आर्यों की जन्मभूमि

अंबिका प्रसाद वाजपेयी

  आर्य लोग भारत के ही रहने वाले थे या कहीं बाहर से आए थे? इस विषय पर यूरोपियन अनुसंधान कर्ताओं ने बहुत कुछ लिखा है। मैं ने इम्पीरियल लाइब्रेरी में इस विषय पर अनेक विद्वानों के मत पढ़े थे। एक को छोड़कर प्रायः सभी विद्वानों का मत है कि आर्य मध्य एशिया से आए थे। एतद्देश्यीय पुराने पण्डित यह मानते ही नहीं कि आर्य कहीं बाहर से आए थे। वे समझते हैं कि भारतवर्ष ही उन का जन्म स्थान था। इस मत के विदेशी समर्थक एक मि. कर्जन ही मिले। लार्ड कर्जन इन्हें न समझ लेना चाहिए, क्योंकि उन के जन्म से शायद सौ साल पहले यह रहे होंगे। 
 भारतवासियों में एकमात्रा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ऐसे विद्वान निकले जिन्होंने एक तीसरे मत की स्थापना की। उन का ‘आर्कटिक होम्स इन दि वेदाज’ मैं ने सीहारे हाई स्कूल की लाइब्रेरी में पढ़ा था। उस समय 1907 में उनके अनेक स्थल मेरे लिए दुर्बोध थे। फिर भी जो प्रतिपाद्य विषय था, वह समझ में आ ही गया। तिलक महाराज का कहना था कि आर्यों की जन्मभूमि उत्तरी धु्रव देश है। अनेक वेद मंत्रा उसी ओर संकेत करते हैं। उन्होंने विविध नक्षत्रों से सम्बन्धित यज्ञों के विषय में बताया कि उत्तरी ध्रुव देश के बिना अन्यत्रा उन की संगति नहीं बैठ सकती। छः महीने का दिन और छः महीने की रात भी वहीं होती है। बहुत से हेतु दिए, जिन के विषय में जनसाधारण का ज्ञान नहीं के बराबर है, पर जो थोड़े से प्रयास से समझ में आ जाते हैं। मैं यदि उसके विषय में कुछ कहूं तो मेरे मत का मूल्य ही क्या है? जानकार के ही मत का मूल्य होता है। 1906 की कलकत्ता कांग्रेस के अवसर पर एक सज्जन ने तिलक महाराज से इस विषय पर कुछ चलती सी बात की थी, उसे सुन कर मुझ में उस ग्रंथ के पढ़ने का विचार उत्पन्न हुआ था।
 मध्य एशिया आर्यों की जन्मभूमि हो या न हो, पर इस में सन्देह नहीं कि वहां भी आर्यों की बस्तियां थीं। ये वैसे ही आर्य निवास थे, जैसे विंध्य के दक्षिण में थे और जिन की चर्चा पंतजलि ने महाभाष्य में की है, या और प्रकार के?-यह कौन कह सकता है! वहां तीर्थ स्थान तो थे ही और कहना चाहिए कि आज भी हैं। मेरु पर्वत पर ऋषियों की उस सभा की कथा प्रसिद्ध है, जिस में वैशम्पायन के न पहुंचने पर उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था। यह मेरु कहां है? स्वर्गीय पं योगेन्द्र चन्द्र राय विद्यानिधि ने अपने पौराणिक उपाख्यान ग्रंथ में लिखा है--मेरु देश पूर्वी और चीनी तुर्किस्तान है। मेरु जब मध्य एशिया में मिलता है तब यदि कैलास और मानसरोवर तिब्बत में मिलते हैं तो क्या आश्चर्य?
   डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ‘पाणिकालीन भारतवर्ष’ में लिखते हैं---‘पाणिनि सूत्रा 6।1।153 में प्रस्कण्व एक ऋषि का नाम है। इसी का प्रत्युदाहरण प्रकण्व है जो एक देश का नाम था।प्रकण्वो देश काशिका यूनानी इतिहास लेखक हिरोदोतोस ने पेरिकनिओइ नामक जाति का उल्लेख किया है, जिस की पहचान स्ठेन कोनो ने फरगना के लोगों से की है। खरोष्टी शिलालेख भूमिका पृष्ठ 18 ज्ञात होता है कि प्रकण्व ही पेरकनिओई या फरगना का प्राचीन नाम था। इस प्रकार प्रकण्व देश भी मध्य एशिया के भूगोल का अंग था। फारसी में पे और फे बदलते हैं। ‘क’ प्राकृत में ‘ग’ हो जाता है। इस तरह प्रकण्व फरगना हो गया।

‘मारवाड़ी बन्धु’ 

  काबुल के अमीर अब्दुल रहमान 1907 में दिल्ली पधारे थे। बकरीद का मौका था, इस लिए दिल्ली के कुछ मुसलमानों ने अमीर साहब के लिए 101 गायों की कुर्बानी का ऐलान किया था। जब अमीर साहबब को मालूम हुआ तो उन्हों ने घोषणा की कि इस मुल्क में हिन्दुओं का मेहमान हूं। उन का दिल दुखाने नहीं आया हूं। क्या मुल्क में दुम्बे या भेड़ें नहीं हैं, जो गायों की कुर्बानी की बात कही जाती है! मैं एक भी गाय की कुर्बानी पसन्द नहीं करूंगा। हिन्दी के पुराने सम्पादक पं दुर्गाप्रसाद मिश्र का कोई पत्रा नहीं निकल रहा था। फिर भी उन्हों ने इस खबर का हैंडबिल छपाया और आप जाकर मंदिरों और दूसरे स्ािानों पर चिपकाया।
 इस के बाद बाबू रूड़मल्लजी गोएनका की प्रेरणा और सहायता से उन्हों ने ‘मारवाड़ी बन्धु’ नामक साप्ताहिक पत्रा निकाला। यह पत्रा कोई दो साल तक चलता रहा। किसी योजना के अनुसार पत्रा नहीं प्रकाशित हुआ था। न व्यय की ठीक-ठीक व्यवस्था थी और न कार्यकर्ताओं की। पण्डितजी ही उस का सब काम करते थे। दूसरा कोई सहायक न था। प्रेस में कापी ले जाना, कागज पहुंचाना, प्रूफ देखना और छप जाने पर उस के वितरण की व्यवस्था करना भी उन्हीं के जिम्मे था। कभी-कभी मैं कुछ लिख देता था।

