अपर बाजार के भीड़-भाड़ इलाके में सौ साल से एक पुस्तकालय चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
गोविंद
भवन के दूसरे तल्ले पर चल रहे इस पुस्तकालय में कभी रांची के साहित्यकारों
का जमघट लगता था। यहीं से कहानी के प्लाट निकलते थे, विचारों की सरिता
निकलती थी। पर, अब बेहद उदास, अपने पुराने समय को याद करता हुआ झपकी ले रहा
है। आलमारियों की किताबें कब से न जाने सूरज की किरणों से अठखेलियां को
तरस रही हैं। शीशे में बंद इतिहास के पन्ने सालों से हाथों के कोमल स्पर्श
पाने को लालायित हो रहे हैं। धूल फांक रही ये किताबें, जो खूब बातें करना
चाहती हैं, चहचहाना चाहती हैं, गुनगुनाना चाहती हैं, परियों के किस्से
सुनाना चाहती हैं, रॉकेट का राज बताना चाहती हैं, गंगा की यात्रा कराना
चाहती हैं और वेद-पुराण, उपनिषद, महाभारत का आंखों देखा हाल बताना चाहती
हैं, लेकिन हम उसकी ओर पीठ के बल खड़े हैं।
दमकता इतिहास स्वागत को बेताब
ज्ञान
की बह रही सरिता का स्पर्श करना भी हम नहीं चाहते। यहां जाएंगे तो एक
दमकता इहिास आपका स्वागत करेगा। सालों पुरानी पत्रिकाएं, जिनके बल हिंदी
जवां हुई, फैली, पसरी और लोगों के दिलों में जा बसी- यह सब कहानी, यहां आप
सुन सकेंगे। देश के बनते इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य के निर्माण की पूरी
कहानी यहां दर्ज है। दर्ज है, एक गुमनाम अतीत। शीशे में बंद काठ पर उकेरी
ओडिय़ा लिपि में प्राचीन साहित्य, जिसे अब दीमक पढऩे की कोशिश में लगे हैं।
1918 में पड़ी थी नींव
तो,
इस संतुलाल पुस्तकालय से पहले 1918 के आस-पास रामदेव मोदी व मामराज शर्मा
के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी। बाद में यह पुस्तकालय विलीन
हो गया। मामराज शर्मा छोटानागपुर पत्रिका के संपादक थे। पत्र के माध्यम से
वह इस पठार में दर्जनों बोलियों की बीच हिंदी की सेवा करते थे। उनकी
मृत्यु के बाद पत्रिका बंद हो गई और हस्तलिखित रूप से निकाली जाती रही।
इसके बाद 1924 में हिंद स्वाधीन पुस्तकालय की स्थापना की गई। स्थापना के दो
साल बाद ही यह भी लड़खड़ाने लगी। तब समाजसेवी गंगा प्रसाद बुधिया ने इसे
पकड़ लिया। गंगा प्रसाद ने अपने स्वर्गीय भ्राता संतुलाल के नाम पर इसका
नामकरण कर दिया। 1933 में इसे अपना नया भवन मिला। इसके बाद तब से यहीं पर
है। पुस्तकालय एक बड़े हाल में है। दीवारों में लगी हुई आलमारियों में
पुस्तकें सजी हैं। दूसरे तल्ले का उद्घाटन 10 नवंबर, 1960 को हुआ था, जिसकी
अध्यक्षता डा. राममनोहर लोहिया ने की थी।
क्या-क्या है
हिंदी
स्वाधीन पुस्तकालय से कुल 779 पुस्तकें मिली थीं। 1955 में पुस्तकों की
संख्या 11 हजार पार कर कई। 1960 में चौदह हजार और आज यहां पचास हजार से कम
पुस्तकें नहीं होंगी। यहां संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी की हजारों पुरानी
किताबें हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का हिंदी में साहित्य यहां कई खंडों में
उपलब्ध है। उसके आरंभिक अनुवादकर्ताओं के बारे में भी आप जान सकते हैं।
1966 में यहां दस दैनिक समाचार पत्र, 14 साप्ताहिक पत्र, दो पाक्षिक 42
मासिक, 10 बालोपयोगी पत्रिकाएं आती थीं। आर्यावार्त, नवभारत टाइम्स,
प्रदीप, विश्वमित्र, हिंदुस्तान, हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, इंडियन नेशन, सर्च
लाइट, टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन जैसे दैनिक पत्र आते थे। अब तो बस रांची
से निकलने वाले पत्र ही आते हैं, लेकिन इन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी
फाइलें यहां देख सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में अमेरिकन रिपोर्टर,
आदिवासी, आर्य मित्र, दिनमान, धर्मयुग, ब्लिट्ज, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे
दर्जनों पत्रिकाएं आती थीं। मासिक पत्रों में ज्ञानोदय नेशनल
माक्र्ससिस्ट, बिहान जैसे पत्र थे।
रेडियो के लिए जुटती थी भीड़
यहां
रेडियो भी सुनने के लिए लोग जाते थे। कोलकाता के निवासी देवकीनंदन तोदी ने
पुस्तकालय को एक रेडियो सेट दिया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से
समय-समय पर फिल्म शो भी हुआ करता था। काफी लोगों की भीड़ यहां जुटती थी।
अनमोल हैं पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें
पुस्तकालय
में बीसवीं सदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं। हंस, बालक, सरस्वती
के दुर्लभ अंक यहां देखे जा सकते हैं। इसके अलावा कई दुर्लभ पुस्तकें भी
देख सकते हैं। जो यहां हैं, वह कहीं नहीं है। पर, इस पुस्तकालय के प्रति
यहां के पढऩे-लिखने वालों ने भी अपना मुंह फेर लिया है। यहां रांची विवि
है, शहर में आधा दर्जन कालेज है, लेकिन हिंदी का शोधार्थी शायद ही कभी जाता
हो। हिंदी की रोटी खाने वालों को भी इस खजाने की चिंता नहीं है। होती को
किताबों पर धूल की परतें न जमा होतीं। पुस्तकालय सहायक एनके मिश्रा क्या कर
सकते हैं? वह तो समय से आते हैं, खोलते हैं। पाठक आते हैं, अखबार पढ़ते
हैं। चले जाते हैं। हालांकि धर्म के नाम पर लाखों फूंकने वाला समाज साहित्य
के प्रति इतना उदासीन क्यों है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें