सेंसर बोर्ड को लेकर सातवें दशक में एक बहस चली थी। 71-73 के दौरान 14 से भी अधिक फिल्मों पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसको लेकर तब धर्मयुग में एक बहस चली थी। आज भी सेंसर बोर्ड को लेकर जब-तब बहस होती रहती है। अभी मुल्क को लेकर भी बहस का दौर चल रहा है। धर्मयुग के इस बहस में डॉ राही मासूम रजा ने भाग लिया था। उनकी बेबाक टिप्पणी 4 नवंबर, 1973 के अंक में प्रकाशित हुई थी। साभार हम यहां दे रहे हैं।
मेरे दिल में श्री गुजराल की बड़ी इज्जत है। वह देखने-सुनने में मिनिस्टर लगते ही नहीं। इसलिए जब वह हवाई तीर चलाने लगते हैं, तो बड़ी कोफ्त होती है और यह सोचकर दिल दुखता है कि एक और आदमी गया काम से।
इन दिनों वे फिल्मों से यथार्थ की मांग करने में जुटे हुए हैं। यथार्थ बड़ा खूबसूरत शब्द है। मैं भी इस शब्द के पुराने आशिकों में से हूं। मैंने भी इसकी जुदाई में जाग कर रातें काटी हैं और इसकी तलाश में चलकर दिन गुजारे हैं, गालियां सुनी हैं और धमकियां वसूल की हैं। इसीलिए मुझे गुजराल साहब की इस मांग पर हंसी आती है। यथार्थ की उनकी परिभाषा क्या है? क्या मार-पीट कम कर देने से या सेक्स का पुट न देने से फिल्मों में यथार्थ आ जाएगा? मैं यह नहीं मानता कि गुजराल साहब को यथार्थ का अर्थ नहीं मालूम है। वे कहते हैं कि सामाजिक सच्चाइयां बयान की जायें। मैं पूछता हूं, क्या सामाजिक सच्चाइयां बयान करने देंगे? सच्चाई यह है कि हमारा पुराना समाज जगह-जगह से मसक गया है। सच्चाई यह है कि जरूरतें इतनी बढ़ गयी हैं कि उन तक पहुंचने के लिए मूल्यों को पांव तले रख कर पंजों के बल खड़ा हुआ जाये, जो भी जिंदगी की जरूरी चीजों तक मुश्किल ही से हाथ पहुंच पाता है। सच्चाई यह है कि पुलिस के वर्दीपोश जवान रंगे हाथों चोरी करते पकड़े जाते हैं। वजीरों (मंत्रियों) के खिलाफ इंक्वायरी होती है, उनकी बेईमानी साबित होती है और वह विजारतों (मंत्रिमंडल) से निकाले जाते हैं। सच्चाई यह ह कि दंगों में पुलिस लूटमार करती है और सच्चाई यह है कि देश में रिश्वत का कानून चल रहा है। सच्चाई यह है कि पत्रकार खबरें गढ़ते हैं। सच्चाई यह है कि टीचर स्कूलों और कॉलेजों और यूनिवर्सटियों में झूठा इतिहास पढ़ाते हैं--यथार्थ बड़ी कड़वी गोली है गुजराल साहब! क्या आप हमें यह दिखलाने देंगे कि मिनिस्टर घूस खा रहा है और पोलिटिकल पार्टियां दंगे करवा रही हैं? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि न्याय बेगुनाहों को फांसी चढ़वा रहा है और गुनाहगार को बरी कर रहा है? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि सेकुलर-इज्म पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले लोग धर्म और जातपात के नाम पर वोट मांग रहे हैं?
बने हैं अहले-हवस, मुद्दई भी मुंसिफ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफी मांगे!
यथार्थ बड़ी टेढ़ी खीर है।
मैंने ये सवाल गुजराल साहब को शर्मिंदा करने के लिए नहीं पूछे हैं। इन सवालों का कथन की कला से गहरा संबंध है। सवाल यह है कि फिल्म-लेखक 'विलेनÓ किसे बनाए? सेंसर बोर्ड ने हर दरवाजा-यथार्थ का हर दरवाजा-बंद कर रखा है। ले दे कर एक 'स्मगलरÓ बचता है या फिर डाकू हाथ आता है। यह नकली विलेन किसी अच्छी कहानी का बोझ नहीं सहार सकते। यदि रावण कोई स्मगलर या डाकू रहा होता, तो रामायण जैसा महाकाव्य लिखा ही न गया होता।
कहानी का बोझ नायक के कंधों पर नहीं होता, विलेन के कंधों पर होता है। कहानी टकराव की कोख से जन्म लेती है। कोख ही टुच्ची और नकली होगी तो कहानी क्या बनेगी!
