलने के इस पर्व को देखा और आश्चर्यचकित भी हुए। त्रिलोचन ने आग पर चलने के इस पर्व पर विस्तार से लिखा और बताया कि अपने देश और विदेश में कहां-कहां आग पर चलने की परंपरा है।
बहरहाल, त्रिलोचन के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे रांची में कुछ दिनों तक रिक्शा भी चलाए, लेकिन अब कोई ऐसा व्यक्ति नहीं बचा है, जो बता सके। रांची के वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण जरूर बताते हैं कि वे 1959 में रांची में एक साल रहे। यहां काम किया। राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल बताते हैं कि त्रिलोचनजी मेरे ही घर पर रहते थे। उनकी कविताएं भी आदिवासी साप्ताहिक पत्रिका में छपती थीं। उनकी एक तस्वीर जरूर मिलीं, जिसमें त्रिलोचन के साथ रांची के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ श्रवणकुमार गोस्वामी हैं। यह तस्वीर रांची में आयोजित किसी पुस्तक लोकार्पण की है। श्रवणकुमार गोस्वामी की स्थिति ऐसी नहीं कि वे कुछ इस बारे में बता सकें। अब सिर्फ संतोष ही करना है। लेकिन इस मंडा पर्व के बारे में भी हमें जानना चाहिए, जिसके बारे में त्रिलोचन ने लिखा है।
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जातियों को जोडऩे का पर्व
मंडा वैसे तो आग पर चलने का पर्व है, लेकिन है यह जातियों को जोडऩे का पर्व। आदिवासी और मूलवासियों को एकसूत्र में पिरोने का पर्व। इसकी शुरुआत चुटिया से हुई, जो तब छोटानागपुर के नागवंशियों की राजधानी रही। छोटानागपुर शिव का आराधक है। वैसे संताल परगना भी। यहां शिव लिंग और शिव मंदिरों की बहुतायत है। बाबा बैजनाथ से लेकर गुमला के टांगीनाथ तक। मंडा पर्व इसी का एक रूप है। इसे शिव मंडा पूजा भी कहते हैं। नागवंशी राजाओं ने सभी जातियों को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। यह इस पर्व से समझा जा सकता है। राजा ने इस पर्व में सभी जातियों को जोड़ा और हर जाति को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी। मंडा पूजा कराने के लिए पांडे समाज, पाट भोक्ता के लिए तेली समाज, राजा भक्तों के लिए अहीर (गोप), बाला भोक्ता के लिए मुंडा, भंडारी के लिए राजपूत समाज, ढकाहा के लिए नायक समाज, हजामत एवं पूजा के लिए ठाकुर समाज को भूमि (जमीन) दी गई थी। इसके अलावा बनिया समाज को मुन्नी पूजा, कोईरी समाज को भोक्ताओं को मुंडा खुटा में घुमाने एवं आदिवासी समाज के लोगों को मचान बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। यह पर्व वैशाख महीने में मनाया जाता है। चुटिया से इसकी शुरुआत होती है। इसके बाद गांव-गांव यह मनाया जाने लगता है। इसमें कई अनुष्ठान होते हैं।
डगर: ढाक द्वारा लगातार पांच दिनों तक डगर देकर सभी देवी देवताओं को जगाते हैं साथ ही लोगों तक यह संदेश पहुंचते है कि अब मंडा पर्व का शुभारंभ हो चुका है।
मुंडन: इस दिन सभी प्रमुख भोक्ता क्रमश: पंडित, पाट भोक्ता, राजा भोक्ता, बाला भोक्ता और भंडारी के घर ढाक, नगाड़ा और शहनाई लेकर निमंत्रण देते हैं। इन्हें घर से ले जाकर इनका मुंडन संस्कार कराया जाता है।
