दस हजार साल पुराना रॉक आर्ट







 चतरा जिले के टंडवा पंचायत सतपहाड़ी के पास ठेगांगी गांव के पास जो रॉक आर्ट है, माना जाता है कि यह दस हजार साल पुराना है। यह तीन सौ फीट की ऊंची एक पहाड़ी है। अब तक सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया है। यह इलाका भी बहुत सुविधाजनक और निरापद नहीं है। हजारीबाग के जस्टिन इमाम, अलका इमाम और रांची से फैशन डिजाइनर आशीष सत्यव्रत साहु, अरविंद पांडेय, अनिता, मनीष एक्का की टीम यहां गई तो कुछ नायाब चीजें मिलीं। जस्टिन इमाम कहते हैं कि यहां गांव में एक भगत परिवार रहता है। उनके यहां भी लोग आते हैं। यहां फरवरी के महीने में चार-पांच जिलों के टाना भगत जुटते हैं और पूजा-अर्चना करते हैं। यह पहाड़ उनकी आस्था का केंद्र है। अब ये पूजा-अर्चना कब से करते आ रहे हैं, इसका अनुमान ही लगा सकते हैं। शैल चित्र के बाबत कहते हैं कि यहां अनोखा शैल चित्र हैं। परंपरागत रूप से यहां बैल, मेढक, हिरन और अन्य डिजाइन आदि का अंकन किया गया है। कुछ ऐसी चीजें हैं, जो सोहराई कला से मिलता-जुलता हैं। पाषाण काल के समय से मिट्टी के घरों की दीवारें बनती आई हैं और दीवारों पर चित्रकारी भी किया जाता रहा है। यहां आज भी इन इलाकों में इसे देखा जा सकता है। सोहराई में पशु की पूजा होती है। सोहराई कला के केंद्र में भी बैल आदि ही हैं। सोहराई कला खेती व पशु को लेकर बनाया जाता है। इसलिए हजारों साल से यह परंपरा चली आ रही है। हजारीबाग के चुरचू प्रखंड के दो गांवों में भी लोगों ने अपनी आंखों से पारंपरिक रंगों से सोहराई बनते देखा है। भेलवारा गांव की पार्वती देवी इस कला की सिद्धहस्त कलाकार हैं। विदेश तक जा चुकी हैं। इसके प्रचार-प्रसार में जुटी हैंं।
फैशन डिजाइनर आशीष खादी में सोहराई कला को प्रमोट कर रहे हैं। वे बताते हैं कि आज पहली बार अपनी आंखों से उन प्राचीन चीजों को देख रहा हूं। यह एक एक अद्भुत अनुभव है। दस हजार साल पहले लोग कितने कल्पनाशील थे। कला उनके अंदर कूट-कूट कर भरी थी। वे पत्थरों से ही रंग बनाते थे और पत्थरों पर ही अंकन। इतने सालों बाद यह रंग मिटा नहीं है। यह बड़ी बात है। हमें इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए। सरकार भी यदि इस ओर कदम बढ़ाए तो यह एक खूबसूरत पर्यटन स्थल बन सकता है। यहां आधे घंटे की चढ़ाई के बाद पहुंचना और फिर शैल चित्र को देखना सब थकान मिटा देता है। ये कला हमारी विरासत हैं। अभी तक विधिवत अध्ययन नहीं हुआ कि इनको बनाने वाले कौन थे? इस क्षेत्र में अन्य पहाडिय़ों की गुफाओं को देखना चाहिए। तब हम एक नए इतिहास लेखन की ओर बढ़ सकते हैं।

असुर : भूल गए लौह गलाना

झारखंड की सबसे प्राचीन जनजाति असुर हैं। दुनिया को लोहा गलाने की तकनीक असुर की देन है। असुर का फैलाव झारखंड में ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी है। दुनिया में देखें तो असीरिया को भी असुर का प्राचीन देश माना जाता है। खूंटी से लेकर गुमला-नेतरहाट की तलहटी में इनका निवास है। इनका साहित्य मौखिक ही है। हालांकि इनके इतिहास लेखन की प्रक्रिया शुरू हो रही है। खूंटी में आज भी असुरगढ़ के अवशेष देखे जा सकते हैं। 

