भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर गांधी का वक्‍तव्‍य

                                                                                                                         नई दिल्ली
                                                                                                                       23 मार्च 1931
भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गए हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नव युवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शबद कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करने की अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करने के अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देश की मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसे लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्ष को अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते की दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजा को अनिश्चित काल तक अमल में न लाना उसका फर्ज था। सरकार ने अपने काम से समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबल का प्रदर्शन करने की शक्ति को साबित किया है।
 पशुबल से काम लेने का यह आग्रह कदाचित अशुभ का सूचक है और यह बताता
है कि वह मुंह से तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोडऩा चाहती। फिर भी प्रजा का कर्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेस को अपने निश्चित मार्ग से नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा उत्तेजना के कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
 गुस्से में आकर हमें गलत मार्ग पर नहीं जाना चाहिए। सजा में कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किंतु हम उस पर समझौते की शर्तों को भंग करने का आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चित मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गंभीर भूल के परिणामस्वरूप स्वतंत्रा प्राप्त करने की हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और उसके लिए भगत सिंह और साथियों ने मृत्यु को भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण काम करके हम मौके को हाथ से न गंवा दें। सार्वजनिक हडताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शांत और गंभीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मुंह में जाने वाले इन देशभक्तों का सम्मान कर भी नहीं सकते।



गांधी वांगमय से साभार

एक अलग आस्वाद की कहानियां ; महुआ माजी की कहानियां

   महुआ माजी ने कहीं कहा था कि ‘आज के दौर की लेखिकाएं स्त्राी विमर्श के नाम पर देह विमर्श कर रही हैं ये कथन सभी लेखिकाओं पर लागू नहीं होता। मेरे दोनों उपन्यास गंभीर विषयों पर हैं। ‘मैं बोरिशाइल्ला’ बांग्लादेश की मुक्तिगाथा पर केंद्रित है, जिसमें सांप्रदायिकता के असर की बात की गई है। दूसरा उपन्यास ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ’ में यूरेनियम रेडिएशन के दुष्प्रभाव का चित्राण किया गया है। इस तरह के प्रसंग आए भी हैं तो वो जरूरत के हिसाब से रखे गए हैं और वो कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बेवजह नहीं डाले गए हैं। वैसे भी अन्य लेखिकाओं ने जरूरत के हिसाब से उसे डाला है। केवल उसी के लिए कहानी का ताना-बाना नहीं बुना गया। ये कोई अछूता विषय तो है नहीं कि कहानी की जरूरत है, फिर भी बचकर चल रहे हैं। जहां तक उनकी ये बात कि आज के दौर की लेखिकाओं द्वारा किया जा रहा स्त्राी विमर्श पुरुष विरोधी है तो उसकी शुरुआत तो मैत्रोयी जी नहीं की है। सभी लेखिकाएं ऐसा नहीं करतीं। कहानी की मांग के अनुसार तथ्यों को रखा जाता है। आज उसे जो भी मानें।’ 
  महुआ माजी का यह विचार जाहिर है, किसी बहस का हिस्सा है, जिस पर वह अपना तर्क दे रही हैं। वह अपने दो गंभीर उपन्यासों की चर्चा कर रही हैं और बता रही हैं उन पर ‘ठप्पा’ नहीं लगाया जा सकता। बतौर महुआ, उनकी अब तक आठ-दस कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। हालांकि अब तक उनका एक संग्रह आ जाना चाहिए, जो नहीं आया है। आ जाता तो उनके पाठकों को यह सुविधा जरूर होती कि एक ही जगह उनकी रचनाओं का स्वाद ले सकते। इनमें उनकी व्यस्तता भी हो सकती है। वे एक लेखिका के साथ-साथ आज राजनीति में भी सक्रिय हैं। पिछली बार रांची विधानसभा क्षेत्रा से चुनाव भी लड़ चुकी हैं और इस बार भी काफी परिश्रम कर रही हैं। तो भी, सक्रिय राजनीति की भागमभाग के बीच अपने लेखन को बचाए रखना कम बड़ी बात नहीं। फिर भी समय निकाल वे कुछ लिख ही लेती हैं। हम यहां उनकी दो कहानियां- वागर्थ के 2005 में प्रकाशित ‘रोल मॉडल’ और 2017 में लिखी ‘इलेशगुंड़ि’ की चर्चा कर सकते हैं। ये दो कहानियां इसलिए कि पहली कहानी सक्रिय राजनीति से पहले की है, जब वे सिर्फ ‘लेखिका’ हुआ करती थीं, दूसरी राजनीति में रहते हुए लिखीं। दोनों में कहानीपन है। कहन है। कथा है। दोनों के क्षेत्रा अलग हैं। बोली-बानी का भी दोनों में अलग स्वाद और आनंद है। इससे हिंदी कहानी का फलक विस्तृत होता है। गैरहिंदी समाज के बारे में भी जान पाते हैं, अन्यथा यहां तो बहुत ‘अकाल’ है।
