


मैग्नोलिया पॉइंट के पास दो-तीन घर आदिवासियों के हैं, जहां सालों से पोचारा नहीं हुआ है। हां, यहां की फर्श पर नई टाइल्स बिछाई जा रही है। लोग आकाश की ओर टकटकी लगाए देख रह हैं, कब सूर्यास्त हो...।
इधर, गोधूलि बेला में आकाश सिंदूरी हो रहा था। दूर गायों के गले की लय में बजती घंटियां धीर-धीरे पास आती हुईं तेज हो रही थीं। गायों के गले में बंधी घंटियों और उनके खुरों की लय एक नए लोकतंत्र का राग रच रही थी। सड़क किनारे खड़े विमल 3500 फिट की ऊंचाई पर ढलती सांझ की हवा में सिहरन महसूस करते हुए कहते हैं कि इधर किसकी हवा बह रही है, कहना मुश्किल है? इस पसेरी पाट के टोले में 45 घरों में उरांव की आबादी ज्यादा है। कुछ दूसरे भी हैं। अभी सब धनकटनी में लगे हैं। नेता लोग दिन में आते है तो किसी से भेंट नहीं होती। सजग और सचेत युवा विमल विकास की बात करते हैं। वह अकेले नहीं हैं। विकास की बात रांची से 150 किमी दूर इस सुदूर पहाड़ के लोग भी करने लगे हैं। नेतरहाट तक आने वाली सड़कें पतली जरूर थीं, पर चमक रही थीं। यह चमक बनिया लकड़ा के चेहरे पर भी दिख रही थी। बनिया 68 के थे लेकिन 50 के लग रहे थे। वे 32 साल तक नेतरहाट स्कूल में क्लर्क रहे। उनकी बातों में साफगोई झलक रही थी। कहने लगे, पांच साल पहले इस सड़क पर चलना मुश्किल था। लेकिन अब रात-बिरात कोई डर नहीं। आदिवासियों का जीवन बदला है। अभी जो सोलर लाइट से सड़क उजियार दिख रही है, पांच साल पहले नहीं थी। घुप्प अंधेरे में सड़कें भी डराती थीं। महुआडांड़ के अजय उरांव कहते हैं कि लोकतंत्र में आदिवासियों का विश्वास बढ़ा है। नक्सलियों के तंत्र कमजोर हुए हैं। आदिवासी समाज तो पहले से ही लोकतांत्रिक रहा है। हमारा विश्वास समूह और समुदाय में है। यह और मजबूत हुआ है। आदिवासी अब किसी जात-पांत में नहीं बंटते। उन्हें विकास चाहिए। जो विकास करेगा, वह जितेगा। अजय यह कहना नहीं भूलते कि पहले तो नेतरहाट की घाटी में दिन में भी दो पायों से डर-भय लगता था। अब तो कभी भी गुजर सकते हैं। इसके पीछे लोकतांत्रिक चेतना ही है। अब आदिवासी समाज फिर से उस परंपरा को जीवित कर रहा है। समाज और समुदाय की आस्था भी मजबूत हुई है। सांझ गहरा गई थी... इस पहाड़ पर पार्टी का शोर सुनाई पडऩे लगा था...।
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