आज असुर मानते हैं कि आज से 100 वर्ष पहले हमारे पूर्वज एकदम एकाकी जीवन व्यतीत करते थे। एक दूसरे से संपर्क नहीं था। आज संचार के साधन हैं, लेकिन असुरोंजंगल पर निर्भरता खत्म हो रही है। तरह-तरह के कानून से हम सबका सामना हो रहा है। जंगल को हमसे दूर किया जा रहा है, जो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। असुर अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। गांव के ङ्क्षवदेश्वर, अरङ्क्षवद, अकलू, बंधन, रंथू असुर कहते हैं कि सरकार की तमाम योजनाएं यहां तक नहीं पहुंच पातीं। सरकार को यदि ईमानदारी से असुरों का विकास करना है तो उसे कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शिक्षा और कृषि का तकनीक यहां गांव तक पहुंचे। तभी असुर जनजाति का विकास हो सकता है। हमारा एक उज्ज्वल अतीत है, लेकिन उसे अब दोहराने का कोई फायदा नहीं।


लोहा गलाने में दक्ष थे असुर  
असुर लोहा गलाने की तकनीक में दक्ष थे। सोसोबोंगा लोकगाथा में इसका विस्तार से वर्णन है। लोहा गलाकर इससे कृषि उपकरण बनाना, हथियार बनाना यही मुख्य पेशा था। लेकिन अब यह तकनीक लुप्त हो गई है। हालांकि बिशुनपुर में विकास भारती ने इस प्राचीन कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। लेकिन सरकार की ओर से इस प्राचीन कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास नहीं दिखता। लोहे ने सभ्यता को आगे बढ़ाया और एक नए युग का सूत्रपात किया। कृषि का तेजी से विकास हुआ, लेकिन इस विकास गाथा में असुर का जिक्र तक हम नहीं करते। असुर चाहते हैं कि यदि उनके लुप्त होते इस उद्योग को फिर एक बार प्रश्रय मिले तो उनकी आय बढ़ सकती है। चूंकि वन कानून की वजह से चारकोल और लौह-अयस्क आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। असुर चाहते हैं कि इसकी उपलब्धता के लिए लोहरदगा और गुमला मेसो क्षेत्र में सरकारी देख-रेख में सहकारी समितियां के लिए क्षेत्र निर्धारित कर दिए जाने चाहिए ताकि इन समितियों को चारकोल और लौह अयस्क आसानी से उपलब्ध हो सके। असुरों का कहना हैं कि यह उनकी आवश्यकता है। इसके अलावा वे चाहते हैं कि सरकारी देख-रेख के तहत उनके लिए प्रशिक्षण सह उत्पादन केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए ताकि जिन असुरों ने अपना यह पारंपरिक पेशा और तकनीक भूला दिया है, वे विशेषज्ञों की देख-रेख में पुन: इसे सीख सकें।
महिषासुर की करते हैं पूजा
असुर अब महिषासुर की पूजा करने लगे हैं। लातेहार जिले के दक्षिणी पूर्वी दिशा में स्थित नेतरहाट की तलहटी में बसे हुसंबू डोड़ीकोना गांव के असुर अपने प्रिय आराध्य महिषासुर की पूजा ठीक उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार हर धर्म व जाति के लोग अपने आराध्य की पूजा करते हैं। यहां दुर्गा पूजा के बाद दीपावली पर्व में महिषासुर की पूजा करने की परंपरा है।
छोटा पिंड बनाकर होती है पूजा :
दीपावली पर्व की रात महिषासुर का मिट्टी का छोटा ङ्क्षपड बनाकर पूजा होती है। इस दौरान असुर जनजाति अपने पूर्वजों को भी नमन कर उन्हें याद करते हैं। असुर जनजाति के लोग बताते हैं, सुबह में मां लक्ष्मी गणेश की पूजा करते हैं। इसके बाद रात को दीया जलाने के बाद महिषासुर की पूजा की जाती है। दीपावली में गौशाला की पूजा असुर जनजाति के लोग बड़े पैमाने पर करते हैं। जिस कमरे में पशुओं को बांधकर रखा जाता है, उस कमरे की असुर लोग पूजा करते हैं। वहीं हर 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा है। गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम में महिषासुर का शक्ति स्थल है। असुर जनजाति मूर्ति पूजक नहीं है इसलिए महिषासुर की मूर्तियां नहीं बनाई जाती हैं। बैगा पहान सबसे पहले पूजा करते हैं, उसके बाद घरों में पूजा करने की परंपरा है।
लेयुला व एल्विन ने किया था पहला अध्ययन
असुर जनजाति पर सबसे पहले केके लेयुला व वेरियर एल्विन ने 1963 में अध्ययन किया था। एल्विन ने असुर क्षेत्र का 19 सालों के अंतराल में दो बार भ्रमण किया। उन्होंने असुर को पारंपरिक लौहकर्मी की संज्ञा दी थी। एल्विन के साथ रूबेन ने भी इन्हें भारत का प्राचीन लौहकर्मी माना है। अब एल्विन 19 साल के बाद दूसरी बार असुर क्षेत्र में गए तो पाया लौह पिघलाने की विधि समाप्ति पर है। एल्विन को भरोसा था कि यह तकनीक दुबारा पुनर्जीवित हो सकेगी, लेकिन आज तक नहीं हो पाया।
प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख
दुनिया के प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में असुर का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, महाभारत आदि ग्रंथों में भी असुर की चर्चा मिलती है। बनर्जी एवं शास्त्री ने असुरों के शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि पूर्व वैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यंत शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। भारत में सिंधु सभ्यता के प्रतिष्ठापक भी असुर ही माने जाते हैं।
कोरवा राजा ने खदेड़ा तो पलामू में बसे
छोटानागपुर में असुर के बसने की एक दंतकथा है। छत्तीसगढ़ के पाटन में ये असुर लोहा गलाने का काम करते थे। यह इलाका कोरवा राजा के अधीन था। एक दिन असुर व्यापक स्तर पर लोहा गला रहे थे। गलाने के क्रम में भ_ी से निकलने वाला धुआं गांवों में भर गया। संयोगवश उसी दिन कोरवा राजा के यहां कुछ कार्यक्रम था। दूर-दूर से लोग आए थे। मेहमान इस धुएं से परेशान हो उठे। इसके बाद कोरवा राजा ने अपने सिपाहियों को उन्हें राज्य से बाहर खदेडऩे का हुक्म दे दिया और फिर ये विवश होकर गुमला, पलामू, नेतरहाट, रांची में आकर शरण लिए। बाद में असुर लोग कृषि कार्य से जुड़ गए।

