1857 के गदर का गवाह राजहरा का बरगद

 गुलाम भारत को आजाद कराने के लिए देश के कोने-कोने में अलग-अलग लड़ाई लड़ी गई। इसमें हजारों लोगों को फांसी दी गई। मां ने बेटे को, पत्नी ने पति को व बहनों ने अपने भाई को खोया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई लोग इतिहास के पन्नों में अपनी गाथा अमर कर गए। इनका गर्व से देश में नाम लिया जाता है। सैकड़ों शहीद होने के बावजूद गुमनाम रह गए। गुमनाम रहने वाले शहीदों में पलामू जिला के नावाबाजार प्रखंड का राजहरा गांव भी हैं। आजादी के सात दशकों बाद भी यह अब तक गुमनाम है। इस क्षेत्र ने 1857 के गदर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। 1857 ई.में गदर का गवाह बना है राजहारा कोठी स्थित बरगद का विशाल बूढ़ा पेड़। यहां 200 से ज्यादा लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। इसका उद्देश्य  था 1857 के गदर  में भाग लेने वाले लोगों को दबाना। इस बरगद के पेड़ के नीचे रह वर्ष नवंबर माह की 27 से 29  तारीख तक लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

जुल्म के खिलाफ लोगों में था उबाल

खंडहर में तब्दील अंग्रेजों की कोठी 1857 की गदर में लोगों पर हुए जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले शहीदों की याद दिलाता है। जानकारी के अनुसार 1857 के पूर्व राजहारा क्षेत्र में बंगाल कोल कंपनी का माईंस संचालित था। इस पर अंग्रेजों का अधिकार था। 1857 ई. में  देश में ढाए जा रहे जुल्म के प्रति मजदूरों में उबाल आया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राजहारा कोलियरी के मजदूरों ने आवाज बुलंद की। आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग राजहरा कोठी स्थित अंग्रेजों के बंगला को घेर लिया। माइङ्क्षनग कार्य बंद कर आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया। अंग्रेजों ने इन्हें फांसी पर लटका दिया।

27 से 29 नवंबर 1857 तक काला दिन

रजहरा में  प्रथम स्वंतत्रता की लड़ाई में शामिल लोगों को फांसी दिए जाने के साक्षी विशाल बरगद का पेड़ आज भी जीवित है। इसका वर्णन स्थानीय इतिहासकार  डॉ. बी.निरोत्तम ने किया है। लिखित पुस्तक झारखंड का इतिहास व संस्कृति में बताते हैं कि 27 से 29 नवंबर 1857 के  तीन दिन राजहारा के लिए काला दिन साबित हुआ। 27 नवंबर 1857 को पारंपरिक हथियार व बंदूकों से लैस कई हजार आंदोलनकारी का जत्था राजहारा पहुंचा। यहां बंगाल कोल कंपनी माइङ्क्षनग का काम कर रही थी। आजादी के दीवानों ने बंगाल कोल कंपनी को जला दिया। साथ ही मशीनों को बर्बाद किया। इसमें दर्जनों  बहुसंख्यक ब्राह्मण गांव के बसे ब्राह्मण सहित भोक्ता व खरवार मौजूद थे। सभी विश्रामपुर राजपरिवार के भवानी बक्सराय की देखरेख में आगे बढ़ रहे थे। इनमें से लगभग 200 राष्ट्रभक्तों को 27 नवंबर 1857 को गिरफ्तार कर लिया गया।  28 व 29 नवंबर को राजहरा कोठी स्थित बरगद के पेड़ में फांसी दे दी गई। लोगों की माने तो शहीद क्रांतिकारियों के परिजन को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। आजादी की पहली लड़ाई में फांसी पर चढ़े वीर शहीदों के परिजनों व आश्रितों की खोज खबर भी नहीं ली गई। इस लिए आज ये सभी शहीद गुमनाम बनकर रह गए।

 लोगों की जुबानी गदरकी कहानी

राजहारा गांव निवासी रङ्क्षवद्र पांडेय ने बताया उनके पूर्वज बताते हैं कि कोल कंपनी  अंग्रेजों की देखरेख में  संचालित था। इस पर 1857 ईस्वी में  अधिकार भी था। विद्रोह के समय  स्थानीय  लोगों सहित  आसपास के दर्जनों गांव के लोगों ने अंग्रेजों की  वर्तमान गतिविधि के खिलाफ  आंदोलन किया। कंपनी को भारी नुकसान पहुंचाया।  अंग्रेजी हुकुमत ने इन्हें पकड़कर राजहारा कोठी स्थित बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी। संख्या स्पष्ट नहीं हो पाता है । रामाकांत पांडेय ने कहा कि 1857 में हुए विद्रोह की स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है। हां यहां एक आंदोलन हुआ था। इसमें कई लोगों की जाने गई थी। वह कौन थे और कहां से आए थे इसकी जानकारी स्पष्ट नहीं हो पाती। राजहारा निवासी बंशीधर पांडेय ने बताया कि वे अपने दादा राम चरित्र पांडेय व पिता मुनी पांडेय से राजहारा कोठी स्थित शहीदों की कहानी सुनी है। राजहरा कोठी की घटना सही है। इसमें कितने लोगों को फांसी दी गई जानकारी नहीं। ऐसी जगह की पहचान विश्व पटल पर मिलनी चाहिए।

 

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