मुसलमानों
 ही नहीं, आदिवासियों और ईसाइयों के बीच उर्दू के प्रचार-प्रसार को लेकर 
आजादी से पहले पटना के सुहैल अजीमाबादी ने रांची में कई स्कूल खोले। 1941 
से 46 तक करीब तीस उर्दू स्कूल खुल चुके थे, लेकिन इसी बीच आजादी की 
सुगबुगाहट तेज हो गई। कई जगह दंगे भड़क गए और दंगों के कारण यह अभियान बंद 
कर देना पड़ा और सुहैल फिर वापस पटना चले गए। 
सुहैल अजीमाबादी 
के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। उनमें देश की आजादी की भावना कूट-कूटकर 
भरी थी और इसके साथ उर्दू के प्रचार-प्रसार की भावना भी कम न थी। जुलाई, 
1911 में उनकी पैदाइश पटना में हुई। अपने बारे में लिखा है, नाम 
मुजीब-उर-रहमान है, लेकिन सुहैल अजीमाबादी के नाम से प्रसिद्ध हूं। बिहार 
के एक जमींदार के यहां सन 1911 में पैदा हुआ, जन्मतिथि ज्ञात नहीं।
अपने
 मकान के बारे में लिखा है, बात यह है कि मेरा मकान जिला पटना में ही है, 
लेकिन मैं पैदा हुआ पटना शहर में। आज पटना यूनिवर्सिटी का जहां इकबाल 
हॉस्टल है, वही मकान था, जिसमें मेरा जन्म हुआ। 
सुहैल साहब का 
परिचय बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक से हुआ तो उनके मुरीद ही हो गए। उनके 
निर्देशन पर उर्दू भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए छोटानागपुर 
जैसा आदिवासी क्षेत्र चुना। रांची में छोटानागपुर और उर्दू मरकज नाम से एक 
संस्था की स्थापना की। यह संस्था फरवरी, 1941 के बाद स्थापित हुई थी। उर्दू
 मरकज द्वारा सुहैल अजीमाबादी ने मुसलमानों में ही नहीं, आदिवासियों में 
उर्दू भाषा को लोकप्रिय बनाने और उसमें रुचि उत्पन्न कराने का काम किया। 
रांची में उन्हें मिस्टर उम नविल पटू जैसे उर्दू के अध्यापक का सहयोग मिला।
 उन्होंने रांची में एक हॉल किराये पर लेकर स्कूल स्थापित किया। यह काम आगे
 बढऩे लगा। बाबा-ए-उर्दू ने तीन सितंबर, 1941 को एक लंबा पत्र लिखा। उसमें 
यह भी लिखा, ईसाइयों में उर्दू खूब फैलाइए। यह बहुत बड़ा काम है, बल्कि 
बड़े पुण्य का काम है।
सुहैल उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए ईसाई
 और आदिवासियों के रीति-रिवाजों और उत्सवों में भाग लेने लगे थे ताकि 
मैत्री बढ़े। ईसाइयों में अपनी योजना को फैलाने के लिए अजीमाबादी को 
रेविरेंड स्मार्ट का सहयोग मिला था। इन सबके बावजूद वह अंजुमन से या मौलवी 
हक से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता लेने को तैयार नहीं थे। 
सुहैल
 ने रेवरेंड स्मार्ट को पचास रुपये मासिक पर ईसाइयों में उर्दू के प्रचार 
के लिए मना लिया था। उर्दू मरकज के लिए भूमि भेंट में ली। ईसाई बच्चों को 
उर्दू सीखने पर पुरस्कार देना शुरू किया। उर्दू स्कूलों की संख्या बढ़ाई 
गई। संताल में भी उर्दू के लिए मरकज स्थापित किए। 
1941 से 1946 
तक खूब तेजी से उर्दू का प्रचार-प्रसार हुआ। स्कूल खुले। छोटानागपुर से 
लेकर संताल परगना तक। लेकिन 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो इसका असर इस 
संस्था पर भी पड़ा। सुहैल को अपना मिशन छोडऩा पड़ा। विभाजन से पहले सात 
सालों में करीब तीस स्कूल स्थापित हुए थे। लेकिन देश बंटवारे ने सब खत्म कर
 दिया। मौलवी साहब पाकिस्तान चले गए। मरकज को भी बंद कर देना पड़ा। सुहैल 
रांची से पटना लौट गए। 
रांची से सुहैल अजीमाबादी की वापसी देश 
विभाजन के दंगों के बाद हुई थी। उन सांप्रदायिक दंगों में उनके घर की 
बर्बादी भी हुई थी, जिससे प्रभावित होकर रामानंद सागर ने अपना उपन्यास 'और 
इंसान मर गयाÓ का समर्पण सुहैल अजीमाबादी के नाम किया था। सुहैल की बाद में
 1955 में आकाशवाणी में नियुक्ति हो गई। श्रीनगर में सेवा-भार संभाला। फिर 
दिल्ली आए और पटना में 1970 में अवकाश ग्रहण किया। सुहैल एक अच्छे कहानीकार
 थे। इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी खूब लिखा। तहजीब, पटना, 
मार्च 1953 के अंक में बिरसा भगवान, बिहार के आदिवासी आदि लेख लिखे। उनका 
निधन 29 नवंबर 1979 को इलाहाबाद में हुआ। वे दिल्ली गए थे एक कार्यक्रम में
 भाग लेने। वहां से 26 को इलाहाबाद आए और प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय के घर
 पर ठहरे। यहीं पर दिल का दौरा पड़ा और 29 को अंतिम सांस ली।   
सुहैल
 साहब 20 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1932 में वे कलकत्ता 
के अखबार हमदर्द से जुड़ गए। उनके अंग्रेज विरोधी एक संपादकीय पर जब अखबार 
से जमानत मांगी गई तो हमदर्द बंद हो गया। इसके बाद वे मौलवी अब्दुल हक के 
मिशन में लग गए और रांची चले आए उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए। यहां उर्दू
 का प्रचार तो किया ही, कुछ लिखा भी। कहानी, नाटक, शायरी। हर विधा में 
उस्ताद थे। लेकिन आज रांची ही उन्हें भूला बैठा है। 
 
 
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