चलिए, बात देह विमर्श से ही शुरू करते हैं। यह अपने हिंदी साहित्य की बड़ी विडंबना है कि हम स्त्राी की आजादी को उसकी देह तक ही सीमित कर देते हैं। स्त्राी जितनी उच्छृंखल होगी, वह उतनी ही आजाद-हम ऐसा ही मानने लगते हैं। जैसे उसकी आजादी बस इसी में है। उनके विचार, उनकी बौद्धिकता, उनकी प्रतिभा का कोई मोल-मतलब नहीं। स्त्राी विमर्श के नाम पर लंबे समय से यही चल रहा है और चलता रहेगा और इस तरह की लेखिकाएं इस तरह के प्रसंगों के लिए-इसी तरह के कमजोर तर्क पेश करती रहंेगी। जैसे फिल्म के निर्देशक देह राग परोसने के लिए यह तर्क करते हैं- यह कहानी की मांग थी। पर वे यह सच नहीं बोलते कि कहानी की मांग हो न हो, कमजोर कथानक की फिल्म चलाने के लिए यह जरूरी हो जाता है। इसलिए लेखिकाएं भी ‘कहानी की मांग’ के नाम पर इस तरह की छूट ले लेती हैं। पर, जिनकी कथा मजबूत होती है, वह भी इस तरह के तर्क का सहारा लेती हैं, तो समझ में आता है कि उनको खुद की कथा पर विश्वास नहीं है। यद्यपि यह छूट लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन ‘मांग’ के नाम पर यह सब कहने-लिखने-बताने की जरूरत नहीं। जहां तक उनके गंभीर उपन्यास मरंगगोड़ा की बात है-वहां भी अनावश्यक की इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं। मन हो तो इस तरह के प्रसंग को बहुत सलीके से पेश किया जा सकता है। पाठक समझ भी जाएगा कि लेखिका या लेखक क्या कहना चाहता है। बेडरूम में प्रवेश करने की जरूरत नहीं होती है। महुआ ने पहले तो अपना बचाव किया, फिर उन सभी लेखिकाओं का। यानी, वह भी उसी कतार में खड़ी हो जाती हैं। इस प्रसंग में प्रेमचंद की एक सच्ची पहली कहानी, जिसे उन्होंने माना कि-यह मेरी पहली रचना है-याद आती है। यह कहानी उन्होंने अपने मामूं पर ही लिखा था। उनका यह वर्णन देखिए-
 ‘आखिरकार एक बार उन्होंने वही किया, जो बिन ब्याहे लोग अकसर किया करते थे। एक चमारिन के नयन बाणों से घायल हो गये।...दूसरे दिन शाम को चम्पा-यानी चमारिन-मामंू साहब के घर आई, तो उन्होंने अन्दर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मांमू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाय, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप दादा का नाम डूबे या उतराये! उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर खटखटाना शुरू किया। पहले तो मांमू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जायगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाए।....’ प्रसंग काफी लंबा और रोचक है। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह कहना क्या चाहता है। जिनका अपने कथन और कहन पर भरोसा नहीं था, वह ऐसे तर्क और प्रसंग की वकालत करते हैं। वह चाहते हैं कि इस्मत आपा और मंटो की तरह ख्यात हो जाएं, लेकिन वह उस तरह का विजन नहीं ले आ पाते। 
  महुआ की कहानी ‘इलेशगुंड़ि’ में भी इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कतई जरूरत नहीं। वह इसलिए कि वह खुद की कहती हैं-कहानी की मांग के अनुसार। यहां कहानी की कोई मांग नहीं। यह लेखिका का अपना मन है। वह रूपकुमारी की पीड़ा को दूसरी तरह भी व्यक्त सकती थीं। इसके लिए यह जरूरी नहीं था कि...‘‘बहुत कम लोगों को पता था कि रूपकुमारी का गर्भ उसके पति की इसी आसुरी प्रवृत्ति के कारण ही गिर गया था। रूपकुमारी के लाख मना करने के बावजूद वही पहले की तरह उठा-पटक... ऊपर-नीचे...।...प्रचंड उत्तेजना से कालीपॉदो का खून गर्म हो उठा। जब खुद को रोक पाना असंभव हो गया तब अचानक आकर पीछे से जकड़ लिया उसे। कुछ देर तक तो वह खुद को कालीपॉदो के सख्त आलिंगन से छुड़ाने की कोशिश करती रही पर उसके स्पर्श में कुछ ऐसा था कि धीरे-धीरे उसका प्रतिरोध शिथिल पड़ता चला गया। पति-सुख से वंचित उपवासी देह उसके नियंत्राण से बाहर होती चली गयी। महीनों का संयम किसी पुराने जर्जर कीले की तरह भरभराकर ढह गया। सांप की तरह लिपट गयी वह उस कामी पुरुष से... प्रश्रय पाकर कालीपॉदो का वहशीपन थोड़ा कम हुआ और बड़े इतमिनान से वह किसी जोंक की तरह उसकी गर्दन की पतली खाल को चूसने लगा। तबतक, जबतक कि वहां गहरा नीला निशान नहीं पड़ गया। उस दिन जितनी देर तक वे दोनों कदम्ब पेड़ के नीचे आलिंगनरत रहे... एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था रहे... हवा में धूलकण की जगह कदम्ब फूल के रेणु उड़ते रहे। फिर भी उनकी देह कीचड़ से ऐसे सन गयी कि घर जाने से पहले दोनों को साथ-साथ पद्म-पोखर में उतरना पड़ा।’’
  लेखिका की बेवजह सफाई के बरक्स ही इस प्रसंग को यहां रखा गया है। ‘इलेशगुंड़ि’ दरअसल, रूपकुमारी की कहानी है। ‘इलेशगुंड़ि’ यानी बारिश की महीन बूंदें। बांग्ला का यह शब्द है और इसकी अर्थध्वनियां पूरी कहानी में अंतरर्धारा की तरह मौजूद हैै। बारिश की महीन-महीन या छोटी-छोटी बूंदे। नदी की सतह पर जब यह बूंदे पड़ती हैं तो हिल्सा मछली गहरे जल से सतह पर आ जाती है। इस तरह रूपकुमारी का दर्द भी सतह पर आता है-वह दिखाई देने लगता है। कालीपॉदो एक प्रमुख पात्रा है। शादी-सुदा है। रूपकुमारी भी। लेकिन रूपकुमारी अपने पति के छल का शिकार बन जाती है। शादी कर मौज लूट वह गांव से भाग जाता है। पर, रूप उसके इस छल से असावधान ही रहती है और उसकी प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन वह आता नहीं। कालीपॉदो भी उसे खोजता रहा है। एक दिन सूचना देता है- वह तो शहर में किसी और स्त्राी के साथ है। इसके बाद गांव से वह शहर जाती है-उसके घर। वहां झगड़ा होता है और फिर वह अपने गांव चली आती है। काली भी इसी ताक में। अंततः उसे अपने घर में पनाह देता है और उसकी कीमत भी वसूलता है।  
 सब कुछ ठीक चल रहा होता कि गांव में बाढ़ का प्रकोप। सभी बेघर। क्या अमीर क्या गरीब। त्राण शिविर में पनाह की सबको जरूरत। पर इस त्राण शिविर में कालीपॉदो रूपकुमारी को पहचानने से ही इनकार कर देता है। शिविर के बचावकर्मी सबका नाम रजिस्टर में लिखते हैं। वह रूपकुमारी से भी पूछते हैं। रूप कुछ कहती है-लेकिन कालीपॉदो बोल उठता है-कुछ नहीं लगता। वह उससे अपने संबंध को इनकार कर देता है। रूपकुमारी जो समय की मारी दुखियारी, उसके घर सौत बनकर हर दुख सहते हुए रह रही होती है। लेकिन इस त्राण शिविर में रूपकुमारी पर पति की तरह अधिकार रखने वाला काली कह देता है-कुछ नहीं लगता। रूप की इस कथा-व्यथा को महुआ माजी ने बहुत संवेदनशीलता के साथ उभारा है। रूप की पीड़ा को यहां बस आप महसूस कर सकते हैं। बाढ़ से पराजित मानुस कितना स्वार्थी और पतित हो सकता है...‘‘क्या वाकई भरपेट भोजन-कपड़े के लिए ही उसने सोच-समझकर कालोपॉदो को फाँसा?- वह खुद ही से पूछती। यह उस़की पेट की क्षुधा थी या देह की ? या फिर मन की? क्यों प्रत्याख्यान नहीं कर पायी वह उसके प्रेम-निवेदन का... देह-आमंत्राण का...? ये कैसी पहेली है ठाकुर! ये मन की ग्रंथियां इतनी जटिल क्यों हैं? क्या एक पुरुड्ढ-मानुष के बिना जीना वाकई इतना मुष्किल था? वह सोचती। फिर सबकुछ भूलकर कालीपॉदो की गृहस्थी में मन रमाने की कोशिश करती। चूल्हा-चौका... बड़े-बुजुर्गों की सेवा... बच्चों पर लाड़ जताना... गाय-गोरू की देखभाल... रिष्तेदारों की तिमारदारी... क्या कुछ नहीं करती वह। सबका दिल जीतने का प्रयास करती। लेकिन हरेक के बर्ताव में उसके लिए हिकारत...सिर्फ हिकारत...। बड़ों की देखा-देखी मासूम बच्चे भी उसे दुत्कारना सीख गए थे। एक अछूत-सी ही हैसियत थी उस घर में उसकी।’’ बाबा तुलसी बहुत पहले लिख गए हैं-पराधीन सपनेहुं सुख नहीं। स्त्राी की यही दशा। सालों से। राजेंद्र यादव ने कहीं लिखा था-कमर के उ$पर स्त्राी देवी है, कमर के नीचे वैश्या। हमारा समाज स्त्राी को बस इसी नजर से देखता है-स्त्राी इसके सिवाय भी कुछ है-हम सोच नहीं पाते और विमर्श के नाम पर एक स्त्राी भी जब खुद स्त्राी को इसी नजरिए से पेश करती है-तो समझ में आता है-मामला लेखन का नहीं, प्रतिबद्धता का नहीं बाजार का है। बाजार हमारे चारों तरफ घुस चुका है। दिमाग में भी। वह बराबर चलता रहता है। 
  यह कहानी 2017 की है। स्थान बंगाल का कोई गांव हो सकता है। बंगाल में बहने वाली कोई नदी। कोई पद्मपोखर और उसके किनारे कदंब का विशाल गाछ। ये सब भी किसी पात्रा की तरह ही उपस्थित होते हैं। हवाएं भी यहां कुछ कहती-सुनती नजर आती हैं। कहानी सिर्फ मानुस जात की नहीं। कहानी में कदंब की भी वही भूमिका है, नदी की भी और ‘इलेशगुंड़ि’ की भी। जब कहानी बंगाल के किसी गांव की है तो जाहिर है, यहां ऐसे शब्द भी आपको मिलेंगे जिसे हम हिंदी में आढ़त कहते हैं यहां आड़ोत पाते हैं। उपमा का सौंदर्य भी कम नहीं- ‘तुझे देख, तेरा कष्ट देख मेरा मन हापुस-हुपुस करता है रे रूपकुमारी।’ हापुस-हापुस शब्द बांग्ला में प्रचलित हैं। इस कहानी में बांग्ला का प्रभाव काफी है। शब्दों पर तो है ही।
   महुआ की दूसरी कहानी है ‘रोल मॉडल’। यह वागर्थ के 2005 के सितंबर अंक में आई थी। इस कहानी में रांची का जिक्र नहीं है, उन मुहल्लों के भी नहीं, जो कहानी में आते हैं, लेकिन रांची से जो परिचित हैं, उन्हें पता चल जाएगा कि कहानी कहां घटित होती है। दरअसल, रांची वैसे तो शिक्षा के लिए जाना जाता है। यहां ईसाई मिशनरियों ने एक बड़ा काम इस क्षेत्रा में किया। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। फिर बीआइटी जैसे संस्थान हैं। 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड में 2018 तक तो कई यूनिवर्सिटियां खुल गई हैं। लेकिन 2005 तक भी महत्वपूर्ण कॉलेज तो थे ही। इसलिए, झारखंड से इतर दूसरे प्रदेशों से भी लड़कियां और लड़कें यहां पढ़ने के लिए आते हैं। राज्य के दूसरे शहरों से तो आते ही हैं। बाहर से आई छात्राओं के लिए रहने के लिए कमरा चाहिए। हर कॉलेज और संस्थानों में पर्याप्त छात्रावास तो रहते नहीं। फिर उन्हें या तो पेइंग गेस्ट होकर रहना पड़ता है या कमरा किराया लेकर। यहां भी फिर बनारस की तरह अपने घर के कमरे किराये पर उठाने लगे। एक-एक कमरे में चार-चार चौकियां लगा दी और फिर प्रति चौकी कमाई करने लगे। जिनके घरों में अतिरिक्त कमरे थे, उन्हें अपने कमरे उठाने में तो कोई दिक्कत नहीं थीं, जिनके कम थे, वह भी एक-दो कमरे में खुद को समेट लिया और एकाध कमरा किराये पर लगा दिया। जिनके पास जगह-जगह ही थी, उन्होंने लॉज की शक्ल दे दी। और, जिनके पास कुछ नहीं था, वे दूसरों को देख कूढ़ने लगे। तरह-तरह की बातें बनाने लगे। इस तरह मोहल्लों की अलग पहचान बनने लगी और जब गलियां लड़कियों से गुलजार होने लगी तो फिर मंडराते हुए भंवरे भी आने लगे। फिर तरह-तरह की चर्चा भी आने लगी। जो गलियां सुनसान रहा करती थीं, गुलजार रहने लगीं, शाम में सन्नाटा पसर जाने वाली गलियों में भी देर शाम तक खुसूर-फुसूर शुरू हो गया। जिन बुजुर्गों के पास कोई काम नहीं था, उन्हें भी काम मिल गया, वे गलियों की ओर ताका करते थे। और, इसी कहानी में एक मजेदार पात्रा हैं सनातन बाबू। इनके पास कोई कमरा नहीं रहता है, लेकिन जब लड़कियां आकर पूछती हैं-अंकल कमरा है तो वे मना नहीं करते। बल्कि पूरी जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं-कितने लोग हो, खाना कहां खाओगी, बनाओगी या मंगाओगी-बनाओगी तो गैस पर या स्टोव पर वगैरह-वगैरह। सनातन बाबू की हर जिज्ञासा और सवाल का जवाब देते जब लड़कियां थक जाती हैं-तब कहती हैं-तो अंकल अब हमारा कमरा दिखा दीजिए। अब सनातन बाबू का जवाब सुनिए-कमरा! कमरा कहां है? सनातन बाबू आश्चर्य से कहते हैं-हमारे घर पर कोई कमरा वमरा खाली नहीं है। नीचे हम मियां-बीवी और मंझले भाई का परिवार रहता है। उ$पर हमारे बड़े भाई का परिवार। हमारे यहां खाली कमरा होता तो अब तक दे नहीं देता? यहां इतनी देर धूप में खड़ा करके रखता क्या?
   इस तरह-तरह एक-एक दरवाजा खटखटाते हुए लड़कियों को कमरा मिल ही जाता है। गांव, कस्बे या दूसरे शहरों से आई लड़कियां यहां काफी अपने को उन्मुक्त और आजाद महसूस करती हैं। यह आजादी कपड़ों से भी झलकती है और देर शाम लौटते वक्त भी। जब कोई न कोई भंवरा छोड़ जाता है। या फिर देर रात जब घर से किसी प्रोजेक्ट पूरा करने का बहाना बना निकलती हैं।
हमारा मध्यवर्गीय समाज अपने घर में झांकने के बजाय दूसरों के घरों में ताका-ताकी में खूब रस लेता है। यह हमारे भीतर कहीं कंुठा भी है। मध्यवर्गीय परिवार परंपरा की भी चिंता करता है, समाज की भी, धर्म की भी। संस्कार तो पीछा करते रहते हैं, अंत तक। अंतिम तक। कुछ लोगों को लड़कियों का पहनावा पसंद नहीं। कुछ चाहते हैं, मोहल्ले से इन्हें बाहर किया जाए। तो कुछ अतिरिक्त कमाई से चुप हैं। अर्थ भी जरूरी है और इसके लिए थोड़ा-बहुत समझौता किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक समाज की अपनी चिंता भी कम नहीं। दुश्वारियां यहां भी हैं। पर, यही लड़कियां तब ‘रोल मॉडल’ उन लोगों के लिए बन जाती हैं, जो लगातार इन्हें शक और संदेह की निगाह से देखते आ रहे थे। इसी तरह एक लड़की की, जो मकान मालिक की निगाह में उच्छृंखल मानी जाती थी, एक दिन मिठाई का डब्बा लेकर घर मालिक को खिलाती हुई यह सुखद सूचना देती है-अंकल मेरा जॉब लग गया है। पचास हजार महीना। अंकल का मुंह खुला का खुला रह जाता है। अंकल की सारी चेतना धराशायी हो जाती है। सुबह जब लड़की अपना सामान समेटकर जाने लगती है तब रतजगे अभिभावक अपनी बेटी का हाथ पकड़कर उस लड़की के पास आ धमकते हैं-हम भी अपनी लड़की को दिल्ली में कोचिंग कराना चाहते हैं। तुम रखोगी अपने पास तो ‘लायक’ बन जाएगी। उस परिवार के लिए वह लड़की रोल मॉडल बन जाती है। यहां भी पैसा प्रमुख कारण है। पैसा है तो सारी एैब छिप जाती हैं। पूंजी का बड़ा महत्व है। चाणक्य ने भी अपनी नीति पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्रा’ रखा था और मार्क्स भी पूंजी के इर्द-गिर्द झूलते नजर आते हैं। पंूजी का बड़ा खेल है जीवन में। जिनके पास पूंजी है, उनके लिए परंपरा, संस्कार, संस्कृति कोई मायने नहीं रखती, लेकिन उसके वे सबसे बड़े प्रवक्ता और संरक्षक बना दिए जाते हैं। बहरहाल, यह कहानी एक दकियानूसी परिवार के विचार परिवर्तन की कहानी है। परिवार भी समाज की एक इकाई है। परिवार से ही समाज बनता है। एक परिवार के विचार बदले तो समाज का विचार भी बदल सकता है। जो दिखता है, वह पूरा सच नहीं होता। देखने का एक नजरिया यह भी है हम अपनी आंखों से जो देखते हैं, उसमें हमारी सोच और संस्कार भी शामिल होते हैं। दो आंखें वर्तमान को देखते हुए भी हजारों सालों को भी देखती हैं। इसलिए, जो दिखे, उस पर सहसा और तुरत विश्वास कर लेने की जरूरत नहीं है। महुआ की इस कहानी ने तब काफी चर्चा बटोरी थी। एक नया विषय था। महुआ अपने लिए नया-नया विषय तलाशती हैं। समाजशास्त्राी हैं, इसलिए किसी चीज को पैनी निगाह से देखती हैं। जब वे महिला आयोग की अध्यक्ष थीं, तब उनके पास परिवार की तरह-तरह की सच्ची कहानियां आईं। वे कहानियां भी किसी शक्ल में कागजों पर उतरेंगी, ऐसा विश्वास है। एक लेखक के लिए अनुभव भी जरूरी है और खोजी प्रवृत्ति भी। लगन तो चाहिए ही। महुआ में तीनों है। ये कहानियां रोज घटित होती हैं, लेकिन महुआ ने जिस रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया है, वह प्रशंसनीय है। ये कहानियां विमर्श से हटकर लिखी गई हैं। इसलिए इनकी आयु लंबी होगी। जो विमर्श, राजनीति और किसी खांचे में निबद्ध होकर लिखी जाती हैं-वे अल्पायु होने के लिए अभिशप्त होती हैं। आंदोलन से उपजी कहानियां आंदोलन के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।
लमही से साभार
                                                                        

‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’: समय से गुजरते हुए

 मिथिलेश्वरजी का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ अभी-अभी वाणी प्रकाशन से छपकर आया है। पुस्तक की पीठ पर इसके बारे में सूचना दी गई है-‘...आत्मकथात्मक उपन्यासों का यह तीसरा और अंतिम उपन्यास है। लेकिन अब तक की उनकी कृतियों में बेजोड़, बेमिसाल और यादगार कृति है।’ इसके पहले उनकी आत्मकथा की दोनों पुस्तकें ‘पानी बीच प्यासी’ 2010 और ‘कहां तक कहें युगों की बात’ 2011 आ चुकी हैं। सूचना के मुताबिक, यह तीसरा और अंतिम है। मिथिलेश्वर जी 65 को छू रहे हैं। लेकिन अवकाश ग्रहण करने से पहले ही उन्होंने अपनी आत्मकथा अपने प्रिय पाठकों को सौंप दी। अपने जीवन-संघर्ष को अपने पाठकों से साझा किया है तो इसके पीछे एक दृष्टि और उद्देश्य भी है कि समय रहते अपने पाठकों को अपनी राम कहानी बता दें। ऐसा न हो कि आगे चलकर उम्र आधिक्य के कारण स्मृति लोप का शिकार होना पड़े और ‘आत्मकथा’ मन में ही रह जाए। एक सजग, सचेत और संवेदनशील रचनाकार के नाते उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई और यह आपबीती, उनके निजी जीवन या गांव-घर की चौहद्दी तक सिमटी नहीं है। एक पूरा काल खंड और उस काल खंड में समय का पूरा इतिवृत्त अपने पूरेपन में समाया हुआ है। जिन लोगों ने उनकी पहले दोनों आत्मकथा नहीं पढ़ी है, वह इस अंतिम आत्मकथात्मक उपन्यास को पढ़कर दोनांे की कमी को पूरा कर सकते हैं। क्योंकि इसमें उन्होंने अपने अब तक के संपूर्ण जीवन के कालखंड को समेट दिया है।
  साहित्य की सामाजिकता में विश्वास करने वाले मिथिलेश्वरजी पिछले 45-50 साल से रच रहे हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 1976 में ‘बाबूजी’ नाम से आया था। तब से उनकी रचना प्रक्रिया अनवरत-सोद्देश्य जारी है। बेशक, इन 44-45 सालों में देश-समाज-गांव, परिवार-परंपरा और संस्कार बदले हैं। प्रेमचंद के गांव बदले हैं। रेणु के गांव ने नई शक्ल धारण की है। आरा-बैसाडीह का गांव भी बदलाव से अछूता नहीं रह सका है। वह गांव भी बदला। गांव की पगडंडियां बदलीं। गांव की संस्कृति और संस्कार बदले। तालाबों की शक्लोसूरत बदली। खपरैल और झोपड़ियां बदलीं। खूटें बदले। आम, जामुन, कटहल के स्वाद बदले। संवेदनाएं बदलीं। घर बदले। आंगन बदले। चूल्हों की तासीर बदली। ये बदलाव कई स्तरों पर हुए। इन बदलावों को देखने, समझने और महसूस करने के लिए मिथिलेश्वरजी की रचनाएं सबसे अधिक विश्वसनीय, प्रमाणिक और तरतीब नजर आती हैं। पांच दशकों का उनका रचनात्मक संसार देश के बदलाव की यात्रा भी है और उनकी यह आत्मकथा ‘उपसंहार’।  