महादेव को जगाने का पर्व
असुर कई पर्व मनाते हैं। उनमें से एक पर्व देवठान है। यह दीपावली के नौवें दिन मनाया जाता है। इस पूजा में सोए हुए महादेव को जगाया जाता है। असुर जनजाति में यह आम धारणा है कि महादेव छह महीना सोकर जीव-जंतु की निगरानी करते हैं और छह महीना जागकर रक्षा करते हें। रथयात्रा होने पर महादेव विश्राम करते हैं। यही कारण है कि विवाह-शादी आदि शुभ कार्य रथयात्रा के बाद नहीं किया जाता है। देवठान का पर्व मनाकर एवं महादेव की पूजा कर उनको जगाया जाता है। असुर जनजाति में यह अलिखित विधान है कि विवाह संबंधी बातचीत देवठान पर्व के बाद ही शुरू होती है। इसके अनंतर ही विवाह शुरू होता है। यदि किसी कारणवश विवाह संबंधी बातचीत होने के बाद विवाह नहीं हो पाता है और महादेव सो जाते हैं तो देवठान पर्व में वर पक्ष वधू को साड़ी एवं चूड़ी देते हैं। इस पूजा में महिलाओं का विशेष हाथ होता है। महिलाएं उपवास कर कृषि के उपकरण हल, पाटा, तराजू, अस्त्र-शस्त्र, खलिहान, वृक्ष, कुआं आदि स्थानों पर पूजा कर सिंदूर का टीका लगाती हैं। इसके अलावा असुर होलिका, खड़ासी-कुटासी, सिंगबोंगा, सरहुल, कदलेटा, राइज करमा आदि पर्व मनाते हैं।