नृसिंह मासिक पत्र
 
  ‘ऐसा ही एक आदमी’ का व्यापार मेरा ‘नृसिंह’ मासिक पत्रा का प्रकाशन भी था। लेफटेंनेंट जार्ज -रैनकिंग को पढ़ा कर मैं ने जो कई सौ रुपये जमा किए थे, वे निकलने को बेचैन थे और ‘नृसिंह’ ने उन्हें निकलने का रास्ता दिखा दिया। उन दिनों ‘सरस्वती’ ही एकमात्रा मासिक पत्रिका हिन्दी में प्रकाशित हो रही थी। पर इसमें राजनीति को स्थान न था। ‘नृसिंह’ राजनीतिक और वह भी नई पार्टी का पक्षपाती राजनीतिक पत्रा था। समझा यह गया था कि उस का बहुत प्रचार होगा और कम से कम धन का टोटा कभी न होगा। कागज और छपाई के सिवा कुछ खर्च न था। कोई वैतनिक कर्मचारी न था। सम्पादक, प्रबन्धक, लेखक, चपरासी और बैरा सब के सब कार्य मुझ में ही केन्द्रित था। उन दिनों निकलने वाले पत्रों के विषय में ‘पायोनियर’ ने लिखा था कि उन के संचालक ही सम्पादक, प्रबन्धक, प्रकाशक, प्रूफरीडर और आफिस ब्वाय तक होते हैं। वैसी ही व्यवस्था ‘मारवाड़ी बन्धु’ और ‘नृसिंह’ में थी। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र के चचेरे भाई वासुदेवजी उस में पं सत्यचरण शास्त्राी की बंगला पुस्तक ‘जालियात क्लाइव’ का अनुवाद ‘क्लाइव चरित्रा’ दे कर प्रकाशित कराते थे। मेरे घर का नौकर डाकखाने डाल आता था। बाकी काम ‘जूता सिलाई से चंडीपाठ’ इस बंगला कहावत के अनुसार मैं करता था। किसी से किसी प्रकार की आशा भी न थी।
 परन्तु दो ही तीन महीने बाद ‘नृसिंी’ का नाम सिन्ध और सीमा प्रदेश तक हो गया था। ‘फ्रंटियर टाइम्स’ अंगरेजी का साप्ताहिक पत्रा था, पर ‘नृसिंह’ के निकलने के पहले से ही यह परिवर्तन आने लगा था। श्री भोपटकर पूने से ‘भाला’ नाम का पत्रा निकालते थे, वह दशाहिनक था। हर दसवें दिन प्रकाशित होता था। लार्ड कर्जन के दरबार पर इस ने ‘नरकांतील दरबार’ नरक में दरबार लेख लिखा था, जिस के लिए इसे जेल जाना पड़ा था। ‘नृसिंह’ भी इसी की पार्टी का पत्रा था। परिवर्तन में इस का आना स्वाभाविक था और यह आता था।
आवरण पृष्ठ पर ‘नृसिंह’ का चित्रा था जिस में वह खम्भा फाड़कर निकल कर हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ रहे थे। प्रह्लाद भी पास ही खड़ा था। हर अंक में किसी नेता का चित्रा होता था। पहले अंक में लाला लाजपत राय का चित्रा और चरित था। वह उस समय भारतभर में सब से प्रसिद्ध थे, क्योंकि निर्वासित हो बर्म-मंडाले के किले में कैद थे। दूसरे अंक में ब्रह्माबांधव उपाध्याय का परिचय और चित्रा था। वह बंगला की दैनिक सान्ध्य पत्रिका ‘सन्ध्या’ के सम्पादक थे। उन पर राजद्रोह का मामला चला था। उन्हों ने कहा था--‘‘सन्ध्या के सम्पादन परिचालन और प्रकाशन का समस्त दायित्व मैं स्वीकार करता हूं। मैं कहता हूं कि 13वीं अगस्त  1907 को सन्ध्या में ‘एखन ठेके गेछि प्रेमेरदाये’ शीर्षक जो प्रबन्ध छपा है और जो उस प्रबन्ध का अंश है, जिस पर मामला चल रहा है, वह मैं ने ही लिखा है। परन्तु मैं इस विचार-काण्ड में किसी तरह की कहा-सुनी नहीं किया चाहता, क्योंकि मुझे विश्वास है कि ईश्वर नियोजित स्वराज्य प्राप्त करने का जो थोड़ा मेरा कार्य है, उस के करने में मैं विदेशियों को कुछ उत्तर नहीं दे सकता, जो भाग्यवश हम लोगों पर राज्य कर रहे हैं और जिनका स्वार्थ हमारी सच्ची राष्टीय उन्नति के विरुद्ध है और अवश्य रहेगा’’
 इस के बाद के अंकों में डॉ. रासबिहारी घोष श्री अरविन्द घोष, ला. तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री चिदम्बरम पिल्ले, प्रो शिवराम महादेव परांजपे, श्री ग. पी. खापड़े इत्यादि-इत्यादि के चित्रा थे।
 एक सज्जन ने यह सोचकर 100 से साझा किया था कि कुछ मिल जाएगा। पर अन्त में उन्हें अपनी रकम भी डूबती दिखी, तब सोचने लगे कि बड़ी भूल हो गई। मैं तो सब समझ रहा था। साल भर के अन्दर ही मेरे नाकों दम हो गया। डूबते को किनारा दीखने से जैसे वह और हाथ-पैर मारता है, वैसा ही मैं भी कर रहा था। अन्त को 12 अंक पूरे कर लिए, तब कान पकड़ लिए। और ‘नृसिंह’ बंद कर दिया। परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि उस ने लाज रख ली। बीच में ही नहीं बंद करना पड़ा।