   जब हम ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ से गुजरते हैं तो उनकी दोनों आत्मकथाओं की यादें ताजा हो जाती हैं और एक बार फिर हम उनके साथ उनके बचपन के गांव से यात्रा आरंभ कर देते हैं। बैसाडीह की यादें, खेत-खलिहान, चोरी-सीनाजोरी और फिर पिता का आकस्मिक निधन। मजबूरियों और विवशताओं के बीच आरा में ठिकाना। मां का संबल। भरा-पूरा परिवार। भाई-बहन की शादी-ब्याह की चिंताएं। फिर नौकरी के लिए संघर्ष। हारी-बीमारी। फिर बेटियों की शादी...वगैरह-वगैरह। जब इन चाहे-अनचाहे उनके जीवन की घटनाओं से गुजरते हैं, उनके जीवट संघर्ष और मजबूत मनोबल को देखते हैं तो यह फिर असाधारण लेखक की साधारण कहानी भर नहीं रह जाती। यह कहानी हमें कई स्तरों पर जोड़ती है, एकाकार करती है और हमारे मर्म को छूती हुई हमें संवेदित करती है। उनका जीवन, समाज का जीवन लगने लगता है। ऐेसे चरित्रा हमें अपने आस-पास दिखाई देने लगते हैं। यह कहानी राम कहानी बन जाती है। घर-घर की कहानी बन जाती है। इस आत्मकथात्मक उपन्यास ही यही विशेषता है कि यह सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं रह जाता। उन्होंने अपने तक इसे केंद्रित भी नहीं किया है। धुरी वही हैं लेकिन परिधि का विस्तार अनंत-असीम है। 
  अपनी इस तीसरी रचना में पूववर्ती दोनों आत्मकथाओं का उल्लेख किया है, ‘‘पानी बीच मीन प्यासी’ नामक आत्मकथा का अंत गर्दिशों, परेशानियों और लंबी बेरोजगारी के बाद विश्वविद्यालय शिक्षक की नौकरी पाने के सुखद एहसास से किया था। मेरे जीवन में उस आत्मकथा के कालखंड की सबसे बड़ी घटना जीविकोपार्जन से जुड़ना था, इसलिए सुखद अनुभूतियों ने उस आत्मकथा को सुखांत बना दिया...। लेकिन इसके विपरीत ‘कहां तक कहें युगों की बात’ के कालखंड में मेेरे जीवन की सबसे बड़ी दुघर्टना या सबसे बड़ा हादसा मां का निधन रहा। इस स्थिति में न चाहते हुए भी मां के निधन के पूरे प्रसंग से इस आत्मकथा को समाप्त करना पड़ा। अगर ऐसा नहीं करता तो मां के निधन की असह्य पीड़ा को कम नहीं कर पाता। मां से संबंधित लंबे और कारुणिक प्रसंग ने ही इस आत्मकथा को दुखांत बना दिया।’’
   मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, लेकिन असमय किसी का निधन हमें झकझोर देता है। इस रचना में भी हम मृत्यु की छाया देख सकते हैं। मिथिलेश्वरजी के पिता भी 43-44 साल की उम्र में चल बसे थे। इस उपन्यास का अथ और इति भी मृत्यु से ही होता है। शुरुआत उनकी नौकरानी रामरती के आकस्मिक निधन से होती है और अंत भी उनके मित्रा चंद्रकांत के अचानक के दुनिया छोड़ अनंत में विलीन हो जाने से होता है। दूसरे अध्याय में अपने कालेज के साथी रामनाथ मिश्र के निधन के बहाने उनके पूरे जीवन, कर्म और संघर्ष को याद करते हैं। एक होनहार, प्रतिभाशाली व्यक्ति कैसे व्यवस्था की चक्की में पीसकर असमय मौत को गले लगा लेता है। रामनाथ मिश्र एक वित्तरहित कालेज में पढ़ाते हैं जो सरकारी होने की बाट जोहता है, लेकिन प्रबंधन तंत्रा के अपने गुणा-लाभ के कारण वह सरकारी नहीं हो पाता और मिश्रजी को इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि वे अपने बीमार बच्चे का ठीक से इलाज भी नहीं करा सकते और एक रात यही सोचते-सोचते दम तोड़ देते हैं। एक सज्जन, कर्मठ और ईमानदार आदमी का  यही हश्र होता है। मिश्र की पूरी कहानी अत्यंत संवेदना के साथ कही गई है। एक प्रतिभा का ऐसे काल-कवलित हो जाना हमें झकझोर देता है। सरकार और संस्थाओं के खोखले चरित्रा और उनके जानलेवा तंत्रा के वे अकेले शिकार नहीं है। सिर्फ आंख उठाकर अपने आस-पास देखने की जरूरत है। शिक्षा का संस्थानीकरण आगे चलकर बाजारीकरण में बदल जाता है। अपने देश में सबसे बुरा हाल शिक्षा और शिक्षण संस्थानों का है। सरकार ने निक्कमेपन की चादर ओढ़ ली है और शिक्षा को बाजार के हवाले कर दिया।
   तीसरे अध्याय में तीसरे मित्रा प्रो डीके तिवारी की कहानी है जो उनसे उम्र में बड़े थे और एक राजनीतिक दल में सक्रिय थे। इस दल के पास वैज्ञानिक विचारधारा थी। जिंदाबाद-मुर्दाबाद जैसे सुघड़-जीवंत नारे थे, वर्गहीन-जातिहीन समाज का सपना था, लेकिन यह पार्टी भी, जब टिकट देने का समय आता, जाति देखने लगती या जनाधार। इस तरह एक समर्पित और ईमानदार पार्टी कार्यकर्ता भी चुनाव लड़ने से वंचित हो जाता। डीके तिवारी भी अवकाश ग्रहण करने के बाद बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके और वर्गहीन समाज का सपना भी उनके साथ ही चला गया। कथनी-करनी का अंतर व्यक्ति को भी कठघरे में खड़ा करता है और दल या पार्टी को भी। अपने को प्र्रगतिशील कहने या कहलाने वाली पार्टियां भी अपवाद नहीं रह सकीं और इसका खामियाजा तिवारी जैसे कर्मठ और समाज बदलने के धुन के पक्के कार्यकर्ताओं को निराशा या अवसाद में जाकर चुकानी पड़ती है। भारतीय राजनीति का चरित्रा-चेहरा, चाल और छल-छद्म दिखाई देने लगता है। बदलाव की बात या तो घोषणा पत्रों में होती या भाषणों में। यह तब भी सच था आज भी सच है। यह सचमुच भरोसा और विश्वसनीयता का संकट काल है। संक्रमण का दौर है।