उत्तरी : मुंडन संस्कार के बाद दूसरे दिन अर्धरात्रि में सभी भोक्ताओं को करीनाथ तालाब में उतरी लेकर सभी भोक्ता ढाक नगाड़े की थाप पर नाचते गाते शिव बरात के लिए चल पड़ते हैं शिव बरात गोसाई टोली स्थित लोहार के घर पर सतबहिनी मंदिर में शिव विवाह होता है। उसके बाद माता पार्वती (पाट) की विदाई होती है। भोक्तागण माता पार्वती (पाठ) को लेकर शिव मंदिर महादेव मंडा आते हैं।
नगर भ्रमण : सुबह में ढकहा ढाक बजाते पाटभोक्ता के घर जाकर उठाते हैं और पाटभोक्ता पाठ लेकर चुटिया के तालाबों में जाकर उत्तरी अन्य भोक्ताओं को पंडित देते हैं। यहां सिलसिला फुलखुंदी के दिन तक चलता है। इसमें माता पार्वती (पाठ) को चुटिया के सभी घरों में ले जाया जाता है। माता पार्वती (पाट) की पूजा घर की महिलाएं करती हैं। इस दौरान भोक्ता गण भी साथ में चलते हैं और घरों के आंगन में भोक्ता गण ढाक नगाड़े के थाप पर नाचते हैं। दोपहर में भोक्ता शिव मंदिर महादेव मंडा में कुछ देर आराम करते हैं और सात्विक भोजन गुड़ का शरबत और चना दाल का सेवन करते हैं। सभी भोक्ता 11 दिनों तक अनुष्ठान में शामिल होते हैं और भोक्ता जमीन पर ही सोते हैं। यह एक कठिन दिनचर्या होती है और पवित्रता का ख्याल रखा जाता है।
शोभायात्रा: रात्रि में रोजाना चुटिया के प्राचीन श्री राम मंदिर से शोभायात्रा भोक्ताओं की निकलती है। भोक्ता गुलैची फूल से सज धज कर अर्धनारी का रूप धारण कर एक हाथ में चावर और दूसरे हाथ में बेत लिए बाबा भूतनाथ का जयकारा लगाते चलते हैं। 'बले शिवा मनी महेश काशी बैजनाथ उड़ीसा जगन्नाथ गजा गजाधर आधव माधव गौरीशंकर महेश दाता दिगम महेश बले शिवा मनी महेशÓ यही जयकारा लगाते हैं। ढोल नगाड़े एवं शहनाई पर भोक्तागण नाचते हुए शिव मंदिर महादेव मंडा पहुंचते हैं। उसके बाद सभी भोक्तागण एक दूसरे से गले मिलते हैं और फिर देर रात बाबा भोले शंकर की श्रृंगार कर पूजा अर्चना करते हैं।
फुलखुंदी : इस दिन सुबह से ही कई अनुष्ठान होते हैं। सबसे पहले स्वर्णरेखा नदी पर स्थित दादुल घाट जाते हैं जहां पर मिट्टी की ढकनी को भोक्ता गण बालू से बनी शिवलिंग पर हाथों से फोड़ते हैं जिससे भोक्ता का ढकनी फूट गया, उसकी तपस्या सफल समझी जाती है। जिस भोक्ता की ढकनी नहीं टूटी, उसे पंडित द्वारा दंड दिया जाता है। इस अनुष्ठान के बाद सभी भोक्ता नगर भ्रमण पर निकल पड़ते हैं। शाम में फुलकुंदी के लिए भोक्ता गण चुटिया के मुख्य मार्ग के घरों से लकड़ी लेकर आते हैं लकड़ी जमा कर के फिर दूसरे अनुष्ठान में चले जाते हैं। यहां अनुष्ठान को लोटन सेवा कहते हैं। इसमें सभी भक्तों एक दूसरे को आपसी भाईचारा का परिचय देते हुए 21 बार गले मिलते हैं फिर लपरा भांजने का समय आता है। इस समय भोक्ताओं को एक खूंटा में उल्टा लटकाकर अग्निकुंड में आस्था का परिचय दिलाया जाता है। फिर समय आता है निशा पानी लाने का अनुष्ठान। पाटभोक्ता निशा पानी एक घड़े में लाने के लिए हटिया तालाव जाता है। इस दौरान पाट भोक्ता को पीछे मुड़कर नहीं देखना होता है। निशा पानी मंदिर में पहुंचने के बाद बकरे की बलि भी दी जाती है। इसके बाद अंतिम अनुष्ठान भोक्ताओं को लहलहाते आग के अंगारों के ऊपर नंगे पांव चल कर अपनी भक्ति और शक्ति का परिचय देते हैं। इस फूलखुन्दी इसे ही कहते हैं।