और फिर यह भी है कि आपको जबान और खयालों का दारोगा किसने बनाया? यदि आप समझते हैं कि कोई फिल्म समाज को गुमराह करती है, तो उस फिल्म के बनानेवालों, उसमें काम करनेवालों और उसे लिखनेवालों पर खुली अदालत में मुकदमा चला कर उन्हें फांसी चढ़ी दीजिए। पर यह कच्चे धागे से लटकती हुई सेंसर की तलवार हटा कर यथार्थ की बात की कीजिए। आपका सेंसर बोर्ड 'जय बंगलादेशÓ जैसी फिल्मों को 'एÓ नहीं 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। सरकारें मनोरंजन टेक्स माफ करती हैं और फिर वह फिल्म 'बैनÓ कर दी जाती है। आपका सेंसर बोर्ड 'यह गुलिस्तं हमाराÓ जैसी फिल्म को 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। मेघालय सरकार मनोरंजन टेक्स माफ करती है और बाद में दिल्ली सरकार दो महीनों के लिए उसे 'बैनÓ कर देती है।
इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
लगभग हर फिल्म में कचहरी का एक सीन जरूर होता है। लगता है कि कचहरी नहीं मछली बाजार है। पर सेंसर बोर्डवालों के कान पर जूं नहीं रेंगती। लेकिन यदि नायिका यह कहती सुनी जाये कि वह पूर्वी अफ्रीका में रहती थी। मां-बाप मर गये। वह वहां अकेली रह गयी, तो बंबई चली आयी, अपने एक दूर के रिश्तेदार के पास, तो सेंसर बोर्ड का चिट्ठा आ जाता है कि ईस्ट अफ्रीका की बात निकाल दो।
परंतु यथार्थ के रास्ते में सेंसर बोर्ड और इन्फार्मेशन मिनिस्ट्री के सिवा भी कई दीवारें हैं और जो मैं यहां उनकी बात न छेड़ू, तो यह बड़ी बेईमानी की बात होगी और एकांगी होगी।
हिंदुस्तानी फिल्म की दुनिया में लेखक तीसरे या चौथे दर्जे का नागरिक है। उसकी कोई आवाज नहीं है। और यहां ऐसा-ऐसा काबिल प्रोडयूसर और स्टार पड़ा हुआ है कि शेक्सपीयर और टालस्टाय की कहानियों को 'ठीकÓ कर दे, राही मासूम रजा बिचारे तो किस खेत की मूली हैं। फिल्मी दुनिया का फार्मूला यह है कि लेखक के सिवा बाकी तमाम लोग लिखना जानते हैं। हर आदमी की जेब में एक आध कहानियां पड़ी होती हैं। और वह उन्हीं कहानियों को फिल्माना चाहता है। यह कहानियां कभी मौलिक नहीं होतीं। अंग्रेजी के किसी पेपरबैक उपन्यास य किसी फिल्म से उड़ायी होती है। लेखक से उनका भारतीयकरण करने को कहा जाता है। और जिंदा रहने के लिए उसे यह काम करना पड़ता है।
मैं जिंदगी में घटियापन के खिलाफ हूं और मैं यह मांग करता हूं कि लेखक की इज्जत की जाये। मैं अपने आपको खुले बाजार में बेच रहा हूं, पर मैं लेखक की इज्जत को (कम-से-कम आज तक) किसी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हूं। अनेक प्रोडयूसरों का यह खयाल है कि पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है। उनका यह खयाल गलत ह। कोई लेखक स्टारों और प्रोडयूसरों की इस दुनिया में इज्जत की सांस नहीं ले सकता। और इस घुटन में कलम की सांस रुकने लगती है। जो फिल्म फि भी चल जाये, तो कमाल स्टारों और डाइरेक्टरों का है।
मेरे एक दोस्त हैं। वे एक फिल्म बना रहे हैं। चूंकि दोस्ती है, इसलिए यह फिल्म मैं ही लिख रहा हूं। इंस्टीच्यूट का एक लड़का उसे डाइरेक्ट कर रहा है। कहानी एक दूसरे साहब की है। अब डाइरेक्टर इस पर अड़ा हुआ है कि मैं वही डायलाग लिखूं, जो फिल्मी कथा लेखक ने अंग्रेजी में लिख दिये हैं। मैंने उसे बहुत समझाया कि भई मैं लेखक हूं, अनुवादक नहीं हूं।