 छपने-छपाने का काम बड़ी परेशानी का होता है। मैं बड़ा खराब प्रूफ रीडर हूं। दूसरा होता तो न जाने कब का मैदान से ीााग जाता। पर मैं बड़ा निर्लज्ज हूं। भागने का नाम नहीं लेता। ‘नृसिंह’ के पहले ही अंक में ‘लाजपतराय’ शब्द शीर्षक में ही ‘राजपतराय’ छप गया। मुझे दीख ही न पड़ा। दूसरों के सिर दोष मढ़ना भी अन्याय समझा। प्रूफ की गलती बेचारे कम्पोजीटर के नाम लिखी जाती है। वही ‘छापेखाने का भूत’ कहाता है। परन्तु भूल उसी से नहीं होती। लेखक से, सम्पादक से, और प्रूॅफ रीडर से भी होती है। पर सब उसकी आड़ में निर्दोष बच जाते हैं। इस प्रूफ की एक मजेदार कहानी है। कलकत्ते के बंगला साप्ताहिक ‘हितवादी’ में एक प्रूफरीडर थे, जो प्रभु प्रसिद्ध थे। वह अंगरेजी अक्षर तो जानते थे, पर लिख नहीं सकते थे। एक बार प्रूफ में ‘एल’ छट गया था। प्रभु ‘एल’ बना नहीं सकते थे। उन्हों ने किनारे पर लिख दिया, ‘एई खाने एल बसिवे’ यहां एल बैठेगा। कम्पोजीटर ने उस जगह कम्पोज कर दिया ‘एई खाने एल बसिवे’। सबेरे जब पत्र प्रकाशित हुआ तो लोगों ने बड़े कहकहे लगाए।

आठ साल की उम्र में ही कविता करने लगे थे गुरु भक्त सिंह 'भक्तÓ

गुरु भक्त सिंह 'भक्तÓ का जन्म पूर्वी उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के जमानियां में सात अगस्त, 1893 में हुआ था। उनका जन्म सरकारी अस्पताल में हुआ था। वहीं पर उनके पिता डॉ. कालिका प्रसाद सिंह पर डाक्टर थे। पिता बहुत दिनों तक फौज में डाक्टर रहे थे। इसके बाद वे सिविल डाक्टर हो गए। भक्तजी के जन्म के समय वे जमानियां के सरकारी अस्पताल में इंचार्ज थे। जमानियां में भक्तजी के पांच साल ही बीते। 1893 से लेकर 1898 तक। इसके बाद बलिया चले गए और यहीं पर इनकी आरंभिक शिक्षा शुरू हुई। प्राइमरी की शिक्षा के बाद गोरखपुर में अध्ययन किया। फिर इलाहाबाद में। 1911 से 1916 तक म्योर सेंटल कालेज में अध्ययन किया। इसी बीच 1911 में 18 साल की उम्र में वनश्री देवी से विवाह हो गया। पर, चार साल बाद ही आठ दिन का शिशु छोड़कर 1915 में वनश्री परलोक गमन कर गईं। 1918 में दूसरा विवाह शशिमुखी देवी से हुआ। 1919 में एलएलबी पास करने के बाद 'प्रेमपाशÓ नाटक की रचना की। यद्यपि वे छुटपन से ही रचना करने लगे थे। आठ साल की उम्र की उनकी एक रचना मिलती है-
नजर आ रहा है मकां आलीशां
कि जिसका नहीं हाल होता बयां
करूं किस जबां से बयां इसकी शां
फलक पर भी होगा न ऐसा मकां।

भक्तजी का हिंदी के अलावा उर्दू, फारसी, अंग्रेजी पर भी जबरदस्त अधिकार था। उर्दू में कविताएं लिखीं। अंग्रेजी में भी कविताएं लिखीं। 'नूरजहांÓ का अंग्रेजी में छंदोबद्ध अनुवाद भी खुद ही किया। इन भाषाओं पर अधिकार के बावजूद हिंदी से उन्हें बेहद लगाव था और मुख्य रचनाएं हिंदी में ही लिखीं। 'भक्तÓ जी ने अपने कॅरियर की शुरुआत वकालत से की। बलिया में 1919 से 1922 तक वहां वकालत किया। इसके बाद गांधीजी के आह्वान पर छोड़ दी। बाद में 19 नवंबर, 1922 से 1925 तक बंगाल नार्थ वेस्टर्न रेलवे में टैफ्रिक इंस्पेक्टर के पद पर अपनी सेवाएं दीं। बलिया रहते उनका दूसरा नाटक 'तसनीमÓ आया। इस दौरान कविता भी लिखते रहे। 1925 में पहला काव्य संग्रह 'सरस सुमनÓ का प्रकाशन हुआ। 'भक्तÓ जी ने फिर अपनी नौकरी बदली। वे गाजीपुर में जिला बोर्ड में सेक्रेटरी हो गए। यहां भी वे दो साल यानी 1925 से 1927 तक रहे। इसके बाद इलाहाबाद के मांडा रियासत में मैनेजर हो गए। एक साल तक ही यहां रह पाए कि फिर रायबरेली के जिला बोर्ड में सेक्रेटरी हो गए। यहां से फिर 1932 में बाराबंकी के रामनगर इस्टेट में मैनेजर हो गए। इसके बाद एटा जिले के आवागढ़ रियासत में भी मैनेजर रहे। यहां उन्हें तीन सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था। सबसे लंबी नौकरी आजमगढ़ में की और यही उनकी अंतिम नौकरी भी थी। यहां वे 1935 से लेकर 1956, अवकाश प्राप्ति तक म्यूनिसिपल बोर्ड के सेक्रेटरी रहे। यहीं पर अपना आवास बनवाया अलवल मुहल्ले में 'भक्त भवनÓ। कोट, पैंट, टाई के पर रंगदार और धारीदार राजस्थानी मुरेठा इनकी वेशभूषा थी।
अपनी कविताओं और विषय के बारे खुद भक्त ने अपनी कैफियत दी है, 'मेरी कविता का विषय रहा है मानव और मन तथा विविध परिस्थितियों में उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया। साधारण और उपेक्षित की ओर भी मेरा विशेष ध्यान गया चाहे वह जड़ हो या चेतन। विशिष्ट की ओर ही अभी तक साहित्य का स्रोत बहता था और देवी देवता, राजारानी नायक-नायिका बनकर मंच पर आते रहे थे। भारतीय जन-जीवन का शुद्ध रूप हम शत प्रतिशत ग्रामीण जनों में पाते हैं। ये बेचारे विशेषत: उपेक्षित हैं। बुद्धिजीवी नागरिक तथा पाश्चात्य कृत्रिम चमक-दमक की चकाचौंध के पुजारी पतंगे चाहे इन्हें असभ्य और प्रस्तरमूर्ति ही समझते रहे हों, परंतु वस्तुत: यही भारतीय जन जीवन के प्रतीक हैं। ये आधुनिक दयहीन दिखावटी सभ्यता के कल पुरजे नहीं हैं। वे ही तो धर्म शून्य,  हमारे सनातन धर्मा मर्यादा तथा सांस्कृतिक संस्कारों के रक्षक देवता हैं। दय मौज मारता है। इन दीनों की दुर्बल काया में एक उदार स्नेहासिक्त  मैं उनको अपनाया, उनको गले लगाया, इनकी प्रतिमाओं की, कविता द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की। उन पर स्नेह के फूल चढ़ाए। ऐसे पात्रा मेरे सभी संग्रहों में आए हैं।Ó