राधा चक्र, शोभायात्रा एवं झूलन : अगले दिन अनुष्ठान विशू के दिन मनाया जाता है। पूजा अर्चना करने के बाद मंदिर के पुजारी पंडित जी सभी भोक्ताओं को गुड़ का शरबत एवं कच्चा आम प्रसाद के रूप में खिलाते हैं। यह भी माना जाता चुुटिया में विशू के दिन ही सभी घरों में आम का स्वाद चखते हैं। इससे पहले आम का सेवन नहीं करते हैं। फिर भोक्ता गण सज धज कर अर्थ नारी का रूप लेकर प्राचीन श्री राम मंदिर से चल पड़ते हैं। इस समय एक खास अनुष्ठान का आयोजन होता है। जिसे राधा चक्र कहते हैं। राधा चक्र एक बैलगाड़ी में लगाकर, जिसमें पाट भोक्ता को अर्धनग्न अवस्था में नुकीली किलो के बीचो-बीच लिटाकर शिव मंदिर महादेव मंडा घुमाते हुए लाते हैं। इसके बाद सभी भोक्ताओं को एक लकड़ी के खंभे में बारी-बारी से झुलाया जाता है। भोक्ता गण श्रद्धालुओं को ऊपर से आस्था के फूल ब
रसाते हैंञ इस दिन मंदिर परिसर में मेला का भी आयोजन होता है।
छठी : मंडा पर्व छठी के साथ संपन्न होता है। इस दिन सभी भोक्ता हजामत करा कर एक दूसरे के शरीर में तेल हल्दी लगाकर अपना व्रत को तोड़ते हैं और खिजुरिया तालाब में स्नान करने के बाद बाबा का श्रृंगार पूजा करते हैं और अंत में भोक्ताओं के लिए भंडारे का आयोजन होता है। इस तरह यह पर्व संपन्न होता है।
बहरहाल, त्रिलोचन के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे रांची में कुछ दिनों तक रिक्शा भी चलाए, लेकिन अब कोई ऐसा व्यक्ति नहीं बचा है, जो बता सके। रांची के वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण जरूर बताते हैं कि वे 1959 में रांची में एक साल रहे। यहां काम किया। राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल बताते हैं कि त्रिलोचनजी मेरे ही घर पर रहते थे। उनकी कविताएं भी आदिवासी साप्ताहिक पत्रिका में छपती थीं। उनकी एक तस्वीर जरूर मिलीं, जिसमें त्रिलोचन के साथ रांची के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ श्रवणकुमार गोस्वामी हैं। यह तस्वीर रांची में आयोजित किसी पुस्तक लोकार्पण की है। श्रवणकुमार गोस्वामी की स्थिति ऐसी नहीं कि वे कुछ इस बारे में बता सकें। अब सिर्फ संतोष ही करना है। लेकिन इस मंडा पर्व के बारे में भी हमें जानना चाहिए, जिसके बारे में त्रिलोचन ने लिखा है।
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जातियों को जोडऩे का पर्व