गुजराल साहब, तस्वीर का एक रुख यह भी है, बेदी और इस्मत के आगे घास न डालनेवाली यह हिंदी फिल्मी दुनिया तीसरे दर्जे के अंग्रेजी से उड़ाऊ फिल्मी कथा लेखकों के पीछे भाग रही है, तो मैं क्या करूं? और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ये ही स्टंट फिल्में धड़ल्ले से चल भी रही हैं। इसलिए गुजराल साहब, हमें, आपको कहीं बैठकर यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी ही फिल्में क्यों चलती हैं? हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए, फिल्म एक बड़ी तिजारत भी है। मेरे खयाल में इन फिल्मों के चलने का राज यह है कि इनमें घरेलू कहानियों की यह बुनियादी सच्चाई होती है कि जीत आखिर में सत्य की होती है, चाहे वह सत्य देव आनंद या विजय आनंद ही क्यों न हो।
फिर भी यदि आप वाकई यह चाहते हैं कि यथार्थ के आधार पर बनें, तो पूना य मद्रास में तकरीर न कीजिए, क्योंकि पच्चीस बरस की तकरीरों का आज तक कोई नतीजा नहीं निकला है। फिल्म कौंसिल बनाने से भी कोई खास फायदा न होगा। क्योंकि खराबी की जड़ डिस्ट्रीब्यूशन में है।
एक फिल्म बन रही है। इसकी स्क्रीन प्ले भी मैंने लिखा है। कहानी कुछ ऐसी थी कि फ्लैशबैक ही में दिखलाई जा सकती थी। पूरी फिल्म बन गयी। रिलीज की तारीख पड़ गयी। तब एक बड़े वितरक ने कहा कि फ्लैशबैक निकाल कर कहानी को सीधा कर दिया जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो वह डिलिवरी नहीं लेगा। प्रोड्यूसर को मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। उसने कहानी को सीधा कर दिया और मेरे खयाल में फिल्म बिल्कुल चौपट हो गयी। सवाल यह पैदा होता है कि कहानी के बारे में मेरी (लेखक की) बात चलनी चाहिए या वितरक की-य स्टार की? मेरी बात तो नहीं चलेगी, क्योंकि मेरी हैसियत क्या? 50,000 तक मजूरी पानेवाले की उन लोगों के मुकाबले में हैसियत क्या जो दस-बीस लाख पाते हैं। जो दस लाख पाता है, वह दस हजार पाने वाले से ज्यादा काबिल है। लेखक अपनी बात पर अड़ेगा, तो निकाल दिया जायेगा। वितरक की बात यूं चलेगी कि फिल्म में उसका पैसा लगा हुआ है क्योंकि वह काले पैसे को 'एडजस्टÓ करता है। क्योंकि एक फिल्म तीस-चालीस लाख में बनती है और फिल्म फाइनेंस की कुल पूंजी बारह लाख है। इसीलिए वितरक ने फिल्म इंडस्ट्री के गले से पकड़ रखा है। आप चाहते हैं कि अच्छी फिल्में बनें, तो वितरण के बूढ़े को फिल्मों के सिंदबाद के कंधे से उतारिए। वितरण उनके हाथों से लीजिए, डिस्ट्रीब्यूशन का इंतजाम कीजिए, उससे एक फायदा यह भी होगा कि काले पैसे का धंधा एकदम रुक जायेगा। यदि वितरक से काला पैसा मिलने का रास्ता बंद हो जायेगा, तो प्रोड्यूसर काला पैसा लगाना बंद कर देगा। और फिल्मों में काला पैसा निकल जायेगा, तो मजदूरियां लगभग बराबर हो जायेंगी और तकनीशियों की इज्जत होने लगेगी। कोई फिल्म केवल स्टारों के बूते नहीं चलती। और हर फिल्म इसलिए फ्लाप होती है कि कम पैसे पानेवाले तकनीशियन ज्यादा पैसे पानेवाले स्टारों से मार खा जाते हैं और अपने उसूलों के खिलाफ काम करने को मजबूर हो जाते हैं। स्टारों का बोलबाला इसलिए है कि वितरक उन्हीं की मांग करता है। यानी बात घूम-फिरकर फिर वितरक तक आ गयी। आपका क्या खयाल है?
डॉ राही मासूम रजा |
इन दिनों वे फिल्मों से यथार्थ की मांग करने में जुटे हुए हैं। यथार्थ बड़ा खूबसूरत शब्द है। मैं भी इस शब्द के पुराने आशिकों में से हूं। मैंने भी इसकी जुदाई में जाग कर रातें काटी हैं और इसकी तलाश में चलकर दिन गुजारे हैं, गालियां सुनी हैं और धमकियां वसूल की हैं। इसीलिए मुझे गुजराल साहब की इस मांग पर हंसी आती है। यथार्थ की उनकी परिभाषा क्या है? क्या मार-पीट कम कर देने से या सेक्स का पुट न देने से फिल्मों में यथार्थ आ जाएगा? मैं यह नहीं मानता कि गुजराल साहब को यथार्थ का अर्थ नहीं मालूम है। वे कहते हैं कि सामाजिक सच्चाइयां बयान की जायें। मैं पूछता हूं, क्या सामाजिक सच्चाइयां बयान करने देंगे? सच्चाई यह है कि हमारा पुराना समाज जगह-जगह से मसक गया है। सच्चाई यह है कि जरूरतें इतनी बढ़ गयी हैं कि उन तक पहुंचने के लिए मूल्यों को पांव तले रख कर पंजों के बल खड़ा हुआ जाये, जो भी जिंदगी की जरूरी चीजों तक मुश्किल ही से हाथ पहुंच पाता है। सच्चाई यह है कि पुलिस के वर्दीपोश जवान रंगे हाथों चोरी करते पकड़े जाते हैं। वजीरों (मंत्रियों) के खिलाफ इंक्वायरी होती है, उनकी बेईमानी साबित होती है और वह विजारतों (मंत्रिमंडल) से निकाले जाते हैं। सच्चाई यह ह कि दंगों में पुलिस लूटमार करती है और सच्चाई यह है कि देश में रिश्वत का कानून चल रहा है। सच्चाई यह है कि पत्रकार खबरें गढ़ते हैं। सच्चाई यह है कि टीचर स्कूलों और कॉलेजों और यूनिवर्सटियों में झूठा इतिहास पढ़ाते हैं--यथार्थ बड़ी कड़वी गोली है गुजराल साहब! क्या आप हमें यह दिखलाने देंगे कि मिनिस्टर घूस खा रहा है और पोलिटिकल पार्टियां दंगे करवा रही हैं? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि न्याय बेगुनाहों को फांसी चढ़वा रहा है और गुनाहगार को बरी कर रहा है? क्या आप यह दिखलाने देंगे कि सेकुलर-इज्म पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले लोग धर्म और जातपात के नाम पर वोट मांग रहे हैं?
बने हैं अहले-हवस, मुद्दई भी मुंसिफ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफी मांगे!
यथार्थ बड़ी टेढ़ी खीर है।
मैंने ये सवाल गुजराल साहब को शर्मिंदा करने के लिए नहीं पूछे हैं। इन सवालों का कथन की कला से गहरा संबंध है। सवाल यह है कि फिल्म-लेखक 'विलेनÓ किसे बनाए? सेंसर बोर्ड ने हर दरवाजा-यथार्थ का हर दरवाजा-बंद कर रखा है। ले दे कर एक 'स्मगलरÓ बचता है या फिर डाकू हाथ आता है। यह नकली विलेन किसी अच्छी कहानी का बोझ नहीं सहार सकते। यदि रावण कोई स्मगलर या डाकू रहा होता, तो रामायण जैसा महाकाव्य लिखा ही न गया होता।
कहानी का बोझ नायक के कंधों पर नहीं होता, विलेन के कंधों पर होता है। कहानी टकराव की कोख से जन्म लेती है। कोख ही टुच्ची और नकली होगी तो कहानी क्या बनेगी!