भक्तजी का काव्य जगत में प्रवेश निराला और पंत के साथ ही होता है। किंतु उनकी प्रथम कविता पुस्तक पंत के 'पल्लवÓ के बाद प्रकाशित हुई। उनका दृष्टिकोण न आध्यात्मिक था न रहस्यवादी। वे शुद्ध मानवतादी थे। प्रकृति के पुजारी थे और जिन्हें हमारी सभ्यता ने हाशिए पर ठेल दिया था, उसके वे गायक थे। प्रचार और प्रदर्शन से दूर रहने वाले इस महाकवि का आज कोई नामलेवा भी नहीं है न कहीं चर्चा ही होती है। ऐसा क्यों है? यह तो आज के आलोचक ही बताएंगे? पर उनके योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है। उन्होंने प्रबंध काव्य तब लिखी जब हिंदी में इसकी जरूरत महसूस की जा रही थी। इस कमी को पूरा करने के लिए वे प्रबंध काव्य लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। इस ऐतिहासिकता को समझेंगे तभी हमें भक्तजी का अवदान समझ में आएगा। उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उन्हीें के शब्दों में पढि़ए। उद्धरण लंबा है, लेकिन वर्तमान पाठकों के लिए जरूरी है। '...प्रबंध काव्य लिखने का कोई अपना विचार नहीं था। परंतु होनी होकर रहती है। प्रयाग के छात्रा जीवन में अपने बहनोई ठाकुर भगवान सिंह रइस कटरा के निजी मकान में रहते थे, जो म्योर सेंट निकट दो सौ गज की दूरी पर है। यहीं मेरे पड़ोसी थे पं देवीदत्त शुक्ल, संपादक 'सरस्वतीÓ। उस महापुरुष पर अपार कृपा मेरे ऊपर रहती और वे स्नेहवश मेरे निवास स्थान पर अक्सर आया जाया करते थे। वे आग्रह करके मेरी अप्रकाशित कविताएं बार-बार सुनते और अनुरोध करते कि मैं कोई महाकाव्य लिखूं। वे खड़ी बोली हिंदी में अच्छे प्रबंध काव्य की कमी अनुभव करते और मुझे दर्शाते कि इस अंग की पूर्ति आप कर सकते हैं, क्योंकि आपकी कविताओं में प्रबंध का मूल तत्व बीज रूप में विद्यमान है। मैं उनका प्रस्ताव टालता रहा। यहां तक कि 1919 में एलएलबी पास कर मैं प्रयाग से विदा भी हो गया और बलिया आकर अपने पिता डॉ कालिका प्रसाद सिंह के यहां अपने पैतृक भवन में रहकर वकालत करने लगा। 1918 में प्रथम जर्मन युद्ध समाप्त होने पर भारत की सहायता और बलिदान के उपलक्ष्य में, स्वाधीनता का द्वार खोलने के बजाय, जब ब्रिटिश सरकार, काले कानूनों द्वारा गुलामी की जंजीर और कसने लगी तब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया और सरकारी शासन के संचालन तंत्र को असहयोग द्वारा ठप कर देने का संकल्प लिया। छात्रों से स्कूल और कालेज छोड़कर, वकीलों से वकालत छोड़कर तथा अन्य कर्मचारियों से कार्यवाही से अपना हाथ हटाकर, स्वतंत्रात के संग्राम में कूद पडऩे को ललकारा। अत: गांधी की आंधी में बहकर वकालत छोड़ दी। यों मुझे देश व साहित्य सेवा के लिए पूर्ण अवकाश और देवदत्त-स्वर्ण-संयोग मिला।
जवानी का आलम था। तबीयत में उमंग थी। संसार की चिंता से दूर, प्रकृति-परी की मोहमाया में चूर था, आंखों में सरूर था। अत: उस मधुर बेला में मुझे अपने हितैषी पं देवीदत्त शुक्ल की बात याद आई और तब प्रबंध रत्न निकालने के लिए, संदेह और संकल्प, मेरा हृदय सागर मंथन करने लगा। 
नित्य ही मेरी मित्र मंडली, संध्या समय भृगु क्षेत्र के सुरम्य सुरसरि तट पर वायु सेवन और विनोद हित जाती और तरंगों में हिलोरे लेते हुए पावनपुलिन के रंगमंच पर झाऊ-झुरमुट के मंडप की छाया में, विविध विषयों पर तर्क-वितर्क करती। अवसर पा एक दिन प्रबंध काव्य लिखने के अपने विचार के बारे में मित्रों से परामर्श किया। सबने जोरों से इसका अनुमोदन किया। फिर सवाल आया विषय का। अनेक विषय सुझाए गए, जिनके पक्ष-विपक्ष में काफी वाद-विवाद उठा। सब अलौकिक और आदर्श नायक पेश करते थे। मैं अपने से मानव का चरित्रा लेना चाहता था, देवता का नहीं। अंत में जब मैंने अपनी पसंद सुंदरी नूरजहां पर प्रबंध काव्य लिखने की सुनाई तक काफी हो-हल्ला मचा। पर अनंत पांडेय की मंडली के विरोध करने पर भी मेरा प्रस्ताव बहुमत से स्वीकृत हो गया। तब मैंने इस पर लिखने की ठानी। इसी बीच मेरा संपर्क पं अयोध्या सिंह हरिऔध से हो गया था। वे मौलाना शिबली नोमानी आजमगढ़ी के इस व्यंग्य से बहुत मर्माहत थे कि हिंदी की लेखन शैली में उर्दू की तरह निखार नहीं है। भाषा में लोच व प्रसाद गुण नहीं है। हृदय को छूने वाले मुहावरे नहीं है और नहीं है बोलचाल में मंजे हुए हृदय को छूने वाले प्रयोग की जादूबयानी। 'प्रियप्रवासÓ के लेखक को यह बात तीर सी लगी। बात तो ठीक थी। हम दोनों को यह कमी खटकी और फिर हमने पांडित्यपूर्ण तत्सम बोझिल भाषा को खराद पर चढ़ाकर सुडौल करने की ठानी। इस दिशा में इस कमी की पूर्ति के लिए कवि सम्राट ने चौठो चौपदे, चुभते चौपदे आदि अनेक पुस्तकें लिख डालीं, जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