     इस संक्रमण के दौर से गुजरते हैं तो बहुत कुछ दिखाई देता है। एक तो यही कि हमारे विश्वविद्यालय मूर्खों के अड्डों में तब्दील होते जा रहे हैं, जहां रचनात्मकता के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है। देश में विश्वविद्यालयों की संख्या कम नहीं। हिंदी विभाग तो होंगे ही। अब उन पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे यहां सबसे अधिक जातिवाद है। नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद आगे हो जाता है और प्रतिभा मंुह ताकती रह जाती है। गुरु-शिष्य परंपरा भी कायम है। यहां रचनाकार नहीं, डिग्रीधारी अध्यापक चाहिए। जिसने चोरी से ही सही, डाक्टरेट किया हो, डी लिट्ट किया है। प्रोन्नति तो उसे ही मिल सकती है। यह महत्वहीन है कि आप रचनाकार हैं, दर्जनों संग्रह छप गए हों, देश की प्रतिष्ठित पत्रा-पत्रिकाओं में छपते रहे हों। इसलिए, हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में आपकांे रचनाकार कम, तथाकथित विद्वान और डिग्रीधारी खूब मिलेंगे। शोध की तो पूछिए ही मत। पैसा दीजिए शोधग्रंथ लीजिए। विद्या के मंदिर में यह खेल खूब है। और तो और, हिंदी के प्राध्यापक भी यूजीसी से शोध के नाम पर लाखों वसूलते हैं और शोध के नाम पर कूड़ा-करकट एकत्रित करते हैं। हमारे विश्वविद्यालयों का यही हाल है। अपवाद हो सकते हैं। उन्हें आप उंगलियों पर गिन सकते हैं लेकिन विश्वविद्यालों में प्रतिभा का प्रवेश जैसे वर्जित है। मिथिलेश्वर जी ने इस तरह के अपने कई अनुभव साझा किए हैं, जो सिर्फ उनका अनुभव नहीं रह जाता। मिथिलेश्वर जी को जब नौकरी मिली तो उनके कहानियों के कई संग्रह आ चुके थे। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार उनकी झोली में था। इस बिना पर उनकी नियुक्ति हुई, लेकिन ये अपवाद ही हैं। फिर भी उन्हें कम परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। प्रोन्नति के लिए पीएच डी करनी पड़ी। हिंदी के कथित-तथाकथित सेवकों के ताने अलग से। लिखने के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं, इसकी चिढ़ साथी प्राध्यापकों को। जैसे ये कोई बड़ा अपराध कर रहे हों। ऐसे दुर्गंध देते विश्वविद्यालयों में रचनात्मक काम छोड़ हर काम होते हैं, जिससे उसका कोई वास्ता नहीं होना चाहिए। अच्छा, आप किताब कैसे लिख लेते हैं? कैसे समय निकाल लेेते हैं? जैसे पढ़ना-लिखना पाप हो। हम ऐसे ही समाज में रह और जी रहे हैं। एक ठस और बेदम। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक यही स्थिति है। विश्वविद्यालय ही क्यों, बदबू देते सरकारी अस्पताल भी हैं, जहां इस लेखक को कई तरह के अनुभव से गुजरना पड़ता है। मिथिलेश्वरजी ने ठीक ही लिखा है कि ‘ जीवन की यात्रा किसी सरल रेखा की तरह नहीं होती, हमारे व्यक्तिगत जीवन में उतार-चढ़ाव के साथ-साथ हमारे अनुभव हमें बहुत कुछ समझाते-बताते तथा जमीनी सच्चाइयों से अवगत कराते हैं।’ यहां भी कई तरह के अनुभव और जमीनी सच्चाइयों से वे हमें रूबरू कराते हैं।     
  मिथिलेश्वरजी की यह आत्मकथा दर असल उनका ‘आत्म’ भर नहीं है, यह समाज की, व्यवस्था की, घटती संवेदना और निर्लज्ज राजनीति की भी कथा-व्यथा है, जिसमें हम जी रहे हैं। संास ले रहे हैं। इस कथा को पढ़ते हुए हम उनके ‘आत्म’ और उसके विस्तार को देख सकते हैं। उनकी सादगी, ईमानदारी और लेखन के प्रति उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और उत्तरदायित्व को समझ सकते हैं, जहां किसी प्रकार के नारे का शोर नहीं है। यहां कोई वाद नहीं, न उसका दावा है। बहुत सादगी के साथ हम उनकी रचना प्रक्रिया को महसूस करते हैं। कहानियों और उसके पात्रों की स्थिति, परिस्थिति और मनःस्थिति को समझ सकते हैं। चरित्रों के बहुलतावादी संसार में विचरण कर सकते हैं, जिसके पास कहने और सुनाने को बहुत कुछ है। यहां गंवई मन के शहरी अनुभव भी हैं। क्योंकि यहां रमेसर बाबा जैसे चरित्रा हैं, जिनके पास लोककथाओं का अनमोल खजाना है। तीव्र वैज्ञानिक विकास के तहत तेजी से बदलती और ग्लोबल होती दुनिया में हमारी लोक कथाएं और लोकगीत बहुत तेजी से गायब हो रही हैं। कहने-सुनने की परंपरा भी खत्म हो रही है। गांवों में लगने वाले चौपाल पर चलने वाली किस्से-कहानियों की जगह राजनीति ने ली है। तब, इन्हें बचाना और भी जरूरी हो जाता है। मिथिलेश्वरजी ने इसके लिए कई खतरे उठाए। जान जोखिम में डाल गांव-गांव जाकर ऐसी लोककथाओं का संकलित किया। रमेसर बाबा हों या पोखरियां गांव का नानी या फिर रसिक बिहारी ओझा निर्भीक से मुलाकात। और इस यात्रा में लहूलुहान एक बूढ़ी माता, जिसे चाहते हुए भी एक संवेनशील रचनाकार नहीं भूल पाता। मिथिलेश्वरजी लिखते हैं, ‘आज मैं आकलन करता हूं तो पाता हूं कि भोजपुरी लोककथाओं की खोज-यात्रा ने मुझे अनेक नई जानकारियां दीं, नए अनुभव से संपन्न बनाया तथा नई रचनात्मकता प्रदान की। अपने परंपरित सृजन से अलग का रचनात्मक सुख मैंने पाया। लेकिन इस सबके बावजूद इस यात्रा ने मुझे एक स्थायी पीड़ा भी दी है। अपने बेटे की मार से अपने दोनों लहूलुहान पैर गुमटी से लटकाकर बैठी उस बूढ़ी माता को मैं चाहते हुए भी भूल नहीं पाता हूं...।’ इस पुस्तक में इस तरह के कई अनमोल और संवेदित करने वाले अनुभव हैं। सातवें अध्याय में इसकी विस्तार से कहानी कही गई और इस कहानी में एक पात्रा और है जो छाया की तरह उनके साथ हैं, वह हैं कृष्ण कुमार। 277 पेज के इस रचनात्मक यात्रा में वे अदृश्य नहीं है। सदेह यहां हाजिर हैं। पत्नी रेणु और बेटियां तो है हीं।
 16-17 सालों से मिथिलेश्वर जी को जान, समझ और पढ़ रहा हूं। उनकी सादगी, सज्जनता और सरलता उनकी भाषा में भी दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में भी एक ताजगी मिलती है और उनकी आत्मकथाएं भी किसी रचना की तरह ही आस्वाद देती हैं। इस आत्मकथा का पढ़ते हुए यह नहीं लगता है कि हम किसी रचनाकार को पढ़ रहे हैं, बल्कि एहसास यह तारी होता है कि हम अपने समाज को देख-पढ़-सुन रहे हैं। हमारी आंखों के सामने एक आईना है, जिसमें हम खुद दिखाई दे रहे हैं और हमारा समाज भी। कहीं कोई रंग-रोगन नहीं; जैसा है वैसा ही। लथपथ भी, लहूलुहान भी, लौकिक भी, अलौकिक भी, भौतिक भी, अभौतिक भी, सुंदर भी-असंुदर भी। गंध भी दुर्गंध भी। आप बीती के साथ जग बीती भी।
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लमही से साभार
पुस्तक: ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ आत्मकथात्मक उपन्यास
लेखक: मिथिलेश्वर
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
कीमत: 295 पेपरबैक। पेज: 277

अकेले पड़ते किसान की त्रासद गाथा