और फिर यह भी है कि आपको जबान और खयालों का दारोगा किसने बनाया? यदि आप समझते हैं कि कोई फिल्म समाज को गुमराह करती है, तो उस फिल्म के बनानेवालों, उसमें काम करनेवालों और उसे लिखनेवालों पर खुली अदालत में मुकदमा चला कर उन्हें फांसी चढ़ी दीजिए। पर यह कच्चे धागे से लटकती हुई सेंसर की तलवार हटा कर यथार्थ की बात की कीजिए। आपका सेंसर बोर्ड 'जय बंगलादेशÓ जैसी फिल्मों को 'एÓ नहीं 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। सरकारें मनोरंजन टेक्स माफ करती हैं और फिर वह फिल्म 'बैनÓ कर दी जाती है। आपका सेंसर बोर्ड 'यह गुलिस्तं हमाराÓ जैसी फिल्म को 'यूÓ सर्टिफिकेट देता है। मेघालय सरकार मनोरंजन टेक्स माफ करती है और बाद में दिल्ली सरकार दो महीनों के लिए उसे 'बैनÓ कर देती है।
इस सादगी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
लगभग हर फिल्म में कचहरी का एक सीन जरूर होता है। लगता है कि कचहरी नहीं मछली बाजार है। पर सेंसर बोर्डवालों के कान पर जूं नहीं रेंगती। लेकिन यदि नायिका यह कहती सुनी जाये कि वह पूर्वी अफ्रीका में रहती थी। मां-बाप मर गये। वह वहां अकेली रह गयी, तो बंबई चली आयी, अपने एक दूर के रिश्तेदार के पास, तो सेंसर बोर्ड का चिट्ठा आ जाता है कि ईस्ट अफ्रीका की बात निकाल दो।
परंतु यथार्थ के रास्ते में सेंसर बोर्ड और इन्फार्मेशन मिनिस्ट्री के सिवा भी कई दीवारें हैं और जो मैं यहां उनकी बात न छेड़ू, तो यह बड़ी बेईमानी की बात होगी और एकांगी होगी।
हिंदुस्तानी फिल्म की दुनिया में लेखक तीसरे या चौथे दर्जे का नागरिक है। उसकी कोई आवाज नहीं है। और यहां ऐसा-ऐसा काबिल प्रोडयूसर और स्टार पड़ा हुआ है कि शेक्सपीयर और टालस्टाय की कहानियों को 'ठीकÓ कर दे, राही मासूम रजा बिचारे तो किस खेत की मूली हैं। फिल्मी दुनिया का फार्मूला यह है कि लेखक के सिवा बाकी तमाम लोग लिखना जानते हैं। हर आदमी की जेब में एक आध कहानियां पड़ी होती हैं। और वह उन्हीं कहानियों को फिल्माना चाहता है। यह कहानियां कभी मौलिक नहीं होतीं। अंग्रेजी के किसी पेपरबैक उपन्यास य किसी फिल्म से उड़ायी होती है। लेखक से उनका भारतीयकरण करने को कहा जाता है। और जिंदा रहने के लिए उसे यह काम करना पड़ता है।
मैं जिंदगी में घटियापन के खिलाफ हूं और मैं यह मांग करता हूं कि लेखक की इज्जत की जाये। मैं अपने आपको खुले बाजार में बेच रहा हूं, पर मैं लेखक की इज्जत को (कम-से-कम आज तक) किसी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हूं। अनेक प्रोडयूसरों का यह खयाल है कि पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है। उनका यह खयाल गलत ह। कोई लेखक स्टारों और प्रोडयूसरों की इस दुनिया में इज्जत की सांस नहीं ले सकता। और इस घुटन में कलम की सांस रुकने लगती है। जो फिल्म फि भी चल जाये, तो कमाल स्टारों और डाइरेक्टरों का है।
मेरे एक दोस्त हैं। वे एक फिल्म बना रहे हैं। चूंकि दोस्ती है, इसलिए यह फिल्म मैं ही लिख रहा हूं। इंस्टीच्यूट का एक लड़का उसे डाइरेक्ट कर रहा है। कहानी एक दूसरे साहब की है। अब डाइरेक्टर इस पर अड़ा हुआ है कि मैं वही डायलाग लिखूं, जो फिल्मी कथा लेखक ने अंग्रेजी में लिख दिये हैं। मैंने उसे बहुत समझाया कि भई मैं लेखक हूं, अनुवादक नहीं हूं।