मैंने भी इस हेतु मैल-मिश्रित खनिज शब्दावली को तपा-तपाकर शुद्ध कंचन व कुंदन बनाकर लाने का संकल्प किया। मित्रों को अपने पक्ष में निर्णय सुनने के दूसरे दिन ही रात की मादक बेला में धारा प्रवाह लिखकर एक सर्ग पूरा कर संध्या समय उसी गंगा तट पर सबको सुना दिया। सब आश्चर्यचकित रह गए। सबने रचना की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यों प्रोत्साहित हो मैं धीरे-धीरे एक-एक सर्ग लिखने लगा। लिखने के लिए तबीयत मौजूं होने के लिए अक्सर महीनों का अंतर पड़ जाता था। कुछ अंश बलिया में लिखा, कुछ प्रयाग में, कुछ आगरा में, फतेहपुर सीकरी, मथुरा, दिल्ली आदि में। यों तीन वर्ष का समय लेकर काव्य पूरा कर लिया। इसी बीच महान आलोचक पं पद्म सिंह शर्मा प्रयाग पधारे। मैंने उन्हें 'नूरजहांÓ सुनाई। वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत इसकी प्रशंसा में एक पत्र पं बनारसी चतुर्वेदी संपादक 'विशाल भारतÓ कलकत्ता को लिखा कि इस पुस्तक को सज-धजकर छपवाने का प्रबंध कीजिए और अपनी पत्रिका में इसका कुछ अंश छापकर हिंदी संसार को इसकी अनोखी छवि से अवगत करा दीजिए। इसमें दरिया की रवानी है, जीवन की जवानी है, मोतियां का पानी है, बिछोह और मिलन की कहानी है। इसकी फड़कती भाषा सरल सुबोध मुहावरेदार है। कनक की मादकता लिए इसके शब्द-शब्द बोलते हैं। इसके वाक्य फेनिल छलकते प्याले हैं हाला और अंगूरी के।Ó
सन् 1935 में नूरजहां बड़ी सजधज के साथ लॉ जर्नल प्रेस, इलाहाबाद से निकली। हिंदी संसार ने हाथों हाथ उठा लिया। उसे पढ़ते ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने 'विशाल भारतÓ में एक लंबा लेख लिख डाला। उसके अंतिम शब्द बड़े मार्मिक हैं- 'इन वर्णनों को पढ़ते समय पाठक हृदय अपने इर्द-गिर्द बिखरे सौंदर्य सागर को, जिनकी वह अब तक उपेक्षा करता रहा है, पाकर अचरज में आ जाता है। कुछ कवि के वाक्चातुर्य से, कुछ अपनी सौंदर्य विस्मयकारिणी बुद्धि से, कुछ प्रकृति के अनंत सौंदर्य का साक्षात्कार करके, जी में आता है चिल्लाकर कह दें-यह कवि तो अपने ढंग का अकेला है-यूनिक।
'नूरजहांÓ की तारीफ  भगवतशरण उपाध्याय ने भी की। नूरजहां की प्रति मिलने पर उपाध्याय जी ने अपने उद्गार व्यक्त किए। लिखा कि आधुनिक हिंदी महाकाव्य के जीवन में यह एक नया वितान रचेगा। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों की श्रेणी में शुमार होगी। अभिव्यक्ति के लिहाज से कालीदास के प्रवाह की तरह है और इसमें कीट्स की तरह संगीत और फेंटेसी है। बाद में उपाध्याय जी ने नूरजहां पर एक व्याख्यात्मक आलोचना भी लिखी। लेकिन उस समय विशाल भारत के सहायक संपादक ब्रजमोहन वर्मा को नूरजहां में कुछ कमी दिखी। शायद वे एक अंश पढ़कर अपना मंतव्य भक्तजी के पास भेज दिया। उन्होंने एक पत्र भक्तजी के नाम भेजा और लिखा, 'आपका ''नूरजहांÓÓ का प्रथम सर्ग-जो अंश आपने भेजा था-पढ़ा। इस अंश में आपने नूरजहां के पिता के मुख से ईरान की सुंदरता का वर्णन कराया है। कवि न होने के कारण कविता में अपनी टांग अड़ाना मेरे लिए सरासर मूर्खता है। लेकिन एक साधारण पाठक की हैसियत से मरे विचार में यदि आप इस अंश में ईरान के 'गुलÓ, 'बुलबुलÓ, 'चमनÓ, 'सरोÓ, 'नर्गिसÓ, 'गुल्लालाÓ आदि बातों को सम्मिलित कर दें तो ईरान का दृश्य बहुत वास्तविकतापूर्ण हो जाए।Ó हालांकि भक्तजी ने इसका पूरा ख्याल रखा और वहां के सौंदर्य का वर्णन नूरजहां में किया है। इन शब्दों का प्रयोग भी किया है। वर्माजी को वह अंश नहीं मिल सका था, जिसके कारण उन्होंने अपना सुझाव भेज दिया था। उस समय के चर्चित साहित्यकार रूपनारायण चतुर्वेदी ने नूरजहां पढऩे के बाद अपने भाव को व्यक्त करने से नहीं रोक सके। भाषा की तारीफ करते हुए लिखा है, 'क्या भाषा है, क्या मुहावरे हैं, कैसी ललकती, किलकती, छलकती वाणी है और क्या वर्णन शैली है।Ó
इस तरह 'नूरजहांÓ का जन्म हुआ और हिंदी के महान लेखकों ने उस समय इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, लेख लिखे, आलोचना लिखी। 'नूरजहांÓ की कुछ पंक्तियों को देखना गैरवाजिब न होगा-
फिर बोल उठी कोयल कू! कू!
फिर बोल उठी कोयल कू! कू!