  भारतीय किसानों की व्यथा-कथा किसी से छिपी नहीं है। पिछले तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार को किसानों से जोड़ कर देखा जा रहा है। किसान चाहे उत्तर के हों, पश्चिम के हों, दक्षिण के हों, विदर्भ के हों, बुंदेलखंड के हों, सबकी समस्याएं एक सी हैं। इनके लिए सरकारी योजनाओं, फसल बीमा, सिंचाई के साधन, डोभा निर्माण सबका एक ही उद्देश्य है- नौकरशाही की जेब भरना। इनका किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं। राजधानियों मंे बैठकर नौकरशाह योजनाएं बनाते हैं। बनाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनकी जेब में माल कितना जाएगा! बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की पड़ताल करेंगे तो पता चल जाएगा। अपने झारखंड में तो यही हाल है। 1974 से चल रही योजनाएं आज तक पूरी नहीं हुईं। जो योजनाएं उस समय 43 करोड़ की थीं, अब वह एक हजार करोड़ से उ$पर जा पहंुची हैं, लेकिन वह भी पूरी हो जाएं, इसमें कतई संदेह है। आज किसान कई तरह की समस्याओं से घिरा है। इसमें सिंचाई के लिए पानी तो है ही। बीज भी है। बीज कंपनियां इतनी प्रभावी हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो, चलती उनकी की है। इसलिए, पिसता किसान की है।
 
  सरकारों का किसानों की चिंता करना कोई नहीं बात नहीं है। हर सरकार इसका दिखावा करती आ रही है। आजादी से पहले भी किसानों के कई आंदोलन हो चुके हैं। अवध का किसान आंदोलन सबको याद है। पंजाब से लेकर अब के झारखंड का इतिहास पलट सकते हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन दरअसल, किसान विद्रोह ही था। अलग-अलग समस्याओं को लेकर किसान हमेशा से आंदोलनरत रहे हैं। इन आंदोलनों पर लिखा भी जाता रहा है। पर, आज अन्नदाता कई तरह के मकड़जाल के साथ विकास का दंश भी झेल रहा है। जमीन सिकुड़ती जा रही है। आबादी बढ़ती जा रही है और नई पीढ़ी किसानी करना नहीं चाहती। गांव शहर की ओर भाग रहा है। शहरों में गांव समा रहा है। मिथिलेश्वरजी का नया उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ इसी अंतर्द्वंद्व को सामने रखता है। किसानों का दुख, दर्द, संताप और अपनी जमीन के प्रति चाह और लगाव अब चिंता का सबब बनता जा रहा है। जिनका गांव से वास्ता रहा है, वे इसे पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं कि मिथिलेश्वर जी बलहारी गांव की कथा नहीं, उनके अपने गांव की कथा सुना रहे हैं। मिथिलेश्वरजी की लिखने की जो शैली है, वह सुनाने की है। वह सुनाने में सिद्धहस्त हैं। इसलिए, पाठक पढ़ता नहीं, सुनता है और सुनने में उसे समय का ध्यान नहीं रहता, उसमें डूबता चला जाता है। इस डूब में कई बार उसकी आंखें नम होती हैं और उसके सामने गांव का पूरा दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। गांव के टोले, लहलहाते खेत, बाग-बगीचे, सिवान, खलिहान, गांव से बाहर का मंदिर, मंदिर का पुजारी, उसकी लुच्चई, गांव की राजनीति, गांवों की आपसी प्रतिद्वंदिता...। कोई ऐसा पक्ष नहीं, जिसका वर्णन न किया हो, खेत की मेड़ से उठता लोकगीत...खेतवा घूमे रे किसनवा...झूमे खेतवा में धनवा कभी उत्साह जगाता है, कभी दर्द बनकर उभरता है।   यह कथा बलहारी गांव की नहीं है। ‘बत्तीस बिगहवा’ के मालिक बलेसर की नहीं, उनके तीन पुत्रों की भी नहीं, यह उन सबकी कथा है, जो गांव में रहना चाहते हैं, पूर्वजों की जमीन बेचना नहीं, हर हाल में बचाना चाहते हैं, लेकिन नई पीढ़ी चाहती है कि अब गांव में रहा ही क्या, खेती-किसानी में पहले जैसी बात नहीं रही। अब महंगा हो गया है। समस्याएं बढ़ गई हैं। अब बनिहार भी नहीं मिलते। तो फिर क्यों खेती-किसानी की जाए? 
  पिछले 70 सालों में हमने विकास का ऐसा मॉडल विकसित कर लिया है कि नई पीढ़ी अब खेती करना नहीं चाहती। जबकि अन्न सबको चाहिए। अन्न के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। फिर हमारी सरकारों ने ऐसा वातावरण क्यों नहीं बनाया कि शहर का विकास भी हो, हम आधुनिक भी बनें, लेकिन किसानी भी ऐसा हो, कि नई पीढ़ी इससे दूर न भागे, दिल से अपनाएं। पर हमारी सरकारों और नौकरशाहों ने नकलची की तरह विदेशी मॉडल तो अपना लिया, यह सोचे-विचारे बिना कि यह अपने देश के अनुकूल है भी या नहीं। हम जब कहते हैं, भारत गांवों का देश है, जय-जवान-जय किसान का नारा बुलंद करते हैं तो उसमें किसानों के लिए कितनी सम्मानजनक जगह बची है? आज हमारी सरकारें किसानों की चिंता नहीं करतीं, चिंता करने का दिखावा करती हैं। इसलिए, हमारी पीढ़ी किसानी से भाग रही है। आइए, थोड़ा पीछे चलें। एक दो नहीं, चार शताब्दी पहले। देखें कि मुगल काल का एक सितारा अकबर किसानों के बारे में क्या सोचता था?
   अकबर के काल में ‘अमलगुजार’ होता था। यह एक प्रकार का विशेेष अधिकारी था। इसकी पोजीशन आजकल के कलेक्टर या डीसी के समान थी। राष्ट की रीढ़ उस समय किसान ही माने जाते थे। यद्यपि सम्मान का स्थान सबके लिए था। पर, भोजन-वस्त्रा के दाता तो कृषक ही हैं। यह बात अकबर को पता थी। इसलिए उसने किसानों के साथ बड़ी रियायतें की थीं और खेती की उन्नति के लिए सब प्रकार की सुविधाएं दी थीं, इतना ही नहीं, अमलगुजारों को ऐसी हिदायतें दी थीं, जो विशेषकर किसानों के लाभ की थीं। अमलगुजार के कर्तव्य तो बहुत थे, पर प्रमुख था वह यह है- ‘अमलगुजार को चाहिए कि वह कृषक मित्रा हो। सत्य भाषण और परिश्रमशीलता उसके आचरण के नियम हों। वह अपने को सर्वरक्षक सम्राट का प्रतिनिधि माने...वह ऐसी कोशिश करे कि हर जिंस की उत्तम पैदा हो और उसकी वृद्धि के लिए दस्तूर के अनुसार जमा यानी ‘कर’ ली जाती हो, उसमें कुछ कमी कर दे। यदि कृषक अपनी प्रतिज्ञा से कम खेती करे और उसका कारण बाह्यरूप से सत्य दिखे, तो भी उसे स्वीकार करे। किसी गांव में बंजर भूमि न पड़ी रहे। यदि कृषक में अधिक कृषि करने का बल हो तो, तो दूसरे गांव की भूमि उसमें बढ़ा दे।’ इस तरह अकबर ने अपनी एक कृषि नीति तय रखी थी जो किसानों के पक्ष में थी। अकबर को लगता रहा कि किसान खुश रहेंगे तो देश भी खुशहाल रहेगा और देश पर राज करने वाला राजा भी। यह अकबर को बोध था, लेकिन आज के हमारे ‘सम्राटों’ या हुक्मरानों को नहीं।
 