गुजराल साहब, तस्वीर का एक रुख यह भी है, बेदी और इस्मत के आगे घास न डालनेवाली यह हिंदी फिल्मी दुनिया तीसरे दर्जे के अंग्रेजी से उड़ाऊ फिल्मी कथा लेखकों के पीछे भाग रही है, तो मैं क्या करूं? और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ये ही स्टंट फिल्में धड़ल्ले से चल भी रही हैं। इसलिए गुजराल साहब, हमें, आपको कहीं बैठकर यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी ही फिल्में क्यों चलती हैं? हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए, फिल्म एक बड़ी तिजारत भी है। मेरे खयाल में इन फिल्मों के चलने का राज यह है कि इनमें घरेलू कहानियों की यह बुनियादी सच्चाई होती है कि जीत आखिर में सत्य की होती है, चाहे वह सत्य देव आनंद या विजय आनंद ही क्यों न हो।
फिर भी यदि आप वाकई यह चाहते हैं कि यथार्थ के आधार पर बनें, तो पूना य मद्रास में तकरीर न कीजिए, क्योंकि पच्चीस बरस की तकरीरों का आज तक कोई नतीजा नहीं निकला है। फिल्म कौंसिल बनाने से भी कोई खास फायदा न होगा। क्योंकि खराबी की जड़ डिस्ट्रीब्यूशन में है।
एक फिल्म बन रही है। इसकी स्क्रीन प्ले भी मैंने लिखा है। कहानी कुछ ऐसी थी कि फ्लैशबैक ही में दिखलाई जा सकती थी। पूरी फिल्म बन गयी। रिलीज की तारीख पड़ गयी। तब एक बड़े वितरक ने कहा कि फ्लैशबैक निकाल कर कहानी को सीधा कर दिया जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो वह डिलिवरी नहीं लेगा। प्रोड्यूसर को मानने के सिवा कोई चारा नहीं था। उसने कहानी को सीधा कर दिया और मेरे खयाल में फिल्म बिल्कुल चौपट हो गयी। सवाल यह पैदा होता है कि कहानी के बारे में मेरी (लेखक की) बात चलनी चाहिए या वितरक की-य स्टार की? मेरी बात तो नहीं चलेगी, क्योंकि मेरी हैसियत क्या? 50,000 तक मजूरी पानेवाले की उन लोगों के मुकाबले में हैसियत क्या जो दस-बीस लाख पाते हैं। जो दस लाख पाता है, वह दस हजार पाने वाले से ज्यादा काबिल है। लेखक अपनी बात पर अड़ेगा, तो निकाल दिया जायेगा। वितरक की बात यूं चलेगी कि फिल्म में उसका पैसा लगा हुआ है क्योंकि वह काले पैसे को 'एडजस्टÓ करता है। क्योंकि एक फिल्म तीस-चालीस लाख में बनती है और फिल्म फाइनेंस की कुल पूंजी बारह लाख है। इसीलिए वितरक ने फिल्म इंडस्ट्री के गले से पकड़ रखा है। आप चाहते हैं कि अच्छी फिल्में बनें, तो वितरण के बूढ़े को फिल्मों के सिंदबाद के कंधे से उतारिए। वितरण उनके हाथों से लीजिए, डिस्ट्रीब्यूशन का इंतजाम कीजिए, उससे एक फायदा यह भी होगा कि काले पैसे का धंधा एकदम रुक जायेगा। यदि वितरक से काला पैसा मिलने का रास्ता बंद हो जायेगा, तो प्रोड्यूसर काला पैसा लगाना बंद कर देगा। और फिल्मों में काला पैसा निकल जायेगा, तो मजदूरियां लगभग बराबर हो जायेंगी और तकनीशियों की इज्जत होने लगेगी। कोई फिल्म केवल स्टारों के बूते नहीं चलती। और हर फिल्म इसलिए फ्लाप होती है कि कम पैसे पानेवाले तकनीशियन ज्यादा पैसे पानेवाले स्टारों से मार खा जाते हैं और अपने उसूलों के खिलाफ काम करने को मजबूर हो जाते हैं। स्टारों का बोलबाला इसलिए है कि वितरक उन्हीं की मांग करता है। यानी बात घूम-फिरकर फिर वितरक तक आ गयी। आपका क्या खयाल है?
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