मंडा वैसे तो आग पर चलने का पर्व है, लेकिन है यह जातियों को जोडऩे का पर्व। आदिवासी और मूलवासियों को एकसूत्र में पिरोने का पर्व। इसकी शुरुआत चुटिया से हुई, जो तब छोटानागपुर के नागवंशियों की राजधानी रही। छोटानागपुर शिव का आराधक है। वैसे संताल परगना भी। यहां शिव लिंग और शिव मंदिरों की बहुतायत है। बाबा बैजनाथ से लेकर गुमला के टांगीनाथ तक। मंडा पर्व इसी का एक रूप है। इसे शिव मंडा पूजा भी कहते हैं। नागवंशी राजाओं ने सभी जातियों को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। यह इस पर्व से समझा जा सकता है। राजा ने इस पर्व में सभी जातियों को जोड़ा और हर जाति को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी। मंडा पूजा कराने के लिए पांडे समाज, पाट भोक्ता के लिए तेली समाज, राजा भक्तों के लिए अहीर (गोप), बाला भोक्ता के लिए मुंडा, भंडारी के लिए राजपूत समाज, ढकाहा के लिए नायक समाज, हजामत एवं पूजा के लिए ठाकुर समाज को भूमि (जमीन) दी गई थी। इसके अलावा बनिया समाज को मुन्नी पूजा, कोईरी समाज को भोक्ताओं को मुंडा खुटा में घुमाने एवं आदिवासी समाज के लोगों को मचान बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। यह पर्व वैशाख महीने में मनाया जाता है। चुटिया से इसकी शुरुआत होती है। इसके बाद गांव-गांव यह मनाया जाने लगता है। इसमें कई अनुष्ठान होते हैं।
डगर: ढाक द्वारा लगातार पांच दिनों तक डगर देकर सभी देवी देवताओं को जगाते हैं साथ ही लोगों तक यह संदेश पहुंचते है कि अब मंडा पर्व का शुभारंभ हो चुका है।
मुंडन: इस दिन सभी प्रमुख भोक्ता क्रमश: पंडित, पाट भोक्ता, राजा भोक्ता, बाला भोक्ता और भंडारी के घर ढाक, नगाड़ा और शहनाई लेकर निमंत्रण देते हैं। इन्हें घर से ले जाकर इनका मुंडन संस्कार कराया जाता है।
उत्तरी : मुंडन संस्कार के बाद दूसरे दिन अर्धरात्रि में सभी भोक्ताओं को करीनाथ तालाब में उतरी लेकर सभी भोक्ता ढाक नगाड़े की थाप पर नाचते गाते शिव बरात के लिए चल पड़ते हैं शिव बरात गोसाई टोली स्थित लोहार के घर पर सतबहिनी मंदिर में शिव विवाह होता है। उसके बाद माता पार्वती (पाट) की विदाई होती है। भोक्तागण माता पार्वती (पाठ) को लेकर शिव मंदिर महादेव मंडा आते हैं।
नगर भ्रमण : सुबह में ढकहा ढाक बजाते पाटभोक्ता के घर जाकर उठाते हैं और पाटभोक्ता पाठ लेकर चुटिया के तालाबों में जाकर उत्तरी अन्य भोक्ताओं को पंडित देते हैं। यहां सिलसिला फुलखुंदी के दिन तक चलता है। इसमें माता पार्वती (पाठ) को चुटिया के सभी घरों में ले जाया जाता है। माता पार्वती (पाट) की पूजा घर की महिलाएं करती हैं। इस दौरान भोक्ता गण भी साथ में चलते हैं और घरों के आंगन में भोक्ता गण ढाक नगाड़े के थाप पर नाचते हैं। दोपहर में भोक्ता शिव मंदिर महादेव मंडा में कुछ देर आराम करते हैं और सात्विक भोजन गुड़ का शरबत और चना दाल का सेवन करते हैं। सभी भोक्ता 11 दिनों तक अनुष्ठान में शामिल होते हैं और भोक्ता जमीन पर ही सोते हैं। यह एक कठिन दिनचर्या होती है और पवित्रता का ख्याल रखा जाता है।