  आज किसान जीवन-मरण से जूझ रहा है। वह आत्महत्या कर रहा है, लेकिन हमारे शासकों के दिल तनिक भी नहीं पसीज रहे। दक्षिण से किसान चलकर दिल्ली राजपथ पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते रहे। महिलाएं नदी जल में आंदोलन करती रहीं, पर हुआ क्या? गांधी ने चंपारण के किसानों की लड़ाई लड़ी, वह सफल रहे। हम पिछले साल चंपारण का शताब्दी वर्ष मनाएं। अभी गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं लेकिन गांधी के विचार, उनके 26 रचनात्मक कार्यक्रम पर कोई चर्चा नहीं। हम गांधी जयंती के नाम पर ढकोसला कर रहे हैं। गांधीवादी भी इसमें पीछे नहीं। सचमुच, आज गांधी होते तो वे अपने आंदोलन में असफल ही रहते। उन्हें बोध होता कि ये हमारे अपने जो शासक हैं, वह तो अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर, अमानवीय, हिंसक और रक्तपिपासु हैं। इनकी चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। आज और कल में यही अंतर है। इसलिए, जब किसान आत्महत्या करता है, तो ये तनिक भी संवेदित नहीं होते। 
  यही कारण है कि ‘तेरा संगी कोई नहीं’ का किसान बलेसर भी क्रूर व्यवस्था, अंधविकास और विडंबना का शिकार अपने ही लहलहाते खेत में मृत पाया जाता है। किसान के लिए यह एक त्रासद स्थिति है। बलेसर के तीन बेटे, तीनों पढ़-लिखकर नौकरी पा जाते हैं। वे पिता पर दबाव बनाते हैं कि वह अपना खेत बेच दें और शहर में आकर बस जाएं। गांव में कुछ रहा नहीं। खेती पहले जैसी रही नहीं। पर, बलेसर अपने पूर्वजों की धाती को बेचना नहीं, बचाकर रखना चाहते हैं। यह ऐसी थाती, जो उनके पूर्वजों को पालती आई थी, उन्हें भी पाल रही थी, लेकिन बेटों को लग चुकी शहरी हवा, जिसके पर्याप्त कारण और उनके अपने तर्क थे और उनके तर्कों के आगे बलेसर बेजार नजर आ रहे थे। इन सबके बीच कई तरह की घटनाएं घटती हैं। बलेसर की पत्नी लकवा की शिकार होकर शहर में बेटों के पास चली जाती हैं, बेटे इलाज कराते हैं और पिता को समझाते हैं कि गांव में कुछ रखा नहीं। पिता, शहर से गांव आते हैं, लहलहाती फसल को कटवाने का समय भी हो गया था। घर में वे अकेले रात गुजारते हैं, लेकिन आंखों में नींद आते ही तरह-तरह के भयावह सपने घेर लेते हैं-‘सारे जीवन की कमाई का सौदा इस तरह चुटकियों में कैसे कर दें? बचपन से जिस खेती-किसानी के बीच जीते आये, उसे वार्धक्य में पहुंचकर अपने जीवन से कैसे निकाल दें?...बलेसर देखते हैं कि उनका खेत बिक गया, उनकी जमीन पर किसी दूसरे का टैक्टर चल रहा है....वे चिल्लाते हैं...रोको...रोको टैक्टर...। बलेसर की आंख खुल जाती है। वे घबड़ा उठते हैं। वे सहज नहीं हो पाते। अतीत की यादें सामने भयावह रूप में आकर खड़ी हो जाती हैं...देर तक वे असहज और असामान्य बने रहे। फिर कुछ देर बाद उनकी पलकें पुनः बंद होनी शुरू हुईं...। वे चेतन से कब अचेतन में चले गए, कुछ पता ही नहीं चला...। बलेसर का शहर में मकान बन गया। बेटों ने अपने-अपने हिस्से में रहने लगे और बलेसर और उनकी पत्नी एक कमरे में सिमट गए, न कोई बोलने वाला, न हाल-चाल लेने वाला...गांव की उन्हें बेतरह याद आती है। गांव में उनके बत्तीस बिगहवा में राइस मिल लग गया है, वे पागलों की तरह चिल्लाने लगते हैं, हटाओ इस राइस मिल को, खाली करो मेरी जमीन! बलेसर की आंख खुल गई और वे चिल्लाते हुए हांफते जा रहे थे। वर्तमान का बोध हुआ तो उन्होंने चिल्लाना बंद कर दिया। लेकिन हांफना-कांपना जारी रहा। अतीत की घटनाएं तो थी हीं, लग रहा था कि भविष्य भी घट रहा है। वे बिस्तरे से उतरे, आंगन में आए लेकिन बेचैनी कम नहीं हो रही थी। सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी। अंदर का दरवाजा खोला, वे तेजी से बाहर की ओर निकल भागे....सुबह....। यह हमारे देश के किसान का त्रासद सच है। वह चाहता है, अपने पूर्वजों की खेती बचाकर रखे, लेकिन हमारी व्यवस्था किसान को यह मौका नहीं देना चाहती। यह उपन्यास इसी तरह के सवालों को निरंकुश शासन के सामने रखती है कि आखिर, उस विकास का क्या मतलब कि हमारे गांव बेचिरागी हो जाएं? गांव बचे रहेंगे तो देश भी बचा रहेगा, क्योंकि भारत शहरों का देश नहीं, गांवों का देश है। श्रीअरविंद ने इसे समझा था। सरकार को अपने विकास के मॉडल पर चिंतन करना चाहिए। किसान प्रकृति की धुरी है। धरती का स्वामी है। सृष्टि तभी चलती रहेगी, जब किसान खुशहाल होगा और ब्रह्मांड में हमारी धरती की इतनी खूबसूरत है कि वह हर तरह के जीवों को पाल सकती है, इसलिए, हम धरती को मां कहते हैं और किसान को अन्नदाता। ऐसे विकास की हमें कतई जरूरत नहीं, जिसने हमारी धरती को बर्बाद कर दिया है। आज हमारी नदियां प्रदूषित को चुकी हैं। हवाओं में जहर भर गया है। यह ऐसा विकास है, जो बर्बादी और बीमारी दे रहा है। फिर भी हम ठहकर नहीं सोच पा रहे हैं। आखिर क्यों? इस त्रासद समय में किसानों का कोई साथी क्यों नहीं? 
  मिथिलेश्वरजी एक सार्थक और रचनात्मक हस्तक्षेप करते हुए वे किसानों के साथ खड़े होते हैं। उपन्यास के नायक का ‘अंत’ दरअसल, अंत नहीं आरंभ का संकेत देता है, संभलों, नहीं तो देर हो जाएगी। इस ‘अंत’ से ही ‘आरंभ’ करो। जिनके पास खेत-बघार रहा हो, या है, वे माटी के मोल को समझ सकते हैं। मिट्टी के साथ उनका संबंध क्या होता है, यह वही जान सकते हैं। पर, हम चाहते हैं कि आज की पीढ़ी अपनी जड़ों से उखड़ जाए। तब, हम जैसा चाहे, वैसा उन्हें बना सकते हैं। जड़ से उखड़े हुए लोग ‘बाजार’ के लिए काफी मुफीद होते हैं। बेशक, किसान का अंत दुखद है, लेकिन कहीं से तो आरंभ करनी होगी। गांव-किसान के दुख-दर्द को उपन्यासकार बहुत नजदीक से देखते आ रहा है। उनकी तीन खंड में आत्मकथा में भी गांव-जवार और खेत-खलिहान के प्रमाणिक चित्रा उभरे हैं। इसलिए किसानी समस्या की एक-एक बारीकी यहां उभर पाई है। वैसे तो रेणु की ‘परती परिकथा’ से लेकर संजीव की ‘फांस’ तक किसानों की कथा कही जाती रही है, लेकिन यह कथा दूसरे धरातल पर खड़ी है और कुछ जरूरी समस्याओं की ओर इंगित करती है। यहां अपनी धरती को बचाने की जद्दोजहद है। बाकी तो आप खुद पढ़िए और गुनिए। 

अनहद  में यह समीक्षा छप चुकी है। साभार
 


कृति-तेरा संगी कोई नहीं
लेखक-मिथिलेश्वर
लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद

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