सौ साल पहले महज दो हजार आबादी का शहर था रांची

#रांची की आबादी #1905 में दो हजार थी। #जालान,#मोदी, #खेमका, #रूइया, #बुधिया, #पोद्दार आदि जाति के दो-दो-चार-चार परिवार ही थे। #जैनियों में #जोखीराम का परिवार और रतनलालजी का परिवार था। रांची समुद्रतल से #2500 फीट ऊंचा होने के कारण यहां का मौसम गर्मियों में भी ठंडा रहता था। बिहार की राजधानी #पटना में रहने वाले अंग्रेज #गवर्नर महोदय के लिए गर्मी से बचने के लिए यहां कोठियां, बंगले आदि बनाए गए थे। साथ ही #रांची के चारों तरफ जंगल होने के कारण #आदिवासी रहा करते थे। उस समय मजदूरी #राजमिस्त्री की पांच आने रोज, कुली का काम करने वाले की तीन आने रोज और काम करने वाली औरतों की दो आना रोज थी। रांची में जो #आदिवासी काम करने आते उनकी वेश-भूषा विचित्र होती थी। पुरुषों के बड़े बाल, जिन्हें वे घुंघराले कर सजाते थे। #कानों में बड़े छेद जिसमें बांस की पेंसिलनुमा लकड़ी छोटी-बड़ी-मोटी-पतली शौक के अनुसार पहने रहते थे। #गले और हाथ में कौडी, मूंगा या कांसे आदि के गहने बने होते थे। #कमर में एक फुट चौड़ी सूती पट्टी चार-पांच हाथों का लंगोटनुमा पहनते थे। ऊपर चद्दर से बदन ढंके रहते थे जो बच जाता आगे-पीछे या बगल में लटका लेते। आत्मरक्षा के लिए साथ में एक लकड़ी रखते। कोई-कोई तीर-कमान भी रखता। काम के समय उतार कर अलग रख देते। वे बड़े मेहनती होते थे। सुबह सात-आठ बजे ही काम पर आ जाते थे और संध्या पांच-छह बजे तक काम करते थे। #सुबह वे अपने घर से खाकर आते और काम पर से जाने के बाद अपने घर पर भोजन करते। #दोपहर टिफिन के समय अपने साथ लाया सत्तू पानी में घोलकर पीते या सत्तू में हरी मिर्च और कच्चा आम या इमली डालकर उसके लड्डू बनाकर खाते। त्योंहारों और छुट्टी के समय #मनोरंजन और अपनी स्फूर्ति के लिए अपने घर में चावल #हांड़ी में सड़ाकर बनाई हुई शराब पिया करते थे जिसे वे #हडिय़ा कहते थे। काम करते समय जब भूल होती तो आपस में एक दूसरे को ताना देते कि आज #हडिय़ा पीकर आया है। इनके नाम भी हमलोगों के दिनों के नाम पर होते जैसे सोमरा, मंगला, बुधवा, शुक्रा, शनीचरा इत्यादि। इनकी स्त्रियां काम पर आती वे भी काफी मेहनती होती थीं। नाम भी उसी तरह होते केवल पुलिंग की जगह स्त्रीलिंग हो जाते यानी सोमरी, मंगली, बुधनी, शनिचरी इत्यादि। 

रांची में सिनेमा और सर्कस का खेल
रांची में उस जमाने में मुसलमानों के साथ जैसे स्कूल में बच्चे पढ़ते थे, वैसे ही मुहर्रम पर निकलने वाले ताजियों में सम्मिलित होते। मुसलमान घरों में भी काम-काज के लिए रखे जाते थे। घोड़ा गाड़ी में कोचवान, सईस मुसलमान रहते। घरों में भी आदिवासी स्त्रियां बहुत सस्ते में काम के लिए मिल जाया करती थीं। बीच-बीच में नटों के खेल देखने को मिलते। सर्कस भी साल में एक दो बार आया करते थे। आंध्र प्रदेश का राममूर्ति भी रांची आया और उसने लोहे की सांकल तोड़ी और अपनी छाती पर से हाथी गुरवाया।
रांची में जब पहली बार सिनेमा आया तो जनता को मुफ्त दिखाया गया था-यह एक आश्चर्य की बात थी। पीठिया टांड़ जहां हर बुधवार और शनिवार को बाजार लगता था, उसमें ही चार बासों को खड़ा कर सफेद कपड़ा बांधा गया और चलते-फिरते दृश्य दिखाए गए। ये रंगीन भी नहीं थे और बोलते भी नहीं थे फिर भी जनता के लिए आश्चर्य की चीज थी, जिसे देखने के लिए बहुत भीड़ इक_ी हुई। 


#एक #मारवाड़ी की #जीवनी का एक अंश।
तस्‍वीर सौ साल पुरानी, रांची का मेन रो
सौजन्‍य, #
एके पंकजजी
#ranchinama
#रांचीनामा

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