दिन थे हम दोनों होड़ लगा पंचम के स्वर में गाते थे।
दे मींड़ सरित की लहरों पर तारों से तार मिलाते थे।।
हम भी रसाल की डालों पर चढ़ आमों में छिप जाते थे।
हम तेरे आम चुराए बिन ही चोर बनाए जाते थे।।
'नूरजहांÓ में राष्ट्रीयता का उद्गार भी है-
जहां हमारा जन्म हुआ, वहीं हमारा स्वर्ग स्थान।
इस भू की मिट्टी पानी से यह काया है बनी हुई
दु:ख सुख के कितने आंसू से पावन रज है सनी हुई।।


भक्तजी की अन्य रचनाएं भी पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय रहीं। सरस सुमन, कुसुम कुंज, वंशीध्वनि और वनश्री। कहीं न कहीं इनमें प्रकृति का कोमल राग है। भक्तजी प्रकृति प्रेमी थे लेकिन उनका प्रेम पंत से भिन्न किस्म का था। वे भी वर्डस्वर्थ की तरह प्रकृति पर रीझते हैं। प्रकृति उनके जीवन में समाई है। वे उससे भिन्न नहीं हैं। उन्होंने खुद लिखा है, 'प्रकृति मेरे जीवन से इतनी अभिन्न है जितना मीन के लिए पानी। मेरा अस्तित्व उससे विलग सोचा ही नहीं जा सकता। वह मेरे काव्य की प्रेरणा अथवा पृष्ठभूमि नहीं है, वह तो मेरी सहचरी है। वह जीवन अभिनय में अभिनेत्राी है और मैं अभिनेता। वह मेरी रचनाओं के अंग-अंग से बोलती है और मैं उसकी मधुर ध्वनि सुन थिरक-थिरक कर गा उठता हूं।Ó आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने भी उनके इस पक्ष की ओर ध्यान दिलाया है, 'कहते हैं कि निरपेक्ष पुरुष को लुभाने के लिए प्रकृति ने संसार का यह जाल फैला रखा, पर नूरजहां का कवि वह पुरुष है जो स्वयं प्रकृति के जाल में फंसने को सदा उत्सुक रहता है। उसे एक-एक पौधा, एक-एक वृक्ष, उनके पत्र, पुष्प, शाखा, उपशाखा, एक-एक लता, एक-एक पक्षी, एक-एक मृग, पद-पद पर भावाविष्ट से बना देते हैं। वह जान-बूझकर उनके मोहजाल में जा फंसता है। अपनी कथा आरंभ करते ही वह प्रकृति के उस मोहजाल की ओर अग्रसर हो जाता है।Ó आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'अर्थ भूमि के संकोचÓ, 'बंधी लकीर के वादोंÓ, एवं 'प्रेम गान की परिपाटीÓ से आगे बढ़कर 'प्रकृति प्रांगण के सचराचर प्राणियों के रागपूर्ण परिचयÓ, 'विविध विषयों पर आत्मीयता व्यंजक दृष्टिपातÓ एवं 'सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावनाÓ को विकास देनेे वाले तत्कालीन कवियों में भक्तजी को गौरव के साथ स्मरण किया गया है।
हरिवंश राय बच्चन ने अगस्त 1963 में भक्तजी को उनके जन्मदिन की बधाई देते हुए पत्रा में लिखा कि 'आपके जन्मदिन पर चरण छूता हूं और चाहता हूं कि हमको आशीर्वाद देने के लिए आप बहुत दिन हमारे बीच बने रहें।...मैं जानना चाहता हूं कि आपकी संपूर्ण रचनावाली कहां से मिलती है। उसे मैं अपने पुस्तकालय में रखना चाहता हूं। मेरी कामना है कि जो पुस्तकालय मैं अपने बच्चों के लिए छोड़ूं, उसमें आपकी रचनाएं अवश्य हों।Ó
भक्त जी का महत्व इतना ही नहीं था। शांति निकेतन में हिंदी भवन निर्माण में भी भक्त जी ने अहम भूमिका निभाई। वहां कई भाषाओं के भवन थे। पर हिंदी भवन नहीं था। अवसर निकालकर भक्तजी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से इस संबंध में विनम्र निवेदन किया। गुरुदेव ने सहज मुद्रा में कहा-भवन बनाना आप लोगों का काम है। मैं जगह की व्यवस्था कर दूंगां। भक्तजी, पं बनारसी दास चतुर्वेदी तथा पं हजारीप्रसाद द्विवेद्वी, जो उन दिनों वहां अध्यापन कार्य कर रहे थे, भवन निर्माण के लिए आ
उनके योगदान को देखते हुए उस समय शांति निकेतन में भक्तजी के सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। यह आयोजन वहां की छात्राओं की ओर से किया था, जिनमें इंदिरा नेहरू भी शामिल थी। इसकी अध्यक्षता स्वयं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी। इस गोष्ठी में 'नूरजहांÓ में वर्णित बंगाल की छटा का पाठ किया गया। गुरुदेव ने मंत्रमुग्ध होकर सुना, सराहा और गदगद होकर आशीर्वाद भी दिया। भक्तजी के उद्गार थे, मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा और संसार का सबसे बड़ा पुरस्कार पा लिया।Ó भक्त हमारे बीच नहीं हैं। आजमगढ़ के अपने आवास पर 17 मई, 1983 को अंतिम सांसे लीं।


रुढ़ हुए। भक्तजी और चतुर्वेदी जी ने कलकत्ता जाकर धन संग्रह का कार्य प्रारंभ किया और लगभग 30 हजार रुपये जुटाकर गुरुदेव के पास भेज दिया। हिंदी भवन के शिलान्यास की तिथि नियत हुई। गुरुदेव ने अपने हाथों नींव का पत्थर रखा। इस तरह हिंदी भवन बनकर तैयार हुआ।

सेंसर की सड़ी कैंची ,,,,,यथार्थ लेकिन सेंसर?