शोभायात्रा: रात्रि में रोजाना चुटिया के प्राचीन श्री राम मंदिर से शोभायात्रा भोक्ताओं की निकलती है। भोक्ता गुलैची फूल से सज धज कर अर्धनारी का रूप धारण कर एक हाथ में चावर और दूसरे हाथ में बेत लिए बाबा भूतनाथ का जयकारा लगाते चलते हैं। 'बले शिवा मनी महेश काशी बैजनाथ उड़ीसा जगन्नाथ गजा गजाधर आधव माधव गौरीशंकर महेश दाता दिगम महेश बले शिवा मनी महेशÓ यही जयकारा लगाते हैं। ढोल नगाड़े एवं शहनाई पर भोक्तागण नाचते हुए शिव मंदिर महादेव मंडा पहुंचते हैं। उसके बाद सभी भोक्तागण एक दूसरे से गले मिलते हैं और फिर देर रात बाबा भोले शंकर की श्रृंगार कर पूजा अर्चना करते हैं।
फुलखुंदी : इस दिन सुबह से ही कई अनुष्ठान होते हैं। सबसे पहले स्वर्णरेखा नदी पर स्थित दादुल घाट जाते हैं जहां पर मिट्टी की ढकनी को भोक्ता गण बालू से बनी शिवलिंग पर हाथों से फोड़ते हैं जिससे भोक्ता का ढकनी फूट गया, उसकी तपस्या सफल समझी जाती है। जिस भोक्ता की ढकनी नहीं टूटी, उसे पंडित द्वारा दंड दिया जाता है। इस अनुष्ठान के बाद सभी भोक्ता नगर भ्रमण पर निकल पड़ते हैं। शाम में फुलकुंदी के लिए भोक्ता गण चुटिया के मुख्य मार्ग के घरों से लकड़ी लेकर आते हैं लकड़ी जमा कर के फिर दूसरे अनुष्ठान में चले जाते हैं। यहां अनुष्ठान को लोटन सेवा कहते हैं। इसमें सभी भक्तों एक दूसरे को आपसी भाईचारा का परिचय देते हुए 21 बार गले मिलते हैं फिर लपरा भांजने का समय आता है। इस समय भोक्ताओं को एक खूंटा में उल्टा लटकाकर अग्निकुंड में आस्था का परिचय दिलाया जाता है। फिर समय आता है निशा पानी लाने का अनुष्ठान। पाटभोक्ता निशा पानी एक घड़े में लाने के लिए हटिया तालाव जाता है। इस दौरान पाट भोक्ता को पीछे मुड़कर नहीं देखना होता है। निशा पानी मंदिर में पहुंचने के बाद बकरे की बलि भी दी जाती है। इसके बाद अंतिम अनुष्ठान भोक्ताओं को लहलहाते आग के अंगारों के ऊपर नंगे पांव चल कर अपनी भक्ति और शक्ति का परिचय देते हैं। इस फूलखुन्दी इसे ही कहते हैं।
राधा चक्र, शोभायात्रा एवं झूलन : अगले दिन अनुष्ठान विशू के दिन मनाया जाता है। पूजा अर्चना करने के बाद मंदिर के पुजारी पंडित जी सभी भोक्ताओं को गुड़ का शरबत एवं कच्चा आम प्रसाद के रूप में खिलाते हैं। यह भी माना जाता चुुटिया में विशू के दिन ही सभी घरों में आम का स्वाद चखते हैं। इससे पहले आम का सेवन नहीं करते हैं। फिर भोक्ता गण सज धज कर अर्थ नारी का रूप लेकर प्राचीन श्री राम मंदिर से चल पड़ते हैं। इस समय एक खास अनुष्ठान का आयोजन होता है। जिसे राधा चक्र कहते हैं। राधा चक्र एक बैलगाड़ी में लगाकर, जिसमें पाट भोक्ता को अर्धनग्न अवस्था में नुकीली किलो के बीचो-बीच लिटाकर शिव मंदिर महादेव मंडा घुमाते हुए लाते हैं। इसके बाद सभी भोक्ताओं को एक लकड़ी के खंभे में बारी-बारी से झुलाया जाता है। भोक्ता गण श्रद्धालुओं को ऊपर से आस्था के फूल ब
रसाते हैंञ इस दिन मंदिर परिसर में मेला का भी आयोजन होता है।
छठी : मंडा पर्व छठी के साथ संपन्न होता है। इस दिन सभी भोक्ता हजामत करा कर एक दूसरे के शरीर में तेल हल्दी लगाकर अपना व्रत को तोड़ते हैं और खिजुरिया तालाब में स्नान करने के बाद बाबा का श्रृंगार पूजा करते हैं और अंत में भोक्ताओं के लिए भंडारे का आयोजन होता है। इस तरह यह पर्व संपन्न होता है।
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