जिन्‍हें 42 गांव के लोग देवदूत मानते थे

दिशोम गुरु शिबू सोरेन के झारखंड आंदोलन के सिपहसालारों में एक नाम कालीचरण मांझी का भी शामिल था। 20 फरवरी 2020 को झारखंड आंदोलन का यह अनमोल रत्न खो गया। बोकारो जिले के जरीडीह प्रखंड के कुकुरतोपा गांव के फागु हांसदा के पुत्र कालीचरण मांझी खुद को जंगल का बेटा कहते थे। जंगल बचाने के अभियान के साथ-साथ अंधविश्वास, डायन प्रथा, नशाखोरी सहित अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ  भी लोंगो को जागरूक करने में तीस साल से लगे थे। झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कालीचरण मांझी का रहन-सहन पचास साल पूर्व जैसा था। इनकी सादगी का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि इनके तन पर केवल धोती और
माथे पर पगड़ी रहती थी। ये चप्पल तक नहीं पहनते थे। चाहे वह कंपकपाती ठंड हो या चिलचिलाती धूप। एक बार जरीडीह थाना के प्रभारी त्रिपाठी जी ने इन्हें लाल रंग का एक कुर्ता भी दिया, लेकिन इन्होंने उसे कभी पहना नहीं। मांस-मदिरा से दूर रहने वाले कालीचरण प्रतिदिन सुबह अपने घर का काम काज कर, जलपान कर अपने अभियान में निकल जाते थे। सुबह से शाम तक इस गांव से उस गांव तक भ्रमण करना इनकी दिनचर्या में शामिल थी। इनकी सेवा भाव को देख कर आस पास के 42 गांवों के लोग इन्हें देवदूत मानते थे।

कहा जाता है कि काला होने की वजह से माता-पिता ने इसका नाम काली रखा, लेकिन यही काली समाज में जागरूकता की किरणें बिखेरते रहे। उम्र के इस पचहत्तरवें पड़ाव पर भी वे बिल्कुल स्वस्थ थे। जीवन में इन्होंने कभी डॉक्टर से अपने लिए दवा नहीं ली थी। एक दो बार जब भी खेती किसानी में हल कुदाल से चोट लगी, जंगलों के जड़ी-बूटी से खुद इलाज कर लिया।
शिक्षा के नाम पर तीसरी कक्षा तक ही अक्षर ज्ञान हो पाया था। लेकिन हिंदी, संताली और बंगला और उर्दू के शब्दों और संस्कृत के श्लोक भी धारा प्रवाह बोल लेते थे। अपनी  कमाई का कुछ हिस्सा बीमार लोगों को अस्पताल पहुंचाने ओर जरूरतमंद गरीबों के आवेदन सक्षम अधिकारी तक पहुंचाने में खर्च कर देते थे।  अधिकारी भी इनकी बातों को बड़ी गंभीरता से सुनते थे, क्योंकि ये खुद के लिए नहीं, बल्कि गांव और ग्रामीणों के हित में कार्य करते थे। वे पूरे क्षेत्र में ये पर्यावरण मित्र और आदिवासी संस्कृति के रक्षक के रूप में जाने जाते रहे। इनके जेहन में गांव के बारे सोच था कि गांव का विकास हो, हिंसाविहिन हो, लोग गांव में मेल मिलाप के साथ अच्छी तरह से जीवन-यापन करे। संताली समाज के पंचायती में इन्हें लोग बुलाते रहे।
एक बार 1987 में इनकी बेटी की तबीयत खराब थी, ये आटा लाने के लिए बगल के गांव गोपालपुर गए थे, तो कुछ लोगों ने इसे जान से मारने की साजिश रची, लेकिन वे असफल रहे। ये जान बचाकर भागे। ये बगल के गांव कुलांगगुटू के एक घर में जा छिपे। वहां से इन्हें रामसुंदर बेसरा और चतुर बेसरा ने इन्हें इनके गांव तक पहुंचाया। अपनी जान बचाने के लिए उस रात इन्हें साड़ी पहन कर छद्म वेश में अपना घर आना पड़ा। 2010 में मुखिया का चुनाव और 2015 में जिला परिषद का चुनाव भी लड़ा, लेकिन इन्हें सफलता नहीं मिली। 1970 से ये वन बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे। इनका कहना था कि वन नहीं रहने से मानव का कल्याण नहीं हो सकता है। जीवन के हर मोड़ पर हमें इनकी जरूरत पड़ती है। सुबह उठकर दतवन भी हमें जंगल से ही मिलती है। शादी विवाह में मंडप के लिए डाली पत्ता जंगल से ही मिलती है। लड़की की शादी में महुआ डाली और लड़के के शादी में आम की डाली, भोज के लिए सखुआ का पत्ता भी हमें इसी जंगल से ही मिलता है।                                                                     
-मनोज कुमार कपरदार

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