सेंसर बोर्ड को लेकर सातवें दशक में एक बहस चली थी। 71-73 के दौरान 14 से भी अधिक फिल्मों पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसको लेकर तब धर्मयुग में एक बहस चली थी। आज भी सेंसर बोर्ड को लेकर जब-तब बहस होती रहती है। अभी मुल्क को लेकर भी बहस का दौर चल रहा है। धर्मयुग के इस बहस में डॉ राही मासूम रजा ने भाग लिया था। उनकी बेबाक टिप्पणी 4 नवंबर, 1973 के अंक में प्रकाशित हुई थी। साभार हम यहां दे रहे हैं।
 


डॉ राही मासूम रजा
 मेरे दिल में श्री गुजराल की बड़ी इज्जत है। वह देखने-सुनने में मिनिस्टर लगते ही नहीं। इसलिए जब वह हवाई तीर चलाने लगते हैं, तो बड़ी कोफ्त होती है और यह सोचकर दिल दुखता है कि एक और आदमी गया काम से।
इन दिनों वे फिल्मों से यथार्थ की मांग करने में जुटे हुए हैं। यथार्थ बड़ा खूबसूरत शब्द है। मैं भी इस शब्द के पुराने आशिकों में से हूं। मैंने भी इसकी जुदाई में जाग कर रातें काटी हैं और इसकी तलाश में चलकर दिन गुजारे हैं, गालियां सुनी हैं और धमकियां वसूल की हैं। इसीलिए मुझे गुजराल साहब की इस मांग पर हंसी आती है। यथार्थ की उनकी परिभाषा क्या है? क्या मार-पीट कम कर देने से या सेक्स का पुट न देने से फिल्मों में यथार्थ आ जाएगा? मैं यह नहीं मानता कि गुजराल साहब को यथार्थ का अर्थ नहीं मालूम है। वे कहते हैं कि सामाजिक सच्चाइयां बयान की जायें। मैं पूछता हूं, क्या सामाजिक सच्चाइयां बयान करने देंगे? सच्चाई यह है कि हमारा पुराना समाज जगह-जगह से मसक गया है। सच्चाई यह है कि जरूरतें इतनी बढ़ गयी हैं कि उन तक पहुंचने के लिए मूल्यों को पांव तले रख कर पंजों के बल खड़ा हुआ जाये, जो भी जिंदगी की जरूरी चीजों तक मुश्किल ही से हाथ पहुंच पाता है। सच्चाई यह है कि पुलिस के वर्दीपोश जवान रंगे हाथों चोरी करते पकड़े जाते हैं। वजीरों (मंत्रियों) के खिलाफ इंक्वायरी होती है, उनकी बेईमानी साबित होती है और वह विजारतों (मंत्रिमंडल) से निकाले जाते हैं। सच्चाई यह ह कि दंगों में पुलिस लूटमार करती है और सच्चाई यह है कि देश में रिश्वत का कानून चल रहा है। सच्चाई यह है कि पत्रकार खबरें गढ़ते हैं। सच्चाई यह है कि टीचर स्कूलों और कॉलेजों और यूनिवर्सटियों में झूठा इतिहास पढ़ाते हैं--यथार्थ बड़ी कड़वी गोली है गुजराल साहब! क्या आप हमें यह दिखलाने देंगे कि मिनिस्टर घूस खा रहा है और पोलिटिकल पार्टियां दंगे करवा रही हैं? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि न्याय बेगुनाहों को फांसी चढ़वा रहा है और गुनाहगार को बरी कर रहा है? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि सेकुलर-इज्म पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले लोग धर्म और जातपात के नाम पर वोट मांग रहे हैं?
बने हैं अहले-हवस, मुद्दई भी मुंसिफ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफी मांगे! 
यथार्थ बड़ी टेढ़ी खीर है।
मैंने ये सवाल गुजराल साहब को शर्मिंदा करने के लिए नहीं पूछे हैं। इन सवालों का कथन की कला से गहरा संबंध है। सवाल यह है कि फिल्म-लेखक 'विलेनÓ किसे बनाए? सेंसर बोर्ड ने हर दरवाजा-यथार्थ का हर दरवाजा-बंद कर रखा है। ले दे कर एक 'स्मगलरÓ बचता है या फिर डाकू हाथ आता है। यह नकली विलेन किसी अच्छी कहानी का बोझ नहीं सहार सकते। यदि रावण कोई स्मगलर या डाकू रहा होता, तो रामायण जैसा महाकाव्य लिखा ही न गया होता।
कहानी का बोझ नायक के कंधों पर नहीं होता, विलेन के कंधों पर होता है। कहानी टकराव की कोख से जन्म लेती है। कोख ही टुच्ची और नकली होगी तो कहानी क्या बनेगी! 
और फिर यह भी है कि आपको जबान और खयालों का दारोगा किसने बनाया? यदि आप समझते हैं कि कोई फिल्म समाज को गुमराह करती है, तो उस फिल्म के बनानेवालों, उसमें काम करनेवालों और उसे लिखनेवालों पर खुली अदालत में मुकदमा चला कर उन्हें फांसी चढ़ी दीजिए। पर यह कच्चे धागे से लटकती हुई सेंसर की तलवार हटा कर यथार्थ की बात की कीजिए। आपका सेंसर बोर्ड 'जय बंगलादेशÓ जैसी फिल्मों को 'एÓ नहीं 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। सरकारें मनोरंजन टेक्स माफ करती हैं और फिर वह फिल्म 'बैनÓ कर दी जाती है। आपका सेंसर बोर्ड 'यह गुलिस्तं हमाराÓ जैसी फिल्म को 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। मेघालय सरकार मनोरंजन टेक्स माफ करती है और बाद में दिल्ली सरकार दो महीनों के लिए उसे 'बैनÓ कर देती है।  
इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
लगभग हर फिल्म में कचहरी का एक सीन जरूर होता है। लगता है कि कचहरी नहीं मछली बाजार है। पर सेंसर बोर्डवालों के कान पर जूं नहीं रेंगती। लेकिन यदि नायिका यह कहती सुनी जाये कि वह पूर्वी अफ्रीका में रहती थी। मां-बाप मर गये। वह वहां अकेली रह गयी, तो बंबई चली आयी, अपने एक दूर के रिश्तेदार के पास, तो सेंसर बोर्ड का चिट्ठा आ जाता है कि ईस्ट अफ्रीका की बात निकाल दो।
परंतु यथार्थ के रास्ते में सेंसर बोर्ड और इन्फार्मेशन मिनिस्ट्री के सिवा भी कई दीवारें हैं और जो मैं यहां उनकी बात न छेड़ू, तो यह बड़ी बेईमानी की बात होगी और एकांगी होगी।
हिंदुस्तानी फिल्म की दुनिया में लेखक तीसरे या चौथे दर्जे का नागरिक है। उसकी कोई आवाज नहीं है। और यहां ऐसा-ऐसा काबिल प्रोडयूसर और स्टार पड़ा हुआ है कि शेक्सपीयर और टालस्टाय की कहानियों को 'ठीकÓ कर दे, राही मासूम रजा बिचारे तो किस खेत की मूली हैं। फिल्मी दुनिया का फार्मूला यह है कि लेखक के सिवा बाकी तमाम लोग लिखना जानते हैं। हर आदमी की जेब में एक आध कहानियां पड़ी होती हैं। और वह उन्हीं कहानियों को फिल्माना चाहता है। यह कहानियां कभी मौलिक नहीं होतीं। अंग्रेजी के किसी पेपरबैक उपन्यास य किसी फिल्म से उड़ायी होती है। लेखक से उनका भारतीयकरण करने को कहा जाता है। और जिंदा रहने के लिए उसे यह काम करना पड़ता है।
मैं जिंदगी में घटियापन के खिलाफ हूं और मैं यह मांग करता हूं कि लेखक की इज्जत की जाये। मैं अपने आपको खुले बाजार में बेच रहा हूं, पर मैं लेखक की इज्जत को (कम-से-कम आज तक) किसी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हूं। अनेक प्रोडयूसरों का यह खयाल है कि पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है। उनका यह खयाल गलत ह। कोई लेखक स्टारों और प्रोडयूसरों की इस दुनिया में इज्जत की सांस नहीं ले सकता। और इस घुटन में कलम की सांस रुकने लगती है। जो फिल्म फि भी चल जाये, तो कमाल स्टारों और डाइरेक्टरों का है।
 मेरे एक दोस्त हैं। वे एक फिल्म बना रहे हैं। चूंकि दोस्ती है, इसलिए यह फिल्म मैं ही लिख रहा हूं। इंस्टीच्यूट का एक लड़का उसे डाइरेक्ट कर रहा है। कहानी एक दूसरे साहब की है। अब डाइरेक्टर इस पर अड़ा हुआ है कि मैं वही डायलाग लिखूं, जो फिल्मी कथा लेखक ने अंग्रेजी में लिख दिये हैं। मैंने उसे बहुत समझाया कि भई मैं लेखक हूं, अनुवादक नहीं हूं।
गुजराल साहब, तस्वीर का एक रुख यह भी है, बेदी और इस्मत के आगे घास न डालनेवाली यह हिंदी फिल्मी दुनिया तीसरे दर्जे के अंग्रेजी से उड़ाऊ फिल्मी कथा लेखकों के पीछे भाग रही है, तो मैं क्या करूं? और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ये ही स्टंट फिल्में धड़ल्ले से चल भी रही हैं। इसलिए गुजराल साहब, हमें, आपको कहीं बैठकर यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी ही फिल्में क्यों चलती हैं? हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए, फिल्म एक बड़ी तिजारत भी है। मेरे खयाल में इन फिल्मों के चलने का राज यह है कि इनमें घरेलू कहानियों की यह बुनियादी सच्चाई होती है कि जीत आखिर में सत्य की होती है, चाहे वह सत्य देव आनंद या विजय आनंद ही क्यों न हो।
 फिर भी यदि आप वाकई यह चाहते हैं कि यथार्थ के आधार पर बनें, तो पूना य मद्रास में तकरीर न कीजिए, क्योंकि पच्चीस बरस की तकरीरों का आज तक कोई नतीजा नहीं निकला है। फिल्म कौंसिल बनाने से भी कोई खास फायदा न होगा। क्योंकि खराबी की जड़ डिस्ट्रीब्यूशन में है।
एक फिल्म बन रही है। इसकी स्क्रीन प्ले भी मैंने लिखा है। कहानी कुछ ऐसी थी कि फ्लैशबैक ही में दिखलाई जा सकती थी। पूरी फिल्म बन गयी। रिलीज की तारीख पड़ गयी। तब एक बड़े वितरक ने कहा कि फ्लैशबैक निकाल कर कहानी को सीधा कर दिया जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो वह डिलिवरी नहीं लेगा। प्रोड्यूसर को मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। उसने कहानी को सीधा कर दिया और मेरे खयाल में फिल्म बिल्कुल चौपट हो गयी। सवाल यह पैदा होता है कि कहानी के बारे में मेरी (लेखक की) बात चलनी चाहिए या वितरक की-य स्टार की? मेरी बात तो नहीं चलेगी, क्योंकि मेरी हैसियत क्या? 50,000 तक मजूरी पानेवाले की उन लोगों के मुकाबले में हैसियत क्या जो दस-बीस लाख पाते हैं। जो दस लाख पाता है, वह दस हजार पाने वाले से ज्यादा काबिल है। लेखक अपनी बात पर अड़ेगा, तो निकाल दिया जायेगा। वितरक की बात यूं चलेगी कि फिल्म में उसका पैसा लगा हुआ है क्योंकि वह काले पैसे को 'एडजस्टÓ करता है। क्योंकि एक फिल्म तीस-चालीस लाख में बनती है और फिल्म फाइनेंस की कुल पूंजी बारह लाख है। इसीलिए वितरक ने फिल्म इंडस्ट्री के गले से पकड़ रखा है। आप चाहते हैं कि अच्छी फिल्में बनें, तो वितरण के बूढ़े को फिल्मों के सिंदबाद के कंधे से उतारिए। वितरण उनके हाथों से लीजिए, डिस्ट्रीब्यूशन का इंतजाम कीजिए, उससे एक फायदा यह भी होगा कि काले पैसे का धंधा एकदम रुक जायेगा। यदि वितरक से काला पैसा मिलने का रास्ता बंद हो जायेगा, तो प्रोड्यूसर काला पैसा लगाना बंद कर देगा। और फिल्मों में काला पैसा निकल जायेगा, तो मजदूरियां लगभग बराबर हो जायेंगी और तकनीशियों की इज्जत होने लगेगी। कोई फिल्म केवल स्टारों के बूते नहीं चलती। और हर फिल्म इसलिए फ्लाप होती है कि कम पैसे पानेवाले तकनीशियन ज्यादा पैसे पानेवाले स्टारों से मार खा जाते हैं और अपने उसूलों के खिलाफ काम करने को मजबूर हो जाते हैं। स्टारों का बोलबाला इसलिए है कि वितरक उन्हीं की मांग करता है। यानी बात घूम-फिरकर फिर वितरक तक आ गयी। आपका क्या खयाल